दो
कुछ समय बाद सुष्मिताजी का तबादला दूसरे शहर में हो गया। उन्होंने पहले कोशिश की कि वे यहीं बनी रहें पर अंतत: उन्हें जाना ही पड़ा। जब उनका वहाँ से जाना तय हो ही गया तो उन्होंने एक बार रत्ना से विनती की कि वे नमिता को उनके साथ भेज दें। रत्ना को भला क्या एतराज होता। नमिता तो वैसे भी सुष्मिताजी से ही चिपकी रहती। रूपा अब कॉलेज में आ गयी थी और कॉलेज में आने के साथ-साथ एक परिवर्तन उसमें यह आया था कि उसे अब अपने घर का गणित उलझाने लगा था। अपने परिवार के गृह-त्रिभुज के सारे कोण और भुजाएँ शंकित करने लगे थे। इन्हें बखूबी समझने लगी थी वह। शुरू से ही सुष्मिताजी को उसने सामने देखा-पाया था। वह घर की ही एक सदस्या की तरह थीं। फिर भी रूपा उनसे अब कुछ खिंची-खिंची-सी रहने लगी थी। पहले की तरह हर काम के लिए आण्टी का ही मुँह देखना अब उससे नहीं हो पाता था। उसका यों कटे-कटे रहना सुष्मिताजी भी महसूस करती थीं। रूपा को अब अकेले में आण्टी के सामने पड़ने या किसी भी बात की गहराई में जाने में थोड़ी असुविधा-सी होने लगी थी।
यही हाल उसका अपनी माँ रत्ना के प्रति भी था। एक अपने ही दायरे में सिमटती जा रही थी रूपा दिनों दिन। विरक्ति का कुछ अंश पिता के लिए भी था। सवाल खड़े करने, चीजें उलझाने वाले घर में तीन-तीन शख्स हों और सब का औचित्य खुद रूपा को तलाशना पड़े, अजीब-सी स्थिति थी। कैशोर्य के दिनों में मुश्किल समस्या-पूर्ति करवा रही थी जिन्दगी।
दीपा का हायर सैकेण्ड्री का आखिरी साल बाकी था। इसीलिए उसे बीच में स्कूल नहीं छुड़वाया जा सकता था, वरना सुष्मिताजी ने तो दीपा और नमिता दोनों को ही अपने साथ ले जाने की इच्छा जाहिर की थी।
नमिता सुष्मिताजी के साथ आ गयी। पहला मौका था घर से बाहर जाने का। पर ये घर से बाहर जाना कहाँ था। आण्टी जी साथ थीं और नमिता ने तो माँ और आण्टी में कभी फर्क करना जाना नहीं। शुरू ही से आण्टी को नमिता ने माँ की तुलना में कहीं ज़्यादा करीब पाया। हाँ, माँ की झोली में एक ये बात तो अधिक थी ही, कि वे आखिर माँ थी। फिर भी, आण्टी भी आण्टी थीं।
जिस दिन का आरक्षण था, उससे दो दिन पहले तीन घण्टे तक नमिता आण्टी के साथ बाज़ार में घूमती रही, जैसे कि सिर्फ शहर ही नहीं बल्कि सब कुछ बदलने जा रहा हो उनका। आण्टी ने भी ढेरों सामान खरीद-खरीद कर नमिता को लाद दिया, मानो जिस शहर में जाकर उन्हें अब रहना हो वहाँ इन सब चीजों का अकाल पड़ा होगा और इसलिए निहायत जरूरी है उन्हें यहीं से लाद कर ले जाना।
सुष्मिताजी जब तक वहाँ रही थीं बच्चियों की सारी जिम्मेदारियाँ उन्हीं पर थी। बच्चे कौन से स्कूल में दाखिला लेंगे, कौन-से विषय लेंगे, ये सब बातें रत्ना क्या समझती। सब सुष्मिताजी की देखरेख में ही हुआ था। लड़कियाँ अब तक नये कपड़े भी बनवातीं तो सारा मशविरा सुष्मिताजी से ही होता आया था।
रत्ना ने भी धीरे-धीरे जैसे सब स्वीकार कर लिया था। और वरुण सक्सेना की नाव तो हवा के रुख पर तिरनी शुरू हो गयी थी वर्षों से। उन्हें किसी बात में, किसी मसले पर दिलचस्पी के साथ बोलते कम ही सुना जाता।
नयी जगह तबादले का चाव सुष्मिताजी को बिल्कुल नहीं था, पर नमिता को आनंद आ रहा था। वैसे भी एक उम्र के बाद इन्सान हर बात पर आनंदित-उत्साहित नहीं हो पाता और नमिता ने अभी उम्र का वह पड़ाव दूर से भी नहीं देखा था।
नमिता का दाखिला वहाँ आसानी से हो गया। सुष्मिताजी के कॉलेज में कार्य-ग्रहण कर लेने के बाद धीरे-धीरे वे दोनों जरूरत का सामान भी ले आईं। वहाँ नमिता को सुष्मिताजी के साथ देखकर कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था कि इन दोनों में माँ-बेटी के अलावा कोई रिश्ता हो सकता है। इस तरह घुल-मिल गयी थीं दोनों। छुट्टियों में जब घर आतीं, साथ ही आती थीं।
सुष्मिताजी ने पुराने शहर के अपने मकान में वैसे भी बरसों से रहना तो काफी कम कर दिया था, हाँ उनका उनके माता-पिता के जमाने का बेशुमार सामान अलबत्ता वहाँ जरूर पड़ा था। वर्षों से, जब से वह वरुण सक्सेना के यहाँ परिवार के ही सदस्य की हैसियत से रहने लग गयी थीं, वरुण ने उन्हें अपना मकान किराये पर उठा देने की सलाह दी थी, पर उन्होंने विशेष ध्यान नहीं दिया था। अब जब वह शहर छूटा तो इस ओर गंभीरता से सोचा सुष्मिताजी ने। और एक बार जब कॉलेज बंद होने पर सात-आठ दिन के लिए आने का अवसर सुष्मिताजी को मिला तो उन्होंने यह काम कर डाला।
