प्रकरण - ४१
अमिता बोली, "रोशनजी! हमारे दर्शक यह जानने के लिए बहुत उत्सुक हैं कि आपके साथ आगे क्या हुआ?"
रोशनकुमार अब अपनी आगे की कहानी बताने लगे। वे बोले, "रईश अब न्यूयॉर्क के विजन आई रिसर्च सेंटर में पहुंचे चुका था। छह अलग-अलग देशों के छह वैज्ञानिक भी वहां पर आ पहुंचे थे। छह वैज्ञानिकों और रईश इन सभी सात लोगों को मिलकर पूरे प्रोजेक्ट पर एकसाथ काम करना था। यहां पर भी विजन आय रिसर्च सेन्टर जॉयकर नामक अस्पताल से संलग्न था।
यह जॉयकेयर हॉस्पिटल डाॅ. डेनिश विक नामक डॉक्टर का था। इस पूरे प्रोजेक्ट के लिए फंडिंग भी वही देनेवाले थे। उनके मन में अपने मरीज़ों के लिए कुछ करने की भावना थी और इसीलिए उन्होंने इतना बड़ा प्रोजेक्ट हाथ में लिया था और अलग-अलग देशों से अलग-अलग वैज्ञानिकों को आमंत्रित किया था।
वे कृत्रिम रूप से इंसान की आंखों की तरह ही कॉर्निया बनाना चाहते थे। अपने चिकित्सा अभ्यास के दौरान उन्होंने जितने भी मरीज़ों को देखा था, उन्होंने अपने अनुभव से देखा कि अगर लोगों की आँखों में सबसे ज्यादा समस्या होती है, तो वह कॉर्निया में होती है।
उन्होंने ऐसे कई मरीज़ देखे थे जिनकी किसी दुर्घटना में कॉर्निया क्षतिग्रस्त हो गई थी और जिसके कारण वह व्यक्ति अंधा भी हो गया था। उनके मन में उन मरीजों के लिए कुछ करने की भावना थी जो ऐसे हादसों में अपनी आंखें खो देते हैं। भविष्य में जिन लोगों को आंखों की ऐसी समस्या होगी, उनमें इस कृत्रिम कॉर्निया का प्रत्यारोपण किया जा सकेगा, जिससे मरीज को रिजेक्शन का डर खत्म हो जाएगा और मरीज को अन्य संक्रमण होने की संभावना भी कम हो जाएगी।
इसलिए वे अब इसके लिए पर्याप्त प्रयास कर रहे थे। यूं तो वह लंबे समय से इस क्षेत्र में काम कर ही रहे थे, लेकिन अब वह मानसिक और आर्थिक रूप से अपनी इच्छा को आकर देने में सक्षम हो गए थे और इसीलिए उन्होंने अब इस बड़े प्रोजेक्ट को अपने हाथ में लिया था।
उन्होंने अपने पास आए सभी वैज्ञानिकों का बहुत अच्छे से स्वागत किया और उन्हें वे किस प्रकार से काम करना चाहते हैं इसकी जानकारी देते हुए कहा, “मेरे विज़न आई रिसर्च सेंटर में आप सभी का स्वागत है। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि अभी तक आप सभी लोग अपने अपने देश में जानवरों की कृत्रिम कॉर्निया बना रहे थे और उस काम को आप लोगोंने बहुत ही सफलतापूर्वक किया है और ये अहमदाबाद के डॉ. रईश भारत में जहा काम कर रहे है वह नेत्रदीप आई रिसर्च सेन्टर के एक वैज्ञानिक है। और इस रिसर्च सेन्टर के मालिक डॉ. प्रकाश तन्ना है। मैं डॉ. प्रकाश तन्ना को भी उनके इस कार्य के लिए बधाई देता हूं, जिन्होंने खरगोश की आंखों में कृत्रिम कॉर्निया का सफलतापूर्वक प्रत्यारोपण किया है।
मैं चाहता हूं कि वे अपने काम में बहुत आगे बढ़ें और जिस तरह से उन्होंने खरगोश की आंखों में कृत्रिम कॉर्निया ट्रांसप्लांट की उसी तरह हम यहां भी मनुष्य के आंखो की कृत्रिम कॉर्निया बनाएंगे और उसे उन इंसानों की आंखों में प्रत्यारोपित करेंगे जो अकस्मात में अपनी कॉर्निया को खो चुके है। जैसे उन्होंने खरगोश की आंखों में कृत्रिम कॉर्निया प्रत्यारोपित किया था।"
डॉ. डेनिश की इस बात की सभी वैज्ञानिकोंने सराहना की। डॉ. डेनिश के मुँह से ये बात सुनकर रईश मेरे ख्यालों में खो गया। इसकी आंखों की सामने ऐसा दृश्य आया जिसमे उसने देखा कि डॉ. प्रकाश तन्ना अब मेरा ऑपरेशन कर रहे है और रईश की बनाई हुई कृत्रिम कॉर्निया को मेरी आँखों में प्रत्यारोपित कर रहे है, लेकिन तभी अचानक उसके कानों में तालियों की गूंज सुनाई दी और वो अपने विचारों से बाहर आ गया। जैसे ही तालियाँ रुकी डॉ. डेनिश अब आगे बोलने लगे।
