जापान की जीवन-शैली Ashok Kaushik द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • उजाले की ओर –संस्मरण

    मनुष्य का स्वभाव है कि वह सोचता बहुत है। सोचना गलत नहीं है ल...

  • You Are My Choice - 40

    आकाश श्रेया के बेड के पास एक डेस्क पे बैठा। "यू शुड रेस्ट। ह...

  • True Love

    Hello everyone this is a short story so, please give me rati...

  • मुक्त - भाग 3

    --------मुक्त -----(3)        खुशक हवा का चलना शुरू था... आज...

  • Krick और Nakchadi - 1

    ये एक ऐसी प्रेम कहानी है जो साथ, समर्पण और त्याग की मसाल काय...

श्रेणी
शेयर करे

जापान की जीवन-शैली

जापान की जीवन-शैली (यात्रा संस्मरण) 

जब हम किसी नए देश में थोड़े समय के लिए जाते हैं तो आमतौर पर यह पर्यटक के रूप में होता है. हम कुछ दिन होटल में ठहरते हैं और वहां के मुख्य स्थलों को देखते हैं. इस प्रक्रिया में उस देश की संस्कृति, इतिहास और जीवन शैली, आदि की एक छोटी सी झलक हमें मिल जाती है. दूसरी ओर, जब हम किसी कार्य के लिए वहाँ कुछ लम्बे समय के लिए घर लेकर रहते हैं, तो हमें वहाँ के रोजमर्रा के जीवन को और नज़दीक से देखने समझने का अवसर मिलता है. मैंने जापान को दोनों रूप में देखा है. अपने पहले लेख (“मेरी पहली जापान यात्रा”) में मैंने होटल में रहकर एक प्रशिक्षार्थी के रूप में वहाँ के अनुभवों को लिखा है. दूसरी बार मैं टोक्यो में एक घर लेकर एक कॉलोनी में रहा. इस प्रवास में यह समझ पाया कि वहाँ के नागरिक किस प्रकार जीवन व्यतीत करते हैं. उनके जीवन के वे अनेक पहलू देख पाया जो आमतौर पर एक पर्यटक के सामने नहीं आ पाते हैं.

इस प्रवास के दौरान मुझे जापान के कई शहरों की यात्रा करनी पड़ती थी: टोक्यो, योकोहामा, नागोया, ओसाका, हिरोशिमा. वहाँ की कुछ रोचक घटनाओं की चर्चा इस लेख में करूँगा.

मुझे एक भारतीय कम्पनी में कार्य करने का प्रस्ताव मिला, जो अपना व्यापार जापान में शुरू करना चाहती थी. यह नब्बे के दशक की शुरुआत का दौर था, जब तक भारत में कंप्यूटर, मोबाइल फ़ोन और इन्टरनेट नहीं पहुँचे थे. कम्पनी के प्रबंध निदेशक ने बताया कि वे टोक्यो में एक ऑफिस खोल कर वहाँ अपना व्यापार बढ़ाना चाहते हैं. कार्य-क्षेत्र में बिलकुल नई चुनौती को देखते हुए मैंने इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया. जल्दी ही टोक्यो जाने का कार्यक्रम निश्चित हो गया.

ऑफिस ने टोक्यो के एक होटल में कमरा बुक कर दिया था. निश्चित दिन पर जनवरी की भयानक सर्दी की देर रात टोक्यो पहुंचा. होटल रयोगोकू इलाके में स्थित था. नारिता हवाई अड्डे से रयोगोकू स्टेशन तक की आखिरी मेट्रो मिली. मेट्रो स्टेशन से 2 किलोमीटर टैक्सी से होटल पहुंच गया. सुबह सोकर उठा तो देखा कि हल्की बर्फ पड़ रही थी. मालूम हुआ कि रातभर बर्फ़ पड़ी थी. भारत में रहते हुए ‘स्नोफॉल’ देखने का अवसर मुझे कभी नहीं मिला था. जीवन का पहला ‘स्नोफॉल’... वह भी जापान का... इसका रोमांच कुछ ऐसा ही था जैसे नयी उम्र में किसी ‘गर्ल-फ्रेंड’ से पहली बार मिलना हो. होटल के बाहर जाकर बर्फ़ देखने का मन हुआ. सड़क पर पहुँच कर कुछ कदम ही चला था कि बर्फ़ पर पैर फिसला और मैं चारों खाने चित हो गया. खैर, चोट नहीं लगी और मैं उठकर पूरी सावधानी से चलता हुए वापस होटल पहुँच गया. ‘स्नोफॉल’ का पहला अनुभव एक बहुत मजेदार रहा. 

