रावी की लहरें - भाग 17 Sureshbabu Mishra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रावी की लहरें - भाग 17

बाबा सन्ता सिंह

 

सतलज नदी धीमी चाल से बह रही थी । उसके दोनों किनारों पर दूर-दूर तक रेत फैली हुई थी। वैसाख की तेज दोपहरी में रेत के कण चांदी के समान चमक रहे थे। चारों ओर तेज धूप फैली हुई थी, इसलिए दूर-दूर तक कोई आदमी दिखाई नहीं दे रहा था। झुलसा देने वाली गर्म लू चल रही थी । 

तभी दूर कहीं से किसी गाने की आवाज सुनाई पड़ी | आवाज़ धीरे - धीरे पास आती गई। यह आवाज़ सन्तासिंह की थी । सन्तासिंह तन्मय होकर भजन गा रहे थे। 

सन्तासिंह को आस-पास के गाँवों का बच्चा-बच्चा जानता था। वह गाँव वालों में बाबा सन्तासिंह के नाम से जाने जाते थे। 

सन्तासिंह शुरू से बाबा जी नहीं बने थे, आज से तीन साल पहले वह पास ही के शहर में एक मशहूर डॉक्टर थे। सन्तासिंह के बारे में यह कहा जाने लगा था कि उनका हाथ लगते ही मरीज ठीक हो जाता है। इसलिए उनके यहाँ मरीजों का ताता लगा रहता था । सन्तासिंह बड़े मिलनसार तथा उदार स्वभाव के थे, इसलिए मरीज की आधी बीमारी तो उनसे बात करके ही दूर हो जाती थी। रुपये पैसे की सन्तासिंह के पास कोई कमी नहीं थी । 

एक अच्छे डॉक्टर होने के साथ-साथ वे एक सच्चे देशभक्त भी थे। वे राष्ट्रीय एकता के कट्टर समर्थक थे। हिन्दू, सिक्ख मुसलमान तथा ईसाई सभी धर्मों के लोगों से उनके समान संबंध थे। वे सभी धर्मों का आदर करते थे। डॉक्टर सन्तासिंह आतंकवादियों की हिंसक कार्यवाहियों की खुल कर निंदा करते थे। इसलिए वे आतंकवादियों की हिट लिस्ट में थे। आतंकवादियों की ओर से उन्हें कई बार धमकी भरे पत्र मिले थे मगर वह उनसे जरा भी विचलित नहीं हुए थे। 

एक दिन डॉक्टर सन्तासिंह दवाई लेने महानगर गए हुए थे। काम में फंस जाने के कारण वह उस रात घर वापस नहीं आ सके। उन्हें उनके एक मित्र ने रोक लिया था । 

सुबह जब डॉक्टर सन्तासिंह शहर से घर वापस लौटे तब तक उनकी दुनिया उजड़ चुकी थी। रात को उनके घर आतंकवादी घुस आए थे। उन्होंने अंधाधुंध गोलियाँ चलाकर सन्तासिंह के बीवी बच्चों की नृशंस हत्या कर दी थी। 

जब सन्तासिंह घर पहुँचे तो उनके आंगन में लोगों की भारी भीड़ जमा थी। आंगन के बीचो-बीच उनके दोनों लड़कों और बीवी की खून से लथपथ लाशें पड़ी हुई थी । सन्तासिंह उन्हें देख कर मानो पत्थर के हो गए थे। वे न रोए, न चिल्लाए, बस बुत की तरह एकटक घंटों तक लाशों को निहारते रहे। उनकी आँख से एक भी आँसू नहीं निकला। बेटों और बीवी की अन्तिम क्रिया करते समय भी वे नहीं रोए । 

चार-पाँच दिन तक सन्तासिंह ही यही हालत रही। वे न किसी से बात करते थे, न कुछ खाते थे और न पीते थे बस चुपचाप एक जगह पड़े रहते थे। लोगों ने समझा कि सन्तासिंह बीवी-बच्चों के गम में पागल हो गए हैं, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। 

कुछ दिन बाद वे धीरे-धीरे सामान्य हो गए। हाँ अब उनके जीवन की दिशा बदल चुकी थी। वे शहर को छोड़कर गाँव में आ गए। उन्होंने नदी के किनारे एक झोपड़ी डाल ली और उसी में रहने लगे। 

