वंश - भाग 3 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वंश - भाग 3

तीन

उधर ट्रेन ने खिसककर प्लेटफार्म छोड़ा, इधर सीट पर पैर फैलाकर सुष्मिताजी ने टिफिन खोला। फिर न जाने क्या सोचकर उसे बन्द करके साथ वाली टोकरी में वापस रख दिया और टोकरी में ऊपर ही ऊपर रखा कागज का वह लिफाफा उठा लिया। उस लड़के ने एक पाव कहते-कहते भी जबरन तीन सौ ग्राम आलू बुखारे भेड़ दिये थे उन्हें। मना करने पर कहता था-तीन सौ ग्राम पूरे ले लो माताजी, छुट्टा नहीं है। और 'माताजी’ उस तेरह-चौदह साल के लड़के को इस तरह देखती रह गयीं कि उन्हें यह भी याद नहीं रहा, लड़के ने उनके पाँच के नोट में से दो रुपये लौटाने के लिए जेब से भरपूर रेजगारी मुट्ठी में भरकर निकाली है। जब तक इस बात पर ध्यान जाये, लड़का बाकी पैसे पायजामे की जेब के हवाले करके टोकरा सिर पर रख चुका था। मुँह फेरकर पीठ कर चुका था सुष्मिताजी की ओर।

यह बात अलग है कि अब हल्का-सा खट्टापन पसन्द आ रहा था उन्हें और उन्हें वे तीन सौ ग्राम होने पर भी कम-से ही लग रहे थे, फिर भी भाव तो ठीक लगाना चाहिये था लड़के को। मीठे भी नहीं हैं।

–जी हाँ! मिस्टर एंड मिसेज जैन! जरा जोर देकर कहा उस महिला ने और सुष्मिताजी चौंकीं। अब गया उनका ध्यान सामने वाली बर्थ पर बैठी महिला पर जो टिकट कलेक्टर को अपना टिकट चैक करवा रही थी। काफी देर से उन्होंने आस-पास के सहयात्रियों, जिनमें वह महिला भी शामिल थी, पर बिलकुल गौर नहीं किया था, फिर भी उन्हें हल्की-सी याद है कि गाड़ी चलते वक्त अकेली ही तो थी वह महिला। चार-पाँच साल का एक बच्चा साथ में था और निश्चय ही उसे स्टेशन पर 'सी ऑफ’ करने के लिए आने वाला वह शख्स उस महिला का पति ही रहा होगा, क्योंकि जहाँ तक ध्यान पड़ता है सुष्मिताजी को, उस महिला ने अपने उस तथाकथित पति, उस शख्स की किसी भी बात का जवाब सीधी तरह नहीं दिया था। खिड़की पर सिर टिकाये प्लेटफार्म पर खड़ा वह क्या-क्या कह रहा था, यह तो वे भी नहीं सुन सकी थीं पर बीच-बीच में महिला की आवाज जरूर सुन लेती थीं। एक बार जोर से कर्कश और खुरदुरे अल्फाज में कहा था उसने –अच्छा, बेकार में चिल्लाओ मत।

तभी सुष्मिताजी सहज होकर बैठ गयी थीं, क्योंकि बाहर खड़े आदमी के उस महिला के पति ही होने का सबूत उन्हें मिल चुका था। औरत पति के अलावा और किस पर इस तरह झुंझला सकती है।

गाड़ी खिसकते समय औरत के साथ वाले बच्चे ने जोर से दो-तीन बार हाथ हिलाया था और बिदा किया था उस 'सी ऑफ’ करने वाले आदमी को। महिला उसी तरह निष्प्रभाव रही थी, मानो उसका उस शख्स से बिछुड़ना कौन-सी बड़ी बात थी।

