वंश - भाग 11 (अंतिम भाग) Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वंश - भाग 11 (अंतिम भाग)

ग्यारह

दो-तीन बार दिल्ली फोन हो जाने के बाद भी नारी-निकुंज की अधीक्षिका सुष्मिता सिंह की बातचीत मुबारकपुर के सांसद ज्ञान स्वरूप से नहीं हो पाई, क्योंकि जब भी फोन मिला वे घर पर उपलबध नहीं थे। सन्देश बार-बार यही छोड़ा गया कि जब भी वह वापस आयें, तत्काल यहाँ संपर्क करें किन्तु इसके बावजूद दिनभर वहाँ से कोई समाचार या खोज-खबर नहीं मिली।

लेकिन अगले दिन सुबह ठीक आठ बजे सुष्मिताजी को सूचना मिली कि ज्ञान स्वरूप जी मुबारकपुर में आ गये हैं और शीघ्र ही जिले के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों, पुलिस महकमे के लोगों तथा कुछ गणमान्य नागरिकों के साथ उनकी एक अनौपचारिक बैठक होने वाली है। वे विमान द्वारा पास के एक बड़े शहर में आए थे, वहाँ से कार से चलकर सुबह तड़के ही मुबारकपुर पहुँचे थे। सुष्मिताजी के लिए उनकी ओर से खास संदेश भिजवाया गया था कि दोपहर बाद वे स्वयं उनसे बातचीत करेंगे और उन्हें दोपहर के भोजन के लिए भी ज्ञान स्वरूप जी के आवास पर ही निमंत्रित किया गया था।

तबीयत पूरी तरह ठीक न होने के कारण भोजन के लिए सुष्मिताजी ने असमर्थता प्रकट कर दी थी और उन्होंने संदेश देने आये ड्राइवर से यही कहलवा दिया था कि वह तीन बजे दोपहर में, जो वक्त बातचीत के लिए ज्ञान स्वरूप जी ने दिया था, आकर उन्हें ले जाये। एक बार सुष्मिताजी ने यह विचार भी बनाया कि वे सुबह के समय होने वाली गणमान्य व्यक्तियों और अधिकारियों की बैठक में भी उपस्थित हों क्योंकि उनके लिए भी ज्ञान स्वरूप जी द्वारा उन्हें आमंत्रण भेजा गया था, किन्तु अंत में उन्होंनें वहाँ न जाने का ही फैसला किया। सुष्मिताजी कल की भीड़ और शोर-शराबा देखने के बाद आश्वस्त थीं कि उनका पक्ष सत्ताधारी दल के सांसद के समक्ष शहर की कई सम्मानित हस्तियों द्वारा रखा ही जायेगा। वे तो ज्ञान स्वरूप जी से मिलने पर सिर्फ एक ही बात पूछना चाहती थीं कि क्या वे लोग किसी भी तरह ज्ञान स्वरूप जी से संबंधित थे जो उस रात कानून, मानवता और जीवन-मूल्यों को एक-साथ तहस-नहस कर गये थे। और ऐसी बात अपने साथ उनकी किसी निजी बातचीत में ही जानने की कोशिश करना ही बुद्धिमानी थी, यह भी सुष्मिताजी भली-भाँति जानती थीं।

ग्यारह बजे के लगभग थाने से एक व्यक्ति यह पता करने आया कि सुष्मिताजी अपने आवास में हैं या नहीं, क्योंकि कुछ समय बाद डी.एस.पी. साहब स्वयं आकर सुष्मिताजी से बातचीत करना चाहते थे। उसी व्यक्ति से उन्हें यह भी पता चला कि साहब अभी-अभी एम.पी. साहब के बंगले से लौटे हैं। वहाँ पर जो मीटिंग थी, खतम हो गई है। अभी डी.एस.पी. साहब कलेक्टर साहब के घर पर गये हुए थे। सुष्मिताजी से खास तौर पर यह कहलवाया गया था कि उन्हें डी.एस.पी. साहब के घर आने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि स्वयं साहब आकर उनसे यहीं भेंट करेंगे।

सुष्मिताजी ने संदेशवाहक को आश्वस्त कर दिया कि उनका केवल तीन बजे एम.पी. साहब के घर जाने को छोड़कर और कोई कार्यक्रम नहीं है तथा वे घर पर ही उपलब्ध हैं।

