नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक
इकत्तीसवां भाग
अंतिम भाग
***
नि:शब्द के शब्द
किसी ने कहा है कि, 'अंत भला तो सब भला, अंत बुरा तो सब बुरा.' होनी को किसने और कब टाला है? जो होना होता है, वह तो होकर ही रहता है. जो भी ऊपरवाला चाहता है वह होकर ही रहता है. कोई कितने भी जतन क्यों न कर ले, ईश्वर की मर्जी, उसके कार्यक्रम और उसकी योजनाओं पर इस दुनियां का कोई भी संत, महात्मा, इंसान और बड़े से बड़ा जोगी-साधू, वैद्द-हकीम आदि एक पल का भी अंकुश लगाने में नाकामयाब रहे हैं.
कोई नहीं जानता था कि, मोहिनी की आत्मा का वास्तविक सम्बन्ध किसके साथ परमेश्वर ने जोड़ दिया था और इकरा का बदन किस के लिए बनाया गया था? या यूँ कहिये कि, इकरा का बदन जिसके लिए बनाया गया था, उसने उसकी ज़रा भी कदर नहीं की थी. लेकिन, यह तो सच है कि, इस भूमंडल के दोनों ही क्षेत्र क्रमश: आकाशीय ईश्वरीय क्षेत्र और सांसारिक क्षेत्र, दोनों ही में दो तरह के व्यक्तित्व रहा करते हैं- एक आत्मिक और दूसरा मानवीय.
किसी ने कहा है कि, वक्त दिखाई नहीं देता है, लेकिन वह इंसान को दिखा बहुत कुछ देता है. मोहिनी ने समय के साथ बहुत कुछ देखना चाहा था- बहुत कुछ हसरतें की थी- अपने दिल से न जाने क्या-क्या चाहा था? अपने दिल में बसी प्यार की आस्थाओं को हर तरह से साकार करने की भरसक कोशिशें की थीं, परन्तु यह उसके हाथ में बनी हुई किस्मत की लकीरों का ही शायद असर था कि, वह अपना प्यार पाने के लिए नाकाम रही थी. शायद इसीलिये जब वह अपने खुद के प्यार को पाने में असफल हो गई तो उसके दिल की ये तमाम आरजुएं, मिन्नतें और चाहतें नादान, बेसहारा और असहाय बच्चों के प्यार में बदल गई थीं. उसने बच्चों से प्यार किया, उनके भोले-भाले मासूम फूल से मुखड़ों में वह अपना खोया हुआ मोहित ढूंढकर मानो संतुष्ट हो गई थी. एक तमन्ना थी जो उसने अपने दिल के किसी कोने में संवारकर रख ली थी, वही जब हर तरह से टूट गई- मोहित ने उसे हर तरह से ठुकरा दिया तो वही फिर दूसरे रूप में प्रस्फुटित होकर खोये हुए बेसहारा बच्चों को ढूँढने में व्यस्त हो गई. इस तरह से फिर उसने अपना समस्त जीवन ऐसे ही अनाथ बच्चों की सेवा-सुश्रुषा में अर्पित कर दिया. कहीं तो उसे दांव पर लगना ही था- मोहित न सही, मोहित के बच्चों में भी वह अपना खोया हुआ प्यार पाकर, ज़िन्दगी के किसी थके हुए मोड़ पर आकर चुप और शांत हो चुकी थी.
वर्षों तक मोहिनी को अपना समय, अपनी मेहनत और त्याग देकर, इस अनाथालय को चलाने के लिए, शहर के जिलाधीश ने भी उसका परिश्रम और त्याग देखते हुए, उसको इस शहर का सम्मानीय नागरिक का पदक देकर सम्मानित कर देने का निर्णय लिया था. मोहिनी अब तक उम्र के हिसाब से पचपन वर्ष की हो चुकी थी. रोनित भी अब तक बूढ़ा हो चुका था और पेंसठ वर्ष का होने के उपरान्त भी मोहिनी के इस अनाथालय के कई-एक विभाग संभाल रहा था. इतना सब कुछ होने के बाद, अब दोनों ही एक प्रकार से खुश थे- सम्पन्न थे- अनाथालय अपने बड़े ही अच्छे ढंग से आगे बढ़ रहा था और आगे भविष्य में भी इसी तरह से चलते रहने की वे कामनायें किया करते थे.
मगर इंसान सोचता तो बहुत कुछ है. बहुत सारी योजनायें बनाया करता है. अपनी ज़िन्दगी की सुस्त होती हुई रफ्तार से पूरी तरह से अनभिज्ञ होते हुए जीवन की अंतिम सांस तक वह सपने देखता रहता है, मगर वह शायद एक बार भी कल्पना तक नहीं कर पाता है- एक पल को भी यह तक नहीं सोच पाता है कि, अपने इस सांसारिक जीवन के सफर में वह जो कुछ भी जोड़-जोड़ कर रखता जा रहा है, उसका असली गुणा-भाग आसमान की कचहरी में किया जा रहा है.