लेकिन यह क्या? गाड़ी चलने के बाद, छोड़ने के लिए स्टेशन पर आने वाले उस पतिनुमा शख्स के लौट जाने के बाद यह महिला कलक्टर से टिकट चैक करवाते समय कह रही थी–मिस्टर एण्ड मिसेज जैन! और उसके साथ में जो लड़का बैठा था, वह आदमी यदि हो भी गया हो तो यकीनन अभी-अभी हुआ होगा, क्योंकि निश्चय ही उसकी उम्र इक्कीस-बाईस साल से अधिक नहीं होगी। महिला का वह चार-पाँच साल का बालक भी अब उसी युवक की गोद में बैठा था, जिसे अब तक सुष्मिताजी कोई और सहयात्री समझ रही थीं।

युवक दुबला-पतला था। कपड़े, बालों का ढंग.....लड़कपन हर बात में। बिलकुल नवयुवक-सा ही तो लग रहा था, आवाज से भी, व्यवहार से भी। और लगभग चौंतीस-पैंतीस साल की यह महिला ऊँची आवाज में कह रही थी कि मिस्टर एण्ड मिसेज...

पाँच साल का तो कम से कम वह बच्चा भी रहा ही होगा जिसे कंडक्टर के जाने के बाद अभी-अभी गोद में लेकर ऊपर की खाली बर्थ पर बैठा दिया था उस लड़के से दिखने वाले आदमी ने। सामान को तरतीब से एक ओर खिसका दिया था। लड़के ने जूते उतारकर एक ओर रख दिये थे..... और अब वह युवक सुराही में से पानी निकालकर बच्चे को दे रहा था। खिड़की के पास बैठी थी महिला।

सुष्मिताजी को लग रहा था कि युवक वक्त से काफी पहले आदमी बनने लगा है।

गाड़ी रफ्तार पर थी। उस महिला को अपने असबाब को संयत करने में बड़ी मदद मिल रही थी उस युवक से। सीट पर बीचों-बीच बैठी वह कभी अटैची खोलती, कभी थैले में झांकती, कभी चादर फैलाने लगती। साथ ही साथ जिस वस्तु को उसकी अंगुलियाँ छोड़ती, बढ़कर चुस्ती-फुर्ती और मुस्तैदी से थाम लेता वह युवक और यथास्थान रख देता। बीच-बीच में से बच्चा ऊपर से झाँककर कुछ पूछता। जो भी उसकी जुबान पर आता, दिया जाता उसे, उस युवक के द्वारा, माँ के इशारे पर। न जाने क्या-क्या वह खा चुका था और अब फिर चुपचाप लेटा हुआ था।

सुष्मिताजी टॉयलेट जाने के लिए उठीं। लेकिन जैसे ही वह दरवाज़े तक पहुँचीं, गाड़ी किसी कस्बे की ज़द में दाखिल हो रही थी। स्टेशन भी आ गया तुरन्त। ठहर गयी गाड़ी। आहिस्ता-आहिस्ता चलती वे दरवाज़े के समीप आ गयीं। बाहर ठण्डी हवा थी। कोई बहुत गहमा-गहमी भी नहीं थी। इक्का-दुक्का लोग चढ़-उतर रहे थे। सुष्मिताजी भी उतरकर प्लेटफार्म पर आ गयीं और न जाने क्या सोचकर दरवाज़े के साथ ही लगा रिजर्वेशन चार्ट देखने लगीं। कौतूहल-सा जगा उनमें। अपना नाम देखा, इक्कीस नम्बर बर्थ पर लिखा था। सामने अट्ठारह नम्बर बर्थ थी। नाम लिखा था श्रीमती किरण जैन। और सामने ही उन्नीस नम्बर पर था सुधीर पाटिल 'मेल’, उम्र थी बाईस वर्ष।

मुस्कराईं सुष्मिताजी और फिर जरा आँखें चढ़ाकर लापरवाही से साथ में खड़े उस आदमी को देखने लगीं जिसने अभी-अभी, चलते-चलते उनसे अनजाने ही रगड़ तो खाई थी किन्तु पहले 'एक्सक्यूज मी’ या बाद में 'सॉरी’ कहने की कोई जरूरत नहीं समझी थी। अपने सैंडल खटखटाती सुष्मिताजी भीतर चली आयीं। बाथरूम जाने की बात जैसे भूल ही गयीं वे।

