रावी की लहरें - भाग 22 Sureshbabu Mishra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रावी की लहरें - भाग 22

सुख का महल

 

एस.पी. दिनेश वर्मा अपने ड्राइंग रूम में चहलकदमी कर रहे हैं। उनके बाल बिखरे हुए और कपड़े अव्यवस्थित हैं। उनके चेहरे से गहन चिन्ता झलक रही है। आज चार दिन हो गए हैं उनकी बेटी रागिनी के अपहरण को । अथक प्रयासों एवं भागदौड़ के बावजूद भी वह उसका कोई सुराग नहीं पा सके हैं। सुरक्षा की दृष्टि से जिले के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के बावजूद इस समय वह अपने को अत्यन्त असहाय महसूस कर रहे हैं। वह टहलते - टहलते रुक जाते हैं, कुछ सोचते हैं, और फिर टहलने लगते हैं। चौदह वर्षीय रागिनी उनकी इकलौती सन्तान है। आज से दो दिन पूर्व दिन के चार बजे स्कूल से लौटते समय उसका अपहरण कर लिया गया है। 

आज सुबह उनके पास एक पत्र आया है। तब से कई बार इस पत्र को पढ़ चुके हैं। एक बार पुनः वह उस पत्र को पढ़ने लगते हैं। पत्र में लिखा है एस. पी. दिनेश वर्मा, जेल से छूटने के बाद मेरे सामने गुनाह की राह पर चलने के अलावा और कोई चारा नही रहा। जब तक समाज में धर्मपाल जैसा सफेदपोश गुंडा, श्याम सिंह जैसे विधायक और तुम्हारे जैसे अधिकारी रहेंगे तब तक जनता पर यों ही अत्याचार होते रहेंगे। धर्मपाल और श्याम सिंह को मैंने गोली मार दी है। तुम्हारी बेटी रागिनी को लिए जा रहा हूँ । पैसा और पद तुम्हारी नज़रों में सबसे अहम चीज है, एस. पी. दिनश वर्मा ! देखना है, तुम अपने पैसे और पद के बल पर रागिनी के अभाव की पूर्ति कैसे करते हो । काली घाटी का आतंक धीरज । 

पत्र पढ़कर इस सर्दी के मौसम में भी दिनेश वर्मा को पसीना आ जाता है । वह मेज़ पर रखे जग में से लेकर एक गिलास पानी पीते हैं और फिर सोचने लगते हैं। सोचते-सोचते वह पहुँच जाते हैं, गाँव महेंद्र गढ़ । 

आज से आठ वर्ष पूर्व वह एस. ओ. थे और उनकी पोस्टिंग चन्दनपुर थाने में थी। वहाँ का प्रधान महेन्द्र पाल महेंन्द्र गढ़ का बेताज बादशाह था । स्थानीय विधायक का साला होने के कारण उसकी गाँव एवं आसपास के इलाके में तृती बोलती थी । क्षेत्र के सरकारी कर्मचारियों पर भी उसका अच्छा दबदबा था। धर्मपाल अत्यन्त ही अय्याश किस्म का आदमी था। गाँव की बहू-बेटियों पर बुरी नज़र रखना एवं उनसे छेड़छाड़ करना उसकी आदत थी । गाँव की प्रत्येक जवान लड़की पर वह अपना अधिकार समझता था । उसके धन तथा गुंडों के प्रभाव के कारण कोई भी उसका विरोध नहीं कर पाता था । परन्तु एक दिन चौधरी हरपाल की बेटी निर्मला ने उसका यह घमंड चकनापूर कर दिया। दोपहर का समय था । निर्मला पानी भरने कुएँ पर गई हुई थी। उसी समय उधर कहीं से निकलता हुआ धर्मपाल आ गया। अपनी शोख जवानी और गदराए जिस्म के कारण निर्मला बहुत दिनों से धर्मपाल के जेहन में छाई हुई थी । निर्मला को सामने पाकर धर्मपाल अपने को ररोक नहीं सका। मौका पाकर उसने निर्मला से छोड़छाड़ करना शुरू कर दी। सबके सामने निर्मला अपनी बेइज्जती को बर्दाश्त नहीं कर सकी। उसने गालियाँ देते हुए धर्मपाल के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। धर्मपाल को स्वप्न में भी इस बात की उम्मीद नहीं थी । गाँव में अपनी बेइज्जती से वह चुटीले नाग की तरह फूफकार उठा, “नीच, कमीनी, कुतिया, तेरी इतनी हिम्मत ! साली, तेरा घमंड तोड़कर न रख दूँ तो मेरा नाम धर्मपाल नहीं ।" यह कहता हुआ वह अपने घर चला गया । सहमी हुई निर्मला भी अपने घर चली गई। 