सुबह उठते ही सन्तासिंह आस-पास के गाँवों में निकल जाते और रोगियों का मुफ्त इलाज करते । वे किसी से कोई पैसा नहीं लेते थे । सन्तासिंह के पास रुपये-पैसों की कमी नहीं थी। वे गरीबों की मदद करते रहते थे। धीरे-धीरे उनकी ख्याति बाबा सन्तासिंह के रूप में आस-पास के गाँवों में फैल गई। गाँव के लोग उन पर जान छिड़कते थे। 

दोपहर को सन्तासिंह अपनी झोपड़ी में वापस आ जाते, कुछ रूखा-सूखा खाते, थोड़ी देर आराम करते और फिर शाम को दुबारा गाँवों में निकल जाते । रात को वे काफी देर से घर लौटते । लोगों की सेवा करना और भजन पूजा करना, बस सन्तासिंह के जीवन का यही उद्देश्य बन गया था। उन्हें अपने इस नए जीवन में बड़ा आनन्द आ रहा था। 

रोज की भांति आज भी सन्तासिंह दोपहर को भजन गाते हुए अपनी झोपड़ी की ओर लौट रहे थे। अचानक उन्हें किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी। वे आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगे। कहीं कोई नज़र नहीं आ रहा था । सन्तासिंह ने उसे मन का वहम समझा । मगर कराहों की तेज़ आवाज़ फिर कानों में पड़ी। 

सन्तासिंह ने गौर से उधर देखा, जिधर से आवाज़ आ रही थी। अचानक उनकी नज़र रेत पर बने धब्बों पर पड़ी। वे धब्बे खून के थे । सन्तासिंह धब्बों के पीछे चल दिये। आगे चलकर घनी झाड़ियों के पास पहुँचकर वे धब्बे खत्म हो गये थे । सन्तासिंह ने ध्यान से सुना। उन्हीं झाड़ियों में किसी के कराहने की आवाज़े आ रही थी। 

अब सारी बात सन्तासिंह की समझ में आ गई। कोई घायल आदमी आकर झाड़ियों में कहीं छिप गया है, यह खून उसीके घावों से निकल रहा है, जिसके धब्बे रेत में बन गए हैं। 

सन्तासिंह ने झाड़ियों में घायल की तलाश करना शुरू कर दिया। अचानक एक घनी झाड़ी के पीछे उन्होंने एक नौजवान को घायल पड़े देखा। नौजवान लम्बे-चौड़े शरीर का मालिक था। उसके शरीर पर कीमती कपड़े थे। बुरी तरह घायल होने के कारण वह बेहोश हो गया था । 

सन्तासिंह ने उसकी नब्ज़ देखी । नब्ज़ सामान्य रूप से चल रही थी। नब्ज़ देखते समय सन्तासिंह की नज़र घायल की उँगलियों पर पड़ी। उसने दाहिने हाथ की उंगलियों में सोने की चार अंगूठियाँ पहन रखी थीं । 

एक अंगूठी पर नजर पड़ते ही सन्तासिंह की मुख - मुद्रा बदल गई । उनका चेहरा अंगारे के समान लाल हो गया तथा आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। कुछ क्षण तक उनकी यही दशा रही। फिर वे धीरे-धीरे सामान्य हा गए । उन्होंने एक गहरी श्वांस ली। फिर वे मन ही मन बुदबुदाए - 'वाहे गुरू की शायद यही मर्ज़ी है। शायद वह इम्तहान लेना चाहता है।' 

तभी उनके कानों में आवाज़ पड़ी - 'कोई है, ज़रा पानी दे दो । बड़ी प्यास लगी है।' 

सन्तासिंह नदी से चुल्लू भर पानी लाए। उन्होंने पानी की कुछ बूँदें घायल के मुँह में डालीं। उसकी पीड़ा कुछ कम हुई। 

सन्तासिंह एक अनुभवी डॉक्टर थे। उन्होंनें सोचा कि घायल के शरीर से काफी खून निकल चुका है। अगर समय से उसे दवाइयाँ नहीं मिल पाई तो उसका जीवन खतरे में पड़ सकता है। 