चार कमरों के फैले बिखरे सामान को सहेज सम्भाल कर एक बड़े कमरे में बंद कर दिया गया। दो कमरे सुष्मिताजी ने अपने लिए सुरक्षित रखकर बंद कर दिये। और बाकी दो किराये पर उठाने की जिम्मेदारी वरुण सक्सेना पर डाली गयी। वैसे भी सुष्मिताजी का मन अब उस वीरान-से घर में तो कहाँ लगता। अभ्यस्त हो गयी थीं यह भी अपने 'परिवार’ की, परस्पर विश्वास और समझौते की भावना पर टिके इस परिवार की, जिसे उन्होंने विवाह संस्था के विकल्प के रूप में अपने जीवन के लिए जाने-अनजाने चुन लिया था और अब वे सोच के उस पार पाती थीं उस किसी भी कल्पना को, जो उन्हें अपने इस घर-परिवार से किसी भी तरह अलग करे।
सुष्मिताजी के कॉलेज में छुट्टियाँ हो गयी थीं, पर नमिता के इम्तहान चल रहे थे, इसलिए उन्हें रुकना पड़ा। नमिता की इस साल बोर्ड की परीक्षा थी। वह खुद भी खासी मेहनत कर रही थी फिर भी सुष्मिताजी बराबर उसके साथ लगी रहतीं। उसके नोट्स जाँचना, बचे हुए 'चेप्टर्स’ को पूरा करवाना। 'रिवीजन’, सब सुष्मिताजी पर ही था।
नमिता ने ही घर पर, छुट्टी होने के बाद तीन महीने के लिए वहाँ आने की बात लिख दी थी। रूपा और दीपा भी अपने-अपने इम्तहानों से निवृत्त हो चुकी थीं और अब वहीं उन लोगों की प्रतीक्षा में थीं। रूपा का सुष्मिताजी से स्नेह कुछ कम हो गया था किन्तु अब भी कभी-कभार उन्हें पत्र लिख देती थी। दीपा के ही पत्र से एक सूचना और मिली थी उन लोगों को।
रूपा के लिए किसी जगह से रिश्ते के बारे में बातचीत चल रही थी और वरुण सक्सेना सुष्मिताजी और नमिता की प्रतीक्षा में ही ठहरे हुए थे। कार्यक्रम यह था कि सभी के आ जाने के बाद ही उन लोगों से बातचीत की जाए। वे लोग लड़की देखना चाहते थे। रूपा का अब बी.ए. पूरा होने वाला था पर तीन-तीन लड़कियों के होने से शायद वरुण सक्सेना समय रहते ही चेत गये थे। रूपा को भी एतराज नहीं था। दो-एक बार वरुण लड़के वालों से मिल लिये थे और काफी बातचीत हो चुकी थी। लड़का भी पसंद था। वरुण सक्सेना ने ही देखा था अभी। पर अंतिम फैसला तो रूपा, रत्ना और सुष्मिताजी.... के देख लेने के बाद ही होना था।
सुबह की ट्रेन से नमिता को लेकर सुष्मिताजी वहाँ पहुंचीं। दोपहर को ही वरुण सक्सेना द्वारा दिये गये टेलीग्राम का जवाब आ गया। वे लोग अगले ही दिन रूपा को देखने के लिये आ रहे थे। सब-कुछ अचानक निश्चित हो गया।
सुबह ही से घर में चहल-पहल थी। रूपा की दो-एक सहेलियाँ भी आ गयी थीं। वे लोग सुबह-सुबह की गाड़ी से आ गये थे। कार्यक्रम यह बना था कि उन लोगों को सीधे घर पर ही न बुलाकर कहीं और लड़की दिखाने का कार्यक्रम बनाया जाये। काफी विचार-विमर्श के बाद निश्चित हुआ कि सुष्मिताजी के घर पर वे लोग ठहराये जायें और वहीं पर रूपा को लेकर जाया जाये। सुष्मिताजी के लिए तो जैसे यह एक उपलब्धि थी।
इसी कार्यक्रम के हिसाब से तैयारियाँ हुईं। रात को सुष्मिताजी, दीपा और नमिता वहाँ जाकर ठीक-ठाक करके आ गयीं। घर बन्द होने से गन्दा अवश्य था, परन्तु एक तो छुट्टियों का माहौल, दूसरे मौका भी खुशी का, आनन फानन में साफ-सफाई हो गयी।
जो दल रूपा को भावी वधू के रूप में तौलने-परखने के लिए आया उसमें कुल पाँच लोग थे। लड़का खुद था, उसके माँ-बाप थे, एक भाई था और एक शायद लड़के का कोई दोस्त था। दोस्त भी शायद कोई पारिवारिक मित्र था, क्योंकि किसी भी बात में उसकी आवाज-राय भी समय-समय पर सुनाई दे रही थी।
