रावी की लहरें - भाग 19 Sureshbabu Mishra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रावी की लहरें - भाग 19

इज़्ज़त के रखवाले

 

शाम का समय था । सूर्य देवता अस्ताचल गमन की तैयारी में थे । दरख्तों की परछाइयाँ लम्बी होने लगी थीं। ऐसे में एक साइकिल सवार चन्दनपुर जाने वाली पगडंडी पर साइकिल दौड़ाए चला जा रहा था। शायद वह अंधेरा होने से पहले ही चन्दनपुर पहुँच जाना चाहता था। 

वह साइकिल सवार कोई और नहीं चन्दनपुर गाँव का ग्राम पंचायत सैक्रेटरी राजाराम था। राजाराम ब्लाक से लौट रहा था। उसके हल्के में चन्दनपुर के अलावा पाँच-छः गाँव और आते थे। राजाराम बड़ा चलू पुर्जा था। अपनी छः-सात साल की नौकरी में ही उसने लाखों रुपया पैदा कर लिया था। 

जब से जवाहर रोज़गार योजना शुरू हुई थी, तब से तो राजाराम के पौ-बारह हो गए थे। इलाके के सरपंचों से मिलकर उसने इस योजना के लिए आई धनराशि में से काफी गोलमाल किया था। अधिकांश निर्माण कागज़ों पर कराया गया था। वह सरपंचों से मिलकर अब तक इस योजना का लाखों रुपया डकार चुका था। उसने सावधानी यह बरती थी कि गाँव के हर सरपंच को भी उसने बराबर का हिस्सा दिया था। 

इधर कुछ दिनों से उसके हल्के से उसके खिलाफ शिकायतें आ रही थीं, आज इसी सिलसिले में वह चन्दनपुर जा रहा था। 

सूरज अब पूरी तरह डूब चुका था। जब राजाराम ने गाँव में प्रवेश किया तो चारों ओर खूब अंधेरा फैल गया था। राजाराम की साइकिल की खड़खड़ाहट की आवाज सुनकर गाँव के कुत्ते ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगे थे। कुछ कुत्ते साइकिल की ओर झपट भी पड़े। राजाराम साइकिल से उतर गया। उसने किसी तरह कुत्तों से बचाव किया और पैदल ही साइकिल घसीटते हुए सरपंच जी की चौपाल की ओर चल पड़ा था। 

सामने ही सरपंच जी की चौपाल थी। चौपाल पर अलाव के आस-पास ज़मीन पर आठ-दस लोग बैठे हुए थे। उनमें से कुछ लोग बतिया रहे थे और कुछ हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। सरपंच भोलानाथ तिवारी एक मूढ़े पर विराजमान थे। राजाराम को देखकर लोगों ने उसे राम-राम की थी। सरपंच ने राजाराम को अपने पास के मूढ़े पर बैठाते हुए पूछा था - "कहिए सैक्रेटरी साहब, क्या हालचाल है? ऐसे अंधेरे से अकेले कहाँ से आ रहे हो?" 

“सरपंच साहब, मैं आपसे अकेले में कुछ बात करना चाहता हूँ। " राजाराम ने चारों ओर नजर दौड़ाते हुए कहा । 

“हाँ-हाँ क्यों नहीं, चलिए अन्दर चलकर बैठते हैं। मगर बात क्या है, यह तो बताइए ?" सरपंच ने उलझन भरे स्वर में पूछा था । 

“'चलिए अन्दर चलकर ही सारी बातें होंगी ।" राजाराम ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। 

दोनों उठकर अन्दर चले गए। सरपंच ने चाय मंगवाई। राजाराम को चाय पिलाने के बाद सरपंच साहब बोले - अब बताइए क्या मामला है जो आप इतने परेशान नज़र आ रहे हैं?"  

