रावी की लहरें - भाग 21 Sureshbabu Mishra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रावी की लहरें - भाग 21

अनोखी चमक

 

डाक्टर प्रवीण को धर्मपुरा प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर तैनात हुए लगभग छ: महीने बीत चुके थे। अपनी सेवा भावना और मरीजों के साथ मधुर व्यवहार से उन्होंने गांव के सभी लोगों के दिल में अपनी जगह बना ली थी। 

मास्टर रेवती रमण के परिवार के डाक्टर प्रवीण की बड़ी घनिष्ठता हो गई थी। उनके बच्चों को वे अंग्रेजी तथा विज्ञान पढ़ा देते थे। अक्सर प्रवीण को रात का खाना वहीं खाना पड़ता था । 

आज भी वे वहीं खाना खाने के बाद परिवार के लोगों के साथ गपशप कर रहे थे। 

बातचीत के बीच मास्टर रेवती रमण बोले- "डाक्टर साहब, बहुत दिनों से मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ ।" “हां हां बिल्कुल पूछिए ।" डॉ. प्रवीण ने कहा । 

“डाक्टर साहब यह बताइए कि आजकल के समय में हर आदमी शहर की ओर भाग रहा है। आपको भी आसानी से शहर में पोस्टिंग मिल सकती थी, फिर आप हमारे इस पिछड़े हुए गाँव में आकर क्यों रह रहे हैं। गाँव वालों के लिए आपके मन में इतनी हमदर्दी क्यों है?" 

“इसके पीछे बहुत लम्बी कहानी है, फिर कभी बताऊँगा ।" 

'नहीं-नहीं, आपको आज इस बारे में बताना ही होगा डॉक्टर साहब सभी लोग एक साथ बोल पड़े थे ।" 

डाक्टर साहब पहले न-नुकुर करते रहे, फिर सबके आग्रह पर उन्होंने बताना शुरू किया। 

पास के जिले में एक गाँव है लखनपुरा । मैं वहीं का रहने वाला हूँ। मेरे पिता खेती करते थे। हम पांच भाई-बहिन थे। तीनों बहिनें बड़ी थी, जिनकी शादी हो चुकी थी । हम दोनों भाईयों की उम्र में सिर्फ दो-ढाई साल का अन्तर था इसलिए हम दोनों में गहरा अपनापन था। एक के बिना दूसरा एक पल भी नहीं रह सकता था। साथ-साथ खेलते, एक थाली में खाते और साथ-साथ स्कूल पढ़ने जाते। अगर दोनों में से कोई एक दो-चार दिन के लिए इधर-उधर चला जाता तो ऐसा लगता मानो शरीर का कोई अंग ही कटकर अलग हो गया हो। 

हम लोगों का परिवार ज्यादा धनी नहीं था फिर भी गृहस्थी की गाड़ी आसानी से चल रही थी। हम दोनों पास के गाँव के इण्टर कालेज में पढ़ने जाते और लौटकर पिताजी के काम में हाथ बटाते । मैं ग्यारहवीं में था और छोटा भाई नवीं में। प्यार से घर के सब लोग उसे छोटा ही कहते थे। 

बड़ी मौज मस्ती के दिन थे। तभी जीवन में, एक ऐसी घटना घटी जिसे याद करके आज भी मन गहरी पीड़ा से भर जाता है। 

सब लोग बड़े ध्यान से डॉ. प्रवीण के अतीत की कहानी सुन रहे थे। डॉ. साहब ने आगे बताना शुरू किया- “ भादों का महीना था। बरसात के दिन। पास ही के घर में हम दोनों भाइयों की दावत थी। दोपहर को हम लोग दावत खाकर लौट आए। 

घर आकर दोनों लेट गए। थोड़ी देर बाद छोटा की तबियत बिगड़ने लगी । उसे उल्टियाँ और दस्त होने लगे। पिताजी उस दिन किसी काम से बाहर गए हुए थे। इसलिए मैं ओर माँ दोनों बहुत घबरा उठे । पास-पड़ोस के एक-दो जानकार लोगों को दिखाया, कुछ घरेलू दवाइयाँ दीं, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ । उसके उल्टी और दस्त बढ़ते ही जा रहे थे। 