किसी ने पहले से यह सोचकर न रखा था कि परिचय की रस्म अदायगी के समय सुष्मिताजी का परिचय क्या कहकर दिया जाएगा। न किसी को ऐसी उम्मीद ही थी कि इतना जोर देकर, विशेष रूप से खोज खबर सुष्मिताजी ही के बारे में ली जायेगी। समय पर जो बन पड़ा, बताया गया। बात को घुमा-फिराकर ही कहा गया। लेकिन चाय खतम कर के उन लोगों के वहाँ से उठते-उठते एक वज्रपात-सा होने के आसार सभी को नजर आने लगे और इस बदलते माहौल में सर्वाधिक सशंकित हुई स्वयं सुष्मिताजी। सब कुछ शान्ति से सद्भावनापूर्ण वातावरण में चल रहा था। लेकिन बातों के दौरान ही एक तथ्य सबके सामने आया कि लड़के के वे दोस्त महाशय सात-आठ वर्ष पूर्व सुष्मिताजी के विद्यार्थी रह चुके हैं। सुष्मिताजी एकाएक पहचानी तो नहीं थीं किन्तु हतप्रभ अवश्य रह गयीं। कुछ ही देर में सद्भावना पर खिंचाव तनाव की छाया धीरे-धीरे गिरती सभी ने देखी। सुष्मिताजी ने कुछ ज़्यादा ही शिद्दत से महसूस किया उसे।
उन लोगों के जाने के बाद घर में चुप्पी-सी छा गयी। हुआ कुछ विशेष नहीं था, फिर, भी न जाने क्यों वातावरण का हल्कापन ओझल हो गया। सब बेमन से घर लौटे शाम को। सुष्मिताजी ठहर गयीं, बोलीं, वे थोड़ी देर बाद आ जायेंगी। पर दीपा नहीं मानी, सबको साथ ही साथ लौटना पड़ा। लेकिन मन में कोई अपराध-बोध-सा घर कर गया उनके। रूपा अपनी सहेलियों के साथ कुछ देर पहले ही चली गयी थी। उसने आज सुबह ही से न जाने क्यों सुष्मिता आण्टी से बिलकुल बात नहीं की थी और अभी उन लोगों के जाने के बाद तो रूपा को तुनक कर जाते सभी ने देखा। नमिता ने कहा भी था–दीदी, आण्टी कह रही हैं आज सुबह से तुमसे बात ही नहीं हुई.... परन्तु रूपा के तेवर देखकर नमिता की आवाज होंठों में ही रह गयी। रूपा की क्रोधाग्नि छुप न सकी।
उन लोगों ने रूपा को देखने के बाद कोई जवाब नहीं दिया था, किन्तु यह कह दिया था कि वे अपने शहर में पहुँच कर पत्र द्वारा अपने फैसले की सूचना भेजेंगे। वे लोग लड़के वाले थे और लड़के वालों के लिए तो जैसे रिश्ता तय करते समय आवश्यक होता है अंतिम समय तक अपनी रहस्यमयता तथा गोपनीयता बनाये रखना। क्योंकि वे 'एक्सटर्नल एक्जामिनर’ होते हैं। लड़की के पूरे जीवन का एक अहम निर्णय लेने वाले। उनकी एक 'हाँ’ में जैसे लड़की का जन्म सफल हो जाता है और उनकी एक 'ना’ पर अच्छी-भली, लिखी-पढ़ी लड़की अपने आपको एक जिंस समझने को विवश हो जाती है। यदि लड़के वाले लड़की के भाग्य फल को तुरन्त घोषित कर दें तो उनकी खातिर-मेहमानदारी में फर्क जो आ जाये। और यदि तुरन्त फैसला कर दें तो हो सकता है लोग उन्हें कम रुआबदार या दूसरे शब्दों में बेवकूफ मानने लगें। संभवत: यही दर्शन रहता है उनके इस सारे नाटकीय व्यवहार में। वर्ना देखा जाये तो वे भी औलाद की शादी ही की खातिर आये होते हैं, फैसला भी उन्हें लेने की जल्दी होती ही है। जरूरत होती है बस एक नाटकीयता बनाये रखने की। वे लोग अब न जाने अपने शहर में पहुँचकर वहाँ के किसी काजी से पूछने वाले थे या कि ये इन्कार का बहाना मात्र था, बात यही थी कि उन लोगों ने स्पष्ट कुछ नहीं बताया।
फिर भी कुछ था जो सुष्मिताजी को गुनहगार किये दे रहा था। वह पछता-सी रही थीं कि क्यों वह यह सारा आयोजन अपने घर में करवाने के साथ-साथ वहाँ मौजूद भी रहीं। निश्चय ही उनके शिष्य को उनके और वरुण सक्सेना के सम्बन्धों के विषय में पता होगा और ऐसे में उनका तथा अन्य लोगों का उन्हें घुमा-फिराकर रिश्तेदार बताने का प्रयास करना सारी स्थिति को और भी हास्यास्पद बना गया होगा।
सुष्मिताजी अपने जीवन में इने-गिने अवसरों पर ही रोयी हैं और वह एक ऐसा ही अवसर था। पर नमिता ने इतना ख्याल रखा कि उन्हें अकेले में अधिक देर रोने नहीं दिया। खींचकर, जबरन किसी बहाने वह उन्हें बाजार ले गयी। रत्ना का भी मूड आज बुरी तरह उखड़ा-उखड़ा था। वरुण सक्सेना हमेशा की तरह असम्पृक्त। और रूपा, उसका तो शाम ही से कहीं अता-पता नहीं था। न जाने कहाँ चली गयी थी, सहेलियों के साथ में ही।
कुछ दिनों के बाद स्थिति स्वत: ही साफ हो गयी जब उन लोगों की ओर से कोई भी पत्र नहीं मिला। उन्होंने लिखकर इनकार करने तक की जहमत नहीं उठायी। उन लोगों के साथ बातचीत का बस वही पटाक्षेप था, जो उनकी मौजूदगी में सम्पन्न हो गया था। इसके बाद से रूपा के लिए रिश्ते की बात जब-जब भी कहीं से चली, सुष्मिताजी अपने ही आप किसी न किसी बहाने से, सामने आने से बचने लगीं। वे खुद ही कोशिश करतीं कि किसी तरह उनसे हट-बच कर बात निकल जाये। पर ऐसा क्यों था? कौन जाने, कौन बताए!