सुधीर पाटिल! अब उन्हें याद आ गया कि कैसे गाड़ी छूटते ही न जाने कहाँ से यह युवक आया था। इसके आते ही अनायास किरण जैन के मुख पर एक चमक-सी आ गयी थी। युवक ने प्लास्टिक के थैले में लिपटे अपने कपड़ों का बण्डल किरण जैन के हाथों में कुछ इस तरह दिया था कि उसकी अंगुलियों ने किरण जैन की अंगुलियों को भरपूर छू लेना चाहा था। जवाब में किरण जैन की नजरों ने उसे नजरों ही नजरों में पी लेना चाहा था। युवक ने सीट पर बैठने के उपक्रम में किरण जैन के समीप से समीपतर होना चाहा था और किरण जैन ने मानो सातों जहान भुलाकर उसकी आँखों में बिछ जाना चाहा था। सुधीर पाटिल ने हौले-से दबा दिया था किरण जैन का हाथ, और किरण जैन ने हाथों हाथ लिया था अपने उस सहयात्री को....

पतिनुमा शख्सियत काफी पीछे स्टेशन पर छूट चुकी थी और अब ये प्रेमीनुमा.... ताजगी थी इस सफर में। किरण जैन जरूरत से ज़्यादा बातूनी थी। सुधीर पाटिल संकोची नहीं था। युवक था और उम्र से आगे ही जा रहा था जिन्दगी में, झिझक नहीं थी। दो-चार घण्टे ही बीते होंगे कि खाका-सा खिंच गया सुष्मिताजी के आगे। सारा माजरा समझ में आ गया था। जो कुछ देखा, सुना, देख रही थीं, सुन रही थीं उसमें थोड़ी-थोड़ी दिलचस्पी बढ़ी। कुछ यूँ समझ में आयी कहानी-

यह महिला, किरण नाम था जिसका, पिंपरी में रहती थी। पन्द्रह वर्ष पूर्व विवाह हुआ था इसका। पिता का घर दिल्ली में था जहाँ माता-पिता, दोनों भाई और उनका परिवार सम्मिलित रूप से रहते थे। वह अपने पति के घर से छुट्टियाँ बिताने के लिए पीहर में जा रही थी। किरण लगभग पैंतीस वर्षीया महिला थी। तीन बच्चे थे उसके। सबसे बड़ी लड़की तेरह वर्ष की थी। उससे छोटी आठ-नौ वर्ष की। और सबसे छोटा यह लड़का अभिनव था जो पाँच वर्ष का था। इस समय दोनों लड़कियाँ अपनी नानी के पास ही थीं और वे वहीं रहकर पढ़ रही थीं। किरण के पति पिंपरी में किसी अच्छे खासे खानदान से थे और वे वही थे जो किरण को स्टेशन पर छोड़ने, बिदा करने के लिए आये थे।

पर.....एक टुकड़ा और भी था इस सारी जमीन का। जो कुछ दरारें..... कुछ दूरियाँ.... कुछ फासले..... कुछ नजदीकियाँ और कुछ सामीप्य लेकर इस मूल भूमि से जुड़ा था। असम्पृक्त-सी दिखने वाली छिद्रान्वेषिणी सुष्मिताजी ने रेशा-रेशा अलग किया था बात को।

