और मैं साहित्यकार बन गया Kishore Sharma Saraswat द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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और मैं साहित्यकार बन गया

 

और मैं साहित्यकार बन गया

(एक सच्ची कहानी)

 

मुझे जीवन में कुछ नया करने, पढ़ने व लिखने का शौक बचपन से ही रहा है। दसवीं-ग्यारहवीं कक्षा में शिक्षा ग्रहण करते समय कुछ लेखन का कार्य किया, परन्तु पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उसे आगे नहीं बढ़ा पाया। सरकारी सेवा में आया तो काम के बोझ और पारिवारिक जिम्मेदारियों से निकलने का समय ही नहीं मिला। यह दीगर बात है कि सरकारी सेवा में रहते हुए मैं कुछ ऐसे पदों पर नियुक्त रहा जहाँ पर लेखन का कार्य मुझे सौंपे गए कार्यों का एक हिस्सा था। परन्तु लेखन के माध्यम से आम लोगों के साथ न जुड़ पाने के लिए मन में सदैव एक टीस सी बनी रहती थी।

मन में दबे हुए भाव कभी न कभी तो बाहर निकलते ही हैं। यही कुछ मेरे साथ भी हुआ। फ़र्नीचर के बाज़ार से लिखने के लिए विशेष आकार का एक मेज़ और कुर्सी खरीद कर लाया। परन्तु समय के अभाव में वे एक वर्ष तक ज्यों के त्यों रखे रहे। इसके पश्चात् गुस्से की वह पराकाष्ठा मेरे जीवन में आई, जिसे मैंने अवसर में बदलकर अपने लेखन को आगे बढ़ाया। हुआ यूँ कि राज्य सचिवालय में स्थानांतरण आधार पर जाने से पूर्व मैं जिस विभाग में कार्यरत था वहाँ पर स्थाई कर्मचारी होने के फलस्वरूप मेरा पुनग्र्रहणाधिकार सुरक्षित था। कुछ समय पश्चात् उस विभाग में संयुक्त निदेशक (प्रशासन) का एक पद रिक्त हुआ, जिसे विभाग द्वारा एक विद्युत इंजीनियरींग के अधिकारी को क्षेत्रीय कार्यालय से स्थानांतरित करके भर लिया गया। मुख्यालय स्तर पर अपने काडर में वरिष्ठतम अधिकारी होने के नाते मैंने लिखित प्रार्थना की कि वरिष्ठतानुसार और प्रशासकीय अनुभव के आधार पर इस पद पर मेरा अधिकार बनता है, इसलिए इस पद पर मुझे पदोन्नति दी जाए। परन्तु प्रायः यह देखा गया है कि जब भी कोई व्यक्ति विभाग छोड़कर चला जाता है तो वह विभागीय लोगों के लिए पराया हो जाता है। वे नहीं चाहते कि वह वापस आए और उनकी वरिष्ठता प्रभावित हो। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। लगभग डेढ़ वर्ष बीत जाने पर भी मुझे इस बारे में कोई सूचना नहीं दी गई।

जब हमारे विभाग की एक टीम औचक निरीक्षण के लिए उस विभाग में गई तो पता चला कि संबंधित संचिका प्रार्थना-पत्र सहित छुपाकर रखी गई है। निरीक्षण के समय यह भी पाया गया कि विभाग में अधिकारियों की संख्या सहायकों की संख्या के अनुपात में बहुत अधिक है जो कि सरकार द्वार निर्धारित मानदंडों के विपरीत है। इस आधार पर उस विभाग का कार्य अध्ययन किया गया और कार्यभार के अनुसार कुछ उच्च पदों को समाप्त करने और कुछ निम्न स्तर के पदों को सृजन करने की संस्तुति की गई। जब यह पत्र सरकार के माध्यम से विभाग में पहुँचा तो प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था।

मैं अपने कार्यालय कक्ष में बैठा था। मुझे उस विभाग के वित्तायुक्त एवं सचिव के निजी सचिव का टेलीफोन आया। टेलीफोन का रिसीवर उठाते ही वह पंजाबी भाषा में ऊँची आवाज में बोलाः

