रावी की लहरें - भाग 16 Sureshbabu Mishra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रावी की लहरें - भाग 16

स्मृतियाँ

 

देहरादून की सुरमई बादियों में कदम रखते ही मेरी वे सारी यादें ताजा हो गई, जिनकी वजह से मैंने देहरादून छोड़ा था। हालांकि तब के देहरादून और अब के देहरादून में जमीन आसमान का फर्क आ चुका था। पहले यहाँ इतनी चकाचौंध नहीं थी, जितनी आज है, न ही इतनी चैड़ी सड़कें थीं, न ही इतना बड़ा बाजार था और न ही बाजार में इतनी भीड़ होती थी, जब से इसे उत्तराखण्ड की राजधानी बनाया गया, तब से इसकी काया पलट हो गई। कई शहरों के लोग यहाँ आकर रहने लगे। सिर्फ यह सोचकर कि पहाड़ों में रहने से हवा - पानी भी बदल जायेगा और रोजगार भी चल जायेगा । इसीलिए यहाँ लोगों की इतनी भीड़ और आपा-धापी दिखाई देने लगी। पहले यहाँ छोटे-छोटे मकान थे, वो भी दूर-दूर और अब यहाँ गगनचुम्बी इमारतें बन गई हैं, खूबसूरत होटल और रिजॉर्ट्स बन गये हैं। छोटा-सा बाजार, अब बड़े-बड़े मॉल्स में तब्दील हो गया है। बड़े-बड़े स्कूल-कॉलेज और टेक्निकल इन्स्टीट्यूट बना दिए गये। पहले देहरादून में शाम होते ही सड़कों और चौराहों पर सन्नाटा और वीरानी पसर जाती थी, अब रात के दो-दो बजे तक यहाँ की सड़कों पर लोगों की चहल-पहल और रौनक बनी रहती है। 

देहरादून की इस चकाचौंध को देखकर और यहाँ की सड़कों पर घूमते हुए मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे मैं देहरादून में नहीं दिल्ली-मुम्बई जैसे किसी बड़े शहर में आ गया होऊँ, जहाँ रात को दिन निकलता है। 