और कोई समय होता तो डी.एस.पी. साहब का स्वयं इस तरह आकर मिलना सुष्मिताजी के लिए बड़ी बात होती पर कल के घटनाचक्र से वह ऐसी खिन्नमना-सी थीं कि इस बातचीत को लेकर कोई विशेष आशा या दिलचस्पी उनमें बाकी नहीं रह गई थी। कार से उतरकर उनके आवास के बाहर कक्ष में आ बैठने वाला वह बड़ा और रुआबदार हाकिम भी उन्हें दीवार की एक ईंट-सरीखा ही नजर आया, जो उनकी सोच के रास्ते को रोके खड़ी थी।

–कल के हादसे पर सख्त अफसोस है मुझे।

–किन्तु मुझे नहीं होगा, यदि बलात्कारी पकड़े जाएँ, उन्हें उनके परिवार वालों के सामने शहरभर में जुलूस की शक्ल में घुमाने के बाद, बूढ़े होने तक जेल में डाल दिया जाये... उनका सांसद ज्ञान स्वरूप से क्या संबंध है, यह लिखित विज्ञप्ति में शहर के जन-साधारण को बताया जाये...

–देखिये मैडम! सब्र से काम लीजिये... कानून की प्रक्रिया और सजा की मात्रा आदि हम पर नहीं, बल्कि...

–सब्र से काम लेने के सिवा और कर क्या सकता है अब इस देश में जन्म लेने वाला?

–आपकी हताशा स्वाभाविक है....पर....

–आपकी मजबूरियाँ स्वाभाविक नहीं हैं, इतना लंबा-चौड़ा जनता के खर्च से चलने वाला महकमा लेकर बैठे हैं आप, तो चार लफंगों को बाँधकर उनकी माँ-बहनों के सामने फेंक देने में आपको क्या मुश्किल है... कहिये तब उनसे कि लो कमीनो, देखो जीभर के नारी-देह!

डी.एस.पी. सब्र कर गये। सुष्मिताजी के इस खरे उत्तेजनात्मक उद्बोध पर विशेष ध्यान नहीं दिया उन्होंने। धीरे-से बोले–मैं अभी ज्ञान स्वरूप जी से मिलकर आ रहा हूँ। वो दिल्ली से आये हैं अभी। आप तो जानती हैं, शायद आपने आज सुबह की न्यूज भी सुनी होगी... इलेक्शन डिक्लेयर हो गये हैं।

–मुझे इलेक्शन डिक्लेयर होने में नहीं, भाग्यश्री का शरीर खत्म करने वालों के नाम जानने और उन्हें सजा दिलवाने में दिलचस्पी है। 

–वो तो होगा ही, यू नो... यह तो वैसे भी बड़ा सेंसिटिव मूमेण्ट है...समय ही ऐसा पड़ गया...।

–हाँ, हिन्दुस्तान में अब चुनाव का समय ही तो सबसे संवेदनशील समय होता है। इसमें रहने वालों की अस्मत जाने का समय भला किसके लिए संवेदनशील होगा...

–आप नाराजगी छोड़ दें, तो मैं आपको बताऊँ... खुद एम.पी. साहब भी इस घटना से खासे परेशान हैं।

–मैं उनसे मिलकर आज ही यह दरख्वास्त करने वाली हूँ कि वे इस दिशा में जो भी कर सकते हों करें। आखिर नारी-निकुंज कोई फैक्ट्री नहीं है कि यहाँ का कच्चा माल भी यहीं तैयार हो... यह उन्हीं की संस्था है... वे राजनीति में हैं, ये उनके जीवन का मकसद...।

–ओह! प्लीज बी प्रेक्टीकल मैडम... वह तो स्वयं इसी इरादे से दिल्ली से चलकर यहाँ आये हैं, परन्तु खास तौर पर इस समय सारी बात को जरा गौर से समझने की जरूरत है। वे लोग आपसे झूठ नहीं बोले... वे ज्ञान स्वरूप जी के ही लोग हैं। यहाँ तक कि वह कार भी हमने रात बरामद कर ली है जो रात को यहाँ आई थी। लोग भी हम जब चाहें ...परन्तु...

–ओह! तो यह बात है। फिर अड़चन क्या है... उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया...?