बरसात के कारण चारों ओर रास्तों में पानी भरा हुआ था। हल्की-हल्की बूँदा बाँदी भी हो रही थी । इसलिए बैलगाड़ी वगैरा से उसे कहीं ले जाना भी संभव नहीं था। 

उसकी हालत में सुधार न देख मैं घबराकर कस्बे से डाक्टर को बुलाने के लिए भागा। 

रास्ते में कीचड़ था, पानी था, परन्तु मुझे किसी चीज का होश नहीं था। मेरे पाँवों में तो जैसे पंख लग गए थे। मैं तेजी से भागा चला जा रहा था। मैंने सात मील की दूरी एक घण्टे में कैसे तय कर ली मुझे खुद कुछ पता नहीं चला। 

कस्बे में दो प्राइवेट डॉक्टर थे। मैं दोनों के पास गया। सारी बात बताकर उनसे गाँव चलने की विनती की। परन्तु उन लोगों ने जाने से साफ मना कर दिया। 

मैं रोया- गिड़गिड़ाया, उनके पैर पकड़े तथा कहा कि मेरे भाई की जिन्दगी आपके हाथ में है, उसे चलकर बचा लो। मैं मुँह माँगी फीस दूँगा । परन्तु सारी कोशिश विफल गई। दोनों में से कोई भी डाक्टर ऐसे कीचड़ पानी में गाँव आने के लिए तैयार नहीं हुआ। 

आखिर में मैंने कहा कि आप कोई दवाई ही लिख दो । 

कोई डॉक्टर इसके लिए भी राजी नहीं हुआ। वे बोले हैजे का केस है बिना मरीज को देखे हम दवाई नहीं दे सकते। अगर कोई ऊँच-नीच हो गई तो हमारी बदनामी होगी। 

हार कर बुझे मन से मैं घर लौट पड़ा । निराशा के कारण मुझसे चला नहीं जा रहा था। पैर मानो एक-एक क्विंटल के हो गए थे। 

घर आकर मैंने देखा छोटा की हालत बहुत बिगड़ गई थी। मेरे पहुँचते ही उसने पूछा डाक्टर नहीं आए भइया? उसे दिलासा देने के लिए मैंने कह दिया कि डॉक्टर साहब आ रहे हैं। 

अधिक उल्टी और दस्त होने से छोटा बेहोश हो गया था। उसे बीच-बीच में जब भी होश आता वह पूछता, डॉक्टर साहब अभी नहीं आये भइया। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कोई मेरा कलेजा बाहर खीचे जा रहा है। उसकी हालत मुझसे देखी नहीं जा रही थी । उसको बचाने के लिए कुछ नहीं कर पाने की बिबशता मुझे मन ही मन खाए जा रही थी । 

शाम होते-होते छोटा ने मेरी गोद में सिर रखे हुए दम तोड़ दिया। मरने से पहले उसने असहाय नजरों से मेरी ओर देखा था । मेरा मन गहरी वेदना से भर गया था। तब तक पिता जी भी आ चुके थे। किसी तरह मेरे प्राणों से प्यारे मेरे छोटे भाई का क्रिया कर्म मेरी आखों के सामने किया गया। 

मेरे दुःख का कोई अन्त नहीं था। महीनों तक मैं खोया-खोया सा रहा । कुछ भी अच्छा नहीं लगता । न पढ़ने में मन लगता, न खेलने में। हर समय छोटा की याद आती रहती। 

कहते हैं कि समय का मरहम बड़े से बड़े घाव को भर देता है। धीरे-धीरे मैं सामान्य होता गया। परन्तु तभी मेरे जीवन में एक और घटना घटी। जिसने मेरे पूरे अस्तित्व ही को हिला कर दखा दिया था। 

मेरे पड़ोस में मेरी एक मुँह बोली भाभी थी । मैं उनसे बहुत प्रेम करता था। उनके कोई देवर नहीं था । इसलिए वे भी मुझे बहुत चाहती थी। 

मेरा खाली समय अधिकतर उन्हीं के पास बीतता था। वे मुझसे बोलती बतियाती तथा तरह-तरह के हंसी-मजाक करती रहती थी । जब मैं उनके यहाँ जाता, वे मुझे कुछ न कुछ जरूर खिलाती । न खाने पर रूठ जातीं, फिर मेरे जरा हंसने पर मान भी जाती थीं । 