क्या वरुण सक्सेना की जिन्दगी की वेगवती नदी में एक पाट वह यही सोच कर बनी थीं कि नदी का सारा बहाव उफान दूसरे पाट के सहारे निकल जाये। संभव था यह?
ये सब बातें एक ओर थीं और दुनिया दूसरी ओर। रूपा का रिश्ता होना था, न जाने कब किसी कड़वी कसैली बात का वे सबब बन जायें, यह सोच कर कटी-कटी, बुझी-बुझी-सी रहने लगी थीं वे।
इस बार जब रूपा के सम्बन्ध की बात फिर से परवान चढ़ी और मामला आगे बढ़ा तो सुष्मिताजी बहाना बनाकर पंद्रह दिनों के लिये बाहर चली गयीं। रूपा को तो काफी समय से उनसे विशेष लगाव नहीं रह गया था। फिर भी आण्टी के यूँ एकाएक ओझल हो जाने पर वह भी चकित अवश्य हुई थी। क्योंकि यह जानती थी वह कि आण्टी उसकी सभी बातों में कितनी दिलचस्पी रखती हैं।
रूपा ने विशेष पूछताछ नहीं की थी। न जाने क्या रहा उसके मन में। नमिता से उसे मालूम भर हो गया था कि आण्टी पन्द्रह दिनों के लिए बाहर चली गयी हैं। और न जाने कैसे नमिता ने यह भी जता दिया रूपा को कि उन्हें कोई विशेष काम भी नहीं था, बस चली ही गयी हैं। नमिता ने जान-बूझकर ऐसा कहा ताकि रूपा के व्यवहार की टोह ले सके और यही सिद्ध हुआ कि सुष्मिताजी के जाने से रूपा खुश नहीं तो दुखी भी नहीं है। लेकिन होनी-अनहोनी मानव उपक्रमों के सहारे कब चली है। रूपा का विवाह तय हुआ और सम्पन्न भी हुआ। यह भी एक अजब-सा संयोग ही रहा कि रूपा का रिश्ता तय होने के सप्ताह भर बाद ही दीपा की भी शादी तय हो गयी। यद्यपि दीपा अभी छोटी थी, परन्तु अच्छा लड़का हाथ में आता देखकर वरुण और रत्ना ने बेवजह देर करना व्यर्थ समझा। एक जगह से रूपा के बारे में खतोकिताबत हुई थी किन्तु लड़का उम्र में रूपा के लगभग बराबर ही था। जब रूपा का रिश्ता तय हुआ तो उस दूसरे लड़के के लिए दीपा का प्रस्ताव भेजा गया और आशा के विपरीत उसे स्वीकार कर लिया गया। लड़का मामूली नौकर था और खाते-पीते घर का था। सब बातें चटपट तय हो गयीं। इस मामले में दीपा रूपा से अधिक भाग्यवती रही कि उसके लिए माँ-बाप को अधिक परेशान नहीं होना पड़ा।
वरुण और रत्ना ने तय किया कि इस बार इन दोनों लड़कियों की शादी के इस कार्य से एक साथ ही निपटा जाये।
सुष्मिताजी की राय भी यही थी। अब फिर एक बार सुष्मिताजी महत्त्वपूर्ण हो गयी थीं। अब फिर घटनायें, बातें, चीजें, सुष्मिताजी के गिर्द घूमनी आरंभ हो गयी थीं। पिछले दिनों अपने को तिरस्कृता और अपराधिनी-सी महसूस कर रही सुष्मिताजी फिर से सहज हो आयी थीं और मानो अदृश्य अपराध जो उनके मन के भीतर कुछ समय पूर्व सिर उठाने लगा था अब अपने प्रायश्चित्त का अवसर पा गया था।
सुष्मिताजी ने दोनों शादियों में खर्च में पूरा-पूरा बराबरी का हाथ बंटाया था वरुण के साथ। दीपा और रूपा की शादी एक ही दिन हुई और अंगुलियों पर मोटा-मोटा हिसाब भी लेकर देखें तो लगभग पन्द्रह हजार रुपये सुष्मिताजी ने भी खर्च कर दिये थे। कपड़े, जेवर आदि बनवाते समय उनकी पसंदगी-नापसंद का हाथ हमेशा की तरह रत्ना से बढ़-चढ़ कर ही रहा था।
एक साथ दो-दो बारातों की आवभगत का अपना कोई कम काम नहीं होता। लड़की की शादी में यों भी भाग-दौड़, मेहनत और सतर्कता दरकार होती है। फिर यदि रत्ना कुछ कर रही थी तो इसलिये कि.... वह न करती तो कौन करता। अपनी आस-औलाद को ठिकाने से बैठाने का काम माँ-बाप न करेंगे तो कौन करेगा? पर यदि सुष्मिताजी कर रही थीं तो इसलिए कर रही थीं कि वे सुष्मिताजी थीं। वे सुष्मिताजी जिनका कभी विवाह-संस्था में विश्वास नहीं था, आज रूपा और दीपा के विवाह में अपनी जिन्दगी की कमाई पानी की तरह बहा रही थीं। सिर्फ इसलिए....कि उन्होंने विवाह नहीं किया था, उन्होंने घर नहीं बसाया था।
क्या विवाह नहीं किया उन्होंने? घर नहीं बसाया? फिर किसलिए लड़कियों की शादी में नींद हराम कर रखी थी उन्होंने? वरुण सक्सेना की लड़कियों रूपा और दीपा की शादी में सुष्मिताजी कहाँ जुड़ी थीं? कहाँ अलग थीं?