“गजब हो गया सरपंच साहब! आपके गाँव के डालचन्द के छोकरे गजेन्द्र पाल ने हम लोगों के खिलाफ डी. एम. साहब के यहाँ अर्जी दी है जिसमें उसने शिकायत की है कि सरपंच द्वारा सैक्रेटरी के साथ साठ-गाँठ करके जवाहर रोज़गार योजना की धनराशि में भारी गोल-माल किया गया है। उसने इस योजना में कराए निर्माण कार्य की जाँच की माँग की है।" 

 “ क्या कह रहे हो सैक्रेटरी साहब?" सरपंच भोलानाथ तिवारी के माथे पर बल पड़ गए थे। 

"ठीक कह रहा हूँ सरपंच साहब! आज डी.एम. साहब के यहाँ से शिकायती पत्र की कॉपी आई थी। डी.एम. साहब ने बी.डी.ओ. साहब को आदेश दिया है कि वे शीघ्र पूरे मामले की जाँच करके रिपोर्ट भेजें।" 

“हूँ तो बात यहाँ तक पहुँच गई है। कल तक मेरे खेतों नौकरी करता था। लड़का शहर पढ़ने क्या जाने लगा है, साले के पर निकल आए हैं। साले की हिम्मत तो देखो, डी. एम. साहब के यहाँ मेरी शिकायत कर दी। इसे अगर सबक न सिखाया तो मेरा नाम भी भोलानाथ तिवारी नहीं ।" सरपंच जी मूँछें ऐंठते हुए बोले थे । 

'बात को इतने हल्के ढंग से मत लीजिए, सरपंच साहब! मामला बहुत गम्भीर है। अगर जाँच हो गई तो मेरी तो नौकरी चली जाएगी।" राजाराम चिंतित स्वर में बोला ।

"घबराओ मत सैक्रेटरी साहब! कोई न कोई रास्ता निकाला जाएगा।" 

“जो भी रास्ता निकालना हो जल्दी निकालिए सरपंच साहब! अगर जाँच शुरू हो गई तो बात दबानी मुश्किल पड़ जाएगी। डेढ़ लाख रुपये में से हम लोगों ने सिर्फ चालीस हजार रुपया खर्च किया है। सारे पैसे की रिकवरी तो होगी ही होगी, जेल की हवा भी खानी पड़ेगी। " राजाराम ने सरपंच साहब को मामले की नज़ाकत समझाई। 

चौपाल में कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया। राजाराम और सरपंच दोनों सोच-विचार में डूबे हुए थे। 

"छोटे मुँह बड़ी बात होगी! अगर आप इज़ाज़त दें तो मैं कुछ कहूँ! "सरपंच साहब के नौकर बुद्धा ने सरपंच साहब की ओर देखते हुए पूछा। 

“हाँ कहो, क्या कहना चाहते हो?" सरपंच साहब ने प्रश्नवाचक निगाहों से बुद्धा की ओर देखा । 

“अभी दो-तीन पहले पास ही के गाँव धर्मपुरा में मेरी एक रिश्तेदारों में डकैती पड़ी है।" 

'डकैती का इस मामले से क्या संबंध?" राजाराम बीच में ही उसकी बात काटते हुए नाराज़गी से बोला । 

'पहले साहब मेरी बात तो सुन लीजिए" बुद्धा जल्दी से बोला । उसे सैक्रेटरी का यों बीच में दखल देना शायद ठीक नहीं लगा था। 

"हाँ-हाँ सुन लीजिए। यह क्या कहना चाहता है।" सरपंच ने बुद्धा की बात का समर्थन किया। 

आप कहें तो साले गजेन्द्रवा को किसी तरह डकैती में फंसवा दूँ। अपने आप बच्चू रास्ते पर आ जाएगा।" बुद्धा राज भरे स्वर में फुसफुसा कर बोला । 

सरपंच भोलानाथ तिवारी उछल पड़े, “वाह बुद्धा वाह! तेरी अक्ल का भी जवाब नहीं। क्या दूर की कोड़ी लाया है।" उनके मुँह से अनायास ही निकल पड़ा। 

"मगर पुलिस कैसे विश्वास कर लेगी कि बी. ए. में पढ़ने वाला गजेन्द्र जैसा होनहार लड़का बुद्धा के रिश्तेदार के यहाँ डकैती डालने जाएगा।" राजाराम ने शंका प्रकट की। 

“हाँ, यह बात तो है । पुलिस आसानी से इस बात को नहीं मानेगी। थाना इंचार्ज भी नया-नया आया है। अभी उससे जान-पहचान भी नहीं हुई है ।" सरपंच का चेहरा उतर गया। 