अब उन्होंने स्पष्ट अनुमान लगा लिया था कि सुधीर नाम का यही नवयुवक किरण का प्रेमी था। छिप-छिपकर उसके पति की अनुपस्थिति में उससे मिला करता था। किरण और सुधीर की उम्र के बीच का अन्तर यह बता रहा था कि शायद यह प्रेम नहीं है जो इन दोनों के बीच हो गया है, बल्कि यह सिर्फ कोई पारस्परिक सुविधाजनक व्यवस्था है जो इन दोनों के बीच पनप गई है। सुधीर को अपनी उम्र से काफी बड़ी, तीन बच्चों की माँ किरण में न जाने क्या आकर्षण नजर आया होगा कि इस तरह अपनी उम्र के बेहतरीन सालों को वह उस प्रौढ़ा पर लुटाने के लिये इस तरह तत्पर हो गया था। अपने पति के घर से काफी दूर चले आने पर किरण के व्यवहार में सुधीर के लिए स्वच्छन्दता कुछ अधिक ही बढ़ गई थी। और सुधीर भी शायद इन रोमांचकारी आने वाले दिनों की कल्पना के उन्माद में डूबने-उतराने को स्वयं को छोड़ बैठा था।

सुष्मिताजी का खासा परिचय उन लोगों से यात्रा पूरी होने तक हो गया था। यद्यपि प्रेमी-प्रेमिका की समीपतर गुफ्तगू से जरा भी बासीपन या ऊब की झलक सुष्मिताजी को अब तक नहीं मिली थी, फिर भी बीच-बीच में अवसर पाकर सुष्मिताजी की काफी बातें उन लोगों से हो गई थीं। कुछ देर के लिए किरण का बेटा अभिनव भी सुष्मिताजी से मुखातिब रहा, और वे उसके बाल सुलभ हावभावों में दिलचस्पी लेती उससे बातों में उलझी रहीं। सुष्मिताजी ने सब-कुछ जान-समझकर भी कोई इस तरह का जिक्र उन लोगों के सामने नहीं छेड़ा जिससे उनके आपसी रिश्ते के प्रति सुष्मिताजी के मन का अस्वीकार या कौतुक झलकता हो। वह सहजता से उन लोगों के साथ घुलती-मिलती गईं।

जब गाड़ी दिल्ली पहुँची तो शाम का समय था। एक बार फिर प्लेटफार्म के शोर-शराबे और चीखते कोलाहल में गाड़ी ने मानो अपने आपको झोंक दिया।

किरण को लेने के लिए स्टेशन पर उसके भाई-भाभी आदि लोग आए थे। और गाड़ी के वहाँ पहुँचते ही प्रतीक्षा करती भीड़ के बीच से उन्हें पहचानकर खिड़की से हाथ हिलाकर किरण ने जहाँ आगन्तुकों को अपने आने का संकेत दिया वहीं सुधीर से भी आँखों ही आँखों में उसकी कुछ बातें हुईं। और देखते-ही-देखते वे दोनों फिर एक-दूसरे के लिए अजनबी-से बनकर अपना-अपना सामान समेटने लगे। एक कुली भीतर घुसकर किरण का सामान उठा चुका था और क्योंकि प्लेटफार्म पर उसकी भाभी उल्लास से उसी की ओर देखती रेंगते डिब्बे के साथ-साथ आ रही थीं, उसे सुधीर से विदा ले पाने का अवसर भी नहीं मिला। अभिनव अब लपक कर अपने मामा की गोद में चढ़ चुका था। असबाब और परिजनों के साथ किरण को भीड़ के बीच ओझल होते सुष्मिताजी देर तक देखती रहीं। फिर अपनी अटैची उठाकर वह भी गाड़ी से नीचे उतरीं। जरा सहज और संयत होने के लिए अटैची नीचे रखकर सुष्मिताजी खड़ी हुई ही थीं कि सामने से उन्हें सुधीर आता दिखाई दिया। सहजता से वह उससे मुखातिब हुईं।

–आप कहाँ जायेंगे?

–म.... मैं....? मैं तो यहीं पास में किसी होटल में ठहरूँगा। बिना कुछ सोचे-समझे सुधीर के मुँह से निकला।

–कोई है आपकी परिचित जगह यहाँ?