–इस समय उन लोगों का किसी झमेले में पड़ना या गिरफ्तार हो जाना एम.पी. साहब के लिए... वो सब इनके काम करने वाले लोग हैं। एक-एक आदमी एक-एक इलाके में चुनावी दारोमदारी सम्भालने वाला असामी है। दो यहाँ के मशहूर मिल ओनर करोड़पति के बेटे हैं, जिन्होंने पिछले इलेक्शन में दो-दो लाख रुपये अपनी ओर से लगाये थे, एम.पी. साहब के लिए। एक वी.जी. कॉलेज का भूतपूर्व प्रेसीडेण्ट है जिसकी मुट्ठी में यहाँ का सारा छात्र-समुदाय आज भी है... इस समय ये लोग सम्मान के साथ बाहर रहने बहुत जरूरी हैं...।

...वाह! तो फिर आप लोग इतना ताम-झाम लिये किस भागदौड़ में व्यस्त हैं। घर बैठकर ताश क्यों नहीं खेलते? कहकर सुष्मिताजी एकाएक उठकर भीतर चली गईं। डी.एस.पी. साहब ने अपमानित-सा महसूस किया, लेकिन फिर भी उस दृढ़-हृदया नारी ने व्यंग्य-बाण छोड़-छोड़ कर उनसे असलियत उगलवा ही ली थी। थोड़ी देर तक डी.एस.पी. साहब प्रतीक्षा में वैसे ही बैठे रहे, यह सोचकर कि शायद सुष्मिताजी अपनी भावुकता पर नियंत्रण पाकर फिर से लौट आयें। लेकिन शायद डी.एस.पी. साहब भूल गये कि जब उन जैसे लोग अपने निकम्मेपन और काहिली पर नियंत्रण नहीं कर पाते तो सुष्मिताजी जैसों को भावुकता पर नियंत्रण रखने की सलाह किस बिनाह पर देते हैं। 'सुष्मिताजी’ कोई परीक्षा पास करके छह महीने की ट्रेनिंग लेकर नहीं बन जाता। उसके लिए उम्र भर की सलाहियत और जमानेभर की कुव्वत चाहिये होती है... कुछ देर प्रतीक्षा करके जब डी.एस.पी. साहब उठने लगे तभी भीतरी कक्ष से एक नौकरानी चाय और नाश्ते की ट्रे लेकर हाजिर हुई।

एक बार तो डी.एस.पी. साहब ने उपेक्षा से कहा, नहीं रहने दो, मुझे कुछ नहीं चाहिये... पर जब नौकरानी ने कहा–बैठिये, मैडम आ रही हैं, तो हल्के मन से आश्वस्त होकर बैठ गये। चाय सुष्मिताजी एवं डी.एस.पी. साहब ने साथ-साथ ही पी। फिर वे चले गये। सुष्मिताजी बाहर तक उन्हें छोड़ने आईं और अभिवादन करके उन्हें कार में घुसते देखा। उनके बाहर होते ही उनके लिए इन्तजार करते उनके दो मातहत अपनी मोटर साइकल पर सवार होकर उनके पीछे-पीछे हो लिये...।

डी.एस.पी. साहब को गये हुए मुश्किल से कोई एक घण्टा बीता होगा कि एक पुरानी-सी कार ने नारी-निकुंज के मुख्य द्वार के भीतर दाखिल होकर ठीक सुष्मिताजी के आवास के सामने तीन व्यक्ति उगल दिये।

आगे-आगे चलकर सबसे पहले सुष्मिताजी के बैठक कक्ष में दाखिल होने वाले व्यक्ति कुरता-धोती पहने हुए थे। काफी थुलथुल बदन था। पान से होंठ लाल हो गये थे जो पूरे मुँह पर एकमात्र सुन्दर टीका-सा लग रहे थे। शेष सारी काया गहरे काले रंग की ही थी। साथ वाले दोनों लोग भी कुरता-धोती धारण किये हुए थे लेकिन न तो उनके जितने श्यामवर्णी थे और न ही उतने स्थूलकाय।

नौकरानी के माध्यम से संदेश भीतर गया तो जरा गंभीर पर बेहद नियंत्रित संयत स्वर साधे सुष्मिताजी आईं, बैठ गईं। वार्तालाप शुरू करने के लिए उन्होंने पहल का जिम्मा उन्हीं काले-सलोने सज्जन पर छोड़ा क्योंकि वह जिज्ञासा से उन्हीं की ओर देखने लगीं।

–हमने सुना है, आपका हिसाब-किताब हो गया?