 “सुना है ब्लाक प्रमुख जी की थाना इंचार्ज साहब से बड़ी दोस्ती है?" राजाराम बोला। सरपंच साहब ने प्रश्नावाचक निगाहों से राजाराम की ओर देखा।" परसों प्रमुख जी ने अपनी कोठी पर इंचार्ज साहब को दावत दी थी।" राजाराम बोला। 

“तब तो बात बन ही गई समझो। कल प्रमुख जी के यहाँ चलेंगे।" सरपंच साहब खुश होते हुए बोले । 

सरपंच को चैन नहीं था। अगले दिन वह राजाराम को लेकर प्रमुख जी की कोठी पर जा पहुँचा। उन्होंने शुरू से लेकर आखिर तक सारी बातें प्रमुख जी को बताई। सरपंच जी प्रमुख जी के रिश्तेदार तो थे ही, उन्हें ब्लाक प्रमुख बनवाने में भी सरपंच साहब ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसलिए प्रमुख जी सरपंच जी को बहुत मानते थे। सरपंच जी की समस्या सुन प्रमुख जी काफी गंभीर हो गए। काफी देर तक तीनों मंत्रणा करते रहे। 

अन्त में प्रमुख जी सरपंच जी को लेकर थाने पहुँचे। उन्होंने इंचार्ज साहब से सरपंच जी का परिचय करवाया। 

फिर प्रमुख जी इंचार्ज साहब को इशारे से एक ओर ले गए। काफी देर तक दोनों खुसर-पुसर करते रहे। 

महाविद्यालय का छात्र होने के कारण कहीं बात का बतंगड़ न बन जाए, इसलिए इंचार्ज साहब गजेन्द्र का नाम डकैती की रपट में जोड़ने से हिचकिचा रहे थे, परन्तु जब प्रमुख जी ने ऊपर तक अपनी राजनीतिक पहुँच का हवाला दिया और जबरदस्ती इंचार्ज की जेब में पचास हजार के कड़क नोट डाल दिए, तो फिर इंचार्ज ना नहीं कर सके थे। 

धर्मपुरा वाली डकैती की एफ. आई. आर. निकलवाई गई थी और बुद्धा के रिश्तेदार की सहमति से डकैती के नामजद अभियुक्तों में गजेन्द्र तथा उसके बाप डालचंद का नाम जोड़ दिया गया था। 

सरपंच जी अपनी विजय पर खुश होते हुए गाँव लौट आए थे। 

इसके तीन-चार दिन बाद की बात है। रात के नौ बजे थे। जाड़ों के दिन होने के कारण गाँव के लोग अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे। चारों ओर गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था । कभी-कभी कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें इस सन्नाटें को तोड़ देती थी । गजेन्द्र के घर सब लोग सोने की तैयारी ही कर रहे थे कि तभी पुलिस वालों ने उसके दरवाजे को खटखटाया। गजेन्द्र ने दरवाज़ा खोला। दरवाज़े पर इतनी बड़ी संख्या में पुलिस वालों को देखकर गजेन्द्र और डालचन्द हक्का-बक्का रह गए और इससे पहले कि वे दोनों कुछ समझ पाते सिपाहियों ने उन्हें पकड़ लिया था। 

“क्या बात है दरोगी जी, आप हमें क्यों गिरफ्तार कर रहे हैं? " गजेन्द्र ने हिम्मत करके पूछा था । 

धर्मपुरा वाली डकैती में तुम लोगों का नाम है।" दरोगा जी ने सख्त स्वर में में कहा था । 

गजेन्द्र और डालचन्द के पैरों तले की ज़मीन खिसक गई थी । 

“आपको कोई गलत फहमी हुई है साब। हम तो सीधे-सादे लोग हैं, हमारा डकैती से क्या वास्ता?" डालचन्द गिड़गिड़ाते हुए बोला था। 

“चुप साले! दरोगा जी से जुबान लड़ाता है।" एक सिपाही डालचन्द के गाल पर एक झन्नाटेदार झापड़ रसीद करते हुए बोला था । 

'देखिए दीवान जी आप सभयता से पेश आइए। हाथ मत उठाइए। हम लोग कोई चोर उचक्के नहीं हैं। शरीफ लोग हैं।" 

“हूँ, तो यह कल का छोकरा साला हमको सभयता सिखाएगा? लगाओ साले के आठ-दस लाठियाँ ।” दरोगा गुस्से से चिल्लाया था । 

