वंश - भाग 1 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वंश - भाग 1

प्रबोध कुमार गोविल

 

 

हर उस व्यक्ति के नाम 

जिसे देखकर लगे 

कि इंसान को 

ऐसा ही होना चाहिए

 

एक

यह कहानी जो हम आपको सुनाने जा रहे हैं यह हमारी लिखी हुई नहीं है। ऐसी कहानियाँ कोई लिख भी नहीं सकता। ऐसी कहानियाँ तो 'जी’ जाती हैं और उन्हें रचते हैं उनके पात्र, उन्हें गढ़ता है समय और उन्हें उगाती है जिन्दगी। फिर उन्हें शब्दों में भींच कर पाठकों के मन-पत्तल पर परोसने का काम तो कोई भी ऐरा-गैरा नत्थूखैरा कर सकता है।

सुष्मिताजी एक ऐसा ही पात्र थीं, जो थीं, हुईं, और उनके होने के इर्द-गिर्द, उनके जीने के दरम्यान यह कहानी बुन गई। सुष्मिताजी की यह कहानी शुरू होती है वहाँ से जहाँ से सुष्मिताजी शुरू होती हैं और यह कहानी खत्म भी वहीं होती है जहाँ सुष्मिताजी खत्म होती हैं। इत्तेफाक देखिये, कि सुष्मिताजी के शुरू होने का किसी को पता नहीं चलता, कोई जान ही नहीं पाता कि कोई सुष्मिताजी हो गई हैं और वह अब हैं, क्योंकि सुष्मिताजी के होने पर बधावे नहीं बजते, सोहर नहीं गाये जाते, सुष्मिताजी के तमाम जी चुकने के बाद लोग जान पाते हैं कि सुष्मिताजी थीं। अच्छा, तो ये थीं सुष्मिताजी। 

प्रोफेसर सुष्मिता सिंह का यह अवस्थितिनामा हम आपके लिए वहाँ से शुरू करते हैं जहाँ एक सुसज्जित कक्ष में, अकेली-सी कोठी में सुष्मिताजी बैठी रात्रि के चढ़ते पहर के दूरदर्शन कार्यक्रमों से दो-चार हो रही हैं।

टी.वी. चल रहा है। शायद आखिरी-सा कोई कार्यक्रम है यह। कवि-सम्मेलन जैसा कुछ लग रहा है। एक नवयुवक-सा दिखने वाला कवि अपनी कविता सुना रहा है और तल्लीनता से सुन रही हैं सुष्मिताजी।

न जाने क्यों दूरदर्शन पर प्रसारित हो रही यह कविता, उन्हें यादों की क्यारियों में उगे फूल चुनने को धकेले दे रही थी। इन शब्द-समूहों पर तो वे संयत न रह सकीं, कुछ होता रहा उन्हें। जी चाहा कि बार-बार देखती-सुनती रहें। न जाने क्या था, एक बार गुजर कर रह गया सामने से। बोल कुछ यूं थे-

कोई भिक्षुक ले गया ज्यों

मांग कर बीती उमरिया

चल दिया जीवन फिसलकर

हाथ से जैसे मछरिया

कल सम्भाला था जतन से

कुलवधू के लाजपट-सा

आज वो लम्हा रहा मिट

बांझतन के वंशवट-सा

ज्यों के त्यों, शब्द जैसे किसी वेगवती नहर में बहकर बार-बार उनके हृदय-सागर में समाते जा रहे थे।

कार्यक्रम समाप्त हुए तीन-चार मिनट बीत गये। कल के कार्यक्रमों के बारे में बताकर उद्घोषिका अनुमति मांग चुकी थी। इससे पहले कि सुष्मिताजी बेंच से उठकर टी.वी. का स्विच ऑफ करें, छितराये बालों के तटों में कैद क्रीम-पावडर की नदी के पार से मुस्कराता चेहरा धुंधलाते-धुंधलाते एक धब्बा भर रह गया। स्विच की आवाज से धब्बे ने काँच की गोली समझकर टक्कर दी हो जैसे, पारदर्शी स्क्रीन खामोश खड़ा रह गया।

जिन्दगी भी तो दूरदर्शन से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम सरीखी ही होती है। हल्की धुन के साथ शाम को पर्दे पर अक्स उभरते हैं ठीक वैसे ही, जैसे जिन्दगी में बातें शुरू होती हैं, चीजें शक्ल लेती हैं और अलसाई रात में किसी उद्घोषिका की तरह ही उम्र विदा मांगने लग जाती है। हम चाहे उससे रुखसत होने के मूड में हों या न हों, उसे परवाह नहीं होती, वह तो हाथ जोड़कर धुंधलाना शुरू कर देती है और रह जाते हैं धब्बा होते अक्स। रफ्ता-रफ्ता स्थिर होते पानी-सा टेलीविजन का पर्दा खामोश हो जाता है, अगली सुबह नई हलचल, नए चेहरों की प्रत्याशा में।

सुष्मिताजी ने कॉफी का खाली प्याला हाथ में लेकर रसोई का रुख किया। सिंक में प्याला रखकर कुकर को गैस पर चढ़ाया और कमरे में लौट आयीं।

सुष्मिताजी की नौकरानी अब तक नहीं आयी थी और अब उम्मीद भी बाकी नहीं थी कि इतनी देर हो जाने के बाद वह अब आयेगी। इसी से सुष्मिताजी को खाने की परवाह खुद करनी पड़ी। लेकिन वह रसोई में अधिक देर तक खड़ी रहना नहीं चाहती थीं।

वे सुष्मिताजी थीं, सुष्मिताजी। चौके-चूल्हे की लक्ष्मण रेखा अपनी नियति के रूप में आँखों में आंजकर बैठी कोई मामूली औरत नहीं। रसोई उनकी सैरगाह हो सकती थी, गन्तव्य नहीं, मंजिल नहीं। तात्पर्य यह, कि प्रोफेसर सुष्मिता उन औरतों में से नहीं थीं जो घर-आंगन में चौके-चूल्हे के इर्द-गिर्द घूमकर ही खर्च हो जाती हैं।

उन्हें सहसा उस चिट्ठी की याद फिर आ गई। आज दोपहर को आये उस खत में चाहे जो कुछ भी लिखा हो, एक खत के अदना-से मजमून ने भरी दोपहरी में उन्हें झिंझोड़ बेशक दिया हो, पर धरती अभी फट नहीं गयी थी।

उस दोपहर को काट देने के बाद.... पानी पीकर थोड़ी देर आराम कर लेने.... रोकर थोड़ी देर सो लेने के बाद शाम को अब वे फिर 'सुष्मिताजी’ ही थीं।

एक बार फिर अलमारी खोलकर वह खत उठा लिया उन्होंने। इस बार उसे उठाने वाले हाथ 'आंटी’ के नहीं, बल्कि सुष्मिताजी के ही थे। यही कारण था कि वह खत खड़े-खड़े बदहवास होकर, हड़बड़ी में नहीं पढ़ा जा रहा था बल्कि इत्मीनान से कोच में धँसकर, आँखों को चश्मे की बैसाखी देकर किसी 'पत्र’ ही के अंदाज में पढ़ा जा रहा था। दोपहर को एक बार, दो बार, तीन बार, उसे 'आंटी’ ने पढ़ा था। घबराकर, हकबकाकर, उलट-पुलटकर सुष्मिता ने पढ़ा था, अब क्योंकि 'सुष्मिताजी’ पढ़ रही थीं, इसलिए वह सिर्फ एक बार ही पढ़ा जाना था। यही वजह थी कि एक-एक शब्द देखा जा रहा था। शब्द, शब्दों के अर्थ, अर्थों के आधार, आधारों पर खड़ी इमारतें, सभी पर नजर जा रही थी प्रोफेसर सुष्मिता सिंह की। उस चिट्ठी को पढ़कर रख दिया उन्होंने।

