रावी की लहरें - भाग 20 Sureshbabu Mishra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रावी की लहरें - भाग 20

भाग्य परिवर्तन

मैं एक बैठक में भाग लेने महानगर आया हूँ। रेल से उतर कर मैं प्लेटफार्म पर आ गया । चाय पीने की तलब लग रही है, इसलिए मैं होटल की ओर चल देता हूँ। 

मैं होटल में जाकर बैठ गया। नौकर ने चाय का कप लाकर मेरी मेज पर रख दिया। अभी मैंने चाय का पहला ही घूंट भरा था कि होटल का मालिक मेरे पास आकर खड़ा हो गया। उसने हाथ जोड़कर मुझसे नमस्ते की । 

मैंने हैरानी से उसकी ओर देखा । 

उसने पूछा, “आपने पहचाना नहीं साहब?" 

अब मैंने ध्यान से उसकी ओर देखा । मैं उसे पहचानने की कोशिश करने लगा। उसका चेहरा कुछ जाना-पहचाना सा लग रहा था, मगर मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था । 

मुझे चुप देखकर वह बोला मेरा नाम रोशन है साहब। आपने ही आज से आठ साल पहले मुझे किताबें खरीद कर दी थी। 

अब मुझे सारी बातें याद आ गई। और आठ साल पहले की वह घटना हू-ब-हू मेरी आँखों के सामने ताजा हो उठी। 

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या थी । मैं छात्रावास के लॉन में बैठा कोई किताब पढ़ रहा था। तभी छात्रावास का नौकर चाय लेकर आया और बोला, “आज चाय नहीं पियोगे बाबू?" 

मैंने रोशन की ओर सिर उठाकर देखा । पन्द्रह - सोलह वर्ष की उम्र, सुंदर चेहरा साफ कपड़े, गले में स्कार्फ तथा पैर में हवाई चप्पल । यही उसकी वेषभूशा थी। 

मैंने रोशन से पूछा, “कल छब्बीस जनवरी है रोशन | कल तुम क्या - क्या करोगे।" 

रोशन के चेहरे पर क्षण भर के लिए खुशी की एक चमक सी आई, 

फिर गायब हो गई । वह बोला, “हम गरीबन की का छब्बीस जनवरी बाबू ।" 

नहीं रोशन ऐसा नहीं कहते हैं। कल छब्बीस जनवरी है, हमारा गणतंत्र दिवस। कल तुम ऐसा करना, सुबह उठकर नहाना और साफ कपड़े पहनना । तब यहां काम करने आना, और काम के बाद छब्बीस जनवरी के कार्यक्रम देखने जाना ।" 

“अच्छा बाबू" रोशन ने स्वीकृति में सिर हिला दिया । 

मुझे ना जाने क्यों रोशन पर दया सी आने लगी। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा "क्यों रोशन, तुम इतनी छोटी सी उम्र में काम क्यों करने लगे?"

रोशन ने एक गहरी श्वांस ली। कुछ देर चुपचाप कुछ सोचता रहा, फिर उदास स्वर में बोला – “पेट की आग बुझाने की खातिर बाबू । बाप कपड़ा मिल में काम करत रहन। उनको हाथ मशीन से कट गयन साब। तब हम आठ साल के रहत। तबहीं से हम काम करन लागे बाबू। " 

यह कहकर रोशन चाय का कप उठाकर बाहर चला गया। मैं फिर किताब उठाकर पढ़ने लगा। मगर अब मेरा मन पढ़ने में नहीं लग रहा था। मैंने किताब बंद कर दी और घूमने के लिए चल दिया। 

शाम को खाना-खाने के बाद मैं कमरे में आकर लेट गया। ट्रांजिस्टर पर राष्ट्र के नेता का राष्ट्र के नाम प्रसारण आ रहा था । 

मैं सोच रहा था, कल गणतंत्र दिवस है। अब देश का हर बच्चा स्वतंत्र पैदा होता है। हमारा संविधान सभी को सामाजिक समानता का अधिकार देता है | परंतु इस सबके बावजूद फैक्ट्रियों, होटलों, रेस्तराओं, बागानों में काम करते, बोझा ढोते, तथा जूते साफ करते रोशन जैसे अनपढ़ किशोर क्या बन पाते हैं ? असमर्थ और साधन हीन मजदूर जो कदम-कदम पर शोषण का शिकार बनते हैं। वे आजाद भारत में भी गुलामों जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं। पेट की आग बुझाने की खातिर वह जीवन भर काम की गाड़ी में जुटे रहते हैं । 

