मैं तो श्याम रंग रांची bhagirath द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो श्याम रंग रांची

गाँव के पालीवालों की वास में एक साथ उगे नीम और पीपल के पेड़ के चारों ओर एक बड़ा चौतरा बना हुआ था। नीम की छाया गहरी और पीपल की छाया छितराई हुई थी। गर्मियों की अलसाई दोपहर में किसान लोग चौतरे पर आकर बैठते, कुछ देर बातचीत करते फिर सिर के नीचे पोतिया रख सो जाते। ऊपर पेड़ की डालों पे बैठे पंछी कभी बीट कर देते तो कभी खाई हुई निम्बोलियां गिरा देते, नींद में खलल तो पडता लेकिन वे करवट ले के फिर सो जाते। चबूतरे के पूरब में साध्वी वैष्णवी की कच्ची मढैया बनी हुई थी।  कच्ची ईंटों की दीवार और केलू की छत. अंदर एक कमरा, उसी में रसोई और आले में भगवान जी की तस्वीरें जहाँ वह दिया बत्ती करती थी।   

वैष्णवी शादी के दो साल बाद ही विधवा हो गई और उसके कोई सन्तान भी नहीं हुई। घर में एक सास थी वह भी कुछ वर्ष पहले स्वर्ग सिधार गई। अब वह रह गई अकेली। अपशुगनी समझ रिश्तेदार किनारा कर गए। तब से उसने साध्वी का सफ़ेद वेष धर लिया और भजन पूजन में व्यस्त रहने लगी। लोगों ने उसके इस रूप को स्वीकार कर लिया और आदर से उसे माई कहकर बुलाने लगे। उसके साथ लगे बाँझ, डायन, अपशुगनी जैसे लांछन भुला दिए गए। अब बच्चे भी आसपास मंडराने लगे और वह उनमें सस्ती टॉफियाँ बांटती। बच्चे उसका छोटा-मोटा काम कर देते जैसे दुकान से माचिस, अगरबत्ती, इत्यादि लाना।         

साध्वी की उमर कोई पैंतीस चालीस बरस होगी। बाल घने और काले। दीर्घ ग्रीवा में बंधी तुलसी की माला, दूसरी रुद्राक्ष की माला गले में लम्बी लटकती हुई। देह यष्टि अभी भी आकर्षक बनी हुई थी।  साध्वी कम पढ़ी लिखी थी। पूरी आस्तीन का सफ़ेद ब्लाउज, कमर में सफ़ेद घाघरा बंधा और  सर पर सफ़ेद ओढ़नी। माथे पर चन्दन की बड़ी सी बिंदी। वैसे तो साध्वियां लुंगी लपेटे रहती हैं और सिर पे गेरुआ कपड़ा या साफा बांध कर रखती है लेकिन वैष्णवी उस तरह की दीक्षित साध्वी नहीं थी, वह कोई सन्यासिन नहीं थी वह बस्ती में अपनी ही मढैया में रहने वाली अकेली विधवा औरत थी जो जीवन बिताने के लिए ध्यान-धरम और पूजा-अर्चना में लगी रहती थी। मोहल्ले वाले उसके द्वार पर कभी सीधा रख जाते खासतौर पर जब पूर्णिमा, व्रत, त्योहार का अवसर हो बाकी दिन दाल, रोटी, सब्जी दे जाते। अक्सर उसे भोजन बनाने की जरुरत नहीं होती। भोजन तो वह खास दिनों में ही बनाती जब उसे भगवान को भोग लगाना होता। अक्सर शाम का भोजन नहीं करती। साध्वी होने में सम्मान था और लोग उसे सम्मानपूर्वक माई कहकर संबोधित करके थे।   

गाँव में एक ‘भागवत कथा कमेटी’ है जो हर साल किसी न किसी महाराज को बुलाकर चारभुजा मन्दिर परिसर में कथा करवाते हैं। उनके ठहरने की व्यवस्था मन्दिर की एक बड़ी सी कोठरी में रहती और भोजन की व्यवस्था कमेटी के सदस्य और श्रद्धालु करते हैं। जाते समय उन्हें कमेटी की तरफ से दस हजार रुपये की दक्षिणा भी देते हैं।    