धूमधाम से सब सम्पन्न हुआ। रूपा और दीपा चली गयीं, उस रस्म के नाम पर, जो लड़कियों को पराया बना देती है।
अपनी जिन्दगी की लड़ियों में गुँथे दिन, मास, सालों का लेखा-जोखा करने की फुरसत तो सुष्मिताजी को कभी मिली ही नहीं, पर जब कभी इस बाबत कुछ सोचतीं तो यही सामने पातीं कि वे आखिर किसलिए कुछ बचायें? और कौन-से अरमान हैं उनके, जिन पर अपना कमाया हुआ चढ़ायेंगी और यही सोचकर उन्हें अच्छा लगता वह सब, जो वे अब तक करती चली आ रही थीं। वरुण की गृहस्थी को अपना समझना।
जो भी हो, उन्हीं की गृहस्थी तो थी यह भी। उन्हीं की बेटियाँ तो थीं–सौतेली ही सही। नौ महीने की पीड़ा नहीं सही तो क्या हुआ बचपन से देखा-सम्भाला तो था। उनके पिता के नाम का सिंदूर तो भरा था माँग में और अब इन पढ़ी-लिखी युवा बेटियों के व्यक्तित्व पर रत्ना के व्यक्तित्व की छाप तो अंश-मात्र भी नहीं थी। यह सारा का सारा सुष्मिताजी का ही रचा-बुना था। उन्हीं पर गयी थीं बेटियाँ पूरी तरह। तौर-तरीकों में, बोलचाल में, सलीके में।
फिर ऐसी बेटियों के लिए कोई भी दायित्व भला सुष्मिताजी को बोझ-सरीखा कैसे लगता? दुनिया-जहान में सौतेली माँएँ हजारों-हजार बार बदनाम रही हैं। कथा-कहानियों में बच्चों को या तो राक्षस-चुड़ैलों के नाम से डराया जाता है या फिर सौतेली माँ के। औरत यदि सौतेली माँ हो तो फिर वह अच्छी औरत मानकर स्वीकारी जा ही नहीं सकती। ऐसे में एक सुष्मिताजी ने यदि बच्चों के लिए, पति के बच्चों के लिए कुछ कर दिया तो कौनसा गजब हो गया। औरत रूप में जन्मी हैं तो औरत के नाम पर उसकी बदनामी के अंश को कुछ हद तक हटाने की कोशिश गुनाह तो नहीं है। यही था संबल सुष्मिताजी का। वे सोचतीं कि आखिर क्या सोचकर रोक लें अपने हाथ। और फिर वरुण सक्सेना कितनी भी उम्र पा गये हों सुष्मिताजी को तो आज भी वे बच्चे से ही लगते हैं। अकेले में अब तक उनके बालों में हाथ फेरना सुष्मिताजी को भाता है। रत्ना जैसी कौन होगी जो सौत को सह रही है तमाम दकियानूसीपन और पिछड़ेपन के बावजूद। सुष्मिताजी को बरदाश्त किया है रत्ना के भीतर बैठी औरत ने। रूपा, थोड़ी-थोड़ी बदमिजाज सही, बहुत दिनों तक आण्टी से बोले बिना कहाँ रह पाती है। कभी भी तिरस्कार से अपमानित कर दे, ऐसा नहीं हुआ। नया कपड़ा तक लाती है तो पहले आण्टी ही की पसन्द-नापसन्द जानने आती है। दीपा ने तो सुष्मिताजी की छवि को ही पाला है अपने में जैसे।
रही नमिता! उससे दूर रह पाना तो अपने में जैसे सुष्मिताजी के लिए भी कहाँ संभव है। अवश्य पूर्वजन्म में नमिता उनकी बेटी ही रही होगी।
'थ्योरम, इक्वेशंस’.... सब ग्यारह बजे सुबह से लेकर सांझ साढ़े चार बजे तक की बातें हैं। जिन्दगी साढ़े पाँच घण्टे का क्लास रूम ही तो नहीं। पूर्वजन्म की, अगले जन्म की बातें..... सुष्मिताजी न भी मानें, दिल को बहलाने के खयाल के तौर पर मानने में हर्ज ही क्या है?