बीस साल पहले के देहरादून में और अब देहरादून में जमीन-आसमान का फर्क नजर आ रहा है। उस समय मैं यहाँ एक इण्टर कॉलेज में शिक्षक बनकर आया था। उस समय मैं बाईस - तेईस वर्ष का युवा था । बहुत ही शर्मीला और संकोची, आज की तरह हाजिर जवाब और बातूनी नहीं । अब मैं बेबाकी से बोल लेता हूँ और किसी से भी बोल लेता हूँ लेकिन तब न तो किसी से बोल पाता और न ही किसी से जल्दी घुल-मिल पाता था । मेरी इसी आदत की वजह से लोग मुझे शिक्षक कम छात्र अधिक समझते थे। ऐसा वाकया कई बार मेरे साथ हुआ था। मेरे बताने के बाद ही लोगों को पता चलता था कि मैं छात्र नहीं शिक्षक हूँ। मैं जिस कॉलेज में शिक्षक होकर आया था, उस कॉलेज की दूरी देहरादून से लगभग आठ किलोमीटर थी, जो मेरे लिए तय करना, वो भी पैदल, असम्भव - सा प्रतीत हुआ, क्योंकि उस समय वहाँ तक पहुँचने के लिए आज की तरह कोई सवारी नहीं मिलती थी। अब तो कदम-कदम पर ऑटो रिक्शा और टैक्सी मिल जाती है। पहले आज की तरह सड़कें भी नहीं थी। बस पैदल ही जाना होता था। पहली बार कॉलेज तक पहुँचना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो गया था, पहाड़ों की कच्ची-पक्की पगडंडियों पर चलते हुए मेरा श्वांस फूल गई थी। ऐसा होना स्वाभाविक था, क्योंकि इससे पहले मैं कभी पहाड़ों की इतनी ऊँचाई नहीं चढ़ी थी। बीच में कई जगह मुझे रुकना भी पड़ा और कई लोगों से कॉलेज का पता भी पूछना पड़ा। भूख-प्यास के मारे मेरा दम निकल रहा था, रास्ते में न तो कोई चाय की दूकान थी और न ही खाने की । बार - बार मन यही कह रहा था, कि मैं कहाँ आकर फँस गया। कभी-कभी ऐसा लग रहा था जैसे मैंने यहाँ आकर गलती कर दी हो. तो कई बार मन में सोचा भी कि आधे रास्ते से ही वापस लौट जाऊँ? मगर मैंने ऐसा किया नहीं, क्योंकि सरकारी नौकरी की आस, शारीरिक और मानसिक थकान को भुला दे रही थी। हालांकि मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी, शरीर में एक कदम भी और चलने की शक्ति बाकी नहीं बची थी, फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और आगे चलता ही रहा था। कॉलेज पहुँचते-पहुँचते आधा दिन निकल गया, पर मैं पहुँच गया। पहाड़ों की तलहटी पर बने उस खूबसूरत कॉलेज को देख कर मन खुश हो गया । मुझे नहीं लगा कि मैं किसी इण्टर कॉलेज में आया हूँ, मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं पहाड़ों की सुन्दर वादियों में बने किसी खूबसूरत होटल में आ गया होऊँ। कॉलेज के परिसार में खड़े होकर कौतुहल से कितनी ही देर पहाड़ों के नैसर्गिक सौंदर्य को निहारता रहा, मुझे सबकुछ कितना अद्भुत और अनुपम - सा लगा। दूर-दूर तक फैली पहाड़ों की खूबसूरत वादियों को निहारता रहा। कुदरत के उस नजारें को देखकर प्रफुल्लित हो गया और मैं दिनभर की थकान को भूल गया । 

कॉलेज के प्रधानाचार्य मिस्टर देवेश रावत निहायत ही सज्जन व्यक्ति थे। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और बताया कि मैं किसलिए आया हूँ । मुझ से मिलते ही वह खुश हो गये और अपने सामने बैठने को कहा। बैठने के बाद मैंने उनके सामने अपना ज्वाइनिंग लैटर और फाइल बढ़ाई तो वह एकदम बोले, "मेहता जी, यह सब अभी अपने पास रखिए, आप धूप में इतरी दूर पैदल चल कर आये हैं। वैसे भी दूहरादून से यहाँ तक पैदल आने में कितनी दिक्कत आती है, मुझे अच्छी तरह मालूम है। इसलिए आप आराम से बैठकर पहले पानी पीजिए, चाय पीजिए उसके बाद हम काम की बातें करेंगे।" 

उन्होंने चपरासी को बुलाकर उससे कहा, "पहले मेहता जी को पानी पिलाओ, फिर इनके लिए गरम-गरम चाय बनाकर ले आओ और हाँ, कुछ खाने के लिए भी लेकर आना।" 

प्रधानाचार्य जी का मेरे लिए इतना आदर-सम्मान देना और चाय मंगवाना मुझे बहुत अच्छा लगा, क्योंकि उस समय भूख और प्यास के मारे मेरी हालत खस्ता हो रही थी, मुझे ऐसा लगा, जैसे प्रधानाचार्य जी ने मेरी भूख-प्यास को महसूस कर लिया हो। चपरासी एक कांच का खाली गिलास और एक जग में पानी लेकर आया और मेरे पास मेज पर रखकर बाहर चला गया। मैं गट-गट करके दो-तीन गिलास पानी पी गया । 

प्रधानाचार्य जी मुझे देखकर मुस्कुराये और बोले, “ देहरादून से यहाँ तक पहुँचने में आपको काफी परेशानी हुई होगी। मैं समझ सकता हूँ, पहली - पहली बार इतने ऊँचे पहाड़ चढ़ना सबके लिए मुश्किल हो जाता है, कोई बात नहीं थोड़े दिनों में पहाड़ पर चढ़ने-उतरने की भी आदत पड़ जायेगी । 