भाभी के बच्चा होने वाला था। एक दिन वह अनाज सुखाने के लिए छत पर गई। उतरते समय पता नहीं कैसे उनका पैर जीने पर फिसल गया और वे नीचे गिर पड़ी। 

चोट उनके पेट में लगी थी जिससे भयानक दर्द उठना और खून बहना शुरू हो गया था । 

जल्दी-जल्दी सब लोग बैलगाड़ी में उन्हें डालकर कस्बे की ओर भागे। मैं भी उनके साथ था। 

भाभी की हालत बिगड़ती ही जा रही थी । खून बहना अभी तक बन्द नहीं हुआ था। वे दर्द से छटपटा रही थी। कस्बा अभी दो तीन मील रह गया था । भाभी ने मुझे अपने पास बुलाया और बोली अब मैं बचूँगी नहीं लाला । अपने भइया से कहो बैलगाड़ी वापस घर ले चलें । 

कैसी बातें करती हो भाभी । धीरज रखो, आप ठीक हो जाओगी। झूठी दिलासा देने से कोई फायदा नहीं लाला । मेरा एक काम करोगे? उन्होंने मेरा एक हाथ अपने हाथ में लेकर कहा । 

मैंने कहा बोलो भाभी आपके लिए मैं जान भी दे सकता हूँ। जान देने की जरूरत नहीं है लाला। उसे मेरी देवरानी के लिए बचाकर रखो। उन्होंने मुस्कुराना चाहा । फिर वे बोली ऐसा करना पढ़-लिख कर तुम डाक्टर बनना और गाँव में रहना जिससे मेरी तरह किसी को दवाई के अभाव में मरना नहीं पड़े। 

मैं आपको वचन देता हूँ भाभी | मैंने कहा, भाभी की आँखों में अनोखी चमक आ गयी थी। उन्होंने विश्वास भरी नजरों से मेरी तरफ देखा था और फिर हमेशा-हमेशा के लिए अपनी आँखें बन्द कर ली थी। 

इन दोनों घटनाओं ने मेरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया था। भाभी की वो आँखें और छोटा की वो दम तोड़ती सूरत हर समय मेरे जेहन में घूमती रहती । मैंने संकल्प कर लिया कि एक दिन मैं डाक्टर जरूर बनूँगा। कहते हैं कि दृढ़ संकल्प के सामने कठिनाई रूपी पहाड़ भी रास्ता छोड़ देते हैं। मैं परीक्षा की तैयारी में जुट गया । इण्टर की परीक्षा में पूरे उत्तर प्रदेश में मेरा दूसरा स्थान आया। 

इण्टर पास करने के बाद बिना किसी सिफारिश के अंकों के आधार पर मेरा दाखिला मेडिकल कालेज में हो गया। 

किसी तरह ट्यूशन करके मैंने अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी की। मैंने अभावों को बहुत निकट से देखा है। 

पूरे मेडिकल कालेज में मेरा पहला स्थान रहा। इसलिए राजकीय चिकित्सा सेवा के लिए मेरा चयन कर लिया गया। 

मेरी दिली इच्छा था कि मैं गाँव में ही रहूँ। अपने जिले में मेरी नियुक्ति हो नहीं सकती थी । इसलिए इस गाँव में जब यह प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खुला तो मैंने अधिकारियों से कह सुनकर यहाँ अपनी नियुक्ति करा ली। आप लोगों की तरह अधिकारी भी हैरान थे कि मेरा जैसा युवा डाक्टर गाँव के स्वास्थ्य केन्द्र पर क्यों जाना चाहता है ? 

मास्टर साहब मैं जब अस्पताल में किसी मरीज को देखता हूँ तो मुझे उसमें अपने भाई तथा भाभी का अक्स नजर आता है। और मैं उसी भावना तथा पूरी लगन से उसकी चिकित्सा करता हूँ। यह कहते-कहते डाक्टर प्रवीण बहुत भावुक हो उठे थे। 

रात काफी बीत चुकी थी। इस बीच मास्टर रेवती रमण की पत्नी सभी के लिए चाय बना लाई थी। चाय पीने के बाद डॉक्टर प्रवीण अस्पताल लौट आए थे। काफी देर तक वे स्वास्थ्य केन्द्र की भावी योजनाओं के बारे में सोचते रहे थे। इसी बीच उन्हें गहरी नींद आ गई थी और वे सो गए थे।