सन्तासिंह ने अपना साफा खोला। उसे फाड़कर उससे घावों को कस कर बाँध दिया। फिर वे उसे कंधे पर डालकर अपनी झोपड़ी की ओर चल दिए । 

झोपड़ी में आकर सन्तासिंह ने उसके घावों को धोया तथा मरहम पट्टी की। उन्होंने उसे इंजेक्शन लगाया तथा कुछ दवाइयाँ दी । बेहोशी की अवस्था में ही उन्होंने उसके मुँह में चम्मच से दूध डाला । 

दूसरे दिन भी घायल को होश नहीं आया। उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी। सन्तासिंह गहरी सोच में डूबे हुए थे। घायल के शरीर में एक गोली अटकी हुई थी जिसके कारण खून रिसना बंद नहीं हो रहा था । सन्तासिंह जानते थे कि अगर जल्दी ही गोली नहीं निकाली गई तो उसकी जान बचना कठिन हो जायेगा । सन्तासिंह के पास ऑपरेशन करने का सामान नहीं था, जिससे वे अपने को असहाय सा महसूस कर रहे थे। 

सन्तासिंह जब से शहर से आए थे, तब से दुबारा लौट कर नहीं गए थे। उन्होंने तय किया था कि वे अब अपना शेष जीवन यहीं दीन-दुखियों की सेवा में बिताएंगे और कभी शहर लौट कर नहीं जाएंगे। शुरू-शुरू में सन्तासिंह के सामने तरह - तरह की परेशानियाँ आई थीं मगर वे अपने प्रण पर अडिग रहे थे। मगर आज उस अजनबी की दशा ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था। कुछ क्षण तक सन्तासिंह दुविधा में पड़े रहे फिर उन्होंने उस घायल की जान बचाने की खातिर शहर जाने का फैसला कर लिया। 

रात को घायल को बेहोशी का इंजेक्शन लगाकर सन्तासिंह शहर की ओर चल दिए। शहर वहाँ से चौदह किलोमीटर दूर था। सुबह होने तक सन्तासिंह ने यह सफर पैदल ही तय कर डाला था। अपने घर से वे आपरेशन का सामान और जरूरी दवाइयाँ ले आए थे। 

सन्तासिंह के अनुभवी हाथों को गोली निकालने में ज़्यादा समय नहीं लगा। गोली निकालकर उन्होंने घाव की मरहम पट्टी कर दी थी और इंजेक्शन लगा दिया था। 

गोली निकालने के बाद घायल की दशा में धीरे-धीरे सुधार होने लगा । उसके चेहरे पर जीवन के लक्षण दिखाई देने लगे। पाँचवें दिन उसने अपनी आँखें खोल दीं। इन पाँच दिनों में सन्तासिंह ने घायल की सेवा में दिन रात एक कर दिया था। 

घायल को यहाँ आए आज सातवाँ दिन था। वह अब बोलने-चालने लगा था । सन्तासिंह को देखकर घायल के मन में एक हूक सी उठती थी। वह उनसे बातें करते समय अक्सर नज़रें नीची कर लेता था । 

शाम का समय था। दिन भर तपने के बाद वह सूर्य देवता अस्ताचल गमन की तैयारी में थे । वृक्षों की परछाइया. लम्बी होने लगी थी। हल्का हल्का धुंधलका चारों ओर छाने लगा था । सन्तासिंह अभी - अभी गाँव से रोगियों को देखकर लौटे थे। तभी उन्हें अपनी झोपड़ी के बाहर कुछ कदमों की आहट सुनाई पड़ी। 

सन्तासिंह अपनी झोपड़ी से निकलकर बाहर आए। उन्होंने देखा कि थानेदार शर्मा कुछ जवानों के साथ उसकी झोपड़ी की ओर आ रहा था । थानेदार ने पास आकर सन्तासिंह को आदरपूर्वक नमस्ते की । 

सन्तासिंह ने स्नेह से थानेदार को चारपाई पर बैठाया और पूछा- 'कैसे तकलीफ की थानेदार साहब?' 