प्रोफेसर सुष्मिता सिंह आज उमस भरी दोपहर में खत्म हो गयीं या आज दोपहर ही से शुरू हुई हैं, यह फैसला करने में वक्त लगेगा। वक्त गवाँकर भी यह फैसला तभी हो सकेगा जब आप करेंगे। आप, यानी प्रोफेसर सिंह की कहानी पढ़ने वाले पाठक-गण। अब चूँकि आपको फैसला करना है, न्यायाधीश-निर्णायक की भूमिका निबाहनी है, जाहिर है कि सब कुछ जानना-सुनना चाहेंगे आप। जिरह सुनेंगे, तभी न फैसला दे पायेंगे। बात को पूरा समझें इसके लिए जरूरी है कि प्रोफेसर सिंह को आज की दोपहर एक बार फिर बितानी होगी। ठीक वैसे ही, जैसे सिनेमा में फ्लैश बैक होता है। कितनी भी कठिन हो वह दोपहर, प्रोफेसर को फैसला चाहिये आपसे.... इसलिए फिर से जी लेंगी वे इसे। वैसे भी....आखिर वे सुष्मिताजी हैं।

.....इतनी बड़ी चोट खाने के बाद तो उन्हें अचेत हो जाना चाहिये था, क्योंकि माथा उनका बुरी तरह लहू-लुहान हो गया था। पर नहीं, उनकी चेतना को न जाने क्या हो गया था जो उनके सोच से जोंक-सी चिपटकर बैठी थी। उन्हें एक बार शुबहा भी हुआ, कहीं ऐसा तो नहीं कि सिर्फ आवाज ही होकर रह गयी हो, चोट न लग पाई हो। उन्होंने चोट के परिमाण की पुष्टि के लिए अंगुलियाँ माथे पर फिराईं, हल्की टीस के साथ गाढ़ा-गाढ़ा खून अंगुलियों पर उतर आया। वे आश्वस्त हुईं। उन्होंने एक बार अपने कमरे की उस दीवार की ओर निर्निमेष ताका, जिस पर अभी-अभी उन्होंने जोर से अपना सिर टकरा दिया था। चुप-सी दीवार पर दहलन के बिंब बाकी थे। पलभर पहले हुई आवाज की खामोशियाँ बाकी थीं। कमरे की हवा में बेचैन कतरे तैर आये थे। चारों तरफ बिखरी निर्जीव वस्तुएँ सहम गयी थीं, जैसे किसी शोक-सभा में ला रखी गयी हों। वायवी दोलन जैसे सिर झुकाकर खड़े हो गये थे। पूरे माहौल में अगर किसी ने धृष्टता से सिर उठाकर लापरवाही दिखाने की कोशिश की, तो वह था कागज का वह टुकड़ा जो उनके सामने पड़े लिफाफे में से इस तरह झांक रहा था जैसे किसी खूबसूरत शंख में से घिनौना घोंघा बाहर निकलकर अपने जिंदा एहसास दुनिया को दिखा रहा हो। फकत वही एक विद्रोही, वही एक बागी था उनके चारों ओर छितराये हुए परिदृश्य से, उनके परिवेश से। उसी ने उनके चलन नहीं माने थे। नहीं माना था उसने सुष्मिताजी को बस सुष्मिताजी के रूप में। उसने उनकी स्थिति पर अपनी आँखों को नम नहीं किया था। वह नहीं पसीजा था उनके हालात पर। वह अदना-सा लिफाफा न केवल उसी तरह लापरवाही से उनके सामने पड़ा था, बल्कि फड़फड़ा रहा था, रह-रह कर। 

आज ही दोपहर को आया था वह खत। चन्द मिनटों पहले उसे डाकिया दे गया था। वही था वह खत, जिसे पाकर वह होश खो बैठीं। वह खत जिसे हाथ में लेकर अपनी सारी उम्र पर से फिसल गयीं वह। वह खत जिसे पढ़कर उन्होंने सामनेवाली दीवार से अपना सिर जोर से टकरा दिया, आवेश में। सामने पड़ा वह खत अब भी उनकी चेतना को उनसे अलग नहीं होने दे रहा था और अपने इस दुस्साहस पर और उच्छृंखल होकर उन्हें मुँह चिढ़ा रहा था।

सच्चे मा’नों में उस सारे वाकये के लिए वह खत इतना अधिक जिम्मेदार नहीं था, जितना उसका वह लिफाफा। खत के मजमून ने उन्हें इतना नहीं छेड़ा था, जितना सताया था उस पर लिखे उनके पते की इबारत ने।

खत, नमिता का था। नमिता उनकी जिन्दगी का एक हिस्सा थी, वह हिस्सा जिसने उनकी समूची जिन्दगी ही सिरे से झटककर आज यों दूर फेंक दी। हाँ, यही तो किया था उसने आज। खत लिखा, पर पीले लिफाफे पर काली स्याही से बारीक लिखावट में उनका पता लिखते वक्त उनके नाम के आगे 'मिस’ लिख दिया था। मिस सुष्मिता.... बस!

बस?

मात्र??

महज???

मिस सुष्मिता! क्या यही पहचान है उनकी आज? वह कुल मिलाकर बस सिर्फ 'मिस सुष्मिता’ ही बन पाई हैं आज? छियालीस साल उम्र खोकर यही हासिल है उनका? उन्होंने क्या अपनी उम्र मिस.... कुमारी सुष्मिता ही बने रहने में होम कर दी?

नमिता ने यह अच्छा नहीं किया। सुष्मिताजी को समझा क्या उसने? बालब्रह्मचारिणी नहीं हैं वे। संन्यासिनी-बैरागन नहीं हैं वे। साध्वी-जोगन तो क्या विधवा, बाल विधवा या परित्यक्ता भी तो नहीं हैं वे। तलाकशुदा वे नहीं। विवाहित भी नहीं....

फिर कौन-सा गणित है यह नमिता का? कौन-से समीकरण हैं जिनसे उन्हें मिस सुष्मिता सिद्ध किया गया है। साबित किया गया है कि छियालीस वर्ष पूर्व जन्मी अधेड़ प्रोफेसर सुष्मिता सिंह 'कुमारी सुष्मिता’ ही को अपनी पूँजी के रूप में लिये उम्र के अस्ताचल पर आ खड़ी हुई हैं।

वो महीन-सी लक्ष्मण रेखा जिसे लांघकर लड़कियाँ 'औरतपन’ के दायरे में दाखिल होती हैं, उन्होंने आज से चौबीस साल पहले लांघ ली थी। औरत की जिन्दगी में एक खास, अहम भूमिका लेकर कोई गैर मर्द चला आये तो सार्थक हो जाता है उसका औरत बन जाना.... उसकी जिन्दगी का जिन्दगी बन जाना। ये रस्म भी एक दिन निबाही थी उन्होंने। चौबीस वर्षों में न जाने कितनी ही रातें आयीं जिन्होंने अपनी कजरारी अस्मिता से उनके नाम के साथ जुड़े 'मिस’ शब्द को कोंच-कोंच कर क्षत-विक्षत कर दिया। फिर आज नमिता का यह खत....