शाम को जब चौधरी हरपाल को यह सारी घटना मालूम हुई तब वह भावी दुर्घटना की आशंका से भयभीत हो गए। वह धर्मपाल के प्रभाव को जानते थे। दूसरे दिन वे शहर में अपने बेटे धीरज के पास सलाह करने गए । धीरज बी. ए. फाइनल का होनहार छात्र था। दोनों बाप-बेटे सलाह करके मेरे पास थाने आए। उन्होंने सारी बातें बताकर धर्मपाल के विरुद्ध एफ. आई. आर. लिखने की प्रार्थना की। मैं जानता था कि उनकी कही प्रत्येक बात सत्य है, परन्तु धर्मपाल के विरुद्ध रिपोर्ट लिखने का मतलब या जल में रहकर मगर से बैर मोल लेना । अतः मैंने धर्मपाल के विरुद्ध कार्रवाई करने का आश्वासन देकर तथा समझा-बुझाकर उन्हें वापस भेज दिया । 

दूसरे दिन धर्मपाल किसी काम से थाने आया। मैंने धर्मपाल पर अहसान जताने की गरज से हरपाल के बारे में सारी बात बताई। यह सब सुनकर धर्मपाल बहुत क्रोधित हो गया और बोला, “साले हरपाल की इतनी हिम्मत 

अब उसका जल्दी ही कुछ इन्तजाम करना होगा ।" यह कहकर धर्मपाल अपने घर चला गया। चौधरी हरपाल धर्मपाल की दुश्मनी से बहुत चिन्तित थे । वह जल्द से जल्द निर्मला के हाथ पीले कर उसे ससुराल भेज देना चाहते थे । संयोग से उन्हें एक लड़का भी मिल गया। पांच मई निर्मला की शादी की तिथि निश्चित हुई। हरपाल और धीरज शादी की तैयारियों में जुट गए। वह सोच रहे थे कि निर्मला के ससुराल चले जाने के बाद धर्मपाल की दुश्मनी अपने आप समाप्त हो जाएगी। परन्तु भगवान को यह मंजूर नहीं था । निर्मला की शादी में तीन दिन शेष रह गए थे। 

धीरज शादी का सामान खरीदने शहर गया हुआ था। दो मई को आधी रात के समय धर्मपाल अपने दस-पंद्रह गुंडों के साथ हरपाल के घर में घुस आया। गाँव वालों को आतंकित करने के लिए उसने हवा में फायर किए। हरपाल और उसकी पत्नी को बाँध कर एक जगह डाल दिया। फिर धर्मपाल व उसके साथियों ने निर्मला के साथ बारी-बारी से बलात्कार किया। वह चीखती, गिड़गिड़ाती रही और रहम की भीख माँगती रही, परन्तु वहशी ध र्मपाल पर उसका कोई असर नहीं हुआ। भयातुर गाँव वाले भी मूकदर्शक बने इस चीत्कार को सुनते रहे। धर्मपाल और उसके गंडों ने हरपाल और उसकी पत्नी को यह दृश्य देखने के लिए मजबूर किया । अत्यधिक रक्तस्राव के कारण निर्मला ने दम तोड़ दिया । धर्मपाल और उसके दरिन्दों ने हरपाल और उसकी पत्नी को भी गोली मार दी, ताकि गाँव वाले देख लें कि धर्मपाल की दुश्मनी का अंजाम क्या होता है 