सिपाही लाठियाँ लेकर गजेन्द्र और डालचन्द पर पिल पड़े थे। रात के सन्नाटे में उनकी चीखें दूर-दूर तक गूंजने लगी थीं। 

जंगल की आग की तरह पूरे गाँव में यह बात फैल गई थी कि पुलिस आई है और गजेन्द्र तथा डालचन्द को पीट रही है। सब लोग आपस में काना - फूसी कर रहे थे। किसी को इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था कि गजेन्द्र और डालचन्द डकैती भी डाल सकते हैं। मगर गाँव में दरोगा का डर दरोगा से भी बड़ा होता है । इसलिए सब लोग आपस में ही खुसर- फुसर करते रहे थे, किसी की इतनी हिम्मत नहीं पड़ी थी कि वह पुलिस वालों के पास जाकर कुछ कहता। पुलिस वाले गजेन्द्र और डालचन्द को घसीटते हुए थाने ले गए थे। 

गजेन्द्र की माँ दौड़ी-दौड़ी मदद के लिए सरपंच के यहाँ पहुँची थी, मगर पता चला था कि सरपंच जी कहीं बाहर गए हुए हैं ओर दो-तीन दिन में वापस लौटेंगे। सरपंच जी के अलावा गाँव में और कोई ऐसा आदमी नहीं था जो थाना-कचहरी जाकर पैरवी कर पाता, इसलिए गजेन्द्र की माँ हाथ मलकर रह गई थी। 

थाने में गजेन्द्र और डालचन्द को पूरे दिन लॉकअप में बन्द रखा गया था। पूछ-ताछ चलती रही थी। शाम को बयान लेने के बहाने गजेन्द्र की बहू को भी थाने में बुला लिया गया था। 

रात के दस बजे थाना इंचार्ज के सामने गजेन्द्र की बहु को पेश किया गया था। अभी हाल में ही में ब्याह कर ससुराल आई थी। घर से बाहर निकलने का यह उसका पहला अवसर था । इसलिए वह लम्बा घूँघट काढ़े हुए थी । 

"इसका घूँघट पलट दो।" कमरे में थाना इंचार्ज का नादिरशाही आदेश गूँजा । 

एक सिपाही ने बढ़कर डंडे से गजेन्द्र की बहू का घूँघट पलट दिया । गजेन्द्र की बहू लाज के मारे दोहरी हो गई थी। सर्दी के मौसम में भी उसके माथे पर पसीने की बूँदें छलछला आई थीं। 

उधर गजेन्द्र की बहू की सुन्दरता देखकर थाना इंचार्ज लार टपकाने लगे थे। उन्होंने कनखियों से ब्लाक प्रमुख की ओर देखा था । प्रमुख जी कुटिलता से मुस्काए थे। फिर आँखों आँखों में कुछ इशारे हुए थे। तीनों शराब के नशे धुत थे। तीनों ने उठकर शराब का एक-एक पैग और पिया। 

 थाना इंचार्ज पर नशे की खुमारी पूरी तरह छा गई थी । 

"दरवाजा बाहर से बन्द कर दो, ज़रूरी बयान लेने हैं।" इंचार्ज साहब ने सिपाही को आदेश दिया। 

आदेश की फौरन तामिल हुई। दरवाज़ा फटाक से बन्द कर दिया गया। गजेन्द्र की बहू थर-थर काँपने लगी। उसने चाहा कि वह सहायता के लिए खूब ज़ोर से चीखे, मगर भय ने उसके होठों को सिल दिया था। 

नशे में धुत तीनों लोग बारी-बारी से गजेन्द्र की बहू का बयान लेने लगे थे। उधर लॉकअप में गजेन्द्र और उसके बाप से पूछ-ताथ चल रही थी । रात की नीरवता में कभी गजेन्द्र की बहू की सिसकियाँ गूँज उठती थी, तो कभी लॉकअप में बंद गजेन्द्र और डालचन्द की दिल दहला देने वाली चीखें। पूरी रात यही क्रम चलता रहा था। 

सुबह अंधेरे ही गजेन्द्र की बहू को गाँव भिजवा दिया गया था । 

जाते-जाते थाना इंचार्ज ने उसे चेतावनी दी थी अगर तूने कभी इस बारे में मुंह खोला तो साले गजेन्द्र को ज़िन्दगी भर जेल में सड़वा दूँगा । 