आज वरुण सक्सेना जीवित हैं। वरुण सक्सेना इज्जत से किसी शहर में रहते हैं। वह फरार नहीं हुए, वह मर नहीं गये, उन्होंने सुष्मिताजी को तलाक नहीं दिया है। वह आज भी सुष्मिताजी से प्यार करते हैं। उनके नाम का सिंदूर सुष्मिताजी की माँग में अब भी बिखरा पड़ा है। हाँ, अलबत्ता चन्द मिनटों पहले के उस वाकये से अब वह सिर के लहू के साथ मिलकर सूखी रोली-सरीखा हो गया है जो माथे पर टीका लगाने के लिए पानी में घोली जाती है। लाख सिंदूरी हो, मगर लाल पानी जो घुल गया। लाली से मिलकर लाली दहक रही है आग सी और दुखा रही है सुष्मिताजी के सिर को। निर्जन-से एक गाँव के उस मंदिर का संगमरमरी फर्श आज भी सलामत है जिस पर खड़े होकर सुष्मिताजी और वरुण सक्सेना ने पुजारी से आशीर्वाद लिया था। आशीर्वाद, मंदिर, पुजारी....ये सब चाहे एक दकियानूसी ढकोसला ही हों सुष्मिता सिंह के लिए, पर वरुण सक्सेना के लिए तो मा’ने रखता था। इसी से यह सब कुछ निबाहा भी जा रहा था अब तक। वरुण सक्सेना के लिए निहायत जरूरी था जिन्दगी के फैसलों को बांधने के लिए, कच्ची डोरियों को शास्त्रों, वेदों, पुराणों, पंडितों में खोजना और उन दिनों सुष्मिताजी का सच था वरुण सक्सेना। वे दिन, दिन थे सही मा’नों में जो वरुण सक्सेना के दिनों से कहीं भी, कैसे भी जाकर टकरा जायें। 

वह फूलों का हार भी सुष्मिताजी के घर के किसी कोने में सलामत है, न केवल सलामत, बल्कि महफूज है जिसमें गुँथे फूल चौबीस साल पहले किसी वाटिका में खिले होंगे। वक्त के साथ-साथ अपनी नियति से लाचार बेचारे वे फूल बिखर-बिखर कर हार से दूर होते चले गये, पर फिर भी अपना अदृश्य साक्ष्य उस हार ही को सौंप गये जिसने सुष्मिताजी और वरुण सक्सेना को बाँधने का फैसला गवारा किया था। चौबीस सालों की हैसियत ही क्या, जो उनकी अनुभूतियों को यूँ नकारने की जुर्रत करें। वो तो न जाने कैसे, धृष्ट, उद्दण्ड, नमिता का यह खत....

यदि एक दोपहर सुष्मिता सिंह यूँ आहत हो गयीं, यूँ नकारी गयीं तो क्या? जिन्दगी सिर्फ एक दोपहर नहीं होती। जिन्दगी एक खत के लिफाफे पर लिखी पते की इबारत नहीं होती और फिर जिन्दगी भी यदि प्रोफेसर सुष्मिता सिंह की हो तो बातों को सिरे से सोचने, फिर से समझने की एक कोशिश तो करनी ही होगी।

बेजार-सा स्वीकार, खामोश-सी बेजारी.... प्रोफेसर सुष्मिता सिंह के कोश के नहीं हैं ये शब्द! सुष्मिता सिंह का नाम एक लिफाफे पर लिखते समय उनकी बेटी, जी हाँ बेटी ही तो, नमिता ने लिखा है 'टू मिस सुष्मिता सिंह’ छि:! नमिता को क्या हो गया? क्या होशो-हवास में लिखा है उसने यह सब। वह क्या समझती है, चिट्ठी पर उनके नाम के आगे 'मिस’ लिख देने से उनकी जिन्दगी के वे चौबीस वर्ष कपूर की तरह उड़कर अदृश्य हो जाएँगे जिन्हें उन्होंने लम्हा लम्हा सुहागन होकर जिया है, जिनसे उन्होंने बूंद-बूंद औरतपन निचोड़कर पिया है।

जब हम सुष्मिताजी की जिन्दगी को खंगालने बैठते हैं तो सबसे पहले एक नाम आता है, वरुण सक्सेना का। सुष्मिताजी की कहानी इस नाम के गिर्द घूमने से बच नहीं सकती। सुष्मिताजी की कहानी इन वरुण सक्सेना की कहानी से कब और क्यों.. किस मोड़ पर और किस घड़ी अटक गयी, इसकी भी कोई न कोई वजह रही होगी। वर्ना अपने-अपने सहज-सपाट रास्तों पर चलती दो कहानियाँ भला आपस में क्यों गुँथ जायेंगी। इन कहानियों के टकराने, उलझने और गुँथने के किस्से-कहानियाँ चाहे जो रहे हों, इतना  तय है कि सुष्मिताजी की कहानी में कैक्टस नहीं थे। कँटीली नागफनियों से उसका दूर का भी वास्ता नहीं था। वह तो गदराये अमलतास-सी परवान चढ़ रही थी। उसकी निस्बत ताजा खिले कचनारों से थी। उन दिनों कंटक वरुण सक्सेना की कहानी में थे। वही किसी हुक की तरह आकर सुष्मिताजी की कहानी से अटक गये। उलझकर, गुँथकर रह गयी उससे वरुण सक्सेना की कहानी!

कॉलेज के स्टाफ रूम में उस दिन सुष्मिताजी और वरुण सक्सेना ही थे। वरुण क्लास लेकर आये थे और सुष्मिताजी 'सेशनल्स’ की मार्क्स शीट को अंतिम रूप देकर सुस्ताने की-सी मुद्रा में कुर्सी से पीठ टिका कर बैठी थीं। उपस्थिति और दिनों की अपेक्षा काफी कम थी।

हमेशा चुप-से रहने वाले वरुण पास ही बैठ गये, और बातों ही बातों के दौरान न जाने कब सुष्मिताजी पूछ बैठीं—

–वरुण जी, बुरा न मानें तो एक बात पूछूँ?

–पूछिये ना! वरुण सक्सेना ने अखबार समेटने का उपक्रम किया।

–आप उस तरह नहीं हँसते, जिस तरह इस उम्र में आपको हँसना चाहिये।

सिटपिटा गये वरुण सक्सेना। कुछ स्तब्ध-से भी रह गये। एकाएक कुछ सोच नहीं पाये, और जब सोच ही न पाये हों तो जाहिर है बोल ही क्या पाये होंगे। ऐसे में सवाल का जवाब वह किसी तरह मुस्कराकर टाल सकते थे। मगर उस तरह हँसना या मुस्कुराना वरुण सक्सेना को आता, तो फिर यह सवाल ही क्यों होता। यह भी तो बात थी एक।

–न.... नहीं.... नहीं, नहीं.... ऐसी तो कोई बात नहीं। कुलजमा ये जुमले निकले वरुण सक्सेना के तरकश से।

–खैर जाने दीजिये! और सुष्मिताजी की हँसी पर स्टाफ रूम के बेजान पर्दे ताल देने लगे। जलतरंग-सी बज उठीं वह।