–परिचित तो नहीं है। मैं तो इस शहर के लिए नया ही हूँ, लेकिन....

–यदि तुम्हें एतराज न हो तो आओ, मेरे साथ चले चलो। सुष्मिताजी न जाने कब आप से तुम पर उतर आईं। बच्चा-सा ही तो था सुधीर उनके सामने।

–आपके साथ....? सुधीर थोड़ा सकुचाया और फिर भरपूर निगाहों से देखता रह गया चाँदनी उतरे बालों वाली उस ममतामयी महिला को।

–हाँ-हाँ.... मेरा घर यहाँ से पास ही है और तुम्हें किसी तरह की परेशानी नहीं होगी। फिर तुम चाहोगे तो मैं तुम्हारा प्रबंध ठहरने के लिए किसी जगह करवा दूँगी। घबराओ मत। संकोच की भी जरूरत नहीं है। सुष्मिताजी न जाने कहाँ से ले आईं इतना अपनापन स्वर में उंडेलने के लिए।

-...लेकिन...

–इतना सोच क्या रहे हो? चलो भई, इतना संकोच ही हो रहा है तो जहाँ ठहरने का इन्तजाम करूँ वहाँ का खर्चा चुका देना। बस?

–जी, संकोच की तो कोई बात नहीं है। बस मैं तो यही सोच रहा था कि आपको नाहक परेशानी हो जाएगी।

–परेशानी कैसी? यदि तकलीफ, परेशानी कुछ होती तो मैं कहती ही क्यों? कोई तुमने तो नहीं कहा मुझे इन्तजाम करने को।

अब टाल नहीं पाया सुधीर। फिर अब अकारण टालना मुनासिब भी नहीं लगा, बल्कि उसे यह अपेक्षाकृत सुविधाजनक और सुरक्षित भी लग रहा था। दिल्ली जैसी जगह में किसी अनजान होटल में नितान्त अकेले ठहरने की तुलना में तो यह प्रस्ताव बेहतर ही था। वैसे किरण ने उसे रुकने की जगहों के बारे में काफी जानकारी दे दी थी और ठहरने के लिए एक जगह भी बताई थी। पर वह सुष्मिताजी का अपनापन और आग्रह देखकर उनके साथ हो लिया। अब अपने साथ-साथ सुष्मिताजी की अटैची भी उठाना सुधीर ने शिष्टाचारवश जरूरी समझा। और कुछ समय पूर्व के नितान्त अपरिचित वे दोनों भीड़ के रेले में निहायत ही आत्मीयों की भाँति बढ़ गये।

ऑटो रिक्शा से उतरकर सुधीर ने सामान उठाया और घर के दरवाज़े में प्रविष्ट होती सुष्मिताजी पर नजर डाली जो पर्स से चाबी तलाश कर रही थीं। यह जानकर, कि सुष्मिताजी घर पर बिलकुल अकेली हैं सुधीर का संकोच जाता रहा और वह बिलकुल सहज महूसस करने लगा।

कई दिनों से घर बंद था। सुष्मिताजी अपने इस मेहमान के सामने बार-बार वहाँ इकट्ठी धूल और बेतरतीबी के लिए कैफियत-सी देती जा रही थीं कि कैसे उन्हें जाना पड़ा तो अचानक ही घर को ऐसे ही छोड़ना पड़ा। वे कोई प्रबंध भी नहीं कर पाईं कि उनके आने पर घर कम से कम साफ-सुथरा तो मिले। फिर भी आधे घण्टे का समय कुल लिया सुष्मिताजी ने जब बाहर के बैठक वाले कमरे को झाड़-पौंछकर सुधीर के वहाँ रहने लायक बना दिया। सुधीर भी उनकी कोई न कोई मदद करने की कोशिश करता ही रहा।