–हिसाब-किताब? कैसा हिसाब, मैं कुछ समझी नहीं..।

–हाँ, हमें तो अभी-अभी खबर मिली कि आपका और पुलिस का सुलह-सपाटा हो गया और आपने अपने बयान बदल दिये।

सुष्मिताजी बेहद चौंकीं, पर उत्तेजित नहीं हुईं। उसी तरह धीर-गंभीर स्वर में प्रतिप्रश्न कर बैठीं–किससे सुना आपने...?

–भई, हमें जो खबर मिली है सो गलत होनी तो नहीं चहिये। हमें तो यह भी पता चला है कि आपने ज्ञान स्वरूप जी के कहने पर केस को ढकने-दबवाने के लिए हरी झंडी दिखा दी है। कुछ लेन-देन की बात का भी पुछल्ला-सा सुना था हमने। सो आपको सच बतायें, सो तो माना नहीं हमने। भई, कोई वकत होती है आदमी की... कोई खुसूसियत होती है। मैंने तो डांटकर भगा दिया कहने वाले को कि सुष्मिताजी लेन-देन पर हर्गिज राजी नहीं हो सकतीं। वो क्या करेंगी पैसे का। लेकिन यह जरूर मेरे गले में फांस-सी लग गई कि आखिर केस भी ठण्डा करवाने के लिए आपको कैसे राजी कर लिया उन्होंने... अब की बार तो बड़ी उम्मीद थी पब्लिक को आपसे। आपको तो पूजते हैं यहाँ के लोग। सो बेचारे पचा नहीं पा रहे थे कि आपने भी लीपा-पोती करने दी... धारा प्रवाह बोलते वह सज्जन सहजता से सभी कुछ कह गये, बिना इस बात की परवाह किये कि सुष्मिताजी पर इसका क्या प्रभाव हो रहा है और यह सब सच भी है या गलत। कम से कम सुष्मिताजी को ही यह बताने का मौका तो दें, पर नहीं, वो तो जो सुन आए, थोपते गये।

सुष्मिताजी को चुप देखकर उनका हौसला और बढ़ गया। फिर बोले–वैसे गलती आपकी नहीं है, ये लोग हैं ही ऐसे। कैसा भी आदमी हो, साम-दाम-दण्ड-भेद, लल्लो-चप्पो, चाट-बांट से काबू में कर ही लेते हैं हर एक को। तभी तो बेचारे विपक्षी सारे मकड़ी की भाँति इनके दुर्ग की दीवार पर चढ़ते रहते हैं, फिसलते रहते हैं, चढ़ते रहते हैं, फिसलते रहते हैं। ये तो मकड़ी को यदि ठिकाने पहुँचती देखेंगे ना, तो साले मूतकर भी उसे पेशाब से बहा देने को तैयार हो जायेंगे... बुर्ज पे खड़े-खड़े।

तभी शायद उन सज्जन को खयाल आया कि वे किसी विपक्षी, आलोचकों की बैठकों में नहीं बैठे हैं बल्कि सामने एक शिक्षित और संभ्रान्त नारी से उसी के आवास में मुखातिब हैं, तो एकदम चुप हो गये। जबान होंठों पर ऐसे फेरी मानो अभी-अभी निकले शब्द जीभ से वापस लपेट कर मुँह में ले लेंगे।

घोर आश्चर्य, कि सुष्मिताजी ने अभी तक उनकी किसी भी बात का प्रतिवाद नहीं किया था, पर अब उनसे रहा नहीं गया। बोलीं–आपकी बातें सुनीं। इस बारे में और तो क्या कहूँ, यही कह सकती हूँ कि अब तक आपने जो भी सुना गलत सुना। कोई या तो मजाक कर गया आपसे या फिर आपके सुनने में गलती हुई। ऐसा कुछ नहीं हुआ अभी तक।

यों झूठे सिद्ध कर दिये जाने पर भी उन सज्जन की जैसे कोई मानहानि नहीं हुई। अपने सम्मान-स्वीकार से वीतरागी बने वे सज्जन वास्तव में मुबारकपुर से तीन बार संसद का चुनाव हार चुके दीन दयाल जी थे। परिचय अब हो पाया, सो भी तब, जब दीन दयाल जी के साथियों ने बातचीत के बीच में ही हस्तक्षेप करके उनका परिचय सुष्मिताजी को दे देना उचित समझा। स्वयं दीन दयाल जी तो परिचय-पहचान के झमेले में पड़ना ही अपनी शान के खिलाफ समझते थे। उनके चेहरे पर तो ऐसी आभा झलकती थी, मानो उन्हें मुबारकपुर का जर्रा-जर्रा जानता है। भला उनका परिचय कैसा?