इसके बाद प्रमुख जी और सरपंच जी भी अंधेरे में ही उठकर चले गए थे। 

अगले दिन सुबह दस बजे के करीब सरपंच जी थाने आए थे। इस समय वह धुला हुआ सिल्क का कुर्ता तथा नील लगी सफेद चमचमाती धोती पहने हुए थे। उनके चेहरे में सज्जनता टपक रही थी। रात के नशे में धुत वहशी सरपंच और इस समय के सरपंच में कोई समानता नज़र नहीं आ रही थी। इस समय उन्होंने अपने चेहरे पर जनसेवा का मुखौटा ओढ़ रखा था । 

सरपंच जी सीधे लॉकअप में बन्द गजेन्द्र और लालचन्द के पास पहुँचे। उन्होंने वहाँ तैनात सिपाही से पूछा - " क्यों भाई इन लोगों को क्यों गिरफ्तार किया गया है ? ये लोग तो हमारे गाँव के हैं।" 

 “इन्हें धर्मपुरा वाली डकैती के केस में पकड़ा गया है ।" सिपाही ने संक्षिप्त उत्तर दिया। 

 “क्या कहा... डकैती? डकैती से इन लोगों का क्या लेना-देना? ये तो सीधे-साधे लोग हैं। और गजेन्द्र तो हमारे गाँव का एक होनहार लड़का है। सरपंच जी ने नकली आश्चर्य का प्रदर्शन करते हुए कहा । 

"हमें किसी तरह से बचा लो सरपंच जी। हम आपका यह अहसान कभी नहीं भूलेंगे।" डालचन्द फूट-फूट कर रोते हुए बोला । 

"कैसी बाते करते हो डालचन्द, तुम लोग कोई गैर थोड़े ही हो। मैं तो आज ही बाहर से लौटा था। जब तुम लोगों के बारे में पता चला तो दौड़ा-दौड़ा यहाँ तक चला आया। 

 “आपने बड़ी मेहरबानी की। अब किसी तरह से हमें यहाँ से छुड़ा लो । नहीं तो गजेन्द्र की ज़िन्दगी तवाह हो जाएगी ।" डालचन्द के स्वर में दुनिया भर की दीनता सिमट आई थी। 

“हिम्मत से काम लो डालचन्द। अब मैं आ गया हूँ। तुम्हारी पैरवी में कोई कसर नहीं उठा सकूँगा । चाहे यहाँ से लेकर राजधानी तक दौड़ना पड़े, मगर तुम लोगों को छुड़ाकर ही दम लूँगा। मैं अभी जाकर इंचार्ज साहब से बात करता हूँ।" यह कहकर सरपंच जी इंचार्ज साहब के कमरे की ओर चले गए। 

गजेन्द्र और डालचन्द को कुछ आशा की किरण नज़र आने लगी थी । 

एक-डेढ़ घंटे बाद सरपंच जी लौट कर आए। दोनों ने आशा भरी नज़रों से उनकी ओर देखा । 

"तुम लोगों के खिलाफ डकैती की रिपोर्ट नामजद है। इंचार्ज साहब छोड़ने को तैयार नहीं हो रहे थे। मैंने उन्हें किसी तरह तैयार कर लिया है। पचास हजार रूपये में बात पक्की हो गई है।" 

"मगर मेरे घर में तो इस समय फूटी कौड़ी भी नहीं होगी। पचास हज़ार रुपयों का इंतज़ाम कैसे हो पाएगा?" डालचन्द बेहद चिन्तित स्वर में बोला । 

"रुपये तो इस समय मेरे पास भी नहीं है, मगर तुम चिन्ता मत करो । मैं कोई न कोई उपाय करूँगा । चाहे मुझे खेत गिरवी रखना पड़े, चाहे गहना बेचना पड़े, जैसे भी हो शाम तक रुपयों का इंतजाम कर तुम लोगों को छुड़ाऊँगा । गाँव की इज़्ज़त का सवाल है।" सरपंच के एक-एक शब्द में सहानुभूति टपक रही थी। 