वरुण सक्सेना ने एकटक होकर देखा। उसे लगा कि इस निश्छल हँसी की जो किरणें अभी-अभी रोशनी का झुरमुट बनकर कौंधी थीं, उनमें बड़ा माद्दा है, उनमें तो कितने दर्द स्वाहा किये जा सकते हैं। सुष्मिताजी तो पीरियड बजने की आवाज सुनते ही रजिस्टर उठाकर बाहर चली गयी थीं, पर वह बैठे सोचते रह गये थे उस हँसी के बारे में, जिसने वरुण के भीतर कहीं वर्षों से सोये पड़े तार झनझना दिये थे। किन्तु यह सुखद एहसास ज़्यादा देर तक कायम नहीं रह सका था, क्योंकि तभी वरुण को ध्यान आ गयी एक और हँसी। उसके अपने जीवन से सात फेरे लेकर उसके साथ बँध जाने वाली हँसी। वह हँसी जिसने वरुण सक्सेना के जीवन-खेत के सारे अंखुए सुखा डाले। रत्ना! उसकी पत्नी। और न चाहते हुए भी वरुण को याद आ गया उसका चेहरा। उसे अनचाहे ही सोचना पड़ा उस एक और हँसी के बारे में, जिसमें लावा उगला जाता था, धुआँ बनकर दर्द, व्यथा और परेशानी फलक पर फैलती थी व्यंग्यात्मक, विदू्रप, कभी-कभी वीभत्स की सीमा तक महसूस होने वाली वह हँसी। हर दिन सुबह, दोपहर, शाम रात को जब-जब भरपूर उसके हिस्से में आने वाली वह कड़वी हँसी, जिसे हँसने के साथ रत्ना का चेहरा और भी फीका हो जाता था और भी बेस्वाद।

–आपकी शादी को कितना समय हो गया? एक और दिन पूछा था सुष्मिताजी ने।

–जाने दीजिये, क्या कीजियेगा पूछकर? फिर वह खुद ही बोल पड़े थे।

–मैं ग्यारहवीं क्लास में पढ़ता था, तब मेरी शादी हो गयी थी। हमारे समाज में शादी काफी जल्दी कर देने का रिवाज है।

–ओह माइ गॉड! तब तक आप समझते थे शादी का मतलब?

–मैं सत्रह साल का भी नहीं था पूरा। मतलब समझने का सवाल ही नहीं है और सच कहूँ तो शादी का मतलब तो आज भी मेरे लिये अपरिचित ही है।

–आपके परिवार में और कौन है, मेरा मतलब है, बच्चे?

–तीन लड़कियाँ हैं।

–आपकी सूरत से लगता तो नहीं कि इतना बड़ा परिवार होगा आपका। पूरे के पूरे गृहस्थ हैं आप तो।

–क्या सूरत पर ग्राफ बनते हैं गृहस्थी के? वह पूछ बैठे थे। फिर एक खोखली हँसी में खुद ही डूब गये। कितना बेमानी सवाल किया था उन्होंने। रोज ही तो पढ़ते रहे हैं वह आइने में उन ग्राफ्स को, जो हर नये दिन के साथ गर्त में झुकते चले आ रहे हैं। सुख-संतोष को दर्शाने वाले बिंदु अधर में झूल रहे हैं। उन्हें रेखायें बिना स्पर्श किये ही नीचे लौटने लगी हैं। व्यथा-संताप को जताने वाली रेखा बढ़ती चली गयी है, रुकने का नाम नहीं..... जैसे गगन चूमना चाहती हो। समानान्तर चलते सुख-दु:ख की परिभाषाओं से कोई सरोकार नहीं इन रेखाओं को। इस बेमेल से ग्राफ से कितना गलत होता चला गया है वरुण सक्सेना का चेहरा।

ज्यामिती शुरू ही से सुष्मिताजी का प्रिय विषय रहा है। वरुण सक्सेना के चेहरे के कोण, वृत्त और पैराबोला छिपे नहीं उनसे। वह परत-दर-परत पढ़ती चली गयीं।

–वरुण जी! नहीं चाहती आपके जाती मामलों में दखल देना, फिर भी.... अन्यथा न लें तो एक बात कहूँ.... आप काफी गंभीर रहते हैं। सुष्मिताजी ने एक दिन कहा था और 'काफी’ शब्द पर दिये गये बल ने पीड़ा की दो और बूँदें वरुण सक्सेना के सोच के पोखर में घोल दीं और कसैला हो गया पानी। उनके जिस्म में किसी सिनेमा हॉल के प्रोजेक्टर रूम की-सी हरकत हुई थी। और वरुण सक्सेना स्वयं नहीं जानते कि उन्होंने इस बात का क्या जवाब दिया सुष्मिताजी को। उनके होंठ ऐसा कुछ बोले जो उनका मस्तिष्क नहीं जानता और इसी बुदबुदाहट में न जाने क्या समझा दिया होठों ने सुष्मिताजी को.... क्या कह दिया कि इधर भीतर किसी पर्दे पर कोई दृश्यावली शुरू हो गयी थी। बैठे-बैठे सोचने लगे वरुण सक्सेना।

आज रत्ना ने सुबह-सुबह बुरी तरह मारा था बेटी रूपा को। क्रोध में गर्म चिमटा छुआ दिया बच्ची की जांघ पर। मरहम-पट्टी करवाकर डिस्पेन्सरी से घर छोड़ आया है वरुण, पर उसे मालूम है कि मासूम बच्ची की देह पर अब सारी उमर रहेगा यह निशान। सुबकती हुई दीपा भी उसके पैरों से चिपट गयी थी-पापा मैं तुम्हारे साथ चलूँगी, पापा मुझे डर लग रहा है। रूपा डिस्पेंसरी से लौटने के बाद थक कर बिस्तर पर पड़ रही, पर रत्ना पसीजी नहीं थी फिर भी। आते-आते भी दो-चार जली-कटी सुननी पड़ी थीं वरुण को।

बच्ची का दोष इतना ही था कि उसने चार आने मांगे थे रत्ना से। वह रसोई में काम कर रही थी। बाहर 'बुढ़िया के बाल वाला’ आकर खड़ा हो गया। रूपा आवाज देकर उसे रोक आई थी। रत्ना ने डांटकर मना किया मगर रूपा नहीं मानी, रोने लगी और जिद में मचलकर फर्श पर लेट गयी और उस मासूम, नन्ही की इतनी-सी जिद ही भारी पड़ी कर्कशा माँ को। बस, रत्ना ने तड़ातड़ लात-घूंसों से बौछार-सी कर दी बेचारी बच्ची पर। वह कर्कशा बोलती जा रही थी–चारों तरफ से लूट खाओ, कम्बख्तों को हमेशा पैसे माँगने की आदत हो गयी है, मेरे पास क्या खत्ती गढ़ रही है जो दूँ? बाप है कि तनखा मिलते ही पहले अपने चहेतों, खून के सगों के चरणों में चढ़ा देता है। फिर बचे-खुचे से मैं चाहे कैसे भी अपनी गृहस्थी पालूँ, चाहे फाके करूँ, या भीख माँगूँ। अब रत्ना के आक्रोश ने क्रन्दन का रूप ले लिया था।

वरुण समझ गया था कि कल गाँव में माँ को भेजे गये मनीऑर्डर को लेकर ही यह सारा बवाल है, जिसके लिए कल दोपहर ही से रत्ना ने सारा घर सिर पर उठा रखा है। फिर भी वह बोला कुछ नहीं, बोलता क्या....