डॉ. डेनिशने कहा, "मैं इंसानों की आंखों के लिए कृत्रिम कॉर्निया बनाना चाहता हूं, जैसे हम जानवरों के लिए कृत्रिम कॉर्निया बनाने में सफल हुए हैं उसी तरह हम मनुष्य की कृत्रिम कॉर्निया भी सफ़लतापूर्वक बना पाए। और इसीलिए यह पूरा प्रोजेक्ट शुरू किया गया है। वैसे तो आप बहुत ही बुद्धिमान है ही। इसलिए मनुष्य की आंखों की संरचना के बारे में तो आप सब जानते ही होंगे लेकिन फिर भी हमें इसे अभी भी बहुत ही विस्तार से समझना होगा और तभी हम प्रेक्टिकल रूप से आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए मैं चाहता हूं कि आप लोग पहले सप्ताह इस पर खूब अध्ययन करें और उसके बाद ही हम रिसर्च का कार्य शुरू करेंगे।”
रईशने कहा, "हाँ। डॉक्टर डेनिश! आप सही कह रहे हैं। हमें प्रैक्टिकल शुरू करने से पहले पढ़ाई करनी चाहिए।" अन्य वैज्ञानिक भी रईश की इस बात से सहमत थे। सभी वैज्ञानिकोंने एक सप्ताह तक वहां अध्ययन किया। अध्ययन के बाद ही उन सभी ने काम करना शुरू किया।
जब से रईश अमेरिका चला गया था, हमारे घर में एक सूनापन सा छा गया था। मैं खुद को रईश के बिना बहुत ही अधूरा महसूस करता था। क्योंकि, वही तो था जो हर वक्त मेरी जिंदगी में रोशनी फैला रहा था। वह मुझे हमेशा सकारात्मक ऊर्जा देता रहता था। मैं हमेशा सबसे पहले उससे अपने मन की बात कहता था।
वैसे देखा जाए तो आज के टेक्नोलॉजी के इस युग में दूरियां अब ज्यादा दूर नहीं लगतीं। हम हमेशा फोन पर तो बात कर ही सकते थे, इसलिए यह तकनीक हम सबके लिए तो वरदान ही साबित होनेवाली थी। हालाँकि रईश हमसे बहुत दूर था लेकिन हमें कभी महसूस नहीं हुआ कि वह हमसे इतना दूर है। हम हमेशा उनसे फोन पर बात तो कर ही पाते थे।
अमेरिका पहुंचकर उसने नीलिमा को फोन पर बता दिया था कि वह सुखरूप अमेरिका पहुंच गया है। मेरे मम्मी, पापा, दर्शिनी, नीलिमा, अरमानी और फातिमा अभी भी मुंबई में मेरे घर पर ही दो दिनों के लिए रूकनेवाले थे। मैं इससे बहुत खुश था, क्योंकि आज पहली बार मेरा पूरा परिवार मेरे साथ था और वो भी मेरे घर पर। केवल रईश की ही कमी लग रही थी।
इन दो दिनों में मैं फातिमा और दर्शिनी को अपने रिकॉर्डिंग सत्र में अपने साथ ले गया। वहां मैंने सभी से दर्शिनी का परिचय अपनी बहन और फातिमा का परिचय अपनी दोस्त के रूप में कराया। हमारे घर में अभिजीत जोशी को तो सभी जानते थे लेकिन नीरव शुक्ला उन सबके लिए अनजान थे। फातिमा और दर्शिनी दोनों ही इतने महान निर्देशक से मिलकर बहुत खुश हुईं।
देखते ही देखते दो दिन कहा बीत गए कुछ पता ही नहीं चला और मेरे पूरे परिवार का राजकोट वापस जाने का समय हो गया।
मेरी बहन दर्शिनी, जो फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई करना चाहती थी उसको अब अहमदाबाद में दाखिला मिल गया था। इसलिए उसे आगे की पढ़ाई के लिए अहमदाबाद रईश के घर में ही रहनेवाली थी। और नीलिमा को भी छह महीने के बाद फिर से वहीं नौकरी पर जाना था क्योंकि उसकी भी अब मेटरनिटी लीव खत्म होने को आई थी। अरमानी भी अब छह महीने की हो चुकी थी।
नीरव शुक्ला के साथ मेरा काम भी अब खत्म होनेवाला ही था की एक दिन अचानक मेरे मोबाइल पर एक कॉल आई जिसने मेरी बाकी की सारी जिंदगी पूरी तरह से बदल दी।
(क्रमश:)