'कोई खास बात नहीं डाक्टर साहब, बस इधर से गुजर रहा था तो सोचा आपके दर्शन करता चलूँ।' 

'यह तो आपका स्नेह है। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताइए ।' 

'डाक्टर साहब, अभी हफ्ते भर पहले पुलिस मुठभेड़ में घायल होकर एक खूंखार आतंकवादी इधर के जंगल में भाग निकला था। वह बहुत ही खतरनाक आतंकवादी है। कई वारदातों में उसकी तलाश है। हम लोग उसकी तलाश में दिन रात लगे हुए हैं। मगर कहीं उसका कोई सुराग नहीं मिल रहा है। कहीं आपको इधर ऐसा कोई घायल आदमी तो नहीं दिखाई दिया?' थानेदार ने सवालिया नज़रों से सन्तासिंह की ओर देखा । 

सन्तासिंह कुछ क्षण के लिए खामोश हो गए। उनके चेहरे पर कई रंग आ-जा रहे थे। 

सन्तासिंह की यह खामोशी झोपड़ी के अंदर लेटे घायल को बहुत अखर रही थी। जब से थानेदार के आने की बात उसे पता चली थी तब से उसके कान बाहर की ओर ही लगे हुए थे। वह सन्तासिंह और थानेदार के बीच में हो रही बातचीत को बड़े ध्यान से सुन रहा था। 

उसे लगा कि अब सन्तासिंह उसके बारे में थानेदार को बताने ही वाले हैं। यह सोचकर भय के मारे घायल के रोंगटे खड़े हो गए। मौत उसे अपने आस पास ही नाचती दिखाई देने लगी। 

'जब हम किसी पर पत्थर फेंकते हैं तो हमें उससे दूसरे को पहुँचने वाली पीड़ा का अहसास नहीं होता है, मगर वही पत्थर यदि किसी कारणवश हमारे लग जाए, तो हम पीड़ा से कराह उठते हैं।' 

यही हाल घायल का था । उसने दसियों लोगों को मौत के घाट उतारा था। धार्मिक जुलूस में उसने लोगों की लाश पर खड़े होकर कहकहे लगाए थे। मगर आज उसे अहसास हो रहा था कि मौत का अहसास कितना भयानक होता है। 

मौत को सामने खड़ी देख घायल अपने बचाव का उपाय सोचने लगा। वह उठने या चलने फिरने लायक नहीं था। मगर इस समय उसके बेजान शरीर में भी पता नहीं कहाँ से ताकत आ गई। उसे पता था कि झोपड़ी के पीछे घनी फुलवारी है। उसने हिम्मत करके हाथों के बल पीछे की ओर रेंगना शुरू कर दिया । 

इधर सन्तासिंह को गहरी सोच में डूबा देख थानेदार बोला- 'क्या बात है डॉक्टर साहब? क्या सोचने लगे आप?' थानेदार सन्तासिंह के चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था । 

सन्तासिंह ने अपने चेहरे को संयत किया और बोले - 'कुछ नहीं थानेदार साहब, आपने आतंकवादियों का ज़िक्र छेड़ा तो मुझे अपने बीवी-बच्चों के साथ हुए हादसे की याद आ गई। मैं तो खुद ही इस तलाश में हूँ कि कोई आतंकवादी नज़र आए तो उसे गिरफ्तार करा सकूँ। मगर आपने जो हुलिया बताया है, ऐसा आदमी मुझे तो इधर नज़र नहीं आया । ' 

'ओह, मुझे बड़ा खेद है डॉक्टर साहब। अनजाने में ही मैं आपके घावों को कुरेद बैठा ।' 

'कोई बात नहीं थानेदार साहब ।' 

'अच्छा मैं चलता हूँ। कष्ट के लिए धन्यवाद।' थानेदार नमस्ते करके चला गया था। 

सन्तासिंह अपनी झोपड़ी में चले गए। अंदर पहुँचते ही उनकी नज़र घायल के बिस्तर पर पड़ी। बिस्तर खाली देखकर वह हैरान रह गये। उन्होंने चारों ओर नज़र दौड़ाई, मगर घायल कहीं दिखाई नहीं दिया। उनकी हैरानी और बढ़ गई। तरह-तरह के संदेह उनके दिमाग में उभरने लगे अचानक उनकी नज़र झोपड़ी के पिछले हिस्से पर पड़ी। वहाँ का छप्पर टूटा हुआ था और उसमें इतनी जगह बन गई थी, जिसमें से कोई आदमी लेट कर बाहर जा सकता था । सन्तासिंह ने झाँक कर देखा । बाहर फुलवारी की ओर जाने वाले कच्चे रास्ते पर किसी के घिसटने के ताज़े निशान बने हुए थे। अब सारी बात सन्तासिंह की समझ में आ गई। वे घायल को ढूँढते ढूँढते फुलवारी में आ गए। 