अपनी बीस-बाईस मिनट की बातचीत में दीन दयाल जी सुष्मिताजी को एकबारगी वास्तव में ही चौंका गये कि जब उन्होंने बेहद रहस्यमय अन्दाज में सुष्मिताजी पर यह राज जाहिर किया। सुष्मिताजी विश्वास करें या न करें, दीन दयाल जी तो अपनी ओर से उन्हें संकेत दे ही गये थे कि इस चुनाव में शहर के सभी विपक्षी दल सुष्मिताजी को अपने उम्मीदवार के रूप में ज्ञान स्वरूप जी के खिलाफ उतारने पर आमादा हैं और इतना ही नहीं बल्कि दीन दयाल जी यह इनायत और फरमा गये कि मैंने तो साफ कह दिया है कि वैसे तो चौथी बार भी मेरा लड़ना सौ फीसदी तय ही है पर हाँ, इस देवी के लिए जरूर मैं मैदान से हट जाऊँगा और तन-मन-धन से इसका साथ दूँगा, जिससे मुबारकपुर का कूड़ा साफ किया जा सके। उनका इशारा स्पष्ट ही ज्ञान स्वरूप की ओर था।

वे सज्जन शीघ्र ही फिर मिलने का सुष्मिताजी से अवांछित वादा करके चले गये, लेकिन जाते-जाते एक बाती सुष्मिताजी के अंतर में उकसा गये। भाग्यश्री वाले मामले पर पुलिस में बयान बदलने या केस को दबवाने के लिए स्वीकृति दे देने जैसी बातों को सुष्मिताजी ने दीनदयाल जी को झुठलाते हुए तपाक से काट तो दिया लेकिन उनका विलक्षण गणितज्ञ मस्तिष्क उन्हें तुरन्त यह संकेत दे गया कि दीन दयाल जी की बात बेबुनियाद नहीं थी। अवश्य ही उनका क्रोध थूककर डी.एस.पी. साहब के साथ बैठकर चाय पी लेने का यही मतलब निकाला गया है कि अब डी.एस.पी. का अगला कदम ज्ञान स्वरूप जी के इशारे पर यही होगा कि सुष्मिताजी से अपना बयान उलटा-सीधा करवाकर मामले को रफा-दफा करवा लिया जाये। उन्होंने अवश्य जाकर ज्ञान स्वरूप जी को यही रिपोर्ट दी होगी कि सुष्मिताजी उनके साथ सहयोग करने को राजी हो जायेंगी।

सोच में गहरी उतरी सुष्मिताजी को यह दीन दयाल जी भी हल्के आदमी नहीं लगे बल्कि वे थोड़ी-सी देर में ही उनकी प्रतिभा और बात करने के अन्दाज की कायल हुईं।

इस वक्त न जाने क्यों, उन्हें महसूस हो रहा था कि इस घड़ी उनके साथ गिरधर या वरुण सक्सेना का होना उन्हें भाता। वे किसी अपने से विचार-विमर्श को तरस-सी रही थीं। आदमी कितना भी विवेक-संपन्न हो, जब तक किसी न किसी को सामने पाकर अपनी बात की लौटती प्रतिध्वनियाँ, 'ईको’ सुन नहीं लेता, आश्वस्त नहीं हो पाता।