–टेक इट ईजी, वरुण जी! एक नये दिन कहा था सुष्मिताजी ने वरुण के मुँह से सब जान-सुन कर। वरुण न जाने कौन-से आवेग में अपने घर के ये पोथी-पुराण उनके सामने खोल बैठे थे। बाद में खुद महसूसते रहे कि यह अच्छा नहीं किया उन्होंने। उस घर के बारे में क्या सोचना, उस औरत के बारे में क्या बात करना। वरुण सक्सेना का वह घर जैसे घर नहीं कोई थियेटर था जिसमें दु:खान्तिकाएँ खेले जाने के ही अनुबंध थे। मंच था, कि सिर्फ जीरो डिग्री प्रोजेक्शन का कोई पर्दा। जिधर से देखो, दु:ख, जिधर से देखो परेशानी, मगर फिर भी.... सब कुछ सुष्मिताजी से कहकर कम से कम एक सुकूनबख्श हल्कापन तो कमाया ही था वरुण ने।

–कृपया, अन्यथा न लें तो एक बात पूछूं वरुण जी, आपने कभी यह पता करने की कोशिश की है कि आपके आपसी रिश्ते में आखिर कहाँ कमी है। वो कौन-सी ऐसी बातें हैं जहाँ.... मेरा मतलब है कि आप महसूस करते हों कि.... आखिर यह कड़वापन उपजता कहाँ से है।

–आपने बचपन में वह कहानी तो जरूर सुनी होगी सुष्मिताजी! एक राजा की सात राजकुमारियाँ थीं। उसने उनके युवा होते ही उनके स्वयंवर का अनोखा एक तरीका निकाला। महल के ऊँचे बुर्ज पर सबको ले जाकर उसने उन्हें तीर चलाने का आदेश दिया और कहा कि जिसका तीर जहाँ जाकर गिरेगा वहाँ के निकटतम आदमी से ही राजकन्या का विवाह होगा।

–इन्टरेस्टिंग! दिलचस्प कहानी है।

–संयोग से सारी राजकन्याओं के निशाने किसी न किसी ऐसे स्थल पर जाकर लगे जहाँ आस-पास कोई न कोई खूबसूरत युवक मिल गया। बस सिर्फ सबसे छोटी राजकुमारी का ही तीर जाकर पास के जंगल में एक पेड़ की खोह में गिर पड़ा। वहाँ दूर-दूर तक किसी आदमजात का नामोनिशां नहीं था।

–वंडरफुल! फिर?

–जाकर पड़ताल की गयी तो पेड़ के ऊपर बस एक बंदर बैठा मिला। राजा के सेवकों ने चप्पा-चप्पा छान मारा, पर और कोई न था।

–हाय रे!

–और राजकन्या ने ऐलान कर दिया कि नसीब ने उसे वर दे दिया है। वह बँधेगी तो उसी के साथ। उसने बंदर के गले में वरमाला डाल दी।

–ट्रेजिक अंत है...

–अंत नहीं है यह। राजकुमारी बंदर के साथ प्रणय सूत्र में बँध तो गयी लेकिन पहली ही रात में उसे एक चमत्कार देखने को मिला। वह बंदर रात होते ही एक खूबसूरत बलिष्ठ युवक बन जाता था, पर सवेरा होते ही वापस अपने असली रूप में आ जाता था। शायद कोई अभिशप्त राजकुमार था।

–अरे! फिर?

–राजकन्या की सारी उम्र मौज से कट गयी। जरा सोचिये सुष्मिताजी, कहीं वह अभिशप्त युवक दिन में खूबसूरत युवक ही रहता, पर रात होने पर उसे बंदर बन जाने का श्राप मिला होता तो? दिन तो कैसे भी कट जाता है पर रात को तो इंसान को इंसान ही चाहिये।

–यदि ऐसा न होता तो बेचारी जोगन बन जाती। कैसे कटती जिन्दगी?.... मेरी जिन्दगी को भी यही श्राप है, समझ लीजिये। कितना भी जोड़ने की कोशिश करूँ, कहीं कुछ रीता रह जाता है। कोई शिला खिसक जाती है संबंधों के बीच से। कितने ही प्यार और सद्भाव से रत्ना को विश्वास में लेकर दीवार खड़ी करूँ, सूरज गिरते ही दरक जाता है सब कुछ।

देखती ही रह गयी थीं सुष्मिताजी, हतप्रभ-सी। आगे बोले वरुण जी–फिर निमित्त बन जाती हैं छोटी-छोटी बातें, जो महसूस करते हैं, शब्दों में तो कह नहीं पाते ना? कौन जाने उसकी जिन्दगी का भी यही दंश हो। पर जो भी हो, उभरता है उसके व्यवहार का फूहड़पन और मेरे व्यक्तित्व का ठण्डापन। सब कुछ बेस्वाद-सा....सब कुछ निरर्थक.... अर्थहीन-सा, श्रापग्रस्त-सी दिनचर्या।

–क्या आप ही की तरह भावुक, कभी रत्ना जी भी हो जाती हैं? सुष्मिताजी ने पूछा।

इस बार जो हँसी वरुण सक्सेना के होंठों पर आयी वह सुष्मिताजी की उपलब्धि थी।

–हाँ! इसे कहते हैं उन्मुक्त हँसी। ऐसे ही क्यों नहीं हँसते तुम? सुष्मिताजी को यह भी ध्यान नहीं रहा कि वह आप से तुम पर उतर आयी हैं।

–किस पर? अपने आप पर? अपनी जिन्दगी पर? वरुण सक्सेना के चेहरे पर अभी-अभी आई हँसी सावन की धूप-सी ओझल हो गई और उसकी जगह उतर आया वही ठण्डापन।

और इस तरह कितने ही मौके आये जब सुष्मिताजी की जिज्ञासा और वरुण जी की हताशा ने चोंचें लड़ाईं। सुष्मिताजी की सहानुभूति वरुण जी की बदकिस्मती को पीने लगी और देखते-देखते दो कहानियाँ एक पगडंडी पर चल पड़ीं।

वो फिर एक और दिन था। सुष्मिताजी गहरे नारंगी रंग की साड़ी में थीं आज। लम्बे तराशे हुए घने बाल, कँटीली छुरियों से दो पैने-तीखे तट माथे पर बनाते पीछे की ओर चले गये थे।

वरुण सक्सेना के हाथ में भी ऑरेंज बार ही लग रही थी। यह आइसक्रीम वरुण को बहुत पसन्द थी। खट्टा-मीठा स्वाद, बला की ठण्डक। सुष्मिताजी के बहुत जोर देने पर जान पाया था वरुण सक्सेना कि हाँ, ये उसकी भी पसन्द की चीज है।

–मैं ठीक कह रही हूँ वरुण जी, आप ये रुपए रख लीजिए। एक बार कहा था उन्होंने।

–परन्तु मेरा मन नहीं मानता।

–बचपना मत कीजिये। इसमें मन वाली क्या बात है? खैरात मत समझिये, बाद में वापस कर दीजियेगा, बस?

–पर...

–छोड़िये भी, देखिए मेरी खातिर! और हाँ यह बेचारगी उतार फेंकिये अपने चेहरे से। पता नहीं क्यों, मर्द के चेहरे पर बेचारापन मुझसे बर्दाश्त नहीं होता।

हँस दिये थे वरुण और निस्सन्देह यह हँसी उतनी खोखली नहीं थी।

पार्क से काफी दूर निकल आये थे वे। शाम को यहाँ की चहल-पहल काफी बढ़ जाती है। चहल-पहल में लोग बेपरवाह हो जाते हैं कि भीड़-भाड़ है। कौन किसे पहचानेगा? चहल-पहल में लोगों के मस्तिष्क में खटका भी तो हो सकता है न जाने कौन परिचित आया हो। मिल जाये। पर वरुण सक्सेना के खतरे रत्ना से शुरू होते हैं, रत्ना ही पर खत्म होते हैं। रत्ना घर-गृहस्थी में सुबह करती है, उसी में शाम करती है। वह भला यहाँ क्यों आयेगी। लड़कियाँ छोटी हैं तीनों अभी।

और सुष्मिताजी तो सुष्मिताजी हैं।

हाँ, दोनों में से किसी के छात्र, मित्र, परिचित जरूर यहाँ उन्हें देख सकते हैं? और यदि वे सुष्मिताजी के परिचित हैं तो वे इस बात से भी परिचित होंगे कि सुष्मिता सिंह और वरुण सक्सेना साथ-साथ घूम रहे हैं, तो इसमें नया क्या है? इसमें अजब क्या है? गजब क्या है?

