दादा जी Ashok Kaushik द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दादा जी

दादा जी

एक ज़माने पहले जब हम स्कूल में पढ़ते थे, तो बच्चों को गर्मी की छुट्टियों का इंतजार उसी वक्त से शुरू हो जाता था जब मार्च में वार्षिक परीक्षा चल रही होती थी |

उन दिनों में गर्मी की छुट्टियों में माता-पिता बच्चों को कुछ दिन के लिए किसी न किसी नजदीकी रिश्तेदार के घर ले जाते थे | बच्चे मामा, चाचा, बुआ, दादी के यहाँ जाने के लिए लालायित रहते थे | वहाँ बड़े प्यार से उन के लिए नए नए व्यंजन बनाए जाते थे | वे उनके बच्चों के साथ घूमने-फिरने जाते थे | लौटते समय भेंट के रूप में कपड़े या सामान बच्चों को दिए जाते थे | इससे परिवारों में आपस के रिश्ते बड़े मजबूत बने रहते थे | वहाँ रहने से बच्चों को कई प्रकार से लाभ होता था, जिसे बच्चे नहीं समझते थे | वे दूसरे परिवार के साथ रहते थे और सबके साथ ‘एडजस्ट’ करना सीखते थे | अपनी पसंद का खाना नहीं होने पर भी खा लिया करते थे | मनमानी करने या गुस्सा करने की गुंजाइश कम थी |

मुझे तो गर्मियों की छुट्टी का कुछ ज़्यादा ही इंतजार रहता था | अपने रिश्तेदारों से मिलना बहुत अच्छा लगता था | कभी तो मैं सारी छुट्टी एक ही रिश्तेदार के यहाँ निकाल देता था और कभी नजदीक रहने वाले दो तीन रिश्तेदारों के साथ | मुझे किसी के घर जाकर माँ-बाप कभी याद नहीं आते थे, बल्कि रिश्तेदार को ही मुझे जबरदस्ती वापस भेजना पड़ता था |

आठवीं कक्षा तक आते आते मिलने जाने वालों की मेरी ‘लिस्ट’ में बस एक नाम रह गया था - मेरे दादा जी का | मुझे नहीं पता कि उनसे मेरा इतना गहरा जुड़ाव कैसे बन गया था | हर साल कम से कम एक महीना मैं उनके पास रहता था |

दादा जी गाँव में रहते थे और खेती करते थे | मेरा जन्म उसी गाँव में हुआ था, इसलिए दादा जी का गाँव ‘मेरा गाँव’ भी था | पिताजी मेरे जन्म से पहले ही नौकरी के लिए शहर आ गए थे | जब मैं तीन साल का हो गया तो मेरी शिक्षा के लिए वे मुझे और माँ को शहर ले आए |

मेरा गाँव छोटा था और शहर से एक मील दूर होने के कारण वहाँ का पूरा परिवेश भी ग्रामीण ही था | अधिकतर घर कच्चे थे | दादा जी का मकान बड़ा और पक्का था | हमारे मोहल्ले की खरंजे की सड़कों के बीच में बहती हुई पतली सी नालियां थीं | बरसात में नाली और सड़क का अंतर ख़त्म हो जाता था | घर में एक हाथ का नल, एक कोने में पशुओं की खोर और उसके पास में ही कुट्टी काटने की बड़ी गोल मशीन लगी थी | मैंने कई बार सफलतापूर्वक उस मशीन पर हाथ आजमाया था | एक भैंस और दो बैलों को बिना झगड़ा किये एक साथ खोर में अपना भोजन करते देखकर मुझे बड़ा अच्छा लगता था | मेरी माँ ने तो शायद ही कभी मुझे और मेरी शरारती झगड़ालू बहन को एक साथ शांति से बैठ कर खाना खाते देखा हो | घर के बाहर कुआँ था, जिसके एक ओर खुली जगह थी जहाँ शाम के समय मोहल्ले के लड़के कुश्ती, कबड्डी आदि खेलते थे |

