रावी की लहरें - भाग 18 Sureshbabu Mishra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रावी की लहरें - भाग 18

आखिरी सफर

 

नगरपालिका की घड़ी ने टन - टन कर चार घंटे बजाए थे । चार बज गए, रमेश हड़बड़ा कर उठकर बैठ गया । वह शौच आदि से निपटने चला गया। रमेश लौट कर आया तो उसने देखा कि अनवर अभी तक सोया पड़ा है। 

रमेश अनवर को झिंझोड़ते हुए बोला - 'जल्दी उठो अनवर, चार बज गये हैं। अगर बारामूला जाने वाली पाँच बजे की बस निकल गई तो दिन छिपने से पहले गाँव पहुँचना मुश्किल हो जायेगा । 

अनवर कुछ देर तक अलसाया सा पड़ा रहा, फिर जमुहाई लेते हुए उठ खड़ा हुआ। अभी तक उस पर नींद की खुमारी छाई हुई थी। 

अनवर नित्य क्रिया से निपटने चला गया। रमेश घर जाने की तैयारी करने लगा। 

रमेश और अनवर दोनों बचपन के दोस्त हैं। दोनों बारामूला जिले के रहने वाले हैं। दोनों के गाँव पास-पास ही है। अनवर की ही मदद से रमेश को यहाँ दिल्ली में कपड़ा मिल में नौकरी मिली थी । उसकी नौकरी लगे अभी सिर्फ छ: महीने ही हुए थे तब से वह अनवर के ही कमरे में रह रहा था । 

नौकरी लगने के बाद रमेश पहली बार घर जा रहा था। 

बचपन में ही पिता का देहान्त हो गया था। इसलिए छोटी उम्र में ही उसके कंधों पर गृहस्थी चलाने की जिम्मेदारी आ गयी थी । रमेश के घर की हालत ज़्यादा अच्छी नहीं थी। घर में कमाने वाला वह अकेला ही था। अब ढंग की नौकरी मिलने के बाद गुज़र-बसर आराम से होने लगी थी । 

रमेश के परिवार में बूढ़ी माँ, एक जवान बहिन, पत्नी और दो बच्चे हैं। गरीबी के बावजूद उन लोगों में आपस में स्नेह है। रमेश को चौबीसों घंटे बहिन के विवाह की चिंता सताती रहती है। 

रमेश जीवन में पहली बार इतने लम्बे अरसे तक घर से दूर रहा था । कभी-कभी उसे बच्चों की याद बहुत सताती । उसकी इच्छा होती कि वह सब कुछ छोड़-छाड़ कर घर भाग जाए, मगर फिर काम कैसे चलेगा - यही सोच कर उसके कदम रुक जाते थे। 

घर जाने का मतलब था बस के किराये भाड़े में दो हजार रुपये का खर्चा। चौदह हजार रुपये की नौकरी में अगर दो हजार रुपये आने-जाने में खर्च कर दे तो घर का बाकी खर्च कैसे चलेगा। यह एक ऐसी समस्या थी जिसका हल रमेश के पास नहीं था। हर महीने कोई न कोई मजबूरी आ खड़ी होती और रमेश घर नहीं जा पाता । परसों उसकी पत्नी शीला का खत आया था। कल उसके बड़े लड़के दीपू की वर्षगांठ है। इसलिए सब लोगों ने उसे घर बुलाया था। रमेश इसी सिलसिले में अनवर को भी अपने साथ लिये जा रहा था। 

रमेश ने अटैची को खोल कर देखा कि कोई सामान छूट तो नहीं गया है। माँ का नज़र का चश्मा, सरला का सलवार सूट, शीला की साड़ी, बच्चों के कपड़े तथा खिलौने ठीक-ठाक रखे थे। उसने अटैची बंद कर दी थी, वह संतुष्ट हो गया था। दोनों कमरा बंद कर स्टेशन की ओर चल दिये। 

बारामूला जाने वाली बस बिल्कुल तैयार खड़ी थी। रमेश और अनवर ने टिकट खरीदे और बस में जाकर बैठ गए। बस चल पड़ी। 

रमेश पास में बैठे यात्री से अखबार लेकर पढ़ने लगा । अखबार की एक सुर्खी पर उसकी नज़र टिक गई। मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था - 'कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा बीस लोगों की हत्या । 'न जाने कब बंद होगा यह हत्याओं का सिलसिला ।' अखबार अनवर की तरफ बढ़ाते हुए रमेश बोला । 

अनवर पूरा समाचार एक ही श्वांस में पढ़ गया था फिर वह बाला, 'जो लोग निहत्थे बेकसूर और बेबस लोगों का खून बहाते हैं, वे लोग किसी धर्म या मज़हब के मानने वाले नहीं हो सकते। वे देश के दुश्मन हैं। ये लोग विदेशी इशारों पर देश को कमज़ोर बनाने का घिनौना खेल खेल रहे हैं। ' 

