स्वस्थ, सुंदर, गुणवान, दीर्घायु-दिव्य संतान कैसे प्राप्त करे? - भाग 1 Praveen kumrawat द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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स्वस्थ, सुंदर, गुणवान, दीर्घायु-दिव्य संतान कैसे प्राप्त करे? - भाग 1

प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में मनुष्य के लिए जन्म से मृत्यु तक सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें गर्भ संस्कार भी एक प्रमुख संस्कार माना गया है। चिकित्सा विज्ञान यह स्वीकार कर चुका है कि गर्भस्थ शिशु किसी चैतन्य जीव (Conscious entity) की तरह व्यवहार करता है तथा वह सुनता और ग्रहण भी करता है। माता के गर्भ में आने के बाद से गर्भस्थ शिशु को संस्कारित किया जा सकता है तथा दिव्य संतान (Divine Baby) की प्राप्ति की जा सकती है। गर्भ संस्कार यानी आधुनिक विज्ञान व परंपरागत संस्कृति, इन दोनों का समायोजन। गर्भस्थ शिशु की शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक परिस्थिति का मार्गदर्शन व गर्भस्थ शिशु संस्कार को ही गर्भ संस्कार कहते हैं।

गर्भ संस्कार शिशु के जगत में आगमन के उपरांत उसके साथ जीवन भर रहते हैं।

गर्भ संस्कार अर्थात गर्भ में शिशु को माँ द्वारा जीवन जीने की कला का परीक्षण है, जो माँ के अंतर्मन से शिशु के अंतर्मन में स्थापित होता है। और जो गर्भ में स्थापित हो जाता है। वही सब कुछ उस शिशु के जीवन में साकार होने लगता है। शिशु का स्वभाव, बुद्धिमत्ता आदि गर्भ में ही निर्धारित हो जाते है। गर्भ संस्कार तो मानसिक एवं अध्यात्मिक प्रक्रिया है. जिसके द्वारा गर्भस्थ शिशु का भावी जीवन निर्धारित किया जा सकता है।

गर्भ संस्कार के द्वारा ऐसे शिशु को जन्म दिया जा सकता है, जो संपूर्णतः स्वस्थ (Completely healthy) हो, सुन्दर हो, निर्दोष (innocent) हो, उसका मन मस्तिष्क (Brain & Mind) विलक्षण हो, प्रबल (strong) हो। उसके व्यक्तित्व (Personality) में आकर्षण हो जिससे सारा संसार मोहित हो जाये। सुयोग्य (Capable) और गुणवान (virtuous) हो, धैर्यवान (Patient) हो, अर्थात एक महान व्यक्तित्व के सभी गुण हों।

आज की कम्प्यूटर भाषा में कहा जाए तो मस्तिष्क को हम हार्ड डिस्क कह सकते हैं। यह हाई डिस्क गर्भवती के मस्तिष्क से जुड़ी होती है। फलस्वरूप गर्भवती के विचार, भावनाएँ, जीवन की ओर देखने का दृष्टिकोण, तर्क आदि गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क में संग्रहीत होता जाता है। परिणामतः जब वह इस जगत में आता है तो अपना एक अनूठा व्यक्तित्व लेकर आता है। इसी के कारण आनुवांशिकत रूप से एक होते हुए भी दो भाइयों में भिन्नता दिखाई देती है क्योंकि प्रत्येक गर्भावस्था के दरमियान गर्भवती की मनोदशा भिन्न होती है। आज गर्भवती अपने गर्भस्थ शिशु को संस्कार देकर तेजस्वी संतान प्राप्त कर सकती है।

गर्भसंस्कार का अर्थ है गर्भधारणा से लेकर प्रसूति तक के 280 दिनों में घटने वाली हर घटना, गर्भवती के विचार, उसकी मनोदशा, गर्भस्थ शिशु से उसका संवाद, सुख, दुःख, डर, संघर्ष, विलाप, भोजन, दवाएँ, ज्ञान, अज्ञान तथा धर्म और अध् ार्म जैसे सभी विचार आने वाले शिशु की मानसिकता पर छाए रहते हैं। अमेरिका (Texas Biomedical Research Institute) के एक वैज्ञानिक चिकित्सक Dr Peter Nathanielsz अपने अध्ययन के बाद इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि गर्भावस्था के दौरान आहार में परिवर्तन, आहार की कमी, गलत आहार सेगर्भस्थ शिशु को कई बीमारिया मिल जाती हैं। शिशु के भावी जीवन में स्वास्थ्य संबंधी क्या तकलीफें हो सकती है उसकी नींव गर्भावस्था के दौरान ही पड़ जाती है।

माँ और शिशु का स्वास्थ्य एक ओर जहाँ माता पिता के शारीरिक प्रकृति और मनोवैज्ञानिक स्थितियों पर निर्भर करता है, वहीं रहन-सहन, खान-पान व अन्य आदतों का भी सीधा प्रभाव पड़ता है। नौ महीने जैसे उस शिशु के लिए पाठशाला सी होती है। जिस पाठशाला में अपना घर मानकर शिशु अपने माँ के साथ प्रतिक्षण कुछ न कुछ सीखता रहता है। इस पाठशाला में उसे इतना सक्षम बनना होता है कि वह गर्भ से बाहर आकर इस दुनिया के रंगमंच पर अपना किरदार निभा सके। भावी माता पिता की भूमिका इसमें अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। माँ के साथ-साथ पिता के संवेदन (vibrations) भी बच्चे पर प्रभाव डालते है, क्योंकि माँ के बाद बच्चे के सबसे निकट पिता ही होता है। घर के बाकी सदस्यों की संवेदनायें भी कुछ न कुछ गर्भस्थ शिशु ग्रहण करता है। घर का माहौल भी शिशु पर गंभीरता से परिणाम करता है पर सभी बातों का माध्यम एक ही है और वह है "माँ"। वो नौ माह तक अपने आपको किस तरह ढालती है, यह शिशु के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण रहता है।