इसी उधेड़बुन में कब मुझे नींद आ गई पता ही नहीं चला। सुबह जब मैं सोकर उठा तो मौसम बड़ा सुहावना था। चारों ओर अनोखा उल्लास था । प्रात:कालीन सूर्य की किरणें बड़ी सुहानी लग रही थीं। 

नित्य क्रिया से निवृत्त होकर मैं ध्वजारोहण समारोह में भाग लेने चल दिया। मैं मैस मैंनेजर के कमरे के पास से गुजर रहा था कि मैंने मैनेजर की गरजती हुई आवाज सुनी - "क्यों वे रोशन के बच्चे इतनी देर से क्यों आया?" 

साहब, रात कपड़ा धोयत रहन, सूख न पायन, या मारे देर हुई गयी ।" “यहां काम क्या तेरा बाप करता?" मैंनेजर रोशन का कान उमेठते हुए बोला। 

मैंने देखा, रोशन सिर झुकाए हुए मौन खड़ा था। 

“जा यह तेल का डिब्बा ले जा । पकौड़ी बननी है ।" मैंनेजर रोशन को धुड़कते हुए बोला । रोशन तेल का डिब्बा लेकर चल दिया और मैं झंडारोहण समारोह में भाग लेने चला गया। 

ध्वजारोहण के बाद सब लोगों ने टी.वी. पर आज का समारोह देखने का प्रोग्राम बनाया। सब लोग टी.वी. हाल की ओर चल दिए। मैं भी उनके साथ हो लिया। सबके साथ मैं जब हाल की ओर जा रहा था तो मैंने देखा कि मैंनेजर रोशन को बुरी तरह पीट रहा था। रोशन बार - बार दया की भीख मांग रहा था और दोबारा ऐसी गलती ना करने की दुहाई दे रहा था। मगर मैंनेजर उसकी एक नहीं सुन रहा था। 

पूछने पर पता चला कि हड़बड़ी में रोशन से तेल का डिब्बा गिर गया था और उसमें से लगभग एक किलो तेल बह गया था। 

मैंने मैंनेजर से कहा, “अब बस करो मैनेजर साहब । क्या एक किलो तेल के लिए बेचारे की जान ले लोगे?" 

“आप आपन काम करो बाबू। " मैंनेजर ने कठोर स्वर में कहा । अपने को असहाय सा महसूस करता हुआ मैं सबके साथ टेलीविजन देखने चल दिया। 

टेलीविजन पर राष्ट्र के नेता भाषण दे रहे थे बालक हमारे देश की नींव है। उन्हीं के विकास से देश का विकास संभव है। 

उधर रोशन की ममन्तिक चीखों से पूरा छात्रावास गूंज रहा था और मेरा मन एक अव्यक्त अपराध बोध से भरा जा रहा था। 

मैं उठकर अपने कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद पता चला कि रोशन को मैंनेजर ने नौकरी से निकाल दिया है। यह खबर सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ । मैं बैठा नहीं रह सका। मैं उठकर रोशन को ढूंढने बाहर आ गया था। छात्रावास के बाहर रोशन एक पेड़ के नीचे बैठा रो रहा था । 

मैंने रोशन के सिर पर हाथ फेरा और उससे चुप हो जाने के लिए कहा। 

मेरी सहानुभूति पाकर वह और जोर-जोर से रोने लगा । 

कुछ देर बाद जब रोशन चुप हो गया तो मैंने उसे समझाया – “देखो रोशन, तुम बहादुर लड़के हो । आज के जमाने में जिंदा रहना भी एक चुनौती बन गया है। रोने धोने से कोई फायदा नहीं हिम्मत से काम लो।"

अगर तुम पहले कुछ पढ़-लिख लिए होते तो शायद तुम्हें यह दिन न देखने पड़ते। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। मेहनत करने वाले के लिए काम की कोई कमी नहीं है। यहां काम छूटा है तो दूसरी जगह मिल जाएगा। मगर एक बात याद रखना रोशन, अगर तुम इसी तरह अनपढ़ रहे तो हर जगह तुम्हारा शोषण होगा। इसलिए तुम काम के साथ-साथ थोड़ा वक्त निकाल कर पढ़ते-लिखते भी रहना । 

रोशन ने स्वीकृति में सिर हिला दिया। मैंने वहीं से उसे दो किताबें तथा स्लेट दिला दी। रोशन उन चीजों को पाकर बहुत खुश हुआ। 