अगले दिन होटल स्टाफ की सहायता से एक प्रॉपर्टी एजेंट से किराये के घर के लिए बात की. वे होटल के पास ही सुमिदाकू इलाके में एक फ्लैट दिखाने ले गए. आठ मंजिल की एक इमारत में पाँचवी मंजिल पर ये दो बेडरूम का खूबसूरत फ्लैट था. दोनों बेडरूम 6-ततामी साइज़ के थे. एजेंट ने बताया कि वहाँ कमरे का साइज़ ‘ततामी’ में नापा जाता है. ‘ततामी’ एक निश्चित साइज़ की चटाई (3x6 ft) की इकाई है. मकान मालकिन कीको सान को जब मैंने बताया कि मैं भारत से हूँ तो वे बेहद खुश हुई. वे भलीभांति अंग्रेजी बोल पाती थीं. उन्होंने कहा कि वे भारतीयों को बहुत अधिक पसंद करती हैं और परिवार के साथ 3-4 बार भारत घूम चुकी हैं. फ्लैट में दोनों बेडरूम के साथ एक-एक छोटी बालकनी थी और ड्राइंग रूम के एक ओर खुली किचेन थी. दोनों बेडरूम में कपड़े के सुन्दर बॉर्डर लगी 6-6 ततामी फर्श पर पक्के तौर पर चिपका दी गयी थीं. इसी फर्श पर गद्दा डालकर सोया जाता है. 

अगले दिन सुबह मैं होटल छोड़कर फ्लैट में आ गया. इसमें पहले से ही गैस, फ्रिज, डायनिंग टेबल मौजूद थे. नीचे एक दूसरे खाली फ्लैट में पुराने किरायेदार कुछ सामान वहीँ छोड़ गए थे. कीको सान ने हमें वहाँ ले जाकर कहा कि अपनी जरुरत का कोई भी सामान वहाँ से ले सकते हैं. मुझे एक शानदार स्टडी टेबल, बार टेबल, फैक्स मशीन और टीवी भी मिल गए. कीको सान ने एक मिक्सी तथा किचेन का छुटपुट सामान अपने घर से लाकर दे दिया. पास के एक स्टोर से गद्दे, चादर, तकिये और कम्बल खरीद लाये. पहले दिन ही शाम तक घर बस गया.

एक दिन कीको सान ने अपने एक बुजुर्ग पारिवारिक मित्र कुबोनो सान से मेरा परिचय करवाया, क्योंकि उन्हें भी भारतीय लोग बहुत पसंद थे. वे 10-12 वर्ष पहले जापान सरकार के विज्ञान मंत्रालय में एक उच्च पद से रिटायर हुए थे. हमारे मिलते-जुलते विज्ञान विषय और मेरी भारतीयता के कारण कुबोनो सान से पहली मुलाकात में ही अन्तरंग मित्रता हो गयी. वे बेहद मिलनसार, सौम्य और विनोदी स्वाभाव के व्यक्ति थे और दूसरों को हर प्रकार की मदद के लिए तत्पर रहते थे. उन्होंने अपना फ़ोन नंबर देते हुए कहा कि किसी भी छोटे बडे कार्य के लिए मैं उनकी सहायता ले सकता हूँ.

मैंने कुबोनो सान से नया फ़ोन कनेक्शन लेने की बात कही. मेरी बात सुनते ही वो बड़े दुखी भाव से बोले- “ओ..हो.., आजकल तो ये लोग नए कनेक्शन में बहुत समय लगाते हैं.” मैंने सोचा कि फ़ोन मिलने में भारत की तरह ही वहाँ भी शायद महीनों लग जायेंगे. तभी कुबोनो सान बोले कि आजकल फ़ोन चालू होने में दो दिन तक लगते हैं, जबकि उनके ज़माने में फ़ोन तुरंत मिल जाते थे. दो दिन में नया फ़ोन कनेक्शन मिलना सपनों जैसी बात लगी. उन्होंने अगले दिन साथ ले जाकर ‘एप्लीकेशन’ दिलवा दी और अगले छह घंटे में फ़ोन/ फैक्स भी चालू हो गए और ऑफिस तैयार हो गया. 

