नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक
तीसवाँ भाग
मोहित और मोहिनी
रोनित ने अपने 'रिसोर्ट' से लगी हुई बंजर ज़मीन दी और मोहिनी ने उसमें गरीब, लाचार और बेसहारा बच्चों के लिए एक अनाथालय बनवाया. उसके अंदर बच्चों के रहने के सभी साधन भी धीरे-धीरे लगवाये. सबसे बाहर मुख्य द्वार पर एक पालना लटकवा दिया. इस पालने का कार्य केवल इतना ही था कि, कोई भी अगर किसी बच्चे को अपने पास नहीं रखना चाहता है अथवा किसी को भी कोई लावारिस बच्चा कहीं मिलता है तो वह उसे इस पालने में बगैर किसी की भी अनुमति लिए हुए रख सकता है. इस पालने में किसी भी बच्चे के साधरण बोझ के आते ही, अनाथालय के मुख्य कमरे में स्वत: ही लाल बत्ती के साथ आपातकालीन अलार्म भी बजने लगता था. इस लाल बत्ती और अलार्म का अर्थ था कि, कोई अनाथ बालक पालने में अनाथालय की शरण में आने की प्रतीक्षा कर रहा है. मोहिनी ने इस अनाथालय के नाम के साथ-साथ उसके बहुत से नियम और क़ानून भी बनाये थे. इन नियमों में सबसे आवश्यक और महत्वपूर्ण नियम धार्मिक विचारों, विश्वास और आस्थाओं के लिए था. धर्म के नाम पर केवल उन्हें मानवता और इंसानियत का धर्म सिखाया जाएगा. एक-दूसरे से प्रेम रखो. अपने शत्रुओं से प्रेम करो. अपने सतानेवालों के लिए प्रार्थना करो. कोई तुमसे धोखे से एक रुपया ले लेता है तो उसे दो रूपये लेने दो. कोई तुम्हें गाली देता है, तो उसे सद्-बुद्धि के वचन कहो. भूखों को भोजन दो, प्यासों को पानी पिलाओ, बीमारों की सेवा करो. अधर्मी बनकर नहीं, बल्कि धर्मी बनकर, अधर्मी का दिल जीत लो. कोई तुम्हें, मूर्ख बनाकर बेगारी में एक कोस ले जाता है तो उसके कहने पर दो कोस चले जाओ. तब तुम्हारे इस प्रकार के व्यवहार से उस अधर्मी का मन स्वत: ही परिवर्तित हो जाएगा. हरेक किसी का सम्मान करो. विशेषकर स्त्रियों को सम्मान दो, क्योंकि स्त्रियों में तुम्हारी मां, बहन, बेटी, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारा जीवन-साथी भी हैं. उसी की कोख से मौत भी हारी है. स्त्री ही से ही मानव-सृष्टि आगे बढ़ी है. मोहिनी ने अपने इस गरीब और अनाथ बच्चों के लिए बनवाये अनाथालय के निर्माण में अपनी सारी जमा पूंजी लगा दी थी. बहुत कुछ रोनित ने उसकी सहायता की. उसने अपनी जमीन दी, पैसा दिया और बैंक से भी ऋण दिलवाने में मदद की. आरम्भ में पहले एक छोटी-सी इमारत बनकर तैयार हो गई. इसमें शुरू-शुरू में मात्र पचास बच्चों के रहने के लिए बिस्तर, कमरे, भोजन आदि सीमित सुविधाएं ही थीं, मगर बाद में जब लोगों और प्रशासन का विश्वास बढ़ा तो बाद में इसकी उन्नति स्वत: ही आगे बढ़ने लगी. और तरह से अगले दस वर्षों में इस अनाथालय का काम, सेवा और प्रगति इतनी तीव्रता से हुई कि एक दिन यह राज्य का सबसे अच्छा और सुगठित अनाथालय बनकर तैयार हो गया. इसके अंदर, मात्र दस वर्षों के भीतर ही, अनाथालय, आरम्भिक शिक्षा के लिए मिडिल कक्षा तक