घर की जरूरी सफाई आदि से निबटकर उन्होंने खाने की चिन्ता की और सुधीर के लिए यह फिर एक आश्चर्य था कि कुछ ही समय में डाइनिंग टेबल पर लगे खाने के बर्तन ऐसे लग रहे थे, मानो सुष्मिताजी घर में ही थीं, कई दिन के सफर से बाहर से आकर नहीं लौटी हैं।

नहा-धोकर और खाने आदि से निवृत्त होने के बाद रात को कॉफी का कप लेकर जब सुष्मिताजी सुधीर के कमरे में आईं तब तक सुधीर दिमागी तौर पर काफी व्यवस्थित हो चुका था। और जब बातों-बातों में यह पता चल गया कि सुष्मिताजी इस वक्त घर में ही नहीं, बल्कि अपनी जिन्दगी में निपट अकेली हैं तो सुधीर के मन में उनके लिये अजनबीपन के रहे-सहे एहसास भी एकाएक अदृश्य होते चले गये। थोड़ी ही देर में सुष्मिताजी में सुधीर को अपनी वर्षों पुरानी परिचित अभिभाविका दिखाई देने लगी। वह उनसे खुलता चला गया। झिझक और संकोच भी समाप्त प्राय: हो गये।

सुष्मिताजी के विश्वास को पूरी तरह जीत लेने के बाद सुधीर ने उन्हें स्पष्ट बता दिया कि वह किरण का प्रेमी है और किरण उसे इसीलिए अपने साथ यहाँ लाई है कि वे दोनों आसानी से कुछ दिनों यहाँ साथ घूम-फिरकर दिन बिता सकें। उसका किरण से मिलना पूर्व निश्चित हो चुका था। इतना ही नहीं, कालान्तर में वे दोनों विवाह का इरादा भी रखते थे। सुधीर ने सुष्मिताजी को बताया कि किरण अपने पति से बिलकुल भी खुश नहीं थी और उससे छुटकारा पाना चाहती थी। सिर्फ ये तीन बच्चे थे जिनकी वजह से वे अब तक अलग नहीं हो पाये थे। पर उसकी जिन्दगी एक प्रकार से घिसट ही रही थी और सुधीर जल्दी ही उसे उसके पति से अलग हो जाने के बाद अपना लेना चाहता था।

सब जान लेने के बाद न जाने किस अधिकार से सुष्मिताजी सुधीर को और कुरेद बैठीं।

–एक बात बताओ, बुरा मत मानना कि इतनी जल्दी तुम्हारी निजी जिन्दगी के सफे पलटने की कोशिश कर रही हूँ पर सच-सच बताना–क्या सचमुच तुम किरण को अपनी पत्नी बनाने का खयाल पाल रहे हो? कहीं ऐसा तो नहीं, कि तुम दोनों के बीच जो कुछ हो वह सिर्फ तुम्हारी कोई सामयिक आवश्यकता हो और उसके लिए परेशानी भरी जिन्दगी की जलालत से बचने का क्षणिक सुख!

–इतना सब तो मैं नहीं जानता, पर वे मुझे अच्छी लगती हैं।

–लेकिन विवाह के लिए सिर्फ अच्छा लगना ही तो नहीं देखा जाता। उम्र का अंतर, जाति, स्थिति....सभी कुछ तो अलग-अलग है तुम दोनों का।

–मैं जानता हूँ कि किरण जी की सबसे बड़ी बेटी मुझसे सिर्फ नौ साल छोटी है लेकिन यह सब मैंने कोई जान-बूझकर, योजना बनाकर तो नहीं किया। वे मुझे मिलीं, भाने लगीं और मुझे लगने लगा कि उनके साथ मेरी जिन्दगी अच्छी तरह कट जायेगी।

–लेकिन अभी तो समय है। अब तो सोच-समझ सकते हो।

–अब देर हो चुकी है।

–मतलब?

–मतलब यह कि हम फैसला कर चुके हैं। अब किरण जी यहाँ से वापस नहीं जायेंगी। मेरा कारोबार जम जाने के बाद वे मेरे साथ ही रहेंगी।

–बिना अपने पूर्व पति से तलाक लिये?