फिर मैंने उसे बीस का नोट देते हुए कहा- "यह लो रोशन इससे तीन - चार दिन का खर्च चल जायेगा । तब तक तुम कहीं काम ढूंढ लेना ।" 

रोशन रुपए लेने को तैयार नहीं था। मैंने जबरदस्ती रुपए उसकी जेब में डाल दिए । वह मुझसे नमस्ते करके चला गया। 

मैं विभागीय प्रशिक्षण में भाग लेने छात्रावास आया हुआ था। एक महीने बाद जब प्रशिक्षण खत्म हो गया तो छात्रावास से चला गया। फिर इस बीच वहां कभी आना-जाना नहीं हुआ। बात आई-गई हो गई। मैं उस घटना को भूल चुका था और आठ साल बाद वही रोता हुआ रोशन होटल में खड़ा था । 

मैं जाने क्या- क्या सोचे जा रहा था। तभी रोशन ने मुझे कंधा पकड़ कर हिलाया, 'कहां खो गये साहब, चाय ठंडी हो रही है।' 

रोशन के आग्रह पर चाय के साथ मुझे न जाने कौन-कौन सी मिठाइयां और नमकीन खानी पड़ी। 

नाश्ता करने के बाद मैंने रोशन से पूछा - "एक बात बताओ रोशन, तुमने इतनी तरक्की कैसे कर ली। यह सब आपका ही दिया हुआ है साहब। आपने जो किताबें और रुपए दिए थे, वह मेरे लिए वरदान बन गए। " 

"वह कैसे?" मुझे पूरी बात जानने की उत्सुकता हो रही थी । आपने जो बीस रुपए दिए थे, उन रुपयों से मैंने मूंगफली खरीदी, और उन्हें रेलगाड़ी में बेचा। उस दिन मुझे पांच रुपये की आमदनी हुई। मैंने सोचा नौकरी करके मार- गाली खाने की जगह, तो यही काम ठीक है मैंने मूंगफली बेचने का धंधा शुरू कर दिया। 

रहने के लिए कोई जगह नहीं थी। कई दिन तो प्लेटफार्म पर काटे। फिर मुझे एक साथी मिल गया। हम दोनों ने मिलकर एक खोली किराए पर ले ली। मेरा साथी पांचवी तक पढ़ा हुआ था। मैंने रात को उससे पढ़ना शुरू कर दिया। आपकी बात मेरे मन में बैठ गई थी, इसलिए दो साल में मैंने काम लायक पढ़ना-लिखना सीख लिया। 

दो साल में हम लोगों के पास कुछ रुपए हो गए थे । उन रुपयों से मैंने और मेरे साथी रहमत ने मिलकर यहां चाय की एक छोटी सी दुकान खोल ली। 

धीरे-धीरे दुकानदारी बढ़ती गई। फिर हम दोनों ने बैंक की सहायता से उस चाय की दुकान को होटल में बदल दिया । यह होटल अब खूब चल रहा है । मेरा यह भाग्य परिवर्तन शिक्षा के कारण ही संभव हो सका, इसलिए मैंने अपने मन में तय कर लिया कि मैं अपने अड़ोस - पड़ोस के लोगों को अनपढ़ नहीं रहने दूंगा । 

मैंने अपने घर पर ही एक कमरे में प्रौढ़ शिक्षा केंन्द्र खोल रखा है। जहां मैं अपने होटल में काम करने वाले तथा अड़ोस-पड़ोस के अनपढ़ लोगों को पढ़ाता हूँ। 

मैंने मजदूरों की यूनियन भी बना रखी है। रहमत उसका संयोजक है। मैंने तय कर लिया है कि अनपढ़ होने के कारण जो जुल्म मेरे साथ हुए है उन्हें मैं अपने अन्य मजदूर भाइयों पर नहीं होने दूंगा । 

मुझे बैठक के लिए देर हो रही थी इसलिए मैं रोशन से विदा लेकर चल दिया था। परन्तु जाने से पहले रोशन ने मुझसे कल आने का वायदा जरूर करा लिया था। 

टेंपो पर बैठा हुआ मैं सोच रहा था कि अब साक्षरता की किरणें धीरे-धीरे फैल रही हैं। लोगों में चेतना आ रही है अब वह दिन दूर नहीं जब अन्याय और जुल्म बीती बातें बन जाएंगे।