मेरी उम्र के ही मेरे तीन दोस्त बन गए थे – राम किशन, सुरेश और रोहताश | ‘शहर का’ होने के नाते वे तीनों मुझे विशेष ‘इज्ज़त’ दिया करते थे और धीरे धीरे हम तीनों का गुट बन गया था | दूसरे बदमाश लड़के अब मुझसे झगड़ा भी नहीं कर सकते थे | हम तीनों अक्सर खेतों से आगे जंगल में चले जाते थे, जहाँ एक छोटी सी नहर थी | वहाँ के लोग उसे ‘बम्बा’ कहते थे | भरी गर्मी में उस के ठन्डे पानी में हम लोग बड़े मजे करते थे | तैराकी का मेरा पहला पाठ उस बम्बे में ही मिला | एक दिन रोहताश ने मुझे पुलिया से ‘डाइव’ मारना सिखाया तो मैं तो खुद को ‘बड़ा तैराक’ मानने लगा | बम्बे पर जाना अब रोज़ का सिलसिला बन गया |

दादा जी की अपनी बैल-गाड़ी थी, जिस में वे खेतों से सामान लाया ले जाया करते थे | वे गाड़ी चलाते वक्त बीच-बीच में एक बैल को हल्की सी सनटी मार कर ‘तिक तिक’ कहते थे | मैं चुपचाप बारीकी से उनको देखता रहता था | एक दिन मुझे भी बैल-गाड़ी चलाने का शौक लगा |
मैं दादा जी से बोला- “दादा जी, आज मैं ही गाड़ी खेत तक ले कर जाऊंगा | आप चाहें तो मेरे साथ बैठ सकते हैं |”
- “ठीक है | ये सनटी हाथ में रखना, मगर बैलों को ज्यादा मारना नहीं | तेज़ नहीं भगाना और रोकना हो तो दोनों बैलों की चमड़े वाली रस्सियों को हल्के से एक साथ अपनी ओर खींचना |” उन्होंने सारी ‘टिप्स’ दे डालीं और बैलों के ‘जुए’ पर मेरी बगल में बैठ गए | दस मिनट में मैं बैल-गाड़ी का ‘एक्सपर्ट ड्राईवर’ हो गया |

कभी-कभी दादा जी मुझे बुलाकर कहते थे - “आज मैं कुंए पर नहाऊंगा |” सुनकर मैं भी खुश हो जाता | मैं झटपट अन्दर से रस्सी-डोलची ले आता और दोनों बाहर कुंए पर पहुँच जाते | दादा जी कुरता उतार कर पालथी मार कर बैठ जाते और मैं कुंए से पानी खींच कर उनके ऊपर डालता जाता | आठ-दस डोलची के बाद जाकर वो रुकते थे | फिर उतनी ही डोलची उन्हें मेरे ऊपर डालनी पड़ती थीं | हमारी ये मस्ती आधे पौने घंटे तक चलती थी |

दादा जी घर में, या खेत में, जो भी काम करते थे, मैं उसे बडे ध्यान से देख कर सीखने की कोशिश करता था | मैंने एक दिन उनसे हुक्का भरना सीख लिया | ‘अच्छा हुक्का भरना’ एक कलाकारी से कम नहीं था | पीतल के गोलाकार ‘बेस’ को राख़ से चमका कर उस में पानी भरा जाता था | फिर ‘नै’ (हवा खींचने के लिए लकड़ी का पतला पाइप) को अन्दर-बाहर पानी से धोया जाता | चिलम को साफ़ करके उसके अन्दर बीच के सुराख़ पर तम्बाकू को ठीक से बिठाया जाता था | एक ‘हारा’ (एक प्रकार की गोल देसी भट्टी) होता था, जिसमें जलते हुए उपले की आंच सारे दिन राख़ में दबी रहती थी | इसमें से जलते उपलों के कुछ टुकड़े चिलम में तम्बाकू के ऊपर रखे जाते थे | ‘नै’ को गोलाकार बर्तन पर फिट करके उस पर चिलम बिठानी होती थी |