नमिता के साथ अपने संबंधों को गणित से कैसे सिद्ध करें वे। किसी तरह भी नहीं। हाँ, यदि पुरानपंथी बातों से हिचकें नहीं..... बातों को बातें ही मानकर बतियाने.... अपने आपसे बतियाने में हर्ज ही क्या है, और इससे सहूलियत जो हो जाती है सब कुछ सोच पाने में। नमिता और अपने ताल्लुकात के बाबत सोच पाने में।
विश्वास, आस्था और निष्ठा बातें ही तो हैं। स्थिति-सापेक्ष बातें। एक स्थिति में हम एक बात के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं तो दूसरे ही क्षण हमारी प्रतिबद्धता दरक भी सकती है। निष्ठा और विश्वास चरमरा सकते हैं तो उन्हें मानने, बदलने.... शिद्दत के साथ मानने... सहने न सहने, इन सब में नुकसान ही क्या है। डिग्री का ही फर्क तो है इन सब स्थितियों में।
और इससे हमारी वैज्ञानिकता कहाँ नष्ट होती है? हम सुसंगत, तर्कबद्ध हो जाने से कहाँ वंचित हो जाते हैं? विज्ञान एक मूर्त आस्था है, तर्क अमूर्त, अनुभूतियाँ अदृश्य हैं..... आधार तो सबके हम ही सोच रहे हैं। हमारे छोड़े उपग्रह नष्ट हो जाते हैं, हमारे बनाये सीमेण्ट और बजरी के पुल धराशायी हो जाते हैं, हमारे सतर्कता और पूरी तैयारी के साथ समुद्र में उतारे गये जहाज डूब जाते हैं..... ये वैज्ञानिक आधारों का टूटना है, ये मूर्त विश्वास को ठेस पहुँचना ही तो है। फिर अमूर्त, छिपे हुए मूल्यों में बदलाव पर कैसा पश्चात्ताप? अमूर्त विश्वास और मान्यताएँ खण्डित हो जाएं तो भला इसमें आपत्तिजनक क्या है। और इस तरह सुष्मिताजी के सुष्मिताजी ही रहने में कहाँ फर्क आ जाता है इस सबसे। कहाँ गलत है कुछ भी? नहीं! जाते दिनों को रोकने की, बदलने की कोई भी तो वजह नहीं....बसी इसी तरह सुष्मिताजी के दिन-रात जाते रहे। इसी तरह गुजरती रही जिन्दगी। जिन्दगी, जिसके तईं बाशिंदे यह भी कहते सुने जाते हैं कि उसका वर्का-वर्का, लम्हा-लम्हा कुदरताना खेल है।
जिस समय नमिता की शादी तय हुई, वह एम.ए. कर रही थी। शादी हो जाने के बाद दो-तीन महीने उसे इम्तहान की वजह ही से पीहर में रहना पड़ा, फिर अपने घर वापस चली गयी। लड़कियाँ तीनों ही संयोग से दूर-दूर गयी थीं। घर एकाएक अकेला हो गया था। खाली-खाली-सा, सूना सूना-सा।
जिस दिन नमिता बिदा हुई सुष्मिताजी का हाल बुरा हो गया। वह दिन में कई बार रोयी थीं। अकेले में भी, सबके सामने भी, बिलकुल अकेले में भी। अपने ही सोच के गुफा-गह्वरों में, जहाँ आदमी खुद अपने से भी अजनबी हुआ रहता है। घुटी-घुटी सिसकियाँ सुनी थीं सुष्मिताजी ने। घर काटने को दौड़ रहा था जैसे, बाकी बचे तीनों प्राणियों-सुष्मिताजी, वरुण सक्सेना और रत्ना, किसी से ढंग से खाना न खाया गया दो-तीन दिन। बेहद बोझल रहा घर का माहौल।
इस ब्याह के मेहमान छँटने के बाद स्थिति बड़ी अजब-सी हो गयी। जिस घर में सिर्फ बेटियाँ ही बेटियाँ हों वहाँ सबके हाथ पीले हो जाने के बाद कैसा जर्द पीलापन उतर आता है घर की आबो हवा में। अकेलापन, बिखराव-सा सब कुछ चुका-चुका-सा। माँ-बाप भी जैसे वीतरागी-से हो जाते हैं घर में।
सुष्मिताजी कुछ दिन बाहर घूमने के खयाल से बाद में मसूरी चली आयीं। कोशिश थी कि एक सिरे से सब कुछ सहेजने की, अब तक का बीता सहजता से बिसराने की, नई स्थितियों में जी पाने की। जीने के लिए फिर से मोहरे बैठाने जैसी मनस्थिति में शीत-लहरी गुजरती रही, पहाड़ों की।
और छुट्टियाँ बीतने के बाद कॉलेज में कार्यग्रहण करने से पहले सुष्मिताजी जब वहाँ, वरुण सक्सेना के पास लौटीं, अपनी सौत के पास लौटीं, अपने घर लौटीं तो जैसे सकते में आ गयीं। दो ही दिनों में उन्होंने महसूस कर डाला कि वे रत्ना की सौत हैं। पिछले चौबीस साल तक जो कुछ था, जैसे था वह अपनी जगह सच था। पर ये दो दिन भी थे, और अपनी जगह ये भी नकारे नहीं जा सकते थे। तरोताजा यथार्थ बनकर ये दो दिन ही तो मिले सुष्मिताजी से।
रत्ना ने अकस्मात् लगाम खींच ली थी। वरुण सक्सेना जितने भौंचक थे, उतने ही असहाय। चौबीस साल पहले एक शाम जिन सुष्मिताजी ने वरुण सक्सेना से बेफिक्री से कहा था कि मुझे मर्दों के चेहरे पर बेचारगी अच्छी नहीं लगती, वे आज खुद शरीक थीं वरुण सक्सेना की उस बेचारगी में। लुटी-लुटी आहत, अपमानित सी.... हतप्रभ!