हमारी बिल्डिंग के सामने एक दुकान थी, जिसे एक अधेड़ महिला चलाती थीं (मैं उनका नाम भूल गया हूँ). उन्हें कामचलाऊ अंग्रेज़ी आती थी कभी-कभी मैं वहाँ से खरीदारी करता था. उन्होंने बताया कि यद्यपि भारत के बारे में बहुत कम जानती हैं मगर भारत उन्हें पसंद है. हर बार मिलने पर वे भारत के बारे में कुछ नए प्रश्न अवश्य करती थीं. एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा- “क्या मैं आपकी भाषा सीख सकती हूँ?” उनकी बात सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा. मैंने उन्हें समझाया- “वे हिंदी बोलना बहुत आसानी से सीख सकती हैं, क्योंकि जापानी वर्णमाला के उच्चारण हिंदी वर्णमाला के उच्चारण का एक छोटा भाग कहे जा सकते हैं.” मैंने उन्हें हिंदी सिखाना शुरू कर दिया. वे बड़ी तन्मयता से एक नोटबुक में हिंदी के शब्दों को और बाद में छोटे-छोटे वाक्यों को सुनकर जापानी भाषा में लिखती थीं. मेरे भारत लौटने तक वे छोटे वाक्यों को भली भांति बोलना सीख गयी थीं.

‘रयोगोकू’ इलाका, जहाँ मैं रहता था, टोक्यो के मध्य-पूर्व भाग में स्थित है, जिसमें टोक्यो का एक सब से बड़ा आकर्षण स्थित है- ‘सूमो प्रशिक्षण केन्द्र’. यह स्थान मेरे फ्लैट से 600 मीटर दूर था. उत्सुकतावश मैं यदा कदा उधर जाता था. एक दिन बाज़ार में हाराज़ाकी नाम के एक सूमो से मुलाकात हुई. उनसे थोड़ी दोस्ती हो गयी और यदाकदा मिलना होने लगा. उन्हें भी भारत को लेकर बहुत दिलचस्पी थी.

मार्च समाप्त होते होते जापान में चैरी-सीजन शुरू हो गया था, जो मार्च के अंत से शुरू होकर अप्रैल के मध्य तक चलता है. ‘उएनो चेरी ब्लॉसम फेस्टिवल’ जापान के सबसे बड़े और सबसे ज़्यादा भीड़-भाड़ वाले फेस्टिवल में से एक है।                                                        

उएनो पार्क में आधा-पौना किलोमीटर की मुख्य सड़क पर घुसते ही लगता है कि हम परियों के देश में पहुँच गए हैं. सड़क के दोनों ओर गुलाबी फूलों से लदे चेरी के पेड़, हजारों रंगीन लाइट और संगीत हमारा स्वागत कर रहे थे. मुझे बताया गया कि वहाँ एक हजार से ज्यादा चेरी के पेड़ हैं.  हाराज़ाकी ने एक शाम मुझे वहाँ आमंत्रित किया. हाराज़ाकी की सहमति से मैं कीको सान के परिवार के साथ वहाँ गया. हाराज़ाकी ने अपने मित्रों से हमारा परिचय कराया और उन के साथ हमने दो घंटे बियर और संगीत का आनंद लिया. पूरे पार्क में अनेक स्थानों पर लोग टोलियों में संगीत के साथ नाच-गाने और खाने-पीने में व्यस्त थे.

कालान्तर में सूमो हाराज़ाकी की सहायता से सूमो खेल के इतिहास और ‘सूमो-बेया’ की जीवनचर्या को नजदीक से समझने का अवसर मिला. थोड़ी सी रोचक जानकारी आपके लिए दे रहा हूँ. लगभग 600 वर्ष से सूमो जापान का राष्ट्रीय खेल रहा है. जापान अकेला देश है जहाँ सूमो खेल का प्रशिक्षण व्यावसायिक तौर पर दिया जाता है और वार्षिक सूमो प्रतियोगितायें आयोजित की जाती हैं. देखने में विशालकाय सूमो पहलवान जिन 'अस्तबलों' में रहते हैं, उन्हें जापानी भाषा में ‘सूमो-बेया’ कहा जाता है. उनके दैनिक जीवन का हर पहलू सख्त परंपरा से तय होता है और इन परंपराओं, शिष्टाचार और रीति-रिवाजों को अत्यधिक गंभीरता से लिया जाता है। तीस वर्ष की आयु पहुँचने पर अधिकतर सूमो पहलवान रिटायर हो जाते हैं.