मूढ़े पर बैठ कर दादा जी एक लम्बा कश खींचते और धुआं छोड़ते हुए कहते – “मेरा दावा है कि तुम से अच्छा हुक्का कोई नहीं भर सकता |” यह सुनकर मुझे बड़े गर्व की अनुभूति होती थी | जब तक मैं गाँव में रहता, उनका हुक्का मैं ही भरता था | जब चिलम में आंच ख़त्म हो जाती, तो उस में नया तम्बाकू लगाकर ‘हारे’ से नए उपले लगा कर हुक्के को ‘ताज़ा’ करना होता था |
दादा जी अधिकतर समय घर के बाहरी कमरे में ही गुज़ारते थे | अन्दर के हिस्से में दादी और चाचा का परिवार रहते थे | दादा जी केवल नाश्ता और खाना खाने के लिए ही अन्दर जाते थे | घर के बाहर एक चबूतरा था, जिस पर बानों वाली दो खाट होती थीं | दादा जी दोनों पैर ऊपर करके आराम से खाट पर बैठकर हुक्का गुड़गुडाते और मैं सामने वाली खाट पर बैठा उनसे गपशप करता था | इस दौरान वे मुझे जीवन की अनेक बातें सहज ढंग से समझाया करते थे | लोगों के हाव-भाव से उनके व्यक्तित्व को समझना मैंने उनसे सीखा | दादा जी अपने ज़माने के पढ़े-लिखे, पैनी बुद्धि के अनुभवी व्यक्ति माने जाते थे और आस पास के कई गावों के लोग उनके पास अनेक प्रकार की समस्याओं के लिए सलाह मशवरा करने आते थे |

दीवाली की 10-15 दिन की छुट्टियों में गाँव जाने के मेरे दूसरे आकर्षण थे | तब तक गन्ने की फसल तैयार हो जाती थी और मैं खेत से अपनी पसंद का गन्ना तोड़कर वहीँ खा सकता था | मटर की ताज़ी फली, मक्का की ‘कूकडी’ (भुट्टे), सेंध और कई प्रकार की सब्जी के खेत मेरे ‘पिकनिक स्पॉट’ थे, जहाँ ये सारी चीज़ें खेत में बैठकर पेड़ से तोड़ कर खाने को मिलती थीं | ऐसे मज़े शहर में कहाँ नसीब थे |

दादा जी का अपना कोल्हू था, जिस में वे गुड़ बनाते थे | इसकी सारी प्रक्रिया को सीखने में मेरी अत्यधिक रूचि थी और दादा जी अच्छे गुरु बन गए थे |
लकड़ी का एक मोटा मजबूत लम्बा डंडा कोल्हू के बीच से जुड़ा होता था | दूसरे सिरे को एक बैल चारों ओर घुमाता था | दादा जी ने सबसे पहले मुझे यहाँ लगा दिया |
- “अभी थोड़ी देर तुम बैल को ठीक से हांकना |” बैल शरारती था, उसे काबू करने में पसीने छूट जाते थे | वो कभी भी रूक कर खड़ा हो जाता था |
थोड़ी देर बाद मुझे गन्ने लगाने का काम दे दिया |गया- “अब तुम कोल्हू के नीचे वाले गड्ढे में आ जाओ और हाथ को बचाते हुए दोनों सिलिंडरों के बीच में गन्ने लगाओ |” ये काम बड़ा मजेदार था |
एक बहुत बडे कढ़ाव में भट्टी पर गन्ने का रस पकता था | गाढ़ा हो जाने पर उसे एक बडे चाक में फैला दिया जाता था | चाक को मिटटी की 5-6 फिट व्यास की बड़ी थाली कह सकते हैं | दो घंटे में ठंडा हो जाने पर गुड़ तैयार हो जाता था | पूरा ठंडा होने से पहले बीच में गर्म गुड़ खाने का मुझे इंतजार रहता था | उसका स्वाद शब्दों में नहीं बताया जा सकता | दादा जी कुछ रस शाम को घर ले जाते थे | अगले दिन ‘रस की खीर’ बनती थी, जिसके सामने शहर में बनाई गयी दूध की खीर कहीं नहीं टिकती थी | शहर लौट कर अपने शहरी दोस्तों को जब मैं बड़ी शान से गाँव के अनुभव बताता था तो उन्हें अपनी अमीरी ज़िन्दगी में भी कुछ कमी सी महसूस होने लगती थी, जो उनके हाव-भाव में झलकती थी |