चपरासी चाय-नाश्ता लेकर आ गया। मेरे साथ प्रधानाचार्य जी ने भी चाय पी । चाय पीकर मुझे ऐसा लगा, जैसे मेरे बेजान शरीर में जान आ गयी हो। चाय पीते-पीते प्रधानाचार्य जी ने ज्वाइनिंग लैटर के साथ-साथ प्रमाण-पत्रों की फाइल भी देख ली। उसके बाद मुझसे पूछा कि मेरे रहने की व्यवस्था हो गई? तो मैंने मना करते हुए कहा, "जी नहीं, मैं तो यहाँ पहली बार आया हूँ, मुझे यहाँ के बारे में कुछ नहीं मालूम है, तो उन्होंने कहा, “कोई बात नहीं, आपके रहने की व्यवस्था भी यहीं पास में एक गाँव में करवा दी जायेगी. जो भी किराया होगा, वो आप दे दीजिएगा। कहकर उन्होंने चपरासी को पास के गाँव में भेजकर किसी के खाली कमरे के बारे में जानकारी मँगवा ली और मेरे रहने की भी व्यवस्था कॉलेज से करीब दो किलोमीटर दूरी पर एक छोटे-से पहाड़ी गाँव में हो गई। कॉलेज के अधिकांश शिक्षक और कर्मचारी देहरादून से बाहर के ही थे और सब उसी गाँव में रहते थे। 

कॉलेज में ज्वाइनिंग हो गई, रहने के लिए कमरा मिल गया, अब समस्या थी कि खाने-पीने का क्या किया जाये ? क्योंकि गाँव में न तो कोई खाने का होटल था और न ही मेरे पास खाना बनाने के लिए बर्तन और गैस चूल्हा था, जिसका एक ही समाधान निकला, वो यह कि कॉलेज के चपरासी से तय हो गया कि जब तक मेरे पास खाना बनाने का सामान नहीं आ जाता, तब तक वह खाना अपने घर से बनवा के लाया करेगा, बदले में जो भी पैसा बनेगा, वो उसे दे दिया जायेगा । 

अगले दिन सुबह को मेरा आमना-सामना हुआ कॉलेज में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं से। उस इलाके में एक ही कॉलेज था, जिसमें लड़के-लड़कियाँ सब साथ पढ़ते थे। प्रेअर टाइम था। सभी लड़के-लड़कियाँ अपनी-अपनी कक्षा की लाइन में खड़े थे और हर लाइन के आगे उनका क्लास टीचर खड़ा था। अचानक मेरी नजर ग्यारहवीं कक्षा की एक लड़की से टकराई, वह मुझे ही देखकर मुस्कुरा रही थी । उसकी इस हरकत से मैं सकपका गया। मैंने इधर-उधर देखकर यह जानने की कोशिश की कि वह लड़की किसी और को तो देखकर नहीं मुस्कुरा रही है? मेरे आजू-बाजू कोई नहीं था। मैंने फिर उसकी तरफ देखा, वह अभी भी मुझे ही देखकर मुस्कुरा रही थी । 

वह सोलह - सत्रह साल की अल्हड़ किशोरी थी । लम्बा छरहरा वदन, गोरा रंग, आकर्षक चेहरा, सलीके से कढ़े बाल और हिरणी जैसी बड़ी-बड़ी आँखें। जब वह मुस्कुरा रही थी तो उसके गालों में डिम्पल पड़ रहे थे। कॉलेज की चमचमाती यूनिफर्म पहने वह बेहद सुंदर लग रही थी । उसकी आँखों में अजीब-सी कशिश थी, जिसे देखकर मेरे मन में गुदगुदी होनी लगी। उस दिन मैं उसी के बारे में सोचता रहा और उसके नैसर्गिक सौंदर्य में डूबता और उतराता रहा, जिसकी वजह से मैं रात को सही से सो भी नहीं पाया। 