चारभुजा मंदिर में एक कथावाचक देवकीनंदन महाराज आए हुए थे। गेरुआ धोती के ऊपर गेरुआ अंगवस्त्र, ललाट पर लम्बा तिलक। गले में रुद्राक्ष की माला, हाथ में दंड। लम्बाई कोई पांच फीट आठ इंच होगी। बलिष्ठ देह के धनी थे। मांसल बांहों पर भी रुद्राक्ष की माला बंधी हुई थी। चेहरे पर तेज। व्यक्तित्व ऐसा कि कोई भी प्रभावित हो जाय। उम्र पैंतालीस-पचास के आसपास होगी।  

दोपहर दो बजे से शाम चार बजे तक वे कृष्ण कथा कहते, महिलाएं अक्सर इसी समय घरेलू कामों से फ्री होती थी; अत: कथा सुनने को एकत्रित हो जाती। महाराज राधा-कृष्ण की और गोपियों के साथ रास की कथा बड़े भाव विभोर होकर सुनाते थे। महिलाएं कृष्ण कथा सुनटे समय नाचती और भजन कीर्तन करती कृष्णमय हो जाती। महाराज भी बैठे-बैठे झूमते रहते। अंत में महाराज उठ खड़े होकर कीर्तन करते और राधे-राधे कहते हुए विसर्जन हो जाता।   

साध्वी वैष्णवी भी रोज कथा सुनने आती, उन्हें देखकर कथावाचक ने कहा -माई आप यहाँ पधारें, व्यास पीठ के पास बैठे आखिर आप हमारी साधु समाज की सम्मानीय हैं। बड़े अनुनय से उन्हें अपने पास बैठाया। तब से वह वहां ही बैठती। गाँव की महिलाओं में वे और भी सम्मानीय हो गई। गाँव की महिलाएं महाराज को सुबह शाम भोजन के लिए आमंत्रित करती, भोजनोपरांत दक्षिणा भी देती। वे उन्हें आशीर्वचन कहते। गृहस्थ धन्य हो जाते।      

      वैष्णवी उसी मंदिर में सुबह पूजा अर्चना के लिए आती थीं। वहीँ बैठकर आँखें बंद किये जाप करती। जब वह जाप करती महाराज पूजा करने लगते। आरती के समय वह भी उठ खड़ी होती। आरती के बाद संक्षिप्त वार्तालाप भी हो जाता। भगवद चर्चा के दौरन महाराज अक्सर वैष्णवी को नवधा भक्ति के बारे में बताते रहते - ईश्वर की लीला का श्रद्धा से श्रवण करना, आनंद और उत्साह से ईश्वर का गुणगान करते कीर्तन करना, ईश्वर का अनन्य भाव से स्मरण करना, ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना(पाद सेवन), मन वचन कर्म से पवित्र सामग्री से चरणों का पूजन अर्चन करना, गुरुजन को भगवान का अंश मानकर उनका वंदन और सेवा करना, दास्य भाव (स्वामी और दास) से ईश्वर की सेवा करना, सखा भाव (परम मित्र) से उपासना करना, भगवन के चरणों में आत्मनिवेदन कर सब कुछ समर्पण कर देना। वैष्णवी ने विस्तार से बहकती के बारे में उनसे जाना वह मन ही मन उन्हें अपना गुरु मनाने लगी।    

  कथा में राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग का गुणगान होता। महाराज ने प्रवचन में बताया कि प्रेम के माध्यम से ही राधा कृष्णमय हो गई और कृष्ण राधामय हो गए। प्रेम ही भक्ति है जहाँ भक्त और भगवान अनन्य हो जाते हैं, आठों पहर जिसका ध्यान बना रहे वही प्रेम है। साध्वी का जीवन तो प्रेम से सर्वथा अछूता था और आठों पहर की तो बात ही छोड़ दो। वैष्णवी का जीवन सूना सुनसान फैलते रेगिस्तान सा जहाँ नखलिस्तान होने का भरम भी नहीं था, जिसमें कोई रसधार नहीं जो उसे भिगो सके।  

साध्वी ने उनके सामने शंका समाधान हेतु प्रश्न किया कि वह प्रभु में प्रेम कैसे जगाए?     