किसी स्वप्न के-से परिदृश्य को चौबीस साल तक लापरवाही से जी लेने वाले को भला यह ध्यान कहाँ रह जाता है कि जिन्दगी की शतरंज पर गोटियाँ कहाँ और कैसे बिछी हैं, बाजी किसके हाथ है, शह और मात किसका मुँह जोह रही है।
सुष्मिताजी की नियति उस परिन्दे की-सी हो गयी जिसके सामने प्यार से चुग्गा डालकर, बहला-फुसलाकर, गोद में बिठाकर उसके पर कतर दिये गये हों और फिर बेपरवाही से उन्मुक्त उड़ान भरने को दहलीज के बाहर झटककर फेंक दिया गया हो। टुकड़ा-टुकड़ा बिखर गयीं सुष्मिताजी। कुछ समय बाद यदि कुदरत चाहे तो पखेरू के डैने तो फिर भी उग आ सकते हैं। पर सुष्मिताजी का जो कुछ बीत गया, कौन लौटाये?
होश-हवास खोकर सुष्मिताजी चली आयीं। कॉलेज भी ज्वाइन कर लिया। भीतर ही भीतर टूट गयीं। दो-चार दिन कॉलेज जाकर उकता जातीं तो छुट्टी लेकर अकारण घर बैठ जातीं। घर में आ जातीं तो जतन से किसी तरह काम में जी लगाने की कोशिश करतीं। अनियमित सा चल रहा था सब।
वरुण रत्ना के क्रोध भरे स्वभाव के सामने हमेशा से बेबस रहे थे। सुष्मिताजी को उम्मीद भी नहीं थी कि वह यहाँ उन्हें एक बार देखने, दो घड़ी सम्भालने के लिए आयेंगे और वह आये भी नहीं। उन्हें लगता था जैसे उन्हें और वरुण सक्सेना को पिछले चौबीस साल की जिन्दगी रत्ना ने खैरात में बाँटी थी। वे आज तक किस गफलत में रहीं कि वे उन सबके लिए, उस घर के लिए कितना कर रही हैं। अब जाकर वे जान पायी थीं कि वे तो खुद उस घर की देहरी पर एक भिखारिन की हैसियत से खड़ी अलख जगा रही हैं। गृह-मालकिन ने कुछ न देकर, तिरस्कार और प्रताड़ना देकर, बन्द कर लिया है दरवाज़ा! अपनी इस नियति पर एकबारगी दहल गईं वे।
इंसान जब जिन्दगी के तल्ख तीखे अनुभवों से दो-चार हो लेता है तो वह एकाएक दिल को परे हटाकर दिमाग को सामने ले आता है। हाँ, यदि आदमी में कुछ माद्दा हो तब! हर-एक की बिसात की बात नहीं है यह।
कुछ दिनों में संयत हुईं सुष्मिताजी भी। मन के झाड़न से दिमाग की गर्द साफ की उन्होंने, जैसे दिमाग कई दिनों तक इस्तेमाल न होने वाली कोई जंग खाई मशीन हो। सब कुछ सिरे से सोचा। फिर से विचारा। इस दरम्यान काफी सोचा उन्होंने। रत्ना से उन्हें जिन्दगी भर एक समझौतावादी उदासीनता ही तो मिली है, और मिला भी क्या?
और वरुण! वह तो उन्हें उस हालत में मिले थे जब खुद वह बुरी तरह हारे-थके थे, टूटे हुए थे। अपने और रत्ना के संबंधों के दरम्यान जिस्मानी सरहदों पर शिकस्त के मारे थे। उन्होंने वरुण सक्सेना को 'पूरा’ किया। एवज में खुद भी भरपूर पाया। आज अपना कहने को उनके लिए कोई नहीं है, यह ठीक है, परन्तु वरुण सक्सेना उनके सामने दाता बनकर आये भी कब? वह तो सदा के ही याचक रहे।
हाँ! लड़कियों, विशेषकर नमिता पर अवश्य सुष्मिताजी न जाने किस रौ में अपना अधिकार मानकर चलती रहीं। उन्हें विश्वास था कि और चाहे जो जैसा सुलूक करे, एक नमिता उनसे आँखें नहीं फेर सकती। रूपा और दीपा ने तो ब्याह के बाद से ही उनकी कोई खोज-खबर नहीं ली थी। नमिता के खत का वह अवश्य इन्तजार करती रही थीं। उन्होंने नमिता के शादी के बाद घर लौटने और वरुण और रत्ना में आये बदलाव, अपने तिरस्कार आदि की सब बातें खुलासा करके एक सहेली की तरह नमिता को लिख भेजी थीं और फिर वह अपने पत्र, अपने उलाहनों पर जैसे नमिता की प्रतिक्रिया को जानने के लिए उत्सुक बैठी थीं। नमिता का इन्साफ दरकरार था उन्हें। वरुण सक्सेना की तो गिनती खुद उम्र भर असहायों में करती रही थीं वह, पर रत्ना पर आरोप लगाये थे उन्होंने। वास्ता दिया था चौबीस सालों के लम्हे-लम्हे का, और जानना चाहा था नमिता से। उम्मीद की थी दो तसल्ली के बोलों की।
वह नवयौवना नमिता जब अपने पति के साथ अपनी उम्र के उन्मादी दौर में खोई हुई थी तब माँ-सरीखी सुष्मिताजी इस तरह अपने पचड़ों का रोना उसके सामने ले बैठीं। उसके जाते ही घर में सुष्मिताजी के लिए उग आये बेगानेपन का जिक्र कर बैठीं। सारी जिन्दगी होम करके प्रतिदान में मिले खामोश शून्य का आकार दर्शा बैठीं। जैसे बाँट लेना चाहती हों वह अपनी व्यथा। उन्हें विश्वास था कि उनके हर दर्द को सहलाता, उन्हें इत्मीनान रखने का हौसला देता लम्बा-सा, अपना-सा, प्यारा-सा खत आयेगा नमिता का...