रयोगोकू सबवे स्टेशन से दो स्टेशन दूर ओकाचिमाची स्टेशन के बाहर बड़ी सब्जी मंडी है, जिस में अनेक प्रकार के फल- सब्जी तथा जीव-जंतु मिलते थे. यहाँ सभी प्रकार के फल, सब्ज़ी, चिकन, मछली आदि बड़ी खूबसूरत पैकिंग में करीने से सजाये हुए रखे होते थे. साफ़ किये चिकन कई प्रकार के मिलते थे. जीवित केकड़े, श्रिम्प, ऑक्टोपस, आदि सुन्दर जीव टोकरियों में हिलते-डुलते दिखते थे. एक ‘ग्रोसरी स्टोर’ भी था जिसमें 3-4 जापानी महिलाएं काम करती थीं. इन सभी को भारत के मसाले, अरहर-मसूर-मूँग दाल, चावल, अचार, पापड़, आटा, शर्बत, तेल, घी आदि के हिंदी नाम रटे हुए थे. मैं अपनी सारी खरीदारी यहीं से करता था. पूरे बाज़ार में किसी भी प्रकार की कोई गन्दगी दिखायी नहीं देती थी. ओकाचिमाची में ही टोक्यो के अनेक हीरा व्यापारियों के ऑफिस भी हैं, जिसमें कुछ भारतीय परिवार भी हैं.

मैंने बचपन से किचेन में माँ के साथ खाना बनाना सीख लिया था. इस प्रशिक्षण का लाभ मुझे हमेशा मिलता है. जापान में भी मैं स्वयं खाना पकाता था. मकान मालकिन कीको सान के परिवार से परिचय हो गया था. उनके पति आकीयोशी सान एक बड़ी कम्पनी में ऊँचे पद पर कार्यरत थे, मगर उनकी अंग्रेज़ी बहुत कमज़ोर थी. उनकी एक बेटी काओरी चार साल की थी. जापानी रिवाज के अनुसार ही वे लोग शाम 8 बजे तक खाना समाप्त कर लेते थे. उन सबको भारतीय खाना भी पसंद था. सप्ताह में 1-2 बार आकीयोशी सान 9.30 बजे अपनी शोचु (जापानी शराब) की बोतल और जापानी नमकीन उठाये परिवार के साथ मेरे यहाँ आ जाते थे. कीको सान कोई अल्कोहल नहीं लेती थी. मैं खाना बनाते हुए आकीयोशी सान के साथ शोचु का आनंद लेता था और हम लोग बहुत देर तक गपशप करते थे. वे दोनों मेरे साथ भारतीय खाने का स्वाद भी लेते थे.

एक दिन कुबोनो सान को शाम के खाने पर आमंत्रित किया और मैंने पूरा भारतीय भोजन परोसा, जिस में तड़का दाल, चावल, रोटी, आलू का पराठा, भिन्डी की सब्जी और दही का भुने जीरे का मट्ठा (छाछ) थे. भोजन की समाप्ति सूजी के हलवे से हुई. अंत में वे बोले- “मैंने इतना स्वादिष्ट भोजन और इतनी मात्रा में कभी नहीं खाया.” कुछ दिनों बाद एक दिन वो अपनी पत्नी और बेटी को लेकर आ गए जो रोटी और आलू का पराठा बनाना सीखना चाहती थीं. यों तो जापान में भारतीय भोजन बहुत पसंद किया जाता है, परन्तु वहाँ होटल में घर के बने भोजन जैसा स्वाद नहीं मिलता. कुबोनो सान अमीर परिवार से थे. दोनों पति-पत्नी ने उस दिन मेरे सामने एक गंभीर प्रस्ताव भी रख दिया. कुबोनो सान की प्रबल इच्छा थी कि हम दोनों मिलकर ‘घर के स्वाद वाले भारतीय भोजन’ का एक रेस्टोरेंट टोक्यो में शुरू करें जिसमें पूरा पैसा वो लगायेंगे, परन्तु मेरी पारिवारिक स्थिति के कारण मैं लम्बे समय वहाँ नहीं रुक सकता था. मुझे भारी मन से उनको निराश करना पड़ा.

मुझे काम के सिलसिले में टोक्यो से योकोहामा, नागोया, ओसाका और हिरोशिमा जाना पड़ता था. ये शहर ‘शिनकानसेन’ (बुलेट ट्रेन) के रूट पर हैं. टोक्यो से हिरोशिमा 816 किलोमीटर है, जिसमें उस समय लगभग 4-5 घंटे का समय लगता था. उस ज़माने में दूर के शहरों में ‘बिज़नेस मीटिंग’ के लिए जाने से पहले ग्राहक से फ़ोन पर बात करके ‘अपॉइंटमेंट’ तय कर ली जाती थी. फिर ग्राहक अपना पता, फ़ोन नंबर और ‘स्टेशन से रूट मैप’ फैक्स से भेजते थे. हमें उस नक़्शे को वहाँ स्टेशन पहुँच कर टैक्सी ड्राईवर को देना होता था, जिसके अनुसार वह हमें गंतव्य स्थान पर पहुंचाते थे.

