कौवा बाबा
गोपी यूँ तो सुबह जल्दी उठने में कंजूसी बरतता था, परन्तु आजकल गर्मियों की सुस्ती भरी भोर भी उसे बिस्तर पर रोक पाने में अपने को ठगा सा महसूस कर रही थी। मानो अस्सी वर्ष का वो बूढ़ा अपने बुढ़ापे का लबादा फेंक कर पुनः जवान हो गया हो। अरूणोदय पूर्व ही वह एक सैनिक की भांति अपना मोर्चा सम्भालने के लिए पूरी तरह तैयार हो जाता। तन पर धोती और बंद गले का कमीज़, सिर पर सफेद टोपी और हाथ में बाँस की लाठी लिए, वह अपनी मंज़िल को तलाशता हुआ धीरे-धीरे खेतों की ओर निकल पड़ता। खेतों में उसका आम जो पूरे यौवन पर था। बेचारा अविवाहित था, परन्तु उसके आम पर यदि कोई पत्थर मारने की हिमाकत करता तो पिता की भूमिका निभाने में वह कोई कसर बाकी न छोड़ता। उसके इस खौफ के कारण आम के नज़दीक फटकने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। आम के साथ गोपी का लगाव कोई यूँ ही नहीं था। यह तो वह अटूट रिश्ता था जिसमें उसके पूर्वजों की यादों का समामेलन था। ऐसा होना भी स्वाभाविक था, क्योंकि उसका आम उसके परदादा की निशानी जो ठहरा था। अपने भारी भरकम तने और विशाल शाखाओं के साथ, लगभग दो बीघा ज़मीन पर, इस वृक्ष का फैलाव था। छाया इतनी घनी और शीतल कि ज्येष्ठ महीने की तपिश भी उसके सामने अपने आप को असहाय सा महसूस करने लगती थी। आम के प्रति उसके इस अटूट रिश्ते और अथाह प्रेम की वजह से लोगों ने उसे ‘कौवा बाबा’ ने नाम की संज्ञा दे डाली थी। उनकी नजरों में वह आम के पेड़ पर बैठे हुए कौवा पक्षी से कम न था।
जून के महीने की शुष्क और आलस्य भरी सुबह गोपी पर एक दम प्रभावहीन थी। हो भी क्यों न, पेड़ पर आम जो पक चुके थे। वह जल्दी-जल्दी तैयार हुआ। कपड़े के एक छोटे टुकड़े में नमक लगी दो रोटियाँ लपेटी और फिर उन्हें एक प्याज के साथ थैले में डालकर कंधे पर लटका लिया। बाएं हाथ से लम्बी गर्दन की पानी भरी सुराही थाम कर उसने दाएं हाथ से लाठी उठाई और फिर खेतों में जाने के लिए गली को अपने छोटे-छोटे कदमों से नापने लगा। नित की भाँति गांव के कुछ लड़के उस दिन भी गोपी के आगमन के पूर्व आमों पर हाथ साफ करने में व्यस्त थे। तभी अचानक एक लड़के की नज़र उसके ऊपर पड़ी। वह फुसफुसायाः
‘भागो, कौवा बाबा आ गया।’
‘कहाँ पर है?’