उन्होंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। उन्होंने देखा कि घायल पौधों की एक क्यारी में छिपने का प्रयास कर रहा था। वे घायल के पास पहुँचे । 

सन्तासिंह को देखते ही घायल बुरी तरह गिड़गिड़ा उठा मुझे बचा लो डॉक्टर साहब। मुझे पुलिस के हाथों मत सौंपा। मैं अभी मरना नहीं चाहता ।' सन्तासिंह स्तब्ध खड़े थे। घायल उनके पैरों पर सिर रखे बुरी तरह गिड़गिड़ा रहा था । 

कुछ क्षण सन्तासिंह इसी तरह खड़े रहे थे, फिर वे संयत स्वर में बोले- 'घबराओ नहीं असगर वेग, मैं तुम्हें पुलिस को नहीं सौपूँगा ।' 

क्या आप मुझे पहचान गए हैं?' घायल ने भयभीत स्वर में पूछा था । उसका चेहरा हल्दी के समान पीला पड़ गया था। 

'हाँ, मैं तुम्हें उसी दिन पहचान गया था, जिस दिन मैंने तुम्हें झाड़ी में घायल पड़े देखा था। अपने बड़े बेटे की अंगूठी तुम्हारे हाथ में देखते ही मैं समझ गया था कि तुम वही आतंकवादी असगर बेग हो, जिसने अपने साथी आतंकवादियों के साथ मेरे पूरे परिवार को मारा था ।' 

'क्या ...'  घायल का मुंह हैरत से खुले का खुला रह गया था मानो उसने कोई अजूबा देख लिया हो । 

'फिर आपने मुझ जैसे नीच हत्यारे को क्यों बचा लिया, उसी दिन पुलिस के हवाले क्यों नहीं कर दिया?' 

सन्तासिंह ने गहरी श्वांस ली। वे सहानुभूति भरे स्वर में बोले - 'तुम्हें देख कर पहले मेरे दिमाग में भी यही विचार आया था कि तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूँ और तुमसे अपने बीवी बच्चों की हत्या का बदला ले लूँ । मगर मैंने सोचा कि फिर मुझमें और तुममें अंतर ही क्या रह जायेगा । मैंने सोचा कि इस समय तुम्हें सजा की नहीं दया की जरूरत है। इसलिए मैं तुम्हें यहाँ ले आया। ' 

'आप देवता हैं डॉक्टर साहब' घायल उनके पैरों पर गिरते हुए बोला। 

'नहीं पुत्तर नहीं, वाहे गुरु ने न किसी को देवता बनाया है, और न ही किसी को शैतान । उसने सबको इंसान बनाया है। हमें अच्छा बुरा हमारे कर्म बनाते हैं। इंसान बनने की कोशिश करो पुत्तर । जब तुम किसी को जिंदगी दे नहीं सकते तो तुम्हें किसी की जिंदगी लेने का क्या अधिकार है? बंदूक या गोली से कोई समस्या हल नहीं हो सकती, इसलिए उस राह को छोड़कर अपने को नेक राह पर डाल। लोगों में नफरत नहीं प्यार बाँट । तभी मैं समझँगा कि मेरा तुमको बचाना सफल हो गया ।' 

'आज आपने मेरी आँखें खोल दी है डॉक्टर साहब। आज से आप ही मेरे माँ-बाप, सगे-संबंधी सब कुछ हैं। मैं वही करूँगा जो आप कहेंगे। आगे खुदा की मर्जी। घायल दृढ़ स्वर में बोला । 

सन्तासिंह की आँखें खुशी से चमकने लगी। दूर कहीं गुरुद्वारे से आवाज़ आ रही थी- ' वाहे गुरु का खालसा वाहे गुरु की मेहा' 

उधर घायल ने अभी तक सन्तासिंह के पैरों को नहीं छोड़ा था और वह अपने आँसुओं से उन्हें भिगोए जा रहा था।