सुष्मिताजी अधलेटी-सी अपने शयन कक्ष में सुबह से आया पड़ा अखबार देख रही थीं कि दरवाज़े के बाहर कार के हॉर्न की आवाज सुनाई पड़ी। वे तुरन्त समझ गईं कि ज्ञान स्वरूप जी की गाड़ी उन्हें लेने आ पहुँची है। पौने तीन बजे थे। वे तैयार ही थीं, फिर भी उन्हें लगभग दस मिनट लगे बाहर प्रतीक्षा करते ड्राइवर को चेहरा दिखाने में। सुष्मिताजी ज्ञान स्वरूप जी से बात करने के लिए, उनके आमंत्रण पर सरकिट हाउस की ओर रवाना हो गईं, जो आज उनका आवास बना हुआ था। कोई ज़्यादा चहल-पहल या गहमा-गहमी नहीं थी इस समय ज्ञान स्वरूप के इर्द-गिर्द और जो दो-एक लोग थे भी वे यंत्रचालित-से बाहर निकल गये, जब सुष्मिताजी भीतर दाखिल हुईं। राजनीतिज्ञों के गुर्गे-चमचे इतने तो समझदार हो ही जाते हैं।

सुष्मिताजी बैठ गईं। सामने ज्ञान स्वरूप बैठे थे। न ज़्यादा गंभीर, न ज़्यादा चिंतित, लेकिन फिर भी आवाज जैसे कहीं दूर से आती-सी भारी... भारी-सी...

–सब सुन लिया मैंने। वास्तव में यह सब गलत हुआ। बहुत दु:ख हुआ मुझे।

–मुझे अब तक तो इतना दु:ख नहीं हुआ लेकिन शायद अब जो कुछ होने जा रहा है, उससे ज़्यादा तकलीफ पहुँचेगी।

–डी.एस.पी. भट्ट ने मुझे बताया, आप बेहद खफा हैं। और आपकी यह नाराजगी अपनी जगह स्वाभाविक भी है। यह जो कुछ भी हो गया... मैं हर तरह से कंपनसेट करूँगा...मैं हर नुकसान की भरपाई करूँगा।

–क्या भरपाई करेंगे आप? मेरे दिमाग से उस दहशतजदा रात का खौफ निकाल देंगे? या भाग्यश्री की आबरू किसी बाजार से खरीदकर उसके जिस्म पर चस्पाँ करवा देंगे। ....या नारी-निकुंज की रहने वालियों को किसी इंजेक्शन से पागल करवा कर पिछला सब कुछ भूल जाने के लिए मजबूर कर देंगे?

ज्ञान स्वरूप जी को सुष्मिताजी के तेवरों का पूर्वानुमान तो था, पर वह उन्हें भी नहीं बख्शेंगी, यह नहीं सोचा था उन्होंने। फिर भी उन्हें सहज करने की एक और नाकाम-सी कोशिश करते हुए बोले—

–भाग्यश्री का पूरा जिम्मा मैं लेता हूँ, उसकी हिफाजत, उसका इलाज और इतना ही नहीं बल्कि किसी अच्छे घर-परिवार में उसकी शादी करवा देने तक की जिम्मेदारी मेरी होगी...।

–बुरा मत मानियेगा, आप लोग तो सुरक्षा कर्मियों से बुरी तरह घिरी संसद में बैठते हैं... बुलटप्रूफ शीशों के पीछे से शिरकत करते हैं। फिर भी सरकस के रिंग मास्टर होने का दम भरते हैं... आपकी शह पर, आपकी नाक के नीचे ही तो यह सब हो रहा है... भाग्यश्री की हिफाजत आप करेंगे? उन नागों की हिफाजत भी तो आप ही कर रहे हैं। आप तो एक ही पिंजरे में बाज और बटेर को रखने की बात कर रहे हैं। जो लोग डाकुओं-अपराधियों के साथ मेल-जोल रखते हैं उनकी तो औलादें तक अपनी सुरक्षा के लिए उन पर भरोसा नहीं करतीं। रही बात उसका विवाह करवाने की, तो यह कौन-सा मुश्किल काम है आपके लिए। भोली-भाली मासूम लड़कियों को विवाह के झांसे में फांस कर ही तो तिजारत के बाजार में लाते हैं ये लोग। ...आपको चुनाव लड़ने के लिए राक्षसों की मदद चाहिये। और चुनाव जीतने के बाद शपथ लेनी है आपको जनता और देश की रक्षा की... यही तो मजबूरी है आपकी। आपको अपने दैत्यों की भी तो रक्षा करनी है जो आपके चुनाव जीतते ही अपनी गुंडागर्दी और अत्याचार का अश्वमेघ का घोड़ा छोड़ देंगे बस्ती में.... और उसे पकड़ने वाले को आप...।