‘'ओए शर्मा! तूं बंदा (इंसान) बणना (बनना) कि नहीं? साहब तेरे तों बहुत नराज़ हन (हैं)। तैनूं (तेरे को) महकमें च (में) वापस बुलाके ठीक करना हैगा। महकमें दे सारे अफसर साहब कोल (पास) आके (आकर) खड़े ने, ते कह रहे हन (हैं) कि तूं उनादे नक विच (उनके नाक में) दम कर रखेया हैगा। रोज उनादी (उनकी) चैकिंग करवांदा हैगा, ते पोस्टां बी (भी) खत्म करवा रेहा हैगा।'

हम दोनों एक-दूसरे को बहुत पहले से जानते थें। मैंने उसे अपना परिचय दिया तो वह धीमी आवाज में बोलाः

'ओ शर्मा जी, तुसी (तुम) हो I साहब बहुत नाराज हन (हैं)। तुहानूं(तुम्हें) महकमें च वापस बुलाण वासते चिट्ठी लिख रहे हन।'

मैंने उससे कहा कि इस काम से मेरा कोई वास्ता नहीं है और न हीं निरीक्षण पर गया अमला मेरे अधीन है।

इस बात से दूसरे दिन उस वित्तायुक्त महोदय का एक अर्धसरकारी-पत्र हमारे विभाग के वित्तायुक्त महोदय के नाम से प्राप्त हुआ। पत्र में लिखा था कि उनके विभाग में अधिकारियों की बहुत कमी है, इसलिए इस अधिकारी को तुरंत भारमुक्त किया जाए और आदेश दिए जाएं कि वह विभाग में आकर तुरंत रिपोर्ट करे। वित्तायुक्त महोदय ने मुझे बुलाकर पूछा तो मैंने उन्हें सारी बात से अवगत करवाया और कहा कि सर, मैं स्थानातंरण आधार पर आया हूँ। मैं विभाग में पुनग्र्रहणाधिकार की वजह से अपनी स्वेच्छा से तो वापस जा सकता हूँ, परन्तु विभाग मुझे वापस नहीं बुला सकता। दूसरे मेरे नियोक्ता मुख्य सचिव महोदय, हैं। यह पत्र उनके नाम आना चाहिए था। पत्र का उचित उत्तर तो उस विभाग के वित्तायुक्त महोदय को भेज दिया गया, परन्तु मेरे मन को इस बात से बहुत पीड़ा पहुँची। अपनी पूरी सरकारी सेवा के दौरान मैंने बहुत मेहनत, ईमानदारी और लगन से कार्य किया था, जिसके कारण सभी अधिकारी मुझे बहुत सम्मान देते थे। मेरे उत्कृष्ट कार्य के लिए मुझे उच्च अधिकारियों से कई प्रशंसा-पत्र भी मिल चुके थें।

उस दिन शाम को जब मैं घर आया तो मन में बहुत क्षौभ और पीड़ा थी। मैंने सोचा गुस्सा करके क्या मिलेगा? अपना ही नुकसान होगा। क्यों न इस गुस्से को सकारात्मक ऊर्जा में बदल कर लाभ उठाया जाए। खाना खाने के पश्चात् मैं पैंन और कागज लेकर मेज़-कुर्सी पर आकर बैठ गया और लिखना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार मैंने अपने विक्षोभ को अवसर में परिवर्तित करके अपना पहला उपन्यास 'मेरा देश' तीन महीने के अंतराल में लिख डाला। यह मेरे क्रोध की ही सकारात्मक परिणति थी, जिसने मुझे लेखन के इस मुकाम तक पहुँचाया।

मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हम विपरीत परिस्थितियों से न घबराकर और नकारात्मक सोच को सकारात्मक भाव में लाकर अपनी ऊर्जा का सदुपयोग करने की कला (कौशल तथा ज्ञानोदय का काल) सीख जाएं तो किसी भी ऋणात्मक वस्तु को सहज से उपयोगी बनाया जा सकता है। इंसान की जिंदगी कोई कंकड़-पत्थर रहित सपाट मैदान तो है नहीं, जिस पर बिना किसी भय के विचरण किया जा सके। यह तो अवांछनीय डगरों से भरी पड़ी है। आवश्यकता है सोच-समझकर चलने की और अपनी आत्मिक शक्ति को पहचानने की। आत्मिक शक्ति से ही क्रोध पर नियंत्रण पाया जा सकता है और उसे सुअवसर में परिवर्तित किया जा सकता है।

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