और आज? यह खत आया पड़ा है सामने। खुद नमिता ने ही लिखा है इसे। पते पर दृष्टि गयी, कि तिलमिलाकर रह गयीं सुष्मिताजी। 'मिस सुष्मिता’!
नमिता ने लिखा था–मम्मी की बात ठीक है आण्टी! भरे-पूरे घर में जहाँ चार प्राणी रहते हों, वहाँ एक और सदस्य आकर रह सकता है, खप सकता है, किसी भी हैसियत से। मगर सिर्फ आप तीनों का वहाँ रहना तो.... सोचिये, निश्चय ही मम्मी की जिन्दगी को आधा-आधा बाँट देगा। वे अपना हक, अपना घर छिनता-बँटता देखेंगी। बेहतर होगा कि आप स्वयं ही धीरे-धीरे आना-जाना कम कर दें। मम्मी को गृहस्थी की बोझ भरी गाड़ी खींचने के बाद अब शारीरिक और मानसिक आराम की जरूरत होगी। आगे लिखा था उसने–आण्टी बुरा न मानें तो एक बात और भी कहूँ। आप उम्रदराज हैं, बड़ी हैं मुझसे। कुछ कहना समझाना भी अटपटा-सा लगता है, पर.... आपको भी थोड़ा सोचना चाहिये। अब तक हुआ सो ठीक है पर आखिर मम्मी का सोचना भी गलत तो नहीं। आपके साथ समझौता रखना, न रखना मम्मी पर ही तो है....हक तो उन्हीं के हैं सारे.... समाज में स्थिति जो उनकी है....
ये बड़े-बड़े लफ्ज... बड़ी-बड़ी फिलॉसफी नमिता की, पढ़ी नहीं गयी सुष्मिताजी से। सजल हो गये नयन।
सुष्मिताजी को महसूस हुआ जैसे उनके शरीर के सब अवयवों ने अकस्मात् काम करना बंद कर दिया है। एक-एक सांस बहुत मेहनत माँग रही है उनसे। उन्हें लगा कि अधलेटी वे, थोड़ी ही देर में हाँफकर लेट जायेंगी। उनके होंठ खुले रह जायेंगे, और पथराई आँखें हलक में दो बूँद जल के लिए आसमान की ओर देखती रह जायेंगी। नितान्त अजनबी आदम बुतों की भीड़ उनके गिर्द जमा हो जायेगी। कहीं से जुटा-जुगाड़ कर एक सफेद चादर उन्हें ओढ़ा दी जायेगी। घड़ी घड़ी अंतिम दर्शनों के लिए आने वाले आत्मीय-स्वजनों द्वारा बार-बार चादर हटाने जैसा वहाँ कुछ नहीं होगा। वे एक बार में ही सदा के लिए ढाँप दी जायेंगी। मोहल्ले पड़ौस के लोग, कॉलेज के संगी-साथी, शिष्य दौड़-भाग में व्यस्त हो जायेंगे.... अर्थी के बन्दोबस्त होने लगेंगे। उनके चारों ओर औरतों का जमघट तो होगा पर किसी आँख में वेदना के आँसू नहीं होंगे। एक तल्ख-सा सन्नाटा होगा... दहशत होगी। मैयत के गिर्द रह-रहकर स्वर उठाने वाले आर्तनाद नहीं होंगे..... सिर्फ गमी के एहसास होंगे। एक औरत की मौत की गमी। एक औरत....सिर्फ औरत.... महज़ औरत!
....मानस उम्र पलट कर माँगी जा रही है उनसे। आरोप है कि उन्होंने उसका कोई इस्तेमाल नहीं किया। वह ठीक से नहीं जी सकीं। इसलिए अब ठीक से मरने नहीं दी जा रही हैं। नितान्त अजनबी-से चार कन्धों पर कृतघ्न-सी उठकर महायात्रा पर निकल पड़ी हैं वे....खामोश आँखों की भीड़ के बीच कोई निहायत व्यवसायी पण्डितनुमा आदमी जोर-जोर से मंत्रोच्चार कर रहा है.... इधर-उधर देखकर कपाल-क्रिया के लिए भीड़ में से किसी को न आते देखकर स्वयं ही बढ़ रहा है हाथ में लम्बा-सा एक बाँस लिये.... असहाय-सी वह देख रही हैं.... देख रही है खामोश खड़ी भीड़ सुष्मिताजी की कपाल क्रिया?
न जाने डिप्रेशन का यह दौर कब तक रहा उन्हें। सांझ खिड़की से देखी उन्होंने.... टल गयी वह दोपहर भी!
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