एक महीना, दो महीने और इसी तरह तीन महीने गुजर गये। न तो उसने मुझसे कोई बात की, न ही मैं उससे कुछ कह पाया, बस जब भी हमारी मुलाकात होती, तो सुबह को प्रेअर टाइम में ही होती। वो भी ईशारों में, हाँ, अब वह पहले की तरह मुस्कुराती नहीं है। अब वह सीरियस रहती है। बस देखती हैं और आँखों ही आँखों में सब कुछ कह जाती है। मैं अगर उसे देखता भी हूँ, तो वह लजा कर अपनी नजरें नीचे झुका लेती है । उसका ऐसा 

करना मुझे अच्छा लगता है। अब वह मुझे पहले से और ज्यादा खूबसूरत लगने लगी थी। पहले आँखों में काजल नहीं होता था, अब वह अपनी आँखों में काजल सजा कर आने लगी थी। उसकी काली - कजरारी आँखों में बला की चमक थी । होठों पर हल्की-सी लिपिस्टिक भी लगाने लगी थी और उसने अपना हेयर स्टाइल भी बदल लिया था । ऐसा लगता था, जैसे उसने वो सब मेरे लिए करने लगी हो ? मन तो बहुत करता उसके करीब जाने के लिए, उसके साथ बैठ कर बाते करने के लिए, पर करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। अब मेरी दुनिया उसी तक सिमट कर रह गयी थी । उठते-बैठते, खाते-पीते, हर वक्त वह मेरे जहन में रहने लगी थी। 

कॉलेज पहुँचने के लिए मुझे कच्चे रास्ते से होकर गुजरना पड़ता था । हालांकि रास्ते में पहाड़ी जंगल होता था, चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे चिनार और देवदार के पेड़ होते थे। चारों तरफ सन्नाटा होता था। शुरू-शुरू में वहाँ से गुजरते हुए डर लगा था, लेकिन था सुकून भरा। वैसे भी हम शहर वालों की शॉट कट की आदत होती है न इसलिए मैंने वहाँ भी कॉलेज जल्दी व आसानी से पहुँचने के एक छोटा रास्ता तलाश कर लिया था। 

एक दिन सुबह को मैं उसी रास्ते से कॉलेज जा रहा था कि अनायास मेरे कदम ठिठक कर रुक गये। मुझे मेरी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था, ऐसा लग रहा था, जैसे मैं खुली आँखों से सपना देख रहा हूँ। मैंने देखा, मेरे रास्ते में चिनार के पेड़ से टिक कर वह खड़ी थी । यकायक उसको देखकर दिल की धड़कनें तेज हो गयी । चेहरे पर पसीने की बूँदें तैरने लगी। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी, वह मुझे ऐसे भी मिल जायेगी ? वह मुझे देखकर उसी तरह मुस्कुराने लगी, जैसे कॉलेज में प्रेअर के समय मुस्कुराती थी। मैंने जेब से रुमाल निकाला और चेहरे के पसीने को पोछा । मेरे मुँह से एकदम निकल गया, “तुम... तुम यहाँ क्या कर रही हो...?" 

“आपका इन्तजार।” उसने तपाक से कहा । 

“मेरा इन्तजार ?" मैंने गले में अटके थूक को निगलते हुए कहा । 

“जी हाँ, आपका इन्तजार । आपसे कुछ कहना है ।" 

“हाँ बोलो, क्या कहना है?" 