–वह सब बाद में देखा जायेगा। अभी तो हम लोगों ने इस बारे में सोचा ही नहीं है कुछ।

–तुम्हारा कारोबार है क्या? क्या करते हो तुम?

सवाल सुष्मिताजी ने सहज-स्वाभाविकता से पूछा था पर उन्होंने गौर किया कि इस प्रश्न पर सुधीर एकदम घबराकर चौंक गया। थोड़ी हड़बड़ाहट के बाद संयत होकर बोला

–मेरे पास एजेन्सी है। ठीक-ठाक गुजारे लायक कमाई हो जाती है।

–क्या किरण के पति को तुम्हारे बारे में कुछ मालूम है? वह जानता है कि उसकी पत्नी....

–हाँ!

–क्या मालूम है उसे?

–सब कुछ!

–सब कुछ क्या?

–एक दिन उन्होंने हमें देख लिया था घर में। वह दफ्तर से जल्दी आ गये थे। सुधीर ने कह तो दिया पर फिर एकदम झेंप गया। उसे आश्चर्य-सा भी हुआ कि इतनी देर से सुष्मिताजी से इतना खुलकर वह सब कुछ कैसे बताता रहा। उसे लगा जैसे मुँह से कुछ ऐसा निकल कर बाहर फैल गया हो जिसे मौका मिले, तो वह वापस समेट ले। लेकिन सुष्मिताजी के अगले सवाल ने उसे और भी हतप्रभ कर दिया।

–कहाँ, कैसे.... किस हालत में देख लिया उन्होंने तुम्हें?

सुधीर को संकोच और झिझक ने घेर लिया। सामने बैठी इस साफ दिल प्रौढ़ा मित्र को उसने एक बार गौर से देखा। उसे लगा, बालों पर सफेदी है, तन का नमक हल्की झुर्रियों में जज़्ब हो गया है पर बातों में.... बातों को जानने की जिज्ञासा में काफी कुछ उम्र से पीछे खिसकी हुई हैं सुष्मिताजी। वह भी उनसे किसी हमउम्र दोस्त की तरह ही खुल गया।

–किरण के पति एक फैक्ट्री में जाते हैं। हम लोग दोपहर को उसके घर पर मिला करते थे। बच्चे भी उस समय स्कूल गये होते थे। किरण जी के घर के पास मेरा एक मित्र भी रहता है। उसके घर मेरा काफी आना-जाना है। ऐसे एक मौके पर मैं किरण जी के साथ उनके घर में दोपहर में था। तभी सहसा वे आ गये। सुष्मिताजी ने गौर किया कि सुधीर के मुँह से किरण के लिए कभी किरण और कभी किरण जी निकलता था।

–क्या उन्हें पहले से कोई शक था?

–क्या पता?

–फिर उन्होंने कुछ कहा नहीं?

–खूब तू-तू मैं-मैं हुई दोनों में। मैं तो फौरन निकलकर चला गया, पर किरण जी ने उनसे उस दिन साफ-साफ कह दिया था कि.....

–क्या कह दिया था?

–यही कि वह मुझसे प्यार करती हैं और शादी करना चाहती हैं।

सुष्मिताजी देखती रह गईं एकटक सुधीर को। न जाने क्यों, उन्हें इस नवयुवक के चेहरे का भोलापन देखकर विश्वास नहीं हो पा रहा था कि यह इस हद तक किरण के प्रेम के प्रति गंभीर है।

सुष्मिताजी ने कॉफी के प्याले उठाये और सुधीर से 'गुड नाइट’ कहा। तब तक बारह बज चुके थे। उसके कमरे का दरवाज़ा हल्के-से उढ़का कर सुष्मिताजी बाहर निकल गईं। सुष्मिताजी की आँखों में भी अब नींद थी।

*****