स्कूल, एक छोटा अस्पताल, लड़कियों के एक छोटा-सा व्यवसायिक स्कूल भी खोल दिया गया. इसके अंदर लड़कियों को व्यवसायिक शिक्षा जैसे सिलाई मशीन का कार्य, रसोई विज्ञान, बागवानी, आदि का भी ज्ञान व शिक्षा दी जाने लगी. मोहिनी जब भी यह सब देखती तो उसकी अंतरात्मा को जितनी अधिक खुशी होती थी उतनी अपनी मेहनत और सफलता को देखकर नहीं, क्योंकि, वह जैसा चाहती थी, उसने कर लिया था और अभी तक कर भी रही थी. वह जब भी गरीब, नादान और मासूम बच्चों की सेवा किया करती उसे एक अजीब-से अपार सुख की अनुभूति होती थी. वह जब उनके कोमल और नाज़ुक जिस्मों को नहलाती थी, उन पर साबुन लगाकर साफ़ करती थी तो उसे लगता था कि, वह जैसे अपने जीवन भर के पापों का मैल साफ़ कर रही है. वह जब भी यह सेवा कार्य करती थी तो उसे हमेशा याद आता था कि, एक दिन कभी उसने आसमान के महल की गढ़वाली सोने की दीवारों पर पढ़ा था कि, 'मैं भूखा था, तुमने मुझे भोजन नहीं खिलाया? मैं प्यासा था, तूने पानी नहीं पिलाया? मैं जेल में एक कैदी बनकर रहा था, तुम कभी मुझसे मिलने नहीं आये? मैं बीमार था, तुमने मेरी सेवा नहीं की? ' तब ऐसे में उसके दिल से यह सवाल उठते थे कि, 'हे, आसमान और ज़मीन के न्यायी मैंने तुझे कब भूखा, प्यासा और बीमार देखा है? कब आप बीमार हुए? तब कहीं दूर आकाश के झरोखों से उससे कोई कहता था था कि, 'अगर तुमने मेरे नाम से किसी भूखे को भोजन खिलाया तो मुझे खिलाया है. किसी प्यासे को पानी पिलाया है तो तुमने मेरी प्यास बुझाई है. किसी बीमार की सेवा की, किसी निर्दोष कैदी से मिलने गये तो समझो, यह सब तुमने मेरे साथ किया है.' और आज, मोहिनी यही सब करती थी और अपनी आत्मा में बेहद खुश भी होती थी. अपनी इस सेवा कार्य में एक दिन वह सब कुछ भूल गई, उसके लिए- जिसके लिए और जिसको न पाने की आशा रखते हुए वह कभी हताश और निराश हो चुकी थी. वह भूल गई अपना वह मोहित, उन मासूम बच्चों के प्यार में, जिसको पा लेने की उम्मीदें भरकर वह आसमान से भी लड़कर आई थी. भूल गई उस मोहित के होठों को जी भरकर चूमने की ख्वाइश, उन नादान बच्चों के कोमल होठों को चुमते हुए, जिसके गले लगकर एक दिन उसने अपने दिल की सैकड़ों हसरतों के सहारे मंगनी की थी. भूल गई अपना अरमानों से सजाया हुआ महल समान भावी जीवन का बसेरा, उन बच्चों को छत देने की भरपूरी में, जिसके लिए उसने न जाने कितने ही सपनों के महल खड़े किये थे. मोहिनी ने यही समझकर खुद को समझा लिया था कि, वह इस संसार में अकेली आई है और अकेली ही अब उसको यहाँ से रुखसत भी होना है. वह अपने जीवन की एक ऐसी अंतिम मंजिल पर आकर ठहर चुकी है कि, जंहा से कोई भी रास्ता न आगे जाता है और न ही पीछे. कोई उसका नहीं, वह किसी की नहीं. अगर उसका कोई है, कुछ उसका अपना है तो यह अनाथालय और यहाँ आनेवाला हरेक नादान अनाथ बालक उसका है. यही उसका जीवन है- यही जीवन का उसक अब श्रेय है- यही उसका अंतिम और प्रथम कदम है. वह