और फिर रत्ना को कोई नहीं बताने जा रहा। रत्ना से कोई बात करने के लिए हिम्मत चाहिये, हौसला चाहिये। हौसला वरुण सक्सेना में नहीं, तो किसमें होगा।

हरे-से उस टीले की ओर जा रहे थे अनायास वे दोनों!

–इसे व्यक्तिगत कटाक्ष मत समझियेगा। सामान्य रूप से ही कह रही हूँ। मेरा विवाह संस्था में बिल्कुल भी विश्वास नहीं है। आपकी क्या राय है?

–क्या कहूँ! जहाँ तक सब ठीक है, सब ठीक है।

–वाह, यह तो कोई बात नहीं हुई। क्या आप महसूस नहीं करते कि शादी भी एक समझौता ही है। यह कोई खून का रिश्ता नहीं है।

–बिल्कुल, वह तो है ही।

–और समझौता हमेशा टिकता है विश्वास से, श्रद्धा से, गंभीरता से, रिवाजी बेड़ियों की फिर क्या जरूरत है? जबरन थोपी गयी लकीरों से किसी को बाँधने की वजह भला क्या हो।

–नहीं, देखिये न, इतने सुलझे हुए सहज रूप में कितने लोग हैं जो यह बात समझेंगे। पर पूरे समाज की दृष्टि से कानून सम्मत या नैतिक दिशा-निर्देश या अनिवार्यताएँ लागू करने के लिए तो इसकी अहमियत है ही। हर आदमी का एक-सा विस्तार तो नहीं होता। बंधन न हों तो न जाने कौन कहाँ तक जाए।

–इसमें गलत क्या है?

–यदि गलत नहीं है तो आज तक विवाह संस्था है ही क्यों? 'एक्जिस्ट’ ही क्यों कर रही है। आखिर हम उन्मुक्त तो थे ही पहले कभी। आज के इस मुकाम पर फिर क्यों आकर पहुँचे?

–आप इस पर हँस सकते हैं, पर मैंने जब से होश संभाला है मन में यह निश्चय किया है कि मैं कभी शादी नहीं करूंगी।

–इसका कोई कारण?

–कारण कुछ नहीं, बस कभी-कभी मुझे महसूस होता है कि कितने ही परिवार छोटी-छोटी दरारों से, ना मालूम-सी लकीरों से बिखर कर दिशाहीन-से हो जाते हैं। चाहे वे दरारें आर्थिक हों, चाहे सामाजिक, चाहे जिस्मानी। फिर जिन्दगियाँ उफनती नदी में आ गिरे लक्कड़-सी होकर रह जाती हैं। अपना कुछ नहीं, अपना बोझ पानी के कंधों पर, अपनी दिशा तरंगों की मनमर्जी पर, अपनी नियति-जैसे विराट् शून्य-सा कोई महासागर।

–लेकिन यह सब टाला जा सकता है क्या?

–मेरा जी चाहता है कि मैं अपना कोई जीवन-महल न बनाऊँ। सिर्फ बारीक सीमेण्ट बनकर रहूँ। जहाँ भी दरो-दीवारों को दरकते देखूँ, दरार को पाट हूँ।

–लेकिन दीवारें हर घर में हैं घर गली-गली में। कहाँ से लाइयेगा इतना सीमेण्ट?

–एक पत्थर दस इमारतों को तो नहीं साधता? एक दीवार का बोझ उठाता है बस। उसी में उसकी पूर्णता है, उसी में सार्थकता। फिर उसकी यह कोशिश, कि किसी एक पत्थर को और उकसा सके.... यह उपलब्धि है.... छोड़िये यह सब.... लौटेंगे नहीं?

–आपके साथ घूमते हुए ऐसा लग रहा है जैसे कि किसी अलमारी में से गुजरे वक्त की कोई उमर निकाल लाए हों, जैसे लौटने की जल्दी नहीं है।

–रत्ना जी को शक-शुबहा का मौका क्यों देते हैं?

–रत्ना जी को क्या देता हूँ मैं, क्या दे सकता हूँ। उन्हें परवाह ही कितनी है मेरी?

इससे पहले कि वातावरण का बोझ और बढ़ जाता सुष्मिताजी ने इशारे से चाट वाले को पास बुला लिया। दोनों टीले के पास ही सीमेण्ट से बनी बेंच पर बैठ गये। चाट वाला लड़का नीचे घास में बैठ गया और पत्ते में उबले आलू मसलकर उनमें नमक-मिर्च मिलाने लगा।

–मैं बहुत दिनों से हिंडोला नहीं झूली हूँ आइये न।.... सुष्मिताजी ने चाट खाने के बाद कहा था।

–चलिये.... सुष्मिताजी की हर बात का समर्थन आँख मूँदकर करता जा रहा था वरुण सक्सेना। लग रहा था जैसे यूँ हँस-बोल कर वह इंतकाम ले पा रहा हो किसी अदृश्य बैरी से। घड़ी की सुइयों पर निगाह गयी तो फिर एक संतोष-सा हुआ।

सुष्मिताजी ने जब लौटना चाहा तब ही लौटना हुआ।

यह तो एक मामूली बात थी, कि सुष्मिताजी ने एक मंदिर में जाकर वरुण सक्सेना से विवाह कर लिया, परन्तु यह मामूली बात नहीं थी कि वे एक दिन अपने सहज स्वाभाविक वजूद को लेकर रत्ना के सामने भी आ खड़ी हुईं। किसी शाही हरम में आने वाली किसी नई बेगम की तरह नहीं, बल्कि रत्ना का दर्द पूछती हुईं उसकी परेशानियाँ माँगती हुई किसी सहेली के रूप में।

रत्ना रत्ना थी। उसने सौत को देखकर जितना उत्पात मचाया, जितनी जली-कटी वरुण को सुनाई वह मामूली बात थी, पर रूपा, दीपा और यहाँ तक कि छोटी नमिता भी जितनी तेजी के साथ सुष्मिताजी के साथ जुड़ने लगीं, वह मामूली बात नहीं थी। वे बच्चियाँ क्या थीं मानो सब जैसे अपनी-अपनी धुरी से हटे हुए, अपने-अपने में टूटे हुए टुकड़े थे, जो सुष्मिताजी के चुम्बकीय व्यक्तित्व के चाक पर गीली मिट्टी के बर्तनों की मानिंद घूमने लगे। सुष्मिताजी चुम्बकीय व्यक्तित्व लेकर उस परिवार के गिर्द छाती चली गयीं। उसे अपने आँचल के तले संभालती-सँवारती। पहली बार उस दिन स्कूल की फीस के रुपये रूपा ने माँ की ओर देखते हुए सुष्मिताजी से माँगे और रत्ना न जाने किस तुफैल में चुप खड़ी सब सुनती रही। इससे पहले कि व्यंग्य और कटुता का कोई आलंकारिक वाक्य रत्ना की ओर से वातावरण में बरछे-सा फेंका जाता, सुष्मिताजी की झोली में रखे पर्स से रुपये निकलकर रूपा की हथेलियों पर आ गये। रूपा भाग गयी और रत्ना उपेक्षा से उनकी ओर देखती रही।