ज्ञान स्वरूप जी गंभीर होकर शांत हो गये थे और लगातार बोलती सुष्मिताजी की बातें सुनते जा रहे थे। सुष्मिताजी की भावुकता हताशा में मिलकर उनके स्वर को विक्षिप्तता की हद में लिये चली आ रही थी। वे अन्यमनस्का-सी कहती जा रही थीं–आपको मालूम है  इतिहासकार या पुरातत्व विज्ञानी जब किसी इलाके की मिट्टी खुदवाते हैं तो मिट्टी में मिले खण्डहर और अवशेष किसी विस्मृत सभ्यता की कहानी कहते हैं, लेकिन वर्तमान दौर के बाद आगे से जब भी हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमारे अवशेष खोदने के वास्ते खुदाई करवायेंगी तो वे केवल हमारी असभ्यता की कहानियाँ ही पायेंगी। और अपने युग पर लगने वाली इस तोहमत के जिम्मेदार सिर्फ आप जैसे लोग होंगे... जो अपने नितंबों के नीचे सत्ता रखने के लिए दीन-ईमान बालाए ताक रख देते हैं...।

–प्लीज। आप थोड़े धैर्य से काम लीजिये। इतना सेंटिमेण्टल होकर केवल विलाप किया जा सकता है, किसी समस्या का हल नहीं खोजा जा सकता। मुझे इस समय आपकी मदद चाहिये... राय चाहिये...।

–तो सुनिये! अपनी सरकार से कहकर राष्ट्रपति भवन में एक समारोह करवाइये और उसमें राष्ट्रपति के हाथों, सार्वजनिक रूप से क्षमा याचना करते हुए चौदह वर्षीया भाग्यश्री को उसके परिवारजनों को सौंपे जाने का बंदोबस्त करवाइये। बालिका के घर वालों को आश्वासन दिलवाइये कि उसकी पढ़ाई और विवाह का खर्च सरकार देगी और जो युवक पत्नी के रूप में उसे अपनाने को स्वेच्छा से तैयार होगा उसे सरकारी नौकरी या रोजगार के लिए सहायता दी जायेगी। और अपने उन गुंडों-गुर्गों की फौज को बिना मुकदमेबाजी काले पानी भिजवाने की सिफारिश कीजिये। जब देश का राष्ट्रपति किसी खूनी तक को फांसी से बचाने का अधिकार रखता है तो क्या इतना अधिकार नहीं रखता कि कानून अपनी लंबी और जटिल पैसेबाज प्रक्रियाओं से जिन्हें बचने का मौका दे देता है, उन्हें कानून की नजर बचाकर सीधे ही सजागारों में पहुँचाया जा सके, क्योंकि यदि मुकद्दमा चलेगा तो आपके करोड़पति गुंडे 'सत्यमेव जयते’ की कचहरी में लटकी पट्टी को मिट्टी के मोल खरीद लेंगे... यह भी आप जानते ही हैं कि इस देश में गुंडों के लिए करोड़पति बनना जितना आसान है, उतना ही कठिन है करोड़पतियों के लिए गुंडागर्दी न करना।

...कुछ रुककर सुष्मिताजी का स्वर एकदम से बदल गया। एक दीर्घ निश्वास छोड़कर बोलीं–जाने दीजिये, मैं भी यह क्या गुहार लगा बैठी। इससे भी क्या होगा। ऊँची कुर्सियों पर बैठने के भी तो करोड़ों लगते हैं, वो वसूल कैसे होंगे। भाग्यश्री जैसी लड़कियाँ क्या दे पाएंगी उन्हें? और लड़कियों के सौदागर तो अशर्फियाँ बरसा देंगे इन कुर्सी वालों पर.... सच तो यह है कि यह देश अब किसी सत्ता, संविधान या सरकार के सुधारे से नहीं बल्कि देश के रहवासियों की चीख भरी आह से चेतेगा...।

–नाउ शट-अप। होश खोकर जोर से चीखे ज्ञान स्वरूप। उनकी कनपटी गुस्से से तमतमा आई। माथे पर पसीने की बूँदों ने ऊपर चलते पंखे की भी परवाह नहीं की। वे क्रोध में आकर बोले–बस, बहुत हो गया। आपके लिए कोई फर्क ही नहीं है जैसे मुझमें, और अपने स्टूडेण्ट्स में...?