“आई लव यू... आई लव यू सो मच ।” उसने एकदम कहा और खिलखिलाकर हँसने लगी फिर शरमाकर वहाँ से भागती हुई चली गई । मैं ठगा-सा खड़ा उसे देखता रह गया। थोड़ी दूर जाकर वह क्षण भर के लिए रुकी। उसने मुड़ कर मुझे देखा और अपने हाथ के ईशारे से वाय कहा और झुरमुटों में न जाने कहाँ गुम हो गई। 

मैं मौन साधे वहीं खड़ा रहा, मुझे ऐसा लगा, जैसे उसके शब्द चिनार और देवदार के घने जंगलों में गूँजकर मेरे कानों से टकरा रहे हों, सर जी आई लव यू... आई लव यू... । उसकी खनकदार हँसी अभी भी मेरे कानों में संगीत की तरह गूँज रही थी। भागते समय उसके पावों की पायलों के घुंघरूओं की झनकार मुझे बहुत देर तक सुनाई देती रही। मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे इस एक पल में मेरी दुनिया बदल गई हो, मेरे आस - पास सब कुछ बदल गया हो । ऐसा लग रहा था, जैसे मैं पहाड़ की पगडण्डियों पर नहीं, खूबसूरत फूलों की वादियों में आ गया होऊँ । मेरा मन मेरे वश में नहीं रहा। उससे मिलने के लिए उससे बाते करने के लिए आतुर होने लगा था। मेरा दिल और दिमाग मेरे काबू में नहीं रहा, ऐसा लग रहा था, जैसे मैंने प्यार का न जाने कितना बड़ा युद्ध जीत लिया हो। 

अब हमें जब भी मौका मिलता, खो जाते जंगल की वीरानियों में। साथ-साथ घूमते, पहाड़ियों के बीचो-बीच बह रही नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दूर तक चले जाते । एक-दूसरे से मन की बात कहते । नदी के अन्दर पैर डालकर घण्टों साथ बैठते । सुजाता बहुत चंचल और खिलंदड़ी किस्म की लड़की थी। वह अक्सर नदी के किनारे चलते -चलते मुझे धक्का देकर गिरा देती और जोर-जोर से बच्चों की तरह हँसती । उसकी छोटी-छोटी शरारतें मुझे बहुत अच्छी लगती । उसे बारिश के पानी में भीगना अच्छा लगता था, लेकिन मेघों की गर्जना से सहम जाती थी । जब भी वह मेरे साथ होती ओर बारिश होती, तो वह खूब भीगती, मुझे भी अपने साथ भिगोती, लेकिन बादलों के गरजते ही वह मेरे आगोश में सिमट जाती । 

एक दिन उसने साथ घूमते हुए कहा, “सर जी, हम आपसे इस तरह कब तक छिप-छिप कर मिलते रहेंगे? आप हमारे भईया से हमारी शादी की बात करो न। उसी दिन उसने बताया था कि उसके माता-पिता नहीं हैं, उसके बड़े भाई ने ही उसको पाल-पोश कर बड़ा किया है। मैं भी तो यही चाहता था कि सुजाता जल्दी -से-जल्दी मेरी हो जाये। मैंने उससे कहा, “ठीक है, मैं अगले हफ्ते छुट्टी वाले दिन उसके भाई से मिलकर उसकी शादी की बात कर लूंगा। वह मेरे इस फैसले से बहुत खुश हो गई। बोली, “सर जी, आप जरूर आना, हम आपका इंतजार करेंगे और अब हम आपसे इस तरह बिल्कुल भी नहीं मिला करेंगे। अब हम आपसे हमारी शादी के बाद ही मिलेंगे।"

मुझे मालूम था कि न वह मुझसे मिले बिना रह पायेगी और न ही मैं उससे मिले बिना रह पाऊँगा, फिर भी उसका दिल रखने के लिए मैंने उसकी हाँ में हाँ मिला दी। उसी दिन शाम को कॉलेज के प्रधानाचार्य ने मुझसे कहा - "उनके पास फोन आया है, तुम्हारे पिताजी की तबियत अचानक बिगड़ गयी है, वह हॉस्पिटल में है। तुम्हें अभी घर जाना होगा।" पिताजी की तबियत खराब है, यह खबर सुनकर मैं घबरा गया और फौरन देहरादून से घर के लिए रवाना हो गया । 

अगले दिन सुबह को घर पहुँचा । धड़कते दिल से दरवाजा खटखटाया। पिता जी ने दरवाजा खोला। मैं पिता जी को ठीक-ठाक देखकर चौंक गया। मेरे मुँह से अनायास ही निकल पड़ा, पिता जी आप तो?" पिता जी समझ गये, मैं क्या कहना चाह रहा हूँ। उन्होंने मुझे घर में आने और आराम से बैठ जाने को कहा। मैंने घर में आकर अपना बैग रखा। माँ फटाफट मेरे लिए चाय बनाकर ले आयीं। 

 “लो बेटा, रातभर का थका हुआ है, चाय पीकर आराम कर ले।" 

मैंने चाय का गिलास माँ से ले लिया। माँ मेरे पास बैठ गई और मुझे ध्यान से देखकर बोली, “कितना कमजोर हो गया है, अब मैं तुझे देहरादून नहीं जाने दूंगी | भाड़ में जाये ऐसी नौकरी। नौकरियों की क्या कमी है, बहुतेरी नौकरी मिल जायेंगी ।" 

तभी पिता जी ने कहा, "बेटा, तेरी माँ तेरी बहुत चिंता करती थी। रात-दिन तुझे ही याद करके रोती थी इसीलिए मैंने अपनी तबियत का बहाना बनाकर तुझे यहाँ बुलाया है। बेटा, सच तो यही है कि तेरी दूरी हम बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। अब तू यहीं रहना, देहरादून मत जाना। यहीं रहकर कोई नौकरी कर लेना । 

मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। मैं सुजाता के बारे में सोचनेलगा। क्या होगा सुजाता का, मैंने तो उससे वायदा किया है उसके भाई से मिलने का, उनसे हमारी शादी की बात करने का, अगर मैं वापस नहीं गया, तो क्या सोचेगी सुजाता मेरे बारे में? मैंने माँ और पिता जी से कहा, ऐसा नहीं होता है, नौकरी छोड़ना इतना आसान नहीं है, मुझे एक बार देहरादून तो जाना ही होगा और जब तक दूसरी नौकरी नहीं मिल जाती, तब मुझे देहरादून में रहना होगा। जब मुझे दूसरी नौकरी मिल जायेगी, उसके बाद इस नौकरी से इस्तीफा देकर यहाँ आ जाऊँगा, आप लोगों के पास। लेकिन माँ और पिता जी ने मेरी एक नहीं सुनी। पिताजी ने उसी दिन मेरा इस्तीफा लिखवा कर पंजीकृत डाक से देहरादून भिजवा दिया। मैं छटपटा कर रह गया। माँ की जिद्द और पिता जी के डर के सामने कुछ कहने का साहस नहीं जुटा सका। 

नौकरी तो मुझे जल्दी ही दूसरे कॉलेज में मिल गयी लेकिन सुजाता की याद मेरे दिल से निकल नहीं पा रही थी। उसके साथ बिताया एक - एक पल, एक-एक लम्हा रह-रहकर मुझे याद आता रहता । क्या सोचती होगी सुजाता मेरे बारे में? वह मुझे धोखेबाज समझ कर मुझसे नफरत करने लगी होगी । करनी भी चाहिए, आखिर मैंने दिल जो दुःखाया है उसका। यही सब सोचते-सोचते कई महीने गुजर गये। इस बीच कई बार सोचा भी कि देहरादून जाकर सुजाता से मिल आऊँ, उसको अपनी मजबूरियों के बारे में बता आऊँ, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया उसके पास जाने और उसका सामना करने की । कई बार मन में यह भी आया कि माँ और पिता जी को सुजाता के बारे में सब कुछ बता दूँ, लेकिन मैं यह भी नहीं कर पाया। 

दिन महीने में और महीने वर्षों में परिवर्तित होते चले गये। इस बीच मेरी शादी भी हो गई, और मैं दो बच्चों का बाप भी बन गया। मैं पूरी तरह से अपनी घर गृहस्थी में रम गया। मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बहुत खुश था, मगर सुजाता की एक धुंधली सी स्मृति दिल के किसी अज्ञात कोने में अब भी बसी हुई थी और जब कभी उसकी स्मृति आँखों के सामने सजीव हो उठती, मन में एक अजीब बेचैनी, अकुलाहट होती । 

बस एक जगह रूक गई। बस के साथ ही मैं अतीत से निकल कर बाहर आ गया और यात्रियों के साथ मैं भी बस से सीधे उतर कर कॉलेज की तरफ चल दिया। 

कॉलेज की छुट्टियाँ चल रही थीं इसलिए वहाँ पूरी तरह सन्नाटा बिखरा हुआ था। कॉलेज में सब कुछ बदल चुका था, कुछ भी तो पहले जैसा नहीं बचा था। दिल ने कहा, सुजाता भी इस बीस सालों में बिल्कुल बदल गयी होगी। शादी हो गयी होगी उसकी। बच्चे होंगे उसके पास । पता नहीं वह मुझे पहचान भी पायेगी या नहीं ? पहचान भी जायेगी, तो भी शायद मुझसे बात नहीं करेगी, मैंने उसका दिल जो दुःखाया था । कितना टूटी होगी, कितना बिखरी होगी, मेरे लिए वह । 

कुछ भी हो मैं सुजाता से मिलूँगा जरूर। उसे अपनी मजबूरी बताऊँगा, बताऊँगा उसे कि मैं कितना मजबूर हो गया था। अगर वह मेरे लिए तड़ती है, तो मैं भी उसके लिए कुछ कम नहीं तड़पा हूँ, मैं भी बहुत तड़पा हूँ।' 

“मेहता सर, आप! इतने सालों बाद, आज अचानक?" कॉलेज का पुराना चौकीदार, जो अब एकदम बूढ़ा नजर आ रहा था, मेरे सामने आ खड़ा हुआ । 

"नमस्ते दानू काका कैसे हैं आप? " 

"मैं तो अच्छा हूँ सर, पर आप? ' 

“हाँ, देहरादून एक सेमीनार में आया था, कॉलेज देखने का मन हुआ तो यहाँ चला आया।' 

“कॉलेज देखने या फिर देखने कि सुजाता अभी जिन्दा है या नहीं ?" " दानू काका! क्या हो गया आपको, कैसे बोल रहे हैं आप?" 

मैंने विषयान्तर करते हुए कहा, तो दानू काका एकदम विफर पड़े और कहने लगे, “क्या बिगाड़ा था उस मासूम ने आपका ? अगर उसे अपनाना नहीं था, तो उससे प्यार ही क्यों किया था। पहले प्यार किया फिर हसीन ख्वाब दिखाये और छोड़कर चले गये, उस बेचारी को तड़प-तड़प कर मरने को। " 

"यह आप क्या कह रहे हैं दानू काका, क्या हुआ सुजाता को?" 

"मर गई तड़प-तड़प के आपकी याद में सुजाता । सुजाता ने अपने भाई को अपने और आपके बारे में सब बता दिया था । बहुत खुश था उसका भाई उसको आपके साथ विदा करने के लिए, लेकिन जब उसे पता चला कि आप हमेशा के लिए देहरादून छोड़कर चले गये, तो सुजाता के भाई को आपसे नफरत हो गई। कई बार सुजाता ने आपके पास जाने की जिद की लेकिन उसके भाई ने उसकी एक नहीं सुनी और वह आपकी याद में पागल सी हो गई। धीरे-धीरे वह उसने बिस्तर पकड़ लिया और फिर वह बीमारी के उस बिस्तर से कभी नहीं उठ पायी और एक दिन उसने कराहते - कराहते दम तोड़ दिया ।" 

मुझे ऐसा लगा, जैसे दानू काका ने मुझे जोर का धक्का मारा हो और मैं कई हजार फिट नीचे गहरी खाई में जा गिरा होऊँ । दानू की बात सुनकर मैं ठगा सा खड़ा रह गया था।