ठीक अपने सम्मानीय नागरिक के पुरूस्कार मिलने के दिन, मोहिनी को जिलाधीश के सम्मुख खड़ा होना चाहिए था, पर वह वहां न होकर, फिर एक बार कब्रिस्थान के मनहूस प्राचीर में, अपनी चिरनिद्रा में थी. रोनित भी वहां पर खड़ा हुआ था- बहुत उदास, गम्भीर, मुंह लटकाए हुए- इस प्रकार कि जैसे मानो वह कोई अपराध करके आया हो? कब्रिस्थान के स्थानीय चर्च की घंटिया अभी भी रुक-रुक कर बज रही थीं. इस विशेष प्रकार से चर्च की बजनेवाली घंटियों का एक ही मतलब था कि, फिर कोई उनका प्रियजन इस दुनियां को हमेशा के लिए छोड़कर जा चुका था.
कब्रिस्थान के प्राचीर में, जानेवाले के शोक में लोगों का हुजूम लगा हुआ था. झुके-झुके, सिर लटकाए हुए चेहरे, भरी-भरी आँखों के साथ, रोने को तत्पर बुत बनी हुई स्त्रियों की नम आँखें, इस बात की गवाही थीं कि, कैसा भी क्यों न हो, संसार से अलविदा कहनेवाले से सभी को हमदर्दी थी, क्योंकि सबके सब मानव जीवन के उस स्थान पर खड़े हुए थे कि, जंहा से एक बार उन्हें भी गुज़रना होगा. कोई भी कुछ आज नहीं कह पा रहा था. सब ही की आँखें नम थीं और सबके सब, बेज़ुबान चेहरे, मूक बने हुए, बुतों की तरह उस ताबूत को नज़रें झुकाए हुए देख रहे थे, जिसमें इकरा बनाम मोहिनी का निर्जीव बदन बंद करके रख दिया गया था. अपने शब्दों को बेचकर अथवा गिरवी रखकर आये हुए, मोहिनी के ज़नाज़े में आये नि:शब्द से चेहरे, आज चुप थे- शांत थे- मजबूर थे- असहाय थे; शायद इसलिए कि, मानव जीवन का यही वह अंतिम ठहराव है कि, जहां पर आकर मनुष्य सदा के लिए नि:शब्द हो जाता है?
कल की मनहूस रात्रि के घोर अन्धकार में मोहिनी का अचानक से हृदयगति रुक जाने के कारण निधन हो चुका था. वह अपने कमरे में मृत पाई गई थी. चूँकि, मोहिनी के अनुसार वह इकरा का शरीर उपयोग कर रही थी, इसलिए उसने अपना अंतिम संस्कार, एक प्रकार से इकरा के बदन को भूमि में दफनाकर करने की गुजारिश, अपनी वसीयत में की थी.
जिस स्थान में मनहूसियत होती है. जहां पर रात्रि के बसेरों के नाम पर चमगादड़, उल्लू और अबाबीलें आकर चिपकती हैं और जो रात के सन्नाटों का गढ़ माना जाता है, उसी स्थान में मोहिनी बनाम इकरा का शरीर एक ताबूत में बंद करके उसके गन्तव्य स्थान को जाने के लिए बंद कर दिया गया था. पिछली रात जब मोहिनी सोने के लिए गई थी तो फिर वह सुबह उठ ही नहीं सकी थी. बगैर किसी को बताये हुए उसने इकरा का बदन सदा-सदा के लिए त्याग दिया था. अथवा, यह भी कहा जा सकता है कि, मोहिनी की आत्मा को उसके शरीर में रहने की अवधि अब समाप्त हो चुकी थी- शायद, इसलिए भी कि, जिस आसमान से मोहिनी की आत्मा को दोबारा संसार में भेजा गया था, उसका समय भी समाप्त हो चुका था.
दफ़न की रस्म पूरी कर दी गई तो ज़नाज़े में आये हुए, उदास और निराश कामनाओं की अर्थी बने हुए लोगों का हुजूम धीरे-धीरे कब्रिस्थान के प्राचीर से बाहर आने लगा. सभी को मोहिनी के इस संसार से जाने का बहुत दुःख था. मनुष्यों के इस हुजूम में उसके अनाथालय के सैकड़ों, बच्चे, लड़के लड़कियां और तमाम कार्यकर्ता भी थे. सब ही जानते थे कि मोहिनी अब केवल मोहिनी ही नहीं बल्कि, उस अनाथालय के हरेक जन की एक प्रकार से मां थी- वह मां, जिसने इस अनाथालय को अपने खून से सींचा था. इन्हीं के बीच अपनी नम और भीगी बनी आँखों के साथ रोनित भी था. वह रोनित जिसने हमेशा मोहिनी को सहारा दिया, उसे ऊपर उठाया और उसकी हरेक बात पर विश्वास भी किया; मगर आज वह भी जैसे मोहिनी के बगैर अकेला रह गया था- एक प्रकार से अनाथ हो चुका था- बहुत कुछ कहना चाहता था, पर नि:शब्द था. फिर कहता भी तो किस्से? सुनने वाली तो फिर एक बार अपनी आसमानी दुनिया में, आसमान के राजा के दरबार में जा चुकी थी.