एक मजेदार घटना का जिक्र अवश्य करना चाहूँगा, क्योंकि इस प्रकार का अनुभव भारत में असंभव है. ओसाका की एक मीटिंग समाप्त करके मैं एक दिन सुबह शिनकानसेन ट्रेन में नागोया आ रहा था. नागोया स्टेशन पर उतर कर होटल पहुँच गया. ट्रेन को आगे टोक्यो जाना था. कमरे में चाय पीते समय देखा कि बैग में कैमरा नहीं है. हाल ही में नया महंगा कैमरा ख़रीदा था. उसके जाने का बहुत दुःख हुआ. हुआ ये था कि ट्रेन में कैमरा खोल कर देख रहा था. बाद में उसे बंद करके बगल वाली खाली सीट पर रख दिया और ट्रेन से उतरते समय उठाना भूल गया. अब क्या किया जाये, समझ नहीं आ रहा था. खैर, मैंने होटल से ओसाका वाले ग्राहक को फ़ोन करके सारा किस्सा बताया. उन्होंने मुझसे टिकट देखकर सीट नंबर और ट्रेन नंबर बताने को कहा. 15-20 मिनट के बाद उनका फ़ोन आ गया. वे बोले- “मैंने ट्रेन में कंडक्टर से बात कर ली है. उन्होंने कैमरा उठाकर रख लिया है और वे उसे टोक्यो स्टेशन पर ‘खोया-पाया’ विभाग में जमा कर देंगे. मैं टोक्यो लौट कर वहाँ से ले सकता हूँ.” इस खबर से काफी राहत हुई. अब नई समस्या यह थी कि उस समय मेरे पास कैमरे की कोई रसीद नहीं थी, सो मुझे लगा के अब कैमरा लेते समय झमेला होगा. अगले दिन शाम को टोक्यो स्टेशन पहुँच कर मैं ‘खोया-पाया’ विभाग की ओर लपका. वहाँ बैठे व्यक्ति को बताना शुरू ही किया था कि मेरा कैमरा कल ट्रेन मैं छूट गया था. मेरी बात पूरी होने से पहले ही वे सज्जन दौड़ कर गए और एक अलमारी से कैमरा लाकर मुझे दिखाते हुए पूछा कि क्या यही मेरा कैमरा है? तब उन्होंने मुझे एक रजिस्टर में अपना नाम, पता और फोन नंबर लिखने को बोला और कैमरा मुझे सौंप दिया. मैं सोचने लगा कि ये देश वास्तव में अजूबा है.             

गर्मी का मौसम शुरू होते ही जापान में ‘पब्लिक स्विमिंग पूल’ शुरू हो जाते हैं, जहाँ मात्र 100 येन (उस समय भारत के लगभग 6 रूपए) में एक घंटा पूल का प्रयोग कर सकते हैं. बेहद सस्ते दाम के अतिरिक्त भारत में किसी पब्लिक पूल के मुकाबले मुझे दो विशेष बातें मुझे नजर आयीं. हर आधा घंटे बाद सभी ग्राहकों को 5 मिनट के लिए पूल से बाहर आने के लिए कहा जाता था. इस बीच अधिकारी लोग पानी की ‘PH’ वगैरा की जाँच करते थे. पूल से निकल कर जिस फर्श पर बैठते थे, वह अन्दर से हल्का गर्म होता था, जो बहुत सुकून देने वाला होता था. 