दूसरे दिन धीरज के रिपोर्ट लिखने पर जब मैं महेंद्रगढ़ पहुँचा तो धीरज के घर में अत्यन्त ही लोमहर्षक दृश्य था। आंगन में निर्मला की निर्वस्त्र लाश पड़ी हुई थी तथा आंगन में खड़े नीम के पेड़ पर हरपाल और धीरज की माँ का लाश उल्टी लटकी हुई थी । सारी कानूनी कार्रवाई करने के बाद मैंने लाशों को पोस्टमार्टम हेतु भिजवा दिया। 

इस घटना ने मुझे हिला कर रख दिया था। मैंने सरगर्मी से धर्मपाल की तलाश प्रारम्भ कर दी। जब मुझे पता चला कि धर्मपाल अपने बहनोई श्याम सिंह एम. एल. ए. के यहाँ छुपा हुआ है तो मैंने दविश देकर उसे पकड़ लिया और थाने ले आया । 

श्याम सिंह एम. एल. ए. के प्रदेश के गृह मंत्री से बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। उन्होंने मुझसे धर्मपाल के केश में फाइनल रिपोर्ट लगाने को कहा। उन्होंने कहा कि अगर आप फाइनल रिपोर्ट लगा देंगे तो गृहमंत्री से कहकर आपका प्रमोशन करवा दूंगा। रिपोर्ट न लगाने पर दूर-दराज के क्षेत्र में तबादला कराने की धमकी दी । धर्मपाल द्वारा मुझे पचास हजार रुपये देने का प्रलोभन भी दिया गया। मेरा मन किसी प्रकार भी इस केस में फाइनल रिपोर्ट लगाने का न था । मैं धर्मपाल के विरुद्ध सख्त से सख्त कार्रवाई करना चाहता था, परन्तु पचास हजार के कड़कड़ाते नोट और प्रमोशन के लालच ने मेरे विवेक पर पर्दा डाल दिया। मैंने चश्मदीद गवाहों के अभाव में सन्देह का लाभ देते हुए धर्मपाल के केस में फाइनल रिपोर्ट लगा दी। जब धीरज को यह बात पता लगी तो वह दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आया। उसने फाइनल रिपोर्ट न लगाने की काफी अनुनय-विनय की, इंसानियत की दुहाई दी, परन्तु मेरे सिर पर तो उस समय स्वार्थ का भूत सवार था। मेरे यह कहने पर कि अब कुछ नहीं हो सकता, धीरज ने एस. पी. से शिकायत करने की धमकी दी। 

हम लोगों ने सोचा कि यदि धीरज ने एस.पी. से शिकायत कर दी तो केस वास्तव में फिर से उखड़ सकता है । अत: हमने एम.एल.ए. साहब से मिलकर धीरज को एक डकैती के केस में झूठे गवाह खड़े करके जेल भिजवा दिया। उसे पाँच वर्ष की सजा हुई। 

तभी फोन की घंटी की आवाज़ से एस. पी. दिनेश वर्मा की तंद्रा टूटी | वह भूत से वर्तमान में आए। उन्होंने फोन उठाते हुए पूछा, "मैं एस. पी. दिनेश वर्मा बोल रहा हूँ। आप कौन साहब बोल रहे हैं?" "मैं एस. ओ. किशनगढ़ बोल रहा हूँ सर ! अभी-अभी काली नदी के किनारे डाकू धीरज और उसके साथियों को देखा गया है। आप आदेश दें तो फोर्स लेकर डाकुओं का पीछा किया जाए ।" 'डाकू धीरज' यह शब्द एस. पी. वर्मा के हृदय में चुभता - सा है। वह सोचते हैं, किसने बनाया उसे डाकू ? किसने दिखाई उसे गुनाहों की राह ? कौन है इतने परिवारों को बरबादी का कारण? उन्हें अपने ऊपर ग्लानि होने लगती है । वह सोचते हैं कि मैंने दूसरों के दुखों की बुनियाद पर अपने सुख का जो महल खड़ा किया है, जो भरभरा कर गिर रहा है। किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में वह फोन पटक देते हैं। दूसरी ओर इंस्पेक्टर, "हेलो सर" करता ही रह जाता है।