गाँव के जीवन को नजदीक से जीने के कारण मुझ में कई चीज़ों का शौक जगा | गाँव में सरसों के पीले खेत, मक्का के खेत में घूँघट ओढ़े लटकते हुए भुट्टे, लम्बे लम्बे गन्नों के खेत, लाल टमाटर, बैंगन के पेड़, बिटौड़ों (उपले रखने के लिए गोबर से बनाए हुए गोलाकार घर) पर लटकती लौकी, तोरी की बेल देखने के बाद मैं प्रकृति की रंग-बिरंगी सुन्दरता को बेहतर ढंग से महसूस करने लगा था | घर लौट कर मैंने बड़े गमलों में सब्जियां बोनी शुरू कर दीं | साधारण मशीनों की कार्य -प्रणाली को समझने का प्रयास भी करता | मेरे नए शौक और प्रकृति के लिए नया नज़रिया बनाने के पीछे केवल दादा जी का ही हाथ था |

साल बीत रहे थे और हर बार गर्मी की छुट्टियों में मुझे दादा जी के साथ नए अनुभव मिल रहे थे | दस बारह वर्षों में उनके व्यक्तित्व ने मेरी सोच और मूल्यों को किस प्रकार एक नयी दिशा दी थी, उसे मैं स्पष्ट रूप से महसूस करने लगा था |

एक दिन उन्होंने मृत्यु और पुनर्जन्म के बारे में ‘गीता’ में दिए गए एक विचार को समझाया |
- “ जीवन के अंतिम समय में व्यक्ति के सामने पूरा जीवन एक फिल्म की तरह तेज़ी से घूमता है | शरीर छोड़ते समय व्यक्ति की जो मानसिक अवस्था होती है, उसी के साथ वह अगले जीवन में प्रवेश करता है | हम जीवन काल में जो भी सोचते और करते हैं, उसकी एक छवि हमारे मन में बनती जाती है | इन सब का योगफल हमारे अंतिम क्षणों के विचारों को निर्धारित करता है, जिनकी गुणवत्ता के आधार पर हमारी आत्मा को अगले जन्म में उचित शरीर मिलता है | इसलिए यह आवश्यक है कि हम पूरे जीवन भर अपनी सोच और कार्यों को सकारात्मक रखें |”

वे थोड़ी देर शान्त रहे और फिर एक छोटी सी बात और कही - “हिन्दू मान्यता के अनुसार शरीर त्यागने के लिए एकादशी का दिन सबसे अच्छा माना गया है |”

दादा जी की उस दिन की चर्चा ने अनायास ही मुझे पूरे जीवन का मूल-मन्त्र दे दिया था |

अगली गर्मी की छुट्टियों में मैं परीक्षा समाप्त होते ही गाँव चला गया | किसी को भी मेरे आने की कोई पूर्व सूचना नहीं थी | पहले सीधा दादा जी के कमरे में पहुंचा | वे आराम कर रहे थे, मुझे देखते ही उठ कर बैठ गए |
- “अरे, आज सुबह से मैं तुम्हें याद ही कर रहा था | बहुत अच्छा हुआ तुम आ गए |” मुझे देखकर दादा जी के चेहरे पर सचमुच ख़ुशी छा गयी थी |
इतने में ही अन्दर से दादी आ गयीं | मुझे देखा तो आकर लिपट गयीं |

दादी ने बताया कि दादा जी के पैरों में एक हफ्ते से सूजन आ गयी है | रमाशंकर वैद्य जी की दवा चल रही है | वैद्य जी हमारे गाँव में ही रहते थे और उस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित ‘डॉक्टर’ थे | दवा कुछ ख़ास असर नहीं कर रही थी | उस दिन देर रात तक दादा जी ने जाने कहाँ कहाँ की बातें कीं | खूब खुश थे |

अपनी आदत के अनुसार वे सुबह पांच बजे उठ कर कुल्ला मंजन कर रहे थे | उन्होंने मुझे भी जगा दिया | मैं चाय बना लाया और हम दोनों ने साथ बैठ कर चाय पी |
थोड़ी देर बाद कहने लगे - “ तुम आ गए हो तो तुम ही मेरी चिलम भर दो |”
‘चिलम भरने’ का मतलब मैं जानता था | मैं हुक्का ताज़ा करके ले आया |
हुक्का पी कर बोले - “ कुछ थकान सी लग रही है | मैं थोड़ा आराम करूँगा, तब तक तुम भी नहा धो लो |”

आधे घंटे बाद मैं तैयार होकर उनके कमरे में आया | देखा तो दादा जी बिस्तर पर सीधे लेटे हैं, मगर शरीर निश्चल हो चुका था | वे अगली यात्रा में निकल गए थे |
उस दिन आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी थी |
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