एक दिन मैं किसी से मिलने के लिए मेट्रो से जा रहा था. शिनजुकू स्टेशन से मुझे गाड़ी बदलनी थी. दूसरी गाड़ी के प्लेटफार्म को लेकर मैं थोड़ा आशंकित था, तो प्लेटफार्म पर ही एक नवयुवक से पूछा. उसने कहा कि वह भी उसी ओर जा रहा है तो हम साथ ही चल सकते हैं. हम दोनों एक डिब्बे में बैठ गए. चार-पांच स्टेशन गुजरने के बाद वह युवक अचानक मुझसे क्षमा मांगने लगा और बोला कि उसने मुझे ग़लती से ग़लत प्लेटफार्म बता दिया. यह गाड़ी मेरे गंतव्य की ओर नहीं जाएगी. उसने मुझसे 4-5 बार क्षमा मांगी और मुझसे कहा कि वह शिनजुकू से मुझे सही गाड़ी में बिठाकर आयेगा. मेरे कई बार मना करने के बावजूद वह मेरे साथ वापस शिनजुकू स्टेशन आया. वहाँ मुझे सही गाड़ी में बिठाकर फिर कई बार क्षमा मांगते हुए बोला कि यदि वह ऐसा न करता तो मैं हमेशा के लिए उसके और जापान के बारे में ग़लत धारणा बनाकर अपने देश लौटता. उसके इस व्यवहार से मुझे जीवन भर के लिए एक सीख मिली.

हर महीने कई प्रकार के बिल आते थे, जिन में मुख्यतः बिजली, गैस, लोकल फ़ोन, अंतर्राष्ट्रीय फ़ोन और फैक्स थे. कीको सान ने मुझे बता दिया था कि ये सारे बिल नजदीक के पोस्ट ऑफिस में ही ले जाकर भुगतान कर सकता हूँ. पहले महीने के बिल लेकर मैं पोस्ट ऑफिस गया. वहाँ एक कार्यरत लड़की ने सारे बिल मुझसे ले लिए और मुझे सामने सोफे पर बैठकर इंतजार करने के लिए कहा. कुछ ही मिनटों में उसने सारी राशि जोड़ कर बता दिया. मैंने उसे दस हजार येन का नोट दिया. उसके पास खुले पैसे नहीं थे. वह दौड़कर अन्दर की ओर गयी और खुले पैसे लाकर उन्हें एक प्लेट में रखा. उसके साथ चार टॉफ़ी और एक टिश्यू पेपर का पैकेट रखकर मेरी ओर बढ़ा दिए. कई बार झुककर धन्यवाद बोलकर मुझे विदा किया. 

अंत में, जापान की एक और सबसे अनूठी विशेषता जिसका जिक्र किये बिना यह लेख अधूरा रहेगा, वह है ‘पब्लिक बाथ हाउस’. जापान में ‘पब्लिक बाथ हाउस’ को ‘सेंतो’ (sento) कहा जाता है. इसका इतिहास 500 वर्ष से भी पुराना है. उस समय जापानी घरों में स्नानघर नहीं होते थे. एक कॉलोनी  में बहुत सारे घरों के लिए एक ‘सेंतो’ बना दिया जाता था, जहाँ सब लोग पानी के विशाल स्नानगार में इकट्ठे होकर एक साथ नहाते थे. उसमें कपड़े पहन कर जाना निषेध था. हाँ, पुरुष और महिलाओं के सेंतो अलग अलग होते थे. आज भी यही व्यवस्था कार्य करती है. समय के साथ इसका रूप परिष्कृत होता रहा. ‘सेंतो’ संस्कृति का जापान की जीवनशैली में आज भी एक विशिष्ट स्थान है, लेकिन इसका मूल स्वरुप नहीं बदला है. आज के जापान में हर घर में एक स्नानगार तो होता ही है, मगर सेंतो अभी भी उनके जीवन का अभिन्न अंग है. दिनभर के काम के बाद जापानी लोग सेंतो में जाते हैं और वहाँ घंटो तक पानी में आराम करते हुए गपशप करते हैं.                       

मेरे मकान-मालिक आकियोशी सान ने एक दिन बडे आग्रहपूर्वक मुझे ‘सेंतो’ ले जाने का निमंत्रण दिया. वे एक ‘सेंतो’ में मुझे ले गए, जहाँ वे अक्सर जाया करते थे. अन्दर जाकर मुझे वहाँ का वातावरण बहुत अच्छा लगा. जब सारे कपड़े उतार कर पानी में घुसने की बात आयी तो मेरे भारतीय संस्कार उनके नियम के मुकाबले मजबूत साबित हुए. मैं इस प्रकार अन्दर जाने का साहस नहीं जूता पाया और अन्ततः आकियोशी सान अकेले ही अन्दर गए. इस बीच मैं मज़े से बाहर बैठ कर अन्य लोगों से 40-50 मिनट गपशप करता रहा और एक नया विचित्र अनुभव लेकर घर लौट आया.

जापान की यह यात्रा मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था, जिस में मैंने स्वयं के जीवन में अपनाने के लिए ऐसी अनेक बातें सीखीं जो शायद कहीं और नहीं सीख सकता था.

                                                                                                  ////