पहले-पहल सुष्मिताजी दो-चार दिनों में एक बार वहाँ आती थीं, फिर रफ्ता रफ्ता नियमित-सी ही आने लगीं। उन्होंने वरुण सक्सेना के परिवार की छोटी से छोटी जरूरतों पर अपनी निगहबानी के रंग-रोगन फैलाने शुरू कर दिये। चमकाने शुरू कर दिये। वरुण सक्सेना के घर के रात-दिन कर दिये सुष्मिताजी के जादुई प्रभामंडल ने।

कैसी थी सुष्मिताजी की यह नई प्रयोगशाला, जिसमें कभी भी आहत-अपमानित होने का खतरा था, कहीं से किसी प्रतिफल की प्रत्याशा भी नहीं, फिर भी सुष्मिताजी ने गंभीरता से दायित्व ओढ़े जिम्मेदारियाँ निभाईं।

रूपा और दीपा जिन्होंने कभी अपने गंदे-मैले फ्राकों के लिये माँ की भृकुटी सिकुड़ती नहीं देखी थी उन्हें अब प्यार से समझाया गया–गंदगी से कैसे बचना चाहिये, बालों को कैसे धोना चाहिये, कपड़े कैसे तह करके रखने चाहिये। दोनों लड़कियाँ चाव से अपनी इन आण्टी की बातें सुनतीं और उन पर अमल करतीं।

हर कदम फंूक-फंूक कर रखती सुष्मिताजी ने रत्ना की किसी रात को अकेला नहीं होने दिया था। अपने इस प्रेमी पति से उनके प्रेम-श्रद्धा-विश्वास और अपनापन सब दिन के उजालों में ही परवान चढ़े। प्रेम की पींगें अंधेपन के उद्दाम वेग से नहीं बल्कि सोचे-सम्भाले लम्हों के साये में बढ़ाईं गईं। रत्ना यदि कभी पीहर जाती तो अवश्य सुष्मिताजी कभी-कभार घर की देखभाल करती-करती वहीं रुक जातीं। वरुण और रूपा जिद-जतन से उन्हें वहीं रोक लेते, सोने के लिए। छोटी नमिता तो अक्सर रत्ना के साथ ही जाती और इस तरह रत्ना की गैर मौजूदगी में सुष्मिताजी के साथ वह सेज-शैया भी बंटी जो रत्ना का हक थी। उसी चहारदीवारी में वरुण सक्सेना ने नारी के जिस्म की चुंबकीय सन्तृप्तता भी अनुभव की, जिसमें अब तक उन्हें नारी-पुरुष अवयवों की सन्तानोत्पत्ति-क्रियाएँ ही नसीब हुई थीं।

हाँ, कभी-कभी रत्ना से कहकर, मनुहार सी करके रूपा और दीपा को सुष्मिताजी अपने घर ले आया करतीं। रात को उनसे प्यारी-प्यारी बातें और कहानियाँ सुनती हुईं वे भोली बच्चियाँ जो बालपन के एक-दो बसन्त देखकर ही 'बड़ी’ कहला गयी थीं, और माँ की गोद 'अगली’ के लिये छोड़ने पर विवश हुई थीं, सुष्मिताजी के पेट से चिपककर गहरी नींद सो जातीं। सुष्मिताजी में बहुत कुछ अपना दिखने लगा उन्हें।

ऐसी ही एक रात में सुष्मिताजी ने रूपा को बुरी तरह भींच लिया था। नम हो आयीं उनकी आँखें, बोलीं–एक बात कहूँ, मानेगी?

–हाँ! चहक-सी उठी थी ग्यारह-बारह साल की रूपा।

–तू मुझे भी माँ कहा कर!

रूपा देखती रह गयी आण्टी को, आण्टी की नम आँखों को।

–आप रो क्यों रही हैं आण्टी?

–नहीं तो, कहाँ रो रही हूँ.....

–मैं अपने घर चली जाऊँगी यदि आप रोयेंगी। रूपा रुआंसी हो गई।

–हट पगली, रो कहाँ रही हूँ, यह तो आँख में कुछ गिरने से पानी आ गया था। और सुष्मिताजी ने आँचल से आँखें पोंछ डाली थीं। वह उठकर मुँह धोकर आयीं और नन्ही रूपा ने एक के बाद एक, तीन कहानियाँ सुनकर ही सोने दिया था आण्टी को।

कभी कोई तीज-त्यौहार आदि का मौका होता तो सुष्मिताजी वरुण सक्सेना के घर में आकर ऐसे जतन और उल्लास से तैयारी में जुटतीं कि रत्ना को अपने घर में और सुष्मिताजी में कोई भेद-अलगाव करने का मौका या बहाना जाने-अनजाने भी नहीं मिल पाता। बच्चों के लिए नये कपड़ों से लेकर खुद रत्ना तक के लिए कुछ नया खरीद देतीं। अपनी आधी से अधिक तनख्वाह इसी घर में खर्च करने लगी थीं वह। ऐसे मौकों पर दो-तीन दिन पहले से ही बाजार के चक्कर लगने लग जाते और कभी वरुण सक्सेना के साथ, कभी बच्चों को लेकर। सुष्मिताजी का उत्साह चहकता ही रहता। और ऐसे में ही कभी-कभी वह दिन भी आने लगा कि जब रत्ना का भी दिल पसीज जाता था। छठे-छमाहे रत्ना उन्हें वहीं रोक लेती थी। और यूं कभी-कभी दो-चार दिन के लिए रत्ना के सामने भी वहाँ रह जातीं सुष्मिताजी।

पास-पड़ौस में इन नये तानों-बानों को लेकर आवाजें न उठी हों, सो भी नहीं। मगर रत्ना के स्वभाव से सब भली प्रकार परिचित थे। जब वही यह सब देख-सह रही थी तो किसी और को भला क्या ऐतराज होता और कब तक होता?

रत्ना जो पहले आये दिन तंगहाली का झींकना झींकती रहती थी, अब इफरात में आ गयी थीं। सुष्मिताजी घर के खर्च में शाहदिली से मदद करतीं। कई छोटे-मोटे दायित्व तो उन्होंने अपने ऊपर ही ले लिये थे। घर के किसी भी अर्थ-संकट को सुष्मिताजी से होकर गुजरना पड़ता और इस बिना पर सुष्मिताजी की बुनियाद घर की जड़ों के साथ-साथ रचती-पचती चली गयी।

नमिता के सातवें साल में जब उसका कनछेदन हुआ तो सुष्मिताजी ने इस अवसर पर दो हजार रुपये खर्च कर दिये। खाना-पीना सब खुले हाथ से हुआ। जात-बिरादरी के लोग भी, नाते-रिश्तेदार भी सब देख गये। किन्तु परोसी हुई पत्तल की सूखी रोटियों पर घी टपकाने वाले हाथों पर भला कौन ऐतराज करे। वरुण सक्सेना के घर की तीसरी लड़की। उनकी बिसात ही क्या जो धूमधाम से उनके कान छिदें? यह तो कहो, सुष्मिताजी के चलते सब हो गया, रस्मो-रिवाज भी, खाना-पीना भी।

रत्ना बड़ी प्रसन्न हुई थी यह सब देखकर। हाँ, उसके पीहर के लोगों का वहाँ आना और उनकी आँखों में सुष्मिताजी की मौजूदगी की खाद पाकर घास-फूस सा कुछ उगना थोड़ी देर के लिये हिला गया रत्ना को। पर सभी के लिये सुंदर रंगीन कागजों में लिपटे कुछ न कुछ उपहार भी तो अपनी अहमियत रखते थे। सुष्मिताजी कौन थीं, क्यों थीं, की तुलना में 'वह क्या कर रही थीं’ का भी तो कुछ न कुछ वजन था। अत: सब ठीक से निबट गया।