आदि में मोहिनी थी और अंत में भी मोहिनी ही रहेगी. इंसान इस दुनियां में रहने के बाद कुछ भी नहीं लेकर जाता है. संसारिक रिश्ते-नाते, प्यार-वफा, किस्से-कायदे, रुपया-पैसा, धन-सम्पत्ति मान-सम्मान आदि यहीं धरा रह जाता है. अगर कुछ साथ जाता है तो वह उसका कार्य-व्यवहार, उसके कर्म- जैसा मनुष्य बोता है, वही उसको ऊपर जाकर काटना होता है. संत और बसंत में यही अंतर होता है. बसंत बिगड़ जाए तो चमन बरबाद हो जाता है और अगर संत बदल जाए तो देश भी बिगड़ जाता है. मोहिनी ने, अपनी सेवा और लगन में दोनों ही का सम्मान किया. न उसने संत को बदलने दिया और बसंत को भी संभालकर उसकी सेवा की. बदले में एक दिन उसको अपने अनाथालय का नामकरण का सरकारी पंजीकरण मिला- उसने सारे मान-सम्मान के साथ इस अनाथालय का प्यारा-सा नाम रखा- 'नि:शब्द के शब्द.' इन शब्दों के नीचे उसने यह भी लिखवाया-, 'मोहिनी किड्स होम.' कितने ही दिन बीत गये. अनगिनत मोसम आये और चले गये. जाड़ा ऋतु ने गर्म वस्त्रों को सम्मान दिया तो बरसातों में झूले झूलने और भीगने का आनन्द आया. बसंत आया तो सारी वनस्पति के पुराने कपड़े उतर गये और नई-नई कोमल तोतई रंगो की पत्तियों ने हरे वस्त्र भी पहना दिए. गर्मी की ऋतु में मनुष्यों के वस्त्र कम हुए और जाड़े में लोग आग तापने लगे. सृष्टि के इस कभी-भी न रुकनेवाले चक्र ने कभी भी आराम नहीं किया. वर्ष पर वर्ष व्यतीत हो गये.मोहिनी के अनाथालय के कितने ही जन्म-दिन आये और चले भी गये. लगभग पच्चीस वर्ष यूँ ही चले गये. मोहिनी पचपन वर्ष की हो गई. रोनित भी बूढ़ा हो गया. उसने अपना व्यापार बंद कर दिया और मोहिनी के अनाथालय में ही सेवाकार्य करने लगा.
तब एक दिनमोहिनी अपने मुख्य कार्यालय में बैठी हुई कोई कार्य कर रही थी. उसका लैपटॉप खुला हुआ था. काम की अधिकता के कारण उसके पास रखा हुआ कॉफी का मग भी अपनी भाप उड़ाते हुए ठंडा पड़ चुका था. तभी उसकी मेज पर लगी हुई घंटी बजने लगी. उसने घंटी का रिसीवर चालू किया तो बाहर बैठे गेटमैन ने उसे बताया कि कोई सज्जन अपने दो बच्चों के साथ उससे मिलना चाहते हैं. मोहिनी ने उन्हें अंदर आने की अनुमति दी तो एक जन किन्हीं दो बच्चों के साथ उनके पास आकर खड़े हो गये. मोहिनी ने उन्हें एक दृष्टि से देखा और फिर उन सबको बैठने की अनुमति दी. वह पुरुष उन दो बच्चों को लेकर आया था, जिनकी आयु दस और पन्द्रह वर्ष तक रही होगी. सबसे बड़ी लड़की थी और उससे छोटा उसका शायद भाई रहा होगा, उसकी आयु दस वर्ष तक की होगी.'कहिये ! क्या सेवा कर सकती हूँ मैं आपकी?''मेम साहब ! ये दो बच्चे लेकर आया हूँ. इनके मां-बाप घर की छत ढह जाने के कारण चल बसे हैं और इनके रिश्तेदार कोई भी इन्हें रखना नहीं चाहते हैं.' वह पुरुष बोला तो मोहिनी ने उससे पूछा कि,'ठीक है. आप कार्यालय में जाकर इनकी समस्त आवश्यक जानकारियाँ भर दीजिये, बाक़ी का काम मैं संभाल लूंगी.'