–मेरे विद्यार्थियों को गाली मत दीजिये, वो आप जैसे हो जाएँ यह नहीं चाहूँगी मैं कभी भी... और मुझे अब इजाजत दीजिये। मेरा मशविरा आपके काम नहीं आ सकेगा। आपके इस सत्ता-चक्र में पिसने-घूमने की न तो मुझमें ताकत है और न ही इच्छा... सुष्मिताजी ने धैर्य का इम्तहान दिया।

–आप ऐसे नहीं जा पायेंगी। अब इस केस को तो सैटल करके ही जाना होगा आपको। 

लेकिन ज्ञान स्वरूप जी की बात पूरी नहीं हो पाई। एकदम से कोहराम मच गया। उनके आदमी बदहवासी में इधर-उधर भागने लगे। सरकिट हाउस को बाहर चारों तरफ से भीड़ ने घेर लिया। पत्थरों से शीशे चटकने की आवाजें तेज होती गईं। दीन दयाल जी और उन जैसे सैकड़ों अन्य लोग भीड़ की अगुवाई करते-करते, उसे दिशा दिखाते सरकिट हाउस पर चढ़ा लाये। भारी शोरगुल और तोड़-फोड़ में सब कुछ अस्त-व्यस्त होकर ठप्प हो गया। फोन तक ने कन्नी काट ली। सरकारी अमले के लोग या तो इधर-उधर अंतर्ध्यान हो गये या दुबक-सरक कर ज्ञान स्वरूप जी के साये में आ गये। भीड़ रुकी नहीं, बाहर तक आकर। उसकी लहरें अब ज्ञान स्वरूप जी के कक्ष के बाहर ठाठें मारने लगीं। 

तेजी से उठ सुष्मिताजी बाहर निकल आईं। भीड़ की ओर मुँह करके जोर-जोर से नारे लगाते-चिल्लाते लोगों से शांत रहने का अनुरोध करने लगीं। देखते-देखते सुष्मिताजी के अनुरोध का असर हुआ और भीड़ एक विराट् सभा में तब्दील होने लगी। युवकों की चंचल आक्रामकता थमने लगी। ऊँची आवाज में सुष्मिताजी ने बोलना जारी रखा –भाइयो! इस देश की सत्ता को अब नंगा नाचने से हम-आप नहीं रोक सकते, ये हथियारों-अधिकारों से उसी तरह लैस है जैसे फिरंगी अंग्रेजों की सरकार यहाँ हुआ करती थी। ये लोग जबरन चुनाव करवायेंगे... बलात् जीतेंगे.... और फिर देश की छाती पर खुले आम ताण्डव करते घूमेंगे। कानून इनकी जेब में होगा, ईमान इनके कदमों तले।... ये लोग जीतने के बाद शपथ लेंगे, देश की रक्षा की... मर्यादा की। पर हम आज, अभी, इसी समय शपथ लेते हैं, इनके चुनाव से पहले ही... हम कसम खाते हैं कि हम देश की इनसे रक्षा करेंगे। इससे पहले कि सारा देश इन्हें दूरदर्शन पर झूठी शपथ खाते देखे... आइये हम सच्ची शपथ उठायें कि सतीत्व के तिजारती, करोड़ों रुपयों के इन जुआबाजों को हम चुनाव के पवित्र-पावन रणक्षेत्र में घुसने से रोकेंगे... हम देश के लोकतंत्र के वैभवशाली कालीन पर इनके कीचड़ सने पैरों के दाग नहीं पड़ने देंगे...।

सुष्मिताजी की आँखों में अंगारों के साथ-साथ अपने निकुंज की मासूम-अबला नारियों की डरी-सहमी कबूतरी-सी आँखों के अक्स भी दहक रहे थे। उन्होंने भीड़ का मजबूत जाल बुनकर जैसे बाज और बहेलिया की गर्दन पर उछाल फेंकने को हुंकारा भरा... और सुष्मिताजी ने देखा कि उस विराट् हुजूम ने हाथ हवा में लहराकर उनका आह्वान सिर आँखों पर लिया।

तन से वन्ध्या सुष्मिताजी को अपना 'वंश’ आगे बढ़ाने वाले सैकड़ों हाथ हवा में उठे देखकर शायद भीतर से उठा मूर्च्छा का जोम भी कमजोर न कर सका... वे पूर्ववत् खड़ी रहीं...।

 

समाप्त