'नि:शब्द के शब्द - मोहिनी किड्स होम' ; मोहिनी के द्वारा स्थापित अनाथालय का यही नाम अब सरकार के द्वारा सभी औपचारिकताएं पूर्ण करने के पश्चात रख दिया गया था और एक बड़ा-सा साइन बोर्ड अनाथालय की इमारत और सामने बड़े-से मुख्य द्वार तथा अन्य आवश्यक स्थानों पर लगा दिए गये थे.
मोहिनी अपने सारे जीवन भर बोलती रही, लोगों को आसमान की वास्तविकता समझाने की भरपूर कोशिशें करती रही, अकाल मृत्यु के कारण अपना शरीर छोड़ने पर मजबूर भटकती हुई आत्माओं के संघर्ष, दुःख और कठिनाइयों का बखान करती रही, उनके आत्मिक संसार के बारे में सबको बताती रही; मगर कितने दुःख का विषय है कि, अधिकांशत: लोगों ने उस पर विश्वास ही नहीं किया. इस बारे में यहाँ तक उसको मूर्ख समझा कि खुद उसके मंगेतर मोहित तक ने उसको अपने जीवन से दूध में पड़ी हुई मक्खी की तरह निकाल फेंका था.
कौन जान सकता है कि, अपने सारे जीवन-भर संघर्षों के मैदान में लड़ती-जूझती, एक अकेली नारी, नितांत तन्हा मोहिनी, इस संसार से कौन-सा सुख लेकर गई होगी? सब अगर जानते हैं तो इतना ही कि, अब वह जहां भी है, उसी स्थान पर फिर से चली गई है, जिस स्थान से वह आई थी.
मोहिनी का जीवन, उसका मासूम और अनाथ बच्चों के प्रति उमड़ा हुआ प्यार, इन बेसहारा बच्चों के प्रति उसका एक मां समान प्यार, एक अनोखी ममता का केवल एहसास ही नहीं कराती है बल्कि, उसके उस महान त्याग और समर्पण का इतिहास लिखती है जिसे शायद 'नि:शब्द के शब्द' नामक अनाथालय की दीवारों से कभी-भी मिटाया नहीं जा सकेगा.
कभी ज़रा-सा भी सोचा है कि, अगर कोई बेसुध-सा, गरीब, अनाथ और भूखा नादान, मासूम-सा चेहरा लिए हुए बालक अचानक से अपना कटोरा लेकर हम और आपके सामने अगर आ जाता है तो आपकी-हमारी क्या क्रिया-प्रति-क्रिया होगी? 'चल भाग यहाँ से' यह कहेंगे या फिर उसको अपने हिस्से की एक रोटी दे देंगे? कभी इस बात पर भी क्या किसी ने गौर किया है कि, एक भरी ठण्ड से ठिठुरते हुए बालक को अगर कोई अपनी कमीज़ उतारकर दे देता है अथवा किसी भूखे के पेट में दो रोटी आप डाल देते हैं तो हमारी अंतरात्मा को कितनी शान्ति मिल सकती है? शान्ति की तो बात अलग, जिसके साथ आपने किया है वह आपको जीवन भर दुआएं देता रहेगा. वे दुआएं, जिनका मूल्य एक या दो रोटी नहीं, अपने शरीर से उतारकर दी हुई कमीज़ नहीं, बल्कि आपके दिल में ठहरा हुआ वह प्यार है जिसकी मिसाल मोहिनी देकर के इस संसार से सदा के लिए कूच कर चुकी है.
सचमुच में, अनाथ बच्चों के इस घर 'नि:शब्द के शब्द' की इमारत पर लिखा हुआ यह नाम, उन मासूमों के उन झुके-झुके, डरे-डरे और भूखे पेट जैसे फटेहालों के वे शब्द हैं, जिनके बोल और शब्द मोहिनी ने कभी सुने थे. अगर संसार का हर इंसान कहलानेवाला इन नि:शब्दों के शब्द सुन ले तो शायद हमारे देश की तस्वीर ही कुछ और होगी?
समाप्त.
***
'नि:शब्द के शब्द'
इस स्थान पर आकर यह धारावाहिक अब पूर्ण हो चुका है.
धन्यवाद.