वह पुरुष उठकर जाने लगा तो मोहिनी ने उससे पूछा कि,'वैसे इन बच्चों के मां-बाप कौन हैं?''पिता का नाम स्वर्गीय मोहित कुमार चौहान और पत्नी स्वर्गीय रासनी चौहान . . . दोनों ही इस दुनियां से चले गये और इन बच्चों को छोड़ गये.''?'- मोहिनी के सिर पर अचानक ही जैसे कोई पहाड़ गिर पड़ा. फिर भी उसने अपना संदेह मिटाने के लिए आगे पूछा,'कहाँ के रहनेवाले थे, इन बच्चों के मां-बाप?''?'- उस मनुष्य ने जब मोहित के गाँव का नाम बताकर मोहिनी के संदेह को विश्वास में बदल दिया तो फिर वह अपने सिर पर हाथ रखकर बैठ गई.'?'- कुछेक पलों तक वह इसी मुद्रा में बैठी हुई गम्भीर बनी रही. फिर बाद में वह जैसे सामान्य हुई और आगे बोली,'क्या नाम हैं इन दोनों बच्चों के?''लड़के का नाम मोहित और लड़की का मोहिनी.''ओ मेरे ईश्वर?'- मोहिनी मन-ही-मन बोली और बाद में उसने जैसे अपनी वार्ता समाप्त की. वह बोली,'ठीक है. आप इन दोनों का 'रजिस्ट्रेशन' कार्यालय में करवा दें और फिर इन दोनों बच्चों को यहाँ छोड़कर निश्चिन्त होकर घर जा सकते हैं. मोहिनी बड़ी देर तक उस मनुष्य के जाने के बाद, फिर एक बार मोहित में उलझ गई. कितनी अजीब बात थी कि, जिस अंतहीन-अंत की कहानी का पृष्ठ वह बीच में ही बंद करके, अपने जीवन की इस महत्वपूर्ण किताब को हमेशा के लिए बंद कर चुकी थी, उसी को मोहित न सही, मगर उसके अनाथ बच्चों ने फिर से खोल दिया था. ईश्वर के खेल और भेद कितने अजीब और आश्चर्यजनक हुआ करते हैं, वह आज मोहित के दोनों बच्चों को अपने आसरे पर खड़ा देखकर समझ चुकी थी. जिस मोहित के साथ उसने अपने प्यार को साकार करके अपने सपनों की दुनियां बसा लेने की लालसा की थी- जिसके साथ हंसी-खुशी अपनी ज़िन्दगी के रहे-बचे दिन गुज़ार लेने की आस्थाएं सजाईं थीं- जिसके साथ कायदे से विवाह रचाकर, उसके हंसते-खेलते बच्चों का एक सुखी परिवार बना लेने की अलग दुनियां रचने का सपना सजाया था; वह सब तो वह न कर सकी थी और न देख सकी थी, लेकिन ऊपर वाले की एक अलग योजना के तहत, वही सब कुछ वह अब एक दूसरे रूप में करने के लिए बाध्य थी? उसका मोहित अपने जीवन भर, जीते-जी उसे कुछ भी नहीं दे सका था- देना तो अलग, उसके महान और निस्वार्थ प्यार की ज़रा-सी भी कद्र नहीं कर सका था, मगर मरने के बाद अपने दोनों बच्चों को उसके दामन में छोड़कर क्या कहकर चलता बना था? क्या यही कि, अधूरे और ठुकराए हुए प्यार के खंडर हुए अवशेष, अपने समय पर, अपनी जान से भी अधिक प्यार करने वाले प्रेमी या प्रेमिका को रुलायेंगे, तड़पाएंगे, किसी को अपनी अकेली हुई बाहों में समेट लेने के लिए न जाने कब तक तरसायेंगे? सोचते हुए मोहिनी की आँखों से आंसुओं की बूँदें उसके गालों से सरकती हुई उसकी साड़ी की गोद में जाकर विलीन हो गई. कितना बुरा हश्र उसके प्यार का हुआ था? अपने प्यार की आहुति देकर खुद उसने प्रेम की सारी सरहदें पार कर ली थीं और मोहित उसके साथ चार कदम चलकर पीछे लौटकर जैसे समाप्त हो चुका था.
-क्रमश: