सुमन खंडेलवाल - भाग 5 (अंतिम भाग) Pradeep Shrivastava द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सुमन खंडेलवाल - भाग 5 (अंतिम भाग)

भाग -5

वह बहुत ही विनम्र, भले आदमी लग रहे थे। बात आगे बढ़ी तो मैंने कहा, “जब यहाँ पहली बार यह फोटो देखी तो मुझे लगा कि यह सुमन जी ही हैं। इतने बरसों बाद सुमन जी, खंडेलवाल साहब के परिवार के बारे में इस तरह की जानकारी मिलेगी यह मैंने सोचा भी नहीं था। मुझे बहुत दुःख हो रहा है।”

मैंने उनसे भुवन चंद्र जी के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, “उन्हें कई बीमारियाँ हो गई थीं, एक दिन वह ऊपर से नीचे उतर रहे थे, हल्की-हल्की बारिश की वजह से रास्ते में फिसलन थी, वह सँभल नहीं पाए और गिर गए गहरी खाई में। कई दिन बाद उनकी डेड-बॉडी मिल पाई थी। 

“परिवार की स्थिति देखते हुए मैं सबको यहीं लेता आया। सब मेरे साथ ही रहते हैं, वहाँ जो भी थोड़ी बहुत प्रॉपर्टी थी उसे बेच दी गयी। उसी पैसों से साले को भी बिज़नेस करवा दिया। मुझे बहुत संकोच हो रहा था, लेकिन सास जी, और मेरे माँ-बाप, सब के कहने पर मुझे साली से शादी करनी पड़ी।”

यह सुनते ही मैं अनायास ही पूछ बैठा, “आप इस रिश्ते से ख़ुश तो है ना?” 

उसने तुरंत ही कहा, “ख़ुश भी हूँ और नहीं भी। चम्पा मेरे सामने होती है, तो मुझे लगता है, जैसे सुमन मेरे सामने है। दोनों बहनें एक जैसी ही लगती हैं। जब चम्पा के साथ, घर से बाहर निकलता हूँ, तो लगता है जैसे कि सुमन मेरे साथ-साथ चल रही है। 

“इस पूरे होटल में मुझे सुमन ही सुमन दिखाई देती है। मन बार-बार यही कहता है कि काश उसने ऐसा ग़लत क़दम नहीं उठाया होता। मैं चाहे जहाँ से पैसा ला रहा था, उसका बढ़िया से बढ़िया इलाज करवा रहा था। डॉक्टर भी बार-बार कहते थे बिलकुल ठीक हो जाएँगी, पहली स्टेज में ही पता चल गया है। 

“लेकिन उसने ज़िन्दगी से हार मान ली, बहुत दर्द और परेशानी से थक गई थी। जब देखो तब पूछती रहती थी, ‘तुम इतना पैसा कहाँ से ला रहे हो?’ मैं कहता, ‘ये जानना तेरा काम नहीं, इतना तो कमाता ही हूँ।’ मैं उसे जी-जान से चाहता था। उसकी पूरी देख-भाल करता था। 

“उसे कोई काम नहीं करने देता था। जब मैं चौका-बर्तन, सफ़ाई करता तो वह रोती कि उसके रहते हुए मुझे काम करना पड़ रहा है। मैं कहता, ‘क्यों ऐसे रोती हो, हमेशा ही तो ऐसे नहीं रहेगा न। जल्दी ही तू ठीक हो जाएगी, फिर दोनों मिलकर सब काम किया करेंगे।’ उसकी ज़िद रखने के लिए ही मैंने एक ऐसा काम भी किया . . .” 

यह कहते-कहते वह बहुत भावुक हो गए, मोटे-मोटे आँसूँ गिरने लगे। मैंने उन्हें बहुत समझाया-बुझाया, तब उन्होंने बताया कि “जब सुमन की बीमारी का पता चला तो वह दो महीने की प्रेग्नेंट थी। डॉक्टर ने भी कहा, मैंने भी समझाया कि किसी तरह सब ठीक हो जाएगा, बच्चे को हो जाने दो। 

“मगर उसने कहा, ‘नहीं मैं बच्चे को ऐसे नहीं आने दूँगी कि वह अपनी माँ का दूध भी न पी सके। यह बीमारी उसे भी हो सकती है। इस बीमारी क्या पता, कब क्या हो, तुम एक साथ उसको और मुझे कैसे संभालोगे।’

“मैंने कहा, ‘घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा, मैं सब कर लूँगा, बस तू सामने बैठी रहे तो मैं दुनिया के सारे काम अकेले कर डालूँगा।’

“मगर शायद मेरे काम, मेरी क्षमता पर उसे विश्वास नहीं था या फिर ज़्यादा समय तक तकलीफ़ों का सामना कर पाने की उसमें हिम्मत नहीं बची थी। और मुझे इस दुनिया छोड़, अकेली ही चली गई। मैं उसे कभी भी भूल नहीं पाऊँगा। आज उसकी बहन उसी की तरह मेरे साथ जीवन बिता रही है। 

“दो बेटे भी हैं। लेकिन सुमन ने जो जगह ख़ाली की थी, वह आज भी ख़ाली ही है, और सदैव ही रहेगी। परिवार में हँसता-बोलता हूँ। मगर तब भी मुझे सुमन सुमन बस सुमन ही याद आती है। लगता है कि जैसे वह भी बराबर मेरे साथ बनी रहती है, बात करती है।”

मैंने मन ही मन कहा, अकेला तो वह मुझे भी छोड़ गई है, और अब मुझसे बात ही नहीं, लगता है वह मिल भी रही है। 

हम-दोनों की बातें बड़ी लंबी खिंचती चली गईं, और उनके होटल बंद करने का टाइम हो चुका था। मैंने वर्कशॉप फोन करके बंद करवा दिया था। जब मैं वापस चला तो ग्यारह बज रहे थे और भयावह रास्ते में गाड़ी उस जगह ख़राब हुई, जहाँ वह बहुत ही सँकरा था। दोनों तरफ़ से आधा-आधा रास्ता टूटा हुआ था। ज़रा सा ग़लती हुई नहीं कि गाड़ी खड्ड में या दूसरी तरफ़ नीचे गंदे नाले में जा सकती थी। 

अब मेरे पास दो ही रास्ते थे कि या तो उस बियाबान में जान हथेली पर लेकर सुबह होने की प्रतीक्षा करूँ या फिर किसी को बुलाऊँ। मैंने एक दोस्त को कॉल करने के लिए मोबाइल उठाया ही था कि तभी गाड़ी की हेड-लाइट में दस-पंद्रह क़दम आगे अचानक ही वह यैलो ब्यूटी-क़्वीन फिर मुस्कुराती हुई दिखाई दी। उसे देख कर मैं इस बार परेशान नहीं हुआ। 

पिछली बार की अपेक्षा वह बहुत क़रीब थी, मैं उसका चेहर साफ़-साफ़ देख पा रहा था। वह भी सीधे मेरी आँखों में देख रही थी, उसे पहचानते ही आश्चर्य से मैं बोल पड़ा सुमन . . . न . . .न . . . उसके पास जाने के लिए मैं गाड़ी से उतरने ही वाला था कि उसकी सुरीली हँसी की आवाज़ कानों में पड़ी। मैं अचंभित, ठिठक गया, और वह कैट-वॉक सी करती आगे बढ़ गई, मुड़-मुड़ कर मुझे देखती और हाथ से इशारा कर बुलाती जा रही थी। 

अचानक मेरा ध्यान गया कि गाड़ी तो स्टार्ट है और पैदल चाल से ही सुमन के पीछे-पीछे चल रही है। मेरे हाथ मज़बूती से स्टेयरिंग सँभाले हुए हैं। मैं सम्मोहित सा पीछे-पीछे चलता हुआ जब गाड़ियों से भरी मेन-रोड पर पहुँचा तो जैसे सम्मोहन से मुक्त हुआ, मुझे सुमन कहीं नहीं दिख रही थी। हर तरफ़ उसे देखा मगर वो कहीं नहीं दिखी। 

वह कभी न कभी ज़रूर मिलेगी, इसी आस में बरसों बाद भी मैं रोज़ उस रोड पर जाता हूँ। हालाँकि अब वह फ़ोर लेन की बहुत अच्छी रोड बन गई है, स्ट्रीट लाइट से चमकती रहती है। उसके प्यारे हस्बेंड, परिवार का मेरे यहाँ से आना जाना बना हुआ है, लेकिन कोई यह नहीं जानता कि मैं हर मौसम में उस रोड पर बिना नागा क्यों जाता हूँ, वह शाम होते ही मुझे क्यों बुलाती है . . . निश्चित ही कभी पता भी नहीं चलेगा। 

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