भाव-विह्वल होकर गजेन्द्र और डालचन्द सरपंच जी के पैरों पर गिर पड़े थे। इस समय उन्हें सरपंच जी किसी देवदूत से कम नहीं लग रहे थे। शाम होते-होते सरपंच जी ने गजेन्द्र और डालचन्द को थाने से छुड़ा लिया था। दोनों पूरे गाँव में उनका यश गाते फिर रहे थे। 

पुलिस की मार के कारण गजेन्द्र की सारी अकड़ ढीली हो गई थी। वह अब भी यह सोच-सोच कर काँप उठता था कि यदि सरपंच जी समय पर न पहुँचते तो पुलिस उसकी क्या हालत बनाती। सरपंच जी के खिलाफ उसके मन में लेशमात्र भी विरोध नहीं रह गया था। उल्टे उसे गहरा पछतावा हो रहा था कि उसने सरपंच जी जैसे देवता आदमी की शिकायत डी. एम. साहब के यहाँ की थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह किस मुँह से सरपंच जी से अपनी भूल के लिए माफी माँगे । 

अगले दिन सात बजे के आस-पास का समय था । चारों ओर रात का धुंधलका छा गया था। सरपंच जी की चौपाल पर रोज की भांति लोग जमा थे। बातचीत चल रही थी। तभी सिर नीचा किए हुए गजेन्द्र वहाँ आया और एक ओर बैठ गया। 

“क्या बात है गजेन्द्र? कुछ परेशान लग रहे हो।" सरपंच जी ने उसे कनखियों से देखते हुए पूछा । 

"सरपंच जी, मुझसे एक बहुत बड़ी भूल हो गई थी । मैं तो आपको मुँह दिखाने लायक भी नहीं हूँ। " गजेन्द्र सिर झुकाए हुए ही बोला । 

"कैसी भूल?" सरपंच जी ने नकली आश्चर्य का प्रदर्शन करते हुए पूछा । 

“मैंने कुछ लोगों के बहकावे पर आपकी शिकायत डी. एम. साहब के यहाँ कर दी थी कि सरपंच जी जवाहर रोज़गार योजना में भारी घपला कर रहे हैं। " 

"हूँ। यह तो तुमने वास्तव में बड़ा गलत काम कर दिया और मुझे बताया भी नहीं ।" सरपंच जी ने चिन्तित होने का अभिनय किया। 

“मैं तो बड़ा परेशान हूँ सरपंच जी। अब आप जो बताएँ मैं करने को तैयार हूँ।" गजेन्द्र पूरी तरह हथियार डालते हुए बोला । 

"नादानी में तुमने कर तो बहुत बड़ी गलती दी है गजेन्द्र खैर, जो कुछ हुआ सो हुआ। अब तुम ऐसा करना, कल दस बजे सेक्रेटरी साहब के साथ ब्लाक चले जाना। वहाँ सेक्रेटरी साहब जैसा बताएँ, बी.डी.ओ. साहब के सामने लिखकर दे देना ।" 

“ठीक है. कल मैं दस बजे पंचायत सेक्रेटरी साहब के साथ चला जाऊँगा ।" गजेन्द्र ने सहमति व्यक्त की। 

"क्यों भाई ठीक रहेगा न पंचायत सेक्रेटरी साहब?" सरपंच जी सेक्रेटरी साहब की ओर देखकर कुटिलतापूर्वक मुस्कुराते हुए बोले । 

"बिल्कुल ठीक रहेगा । मैं कल गजेन्द्र को अपने साथ ले जाऊँगा। गजेन्द्र, तुम थोड़ा जल्दी आ जाना, थोड़ा जल्दी चलेंगे।" 

“आप चिन्ता न करें मैं नौ बजे आ जाऊँगा" यह कह कर गजेन्द्र चला गया। 

धीरे-धीरे बाकी लोग भी उठ गए। सब चले गए तो राजाराम सरपंच जी की ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोला, “वाह सरपंच जी वाह ! क्या तुरुप चाल चली। एक ही चाल में बेटे को चारों खाने चित कर दिया। साले की घरवाली की इज़्ज़त भी लुटवा दी और दूसरे ओर गाँव की इज़्ज़त के रखवाले भी बन बैठे। पूरा गाँव आपकी वाह-वाह कर रहा है । गजेन्द्र तो आपका पक्का भक्त बन गया है।"