और उस दिन तो रत्ना भी द्रवित हो गयी। शायद वही पहला मौका था जब उसे जिन्दगी में पहली बार अपनी इस पढ़ी-लिखी आधुनिका सौत पर आश्चर्य-मिश्रित ममता जागी थी। चाहे कुछ देर ही के लिए सही।

रत्ना की बहन का विवाह था। रत्ना के बहुत कहने और मान-मनुहार करने के बाद ही वरुण सपरिवार वहाँ जाने की तैयारी कर पाया था। उसकी इच्छा तो यही थी कि रत्ना चली जाये और यदि हो सका तो शादी वाले ही दिन थोड़ी देर के लिए वह आ जाए। वास्ता दिया था उसने छुट्टियों का, इम्तहानों का। जरूरी भी, गैर-जरूरी भी, दस काम गिनवा दिये थे। मगर रत्ना के तरह-तरह से मनाने के बाद वह चलने के लिये तैयार हुआ था। लेकिन जब वरुण सक्सेना को ससुराल वालों का वह खत दिखाया गया जिसमें उन्होंने रत्ना से शादी के मौके पर चार-पाँच हजार रुपयों का बंदोबस्त करने की अनुनय-विनय सी की थी तो हत्थे से उखड़ गया वरुण। यह उसे अपने बस की बात नहीं लगी थी। कितने ही दिनों इस बात को लेकर परेशान भी रहा वह। रत्ना से भी कहा-सुनी होकर रही। कोई जुगाड़ ऐसा दिखाई नहीं देता था जिससे बात बनती-सी नजर आये। और रुपयों का प्रबंध न कर पाने की दशा में वरुण को वहाँ जाना सिरे से ही रुच नहीं रहा था। रत्ना भी अजीब से पशोपेश में थी। विवाह के मौके पर यह भी तो संभव नहीं था कि वह अपने गहने ही किसी के पास रखवाकर वरुण से पैसे का प्रबंध करने को कहती। शादी के अवसर पर नाते-रिश्तेदारों में खासकर औरतें, इन्हीं चीजों से तो पहचानी जाती हैं। फलानी क्या पहनकर आयी, उसके पास कैसी साड़ियाँ थीं, उसकी चीजें किन नमूनों की थीं? फिर खास बहन ही की शादी में जाना हो तो क्या गहने बिना लिये चली जाये रत्ना? अजीब उलझन थी।

जिस दिन वरुण की अनुपस्थिति में सुष्मिताजी ने चैक रत्ना की हथेली पर रखा, एकाएक देखती रह गई रत्ना। पहली बार शायद उसके मुँह से सुष्मिताजी के लिए 'बहन’ शब्द निकला और न जाने किन टूटे-फूटे अस्फुट से शब्द-गुच्छों में अपनी कृतज्ञता बुदबुदाकर जता पायी थी रत्ना।

और सुष्मिताजी! उनके चेहरे पर क्या आना था? वे तो न जाने क्या कमा रही थीं, क्या गँवा रही थीं, क्या बेच रही थीं, क्या खरीद रही थीं। बस, दिन जा रहे थे और उन्हें बातों से बाँध रही थीं, सुष्मिताजी।

एक दिन रात को छोटी-सी नमिता ने जैसे कुछ याद करके माँ से पूछा था—माँ! आण्टी को क्या हो गया था आज दोपहर को।

–कब? कुछ भी तो नहीं। बच्ची पर चादर फैलाती रत्ना ने लापरवाही से कहा।

परन्तु नन्ही नमिता ने न जाने क्या देखा था, कब देख लिया था, उसकी उत्सुकता यकायक दबी नहीं, बोली-

–पापा आण्टी के पेट में गुदगुदी क्यों मचा रहे थे?

–चुपचाप सो जा! डपट दिया रत्ना ने, और करवट बदल ली। पर उसके होंठों पर अपनी सौत के लिये कोई जलन या ईर्ष्या नहीं बल्कि मुस्कान-सी उतरी थी उस दिन चेहरे पर।

मनोवेगों की नैया को अर्थ की पतवार कैसे साध लेती है। भौतिक जरूरतों की अविकल पूर्ति डाह और नफरत की शिलाओं में से भी दरियादिल सद्भावना के चश्मे खोज निकालती है। आज की दुनिया में यदि सब कुछ खरीद पाने का हौसला एक उद्दण्डता भरा दुस्साहस कहलाए तो भी एकाएक अविश्वास करने की वस्तु भी तो नहीं।

वरुण सक्सेना ही नहीं खुद एक बार रत्ना भी निमंत्रण दे बैठी थी सुष्मिताजी को, बहन के विवाह में शरीक होने का। लेकिन यही बहुत था, कि रत्ना ने उन्हें संबंधी समझा। सुष्मिताजी को कोई दिलचस्पी नहीं थी शादी में जाने की। सुष्मिताजी का मन नहीं था अपरिचितों की भीड़ में अपने उलझे समीकरणों को लेकर जा पाने का।

कुछ दिन अकेली-सी रहीं सुष्मिताजी। वरुण सक्सेना सपरिवार शादी में सम्मिलित होने चले गये और सुष्मिताजी ने भी अकेलेपन से डूबने-उतराने के लिए झोंक ही डाला व्यस्तताओं में स्वयं को। समय जाता रहा।

एक बात रही।

नमिता, रूपा और दीपा पर सब कुछ लुटाकर सुष्मिताजी को औलाद का सुख अवश्य मिला था, पर अपनी ही देह के टुकड़े उन्हें मयस्सर नहीं हुए। उस तरह कभी माँ नहीं बन पाईं। उन्होंने कभी नहीं जाना कि अपनी ही काया में दूसरी जिन्दगी उगाना क्या होता है।

शुरू-शुरू में तो उनका इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया। वरुण सक्सेना को अपना साथी मान लेने और उससे विवाह की-सी वह रस्म अदायगी कर लेने के बाद भी संतानोत्पत्ति को लेकर एहतियात ही बरतती रहीं वे। वरुण सक्सेना तीन पुत्रियों का पिता था, उस वक्त यही बात सुष्मिताजी के लिए भी काफी थी। परिवार तो है। लुटाने न्यौछावर करने के आधार तो हैं। फिर अपने ही शरीर से निकला जीव कोई बहुत ज़रूरी तो नहीं।

सुष्मिताजी ने न केवल सतर्कता बरती बल्कि वरुण सक्सेना को भी अपना मन्तव्य बता दिया।

लेकिन फिर बाद में कुदरत भी जैसे उनके प्रति उदासीन हो गयी। उन्हें अनुर्वरा घोषित किया प्रकृति ने। 'पिल्स’ छोड़ देने के बाद बरसों तक उनकी गोद हरी नहीं हुई। दो-चार साल के बाद जैसे चौकन्नी-सी हो गयी थीं वे। लेकिन अब परमात्मा को रुचि नहीं थी, उनकी औलाद में जैसे। उन्होंने इस बात का जिक्र वरुण सक्सेना से भी एकाध बार किया, पर वरुण के हाथ में उन्हें दिलासा देने के अलावा और था भी क्या। वैसे अपने चलते तो कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी उसने। सुष्मिताजी को उनके किये के प्रतिदान-स्वरूप भरपूर प्रेम ही तो देता रहा वरुण सक्सेना।

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