‘वो आ रहा है। जल्दी करो, भागो-भागो।’ की आवाजों के साथ लड़के लंगूरों की भाँति आम के पेड़ से छलागें लगाते हुए भागने लगे।
‘बदमाशों! ठहरो, कहाँ भागते हो?’ गोपी अपने हाथ में पकड़ी लाठी को ज़मीन पर पटकता हुआ चिल्लाया।
लड़के उसकी इन बातों के आदी हो चुके थे। उसकी बंदर घुड़की से उन्हें अत्याधिक आनंद का अनुभव होता था। वे भागकर एक पेड़ के पीछे जाकर छुप गए। गोपी ने आम के पास जाकर सुराही को धीरे से नीचे रखा और फिर अपने खाली हाथ से खटिया को सीधा किया। कंधे से थैले को उतार कर खटिया के ऊपर रखने के पश्चात्, वह आमों के नुकसान का जायज़ा लेने के लिए, पेड़ के चारों ओर घूमने लगा। नज़र से कम दिखाई देता था। पाँव के नीचे आम की गुठली का एहसास हुआ तो उसने झुक कर उसे हाथ से टटोला और बुड़बुड़ायाः
‘बदमाशों ने हद कर दी। ज़रा भी शर्म नहीं है इन्हें। जैसे आम इनके बापू ने लगाया हो। दोबारा इधर आए तो टांगें तोड़ दूंगा एक-एक की। आम खाने की इतनी ललक थी तो मेरे से मांग लेते। मैं कौनसे मना करता हूँ। पर इन बदमाशों को तो चोरी से खाने की आदत पड़ चुकी है।’
अपने आप से बतियाते हुए गोपी ने आम के पेड़ के चारों ओर घूम कर परिक्रमा पूरी की और फिर वापस आकर खटिया के ऊपर बैठ गया। थोड़े-थोड़े अंतराल के पश्चात जब भी पका हुआ आम नीचे गिरता, गोपी अपनी लाठी उठा कर आवाज़ की दिशा में चला जाता और उसे ढूंढ कर अपने थैले में डाल लेता। इस प्रकार प्रहर तक उसके थैले में टपके हुए आमों की अच्छी-खासी मात्रा हो जाती थी।
विद्यालय ग्रीष्मावकाश के कारण बंद थे। इसलिये बच्चों को तफरीह की पूरी छूट थी। वे ‘कौवा बाबा’ को फांसने की पूरी जुगत लगा रहे थे। अतः एक लड़के को तरकीब सूझी। वह बोलाः
‘तुम यहाँ पर ठहरो, मैं बाबा को अपने जाल में फँसाता हूँ। अगर मेरी चाल कामयाब हो गई तो तुम सभी मजे़ करोगे। शर्त यह है कि जब तक मैं वापस न आ जाऊँ, तुम यहाँ से हिलोगे नहीं।’
‘ठीक है, हमें तेरी शर्त मंजूर है।’ सभी एक स्वर में बोले।
लड़का दूरी बनाकर निकलता हुआ, गाँव के रास्ते से गोपी के पास पहुँचा और बोलाः
‘कौवा बाबा, पाँव लागूँ।‘
‘जीता रह बेटा, तेरी बड़ी लम्बी उम्र हो। बोल बेटा कैसे आना हुआ?’ गोपी उसके सिर के ऊपर अपना दाहिना हाथ आशीर्वाद के रूप में घुमाता हुआ बोला।
‘बाबा! इधर से निकल रहा था, आप पर नज़र पड़ी सो मिलने चला आया। वो कहते हैं न कि बड़ों की छाया में सुख मिलता है। बस आपका आशीर्वाद लेने चला आया।’ वह अपनी धूर्तता के ऊपर शालीनता का लबादा ओढ़ता हुआ बोला।
‘धन्य हो बेटा, तेरे माता-पिता का, जिन्होंने तुम जैसी अच्छी संतान को जन्म दिया है, वरना आज कल के बच्चे तो शैतान की औलाद से कम नहीं होते हैं। बेटा, उन पाजियों की हरकत बतलाता हूँ तुझे। आज सुबह जब मैं घर से यहाँ पर पहुँचा तो वह बंदरों की औलाद आम की एक-एक डाल पर घूम चुकी थी। मुझे देखते ही चंपत हो लिए।’
‘बाबा, ये अचंभा कैसे हो गया? यहाँ पर बंदर कहाँ से आ गए? यह तो बहुत बुरा हुआ, वे तो एक भी आम नहीं छोड़ेंगे अब।’ वह विस्मय प्रकट करता हुआ बोला।
‘अरे बेटा, तू तो भोला ही रह गया। मैं उन बंदरों की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं तो उन बदमाश लड़कों की बात कर रहा हूँ जो आम तोड़ कर भागे हैं।’ गोपी हँसता हुआ बोला।