‘गुरु भगवान सम होता है। उनकी वंदना और सेवा करो।’  

‘आप मेरे गुरु समान है और गुरु भगवान तुल्य होते हैं। मैं अब आपकी सेवा पूजा में रहूंगी कृपया अनुमति प्रदान करें।’  

‘प्रेम में अनुमति कैसी? प्रेम तो अनाधिकार चेष्टा भी कर सकता है।’   

‘मैं धन्य हुई।’ कहकर उनके चरणों में अपना मस्तक रख दिया। उन्होंने उसे हाथ पकड़कर ऊपर उठाते कहा- प्रेमी का स्थान ह्रदय में होता है, चरणों में नहीं अब आप हमारी हृदयस्थली में रहेंगी।’ कहकर उन्हें ह्रदय से लगाते हुए उनका माथा चूम लिया। वैष्णवी सुध-बुध खोई प्रेम की सरिता में बहती चली गई उसे क्षण भर भी खयाल नहीं आया कि कहीं कोई देख लेगा तो? लोग लांछन लगाते देर कहाँ करते हैं! रोमांच के वे क्षण अप्रतिम थे। वे क्षण अव्यक्त ही रहे तो अच्छा है।  एहसास कितने वायवी होते हैं पकड़ में ही नहीं आते। समर्पण के क्षणों में स्वयं का अस्तित्व ही विलोपित हो जाता है। गुरु के आशीर्वचन और गुरु कृपा के बरसते ही वह धन्य हो गई। मीरा की तरह कह उठी ‘पायो जी मैंने रामरतन धन पायो, वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, कृपा कर अपनायो।‘      

महाराज कहने लगे, ‘स्त्री के साथ सुविधा यह है कि प्रेम उसका स्वभाव है, ममता और वात्सल्य उसकी थाती है, वह बड़ी आसानी से दास्य व सखी भाव से आराधना कर सकती है..’ मीरा कहती है ‘श्याम मने चाकर राखो जी, चाकर रहसूँ बाग लगासूँ नित उठ दरसण पासूँ, वृंदावन की कुंज गलिन में तेरी लीला गासूँ।‘     

वैष्णवी ने तो प्रेम पर बाँध बना रखा था जो इतनी सरलता से टूट गया और प्रेम का सोता फूट पड़ा।  ‘इस पूरी नवधा भक्ति में प्रेम का कोई जिक्र नहीं है लेकिन साररूप में प्रेम ही भक्ति है।  राधा और मीरा की भक्ति प्रेमाभक्ति ही है। वही सर्वोच्च है।’ लेकिन वह यह सब वचन कहाँ सुन रही थी ! वह तो अलौकिक जगत में पहुँच चुकी थी। साध्वी का ममत्व उमड़ पड़ा, वात्सल्य और स्नेह की रुकी हुई धारा अविकल बहने लगी। वह भूल गई कि वह एक साध्वी है जिसे लोग तब तक ही पूजते हैं जब तक वह अस्पर्श्या हो और पुरुष की छाया भी उसे न छू सके।  

एक दिन प्रवचन के दौरान उन्होंने बताया कि माई रामानंदी रामानुज वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित होगी। वह मेरे साथ मथुरा जायगी और वहां दीक्षा सन्यास ग्रहण करेगी। उसके बाद हम फिर आपके बीच होंगे। दूसरे दिन मढैया के ताला लगाकर वैष्णवी चली गई अपने आराध्य के साथ वैरागी की वैरागन बन गई वैष्णवी। लोग हैं कि कुछ और ही बातें उनके बारे में करने लगे लेकिन प्रेम प्याला छलकने के बाद उसे अब किसकी परवाह नहीं थी। ‘मैं तो श्याम  संग रांची’ कहती हुई वैष्णवी नाचने लगी ।