'तुम ठीक कह रहे हो अनवर, इन मुट्ठी भर सिर- फिरे लोगों ने हमारे देश की खुशियों तथा अमन चैन को निगल लिया है।' 

'हूँ!' अनवर ने संक्षिप्त - सा उत्तर दिया । वह अखबार की अन्य खबरें पढ़ने लगा। 

अनवर को अखबार पढ़ता देख रमेश अपने विचारों में खो गया। उसे घर की याद सताने लगी थी । उसकी इच्छा हो रही थी कि उसके पंख - लग जाएँ और वह उड़कर जल्दी से घर पहुँच जाए। समय काटने के लिए वह अपनी पत्नी का खत निकाल कर पढ़ने लगा । लिखा था -

प्रिय प्राणनाथ, 

भगवान से सदैव आपकी सेहत और लम्बी उम्र की प्रार्थना करती रहती हूँ। आप तो वहाँ जाकर हमें बिल्कुल भूल ही गए। दीपू और बबलू दिन रात आप को याद करते हैं और तरह-तरह के सवाल पूछ कर मुझे तंग करते रहते हैं। 

कल रात मैंने बहुत भयानक सपना देखा था, तब से दिल बहुत बेचैन है। इच्छा हो रही है कि इसी समय आपके पास आ जाऊँ। मगर मैं स्त्री हूँ इसलिए ऐसा नहीं कर सकती। तीन दिन बाद दीपू की वर्षगांठ है। आपसे विनती है कि उस दिन जरूर आ जाना। मेरी नज़रें दरवाज़े पर ही टिकी रहेंगी। 

आपके इन्तजार में 

आपकी शीला 

पत्र पढ़कर रमेश ने जेब में रख लिया। वह शीला के बारे में सोचने लगा। कितना अच्छा स्वभाव है शीला का । जबसे शीला उसके घर उसकी पत्नी बन कर आयी है तब से अभावों के बावजूद शीला ने घर को खुशियों से भर दिया है। रमेश अभी विचारों में खोया हुआ था कि अचानक बस रुक गई। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाये, पाँच-छः राइफलधारी नकाबपोश नौजवान बस में चढ़ आए। बस में बैठे यात्रियों के चेहरे भय से पीले पड़ गये थे। 

आतंकवादी एक समुदाय के लोगों को नीचे उतारने लगे। आतंकवादियों का विरोध करना मौत को दावत देना था। इसलिए बस के सारे यात्री सहमे बैठे थे। जब आतंकवादी रमेश को पकड़ने बढ़े तो अनवर चिल्लाया- 'नहीं, मेरे दोस्त को मत पकड़ो। इसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?' 

'चुप रहो| क्यों अपनी जान देने पर तुला है।' एक आतंकवादी अनवर को घूरते हुए बोला । 

आतंकवादियों ने राइफलों के जोर पर रमेश सहित चौदह लोगों को बस से नीचे उतार लिया था। इनमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे। सब तरफ अजीब सी दहशत छाई हुई थी । भय के मारे किसी के मुँह से कोई बोल नहीं फूट रहा था। 

एक यात्री रोया - गिड़गिडाया और विनती की - 'हमारी आप से क्या दुश्मनी है। हम तो बिल्कुल बेकसूर हैं, हमें मत मारो ।' 

परंतु आतंकवादियों पर उनकी इन दलीलों का कोई असर नहीं पड़ा था । आतंकवादी जुनून में थे और जुनून दया एवं न्याय की भाषा नहीं समझता । उन्होंने अपनी राइफलें तान ली थी। 

अनवर बिजली की सी फुर्ती से बस से उतरा और रमेश के आगे आकर खड़ा हो गया। वह गरज कर बोला- 'पहले मुझे मारो फिर मेरे दोस्त को मारना । ' 

आतंकवादियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। राइफलें गरजीं और पंद्रह जिंदगियां लाशों में तब्दील हो गई। 

गोली हिंदू और मुस्लिम में भेद नहीं करती, इसलिए रमेश के साथ ही अनवर की लाश भी ज़मीन पर जा गिरी। 

आतंकवादी अपनी इस सफलता पर खुश होकर कहकहे लगाते हुए चले गए थे। उधर ज़मीन पर लाशें ही लाशें बिखरी पड़ी थीं। बस के बाकी यात्री बुत बने खड़े थे। क्षण भर पहले घर के सपने देख रहे रमेश की क्षत-विक्षत लाश ज़मीन पर पड़ी हुई थी। घर न पहुँच पाने की पीड़ा उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। उसकी आँखें अब भी शायद अपने बीवी-बच्चों को तलाश रही थी । 

अनवर की लाश से बहता लहू, रमेश की लाश से बहते हुए लहू से मिल रहा था। दोनों के बहते हुए लहू का रंग एक था। दोनों में कोई फर्क नज़र नहीं आ रहा था।