‘अच्छा.......मैं तो बाबा सचमुच के बंदर समझ बैठा था।’
‘हा...हा....हा....बेटा, वो सचमुच के ही बंदर हैं। वो कहते हैं न कि बच्चों और बंदरों में कोई अंतर नहीं होता है। वे शरारतें करनी छोड़ दें तो समझों कि बीमार हैं। बेटा उनकी शरारत तो मुझे भी अच्छी लगती है। गुस्सा तो मैं केवल दिखावे के लिए करता हूँ। मैंने कौन से आम सिर पर उठाकर लेकर जाने हैं। बच्चों के लिए ही हैं। पर बदमाश चोरी से खाते हैं, यही बात मुझे अखरती है। अब बेटा तू आया है तो मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। ले बेटा, तू ये आम चूस ले।’ वह थैले में से आम निकालता हुआ बोला।
लड़के की वाक् चटुकारिता अपना रंग दिखा चुकी थी। आमों का रसास्वादन करने के पश्चात् उसने गोपी से अलविदा ली और चुपके से अपनी मंडली में जा पहुँचा। बिना चोरी किये आम खाने का उन्हें यह एक अच्छा और सुलभ तरीका मिल चुका था। बारी-बारी से कोई न कोई युक्ति जुटा कर वे गोपी के पास आने लगे और बगैर कोई परिश्रम किए उस द्वारा बटोरे हुए आमों पर अपना हाथ साफ करने लगे। कुछ दिन तक यह सिलसिला निर्विघ्न चलता रहा। एक दिन किसी बात को लेकर लड़कों का आपस में तकरार हो गया। एक लड़के ने चुपके से जाकर पूरी बात का खुलासा गोपी से कर दिया। फिर क्या था, ज्योंही एक लड़का गोपी के पास पहुँचा, गोपी ने उसका स्वागत अपनी लाठी उठाकर किया। पूरी योजना का भाँडा फोड़ हो चुका था। अतः समस्या के समाधान हेतु गोष्ठियों का आयोजन होने लगा। आखिर उन्हें एक तरकीब सूझी, क्यों न दोपहरी का लाभ उठाया जाए। और इस प्रकार उनकी बात बन गई। प्रतिदिन दोपहर को खाना खाने के पश्चात् गोपी आराम करने के लिए अपनी खटिया पर सो जाता था। उस दिन भी उसने अपने साथ लिया हुआ खाना खाया। सुराही में से पानी पीने के पश्चात् आमों के थैले को खटिया के पाया से लटकाया और सो गया। अवसर का सदुपयोग करते हुए लड़के धीरे-धीरे, बिना कोई आहट किए, गोपी की खटिया की बगल में आकर खड़े हो गए। जब यह सुनिश्चित हो गया कि गोपी गहरी नींद में है तो वे बंदरों की भाँति आम पर चढ़ गए। आहिस्ता से पके हुए आमों को तोड़ कर वे आम की डाल के ऊपर लटकाए हुए थैले में डाल लेते। बीच-बीच में एक-आध आम भी चूस लेते थें। चूसने के पश्चात् गुठली को आम की मोटी शाखाओं पर टिका देते थे, ताकि नीचे जमीन पर गिरने की आवाज से गोपी की आँख न खुल जाए। इसी क्रिया में एक लड़के के हाथ से आम की गुठली फिसल कर गोपी के ऊपर जा गिरी। गोपी की आँख खुल गई। उसने गुठली को अपने दाएँ हाथ से पकड़ कर ऊपर उठाया और फिर बाएँ हाथ से अपना चश्मा थाम कर उसे झुक कर देखा। गुठली का आभास होने पर उसने उसे एक ओर फेंक दिया और फिर गर्दन ऊपर करके, आम की टहनियों की ओर झांकता हुआ बोलाः
‘गिलहरियों! बूढ़े के साथ मजाक करती हो, गोपी के आम हैं, सम्भल कर खाना, ज्यादा खाये हुए हज़म नहीं होंगे।’
गोपी के भोले भाले अंदाज में यह बात सुनकर वह लड़का अपने ऊपर काबू नहीं रख पाया और जोर से हँस पड़ा। हँसने की आवाज सुनकर गोपी चैकन्ना हो गया। उसने खटिया से नीचे उतर कर ज्योंही अपनी लाठी उठाई, लड़के बंदरों की भाँति टहनियों से लटक कर कूद गए और भाग गए।
‘बदमाशों! कहाँ भागते हो? कल आना तुम, फिर मैं तुम्हारी खबर लूँगा। बेशर्मी की भी कोई हद होती है। मैं अब तुम्हारी रग-रग से वाकिफ हो गया हूँ। अब तुम्हारी कोई चाल नहीं चलने दूँगा। बदमाश कहीं के.....लुच्चे।’ गोपी अकेला ही काफी समय तक बुड़बुड़ाता रहा।
गोपी अब काफी सतर्क हो चुका था। लड़के भी उसे झांसा देने के मकसद से दो-तीन दिनों से उसके आम की ओर नहीं आए थे। बच्चों की जीभ भला कहाँ अधिक समय तक आराम कर पाती। आमों के मीठे रस का स्वाद रह-रह कर उनके मुँह में पानी ला रहा था। सो हो गई आम पर धावा बोलने की तैयारी। अपने पूरे दल-बल के साथ वे आम के पास पहुँचे। परन्तु ‘कौवा बाबा’ की खटिया तो आज सूनी पड़ी थी। आम के नीचे एकदम सन्नाटा पसरा हुआ था। बच्चों की खुशी, मातम में बदल गई। आज कौवा बाबा क्यों नहीं आया? क्या हो गया है उसे? उसके बिना तो यहाँ पर एकदम वीरान लग रहा है। किसी ने सुबह से अब तक एक आम भी नहीं उठाया हैं। ज्यों के त्यों जमीन पर पड़े हैं। काफी देर तक यों ही असमंजस की स्थिति बनी रही। जिन आमों के स्वाद की ललक ने उन्हें उतावला बना रखा था, अब वही आम उन्हें निःस्वाद महसूस होने लगे थे।
ओह! ये तो कौवा बाबा की गालियों की मिठास ही थी जो इन आमों को स्वादिष्ट बनाती थी, वरना उसके बिना तो ये निरस हैं। मन मार कर उन्होंने ज़मीन पर पड़े आमों को इकट्ठा किया और फिर उन्हें उठाकर कौवा बाबा के घर की ओर चल पड़े। एक दम मौन, शांत, खामोश, निःशब्द और चुप। पूरे रास्ते भर किसी ने एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया। गाँव की संकरी गलियों से होते हुए जब वे गोपी के घर पर पहुँचे तो वहाँ पर पूर्ण सन्नाटा छाया हुआ था। कमरे के एक कोने में रखी चारपाई पर गोपी गठरी बना कराह रहा था। उसकी यह अवस्था देखकर पहले तो लड़के मूकदर्शक बने खड़े रहे, परन्तु फिर हिम्मत जुटा कर एक लड़का बोलाः
‘कौवा बाबा! क्या आप बीमार हो?’
‘कौन?’ वह उनकी ओर देखे बिना ही बोला।
‘बाबा, हम हैं।’
‘बेटा, मुझे बहुत तेज़ बुखार है। मेरी आँखें नहीं खुल रही। मैं तुम्हें देख नहीं पा रहा हूँ। किसलिए आए हो? बेटा, तुम्हीं बतलादो।’
‘बाबा, हम आपके आम चुराने वाले लड़के हैं। आपके पेड़ के नीचे आम गिरे थे, वही इकट्ठा करके लाए हैं। बाबा, हम अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हैं। बाबा, आप हमें माफ कर दो। हम प्रण करते हैं, आगे से आपके आम कभी नहीं चुराएंगे।’
‘बेटा, ऐसा मत कहो। बच्चे शरारतें नहीं करेंगे तो फिर उन्हें बच्चे कौन कहेगा। यही तो उनके बचपन की पहचान है। बेटा, जब मैं तुम्हारी उम्र का था तो मैं भी बहुत शरारतें किया करता था। तुम्हारी ये शरारतें देखकर ही तो मुझे अपना बचपन याद आता था। बेटा, अब मेरे से घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। वो आम का पेड़ अब तुम्हारा है जितना तुम्हारा मन चाहे उतने आम बिना किसी भय के ले लो। मेरा अब अंतिम पड़ाव है। पता नहीं पेड़ तक जा पाऊँगा या नहीं। अब आम की हिफाजत का पूर्ण उत्तरदायित्व तुम पर है। बेटा, देखना कोई उसे पत्थर न मारे।’
कौवा बाबा की अंतरात्मा से निकले यह शब्द सुनकर उनकी आँखें भर आईं और वे सिसकियाँ भरकर रोने लगे।
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