वंश - भाग 4 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वंश - भाग 4

चार

सुष्मिताजी घर के सारे कार्य निपटाकर बत्तियाँ बुझाकर जब अपने बेडरूम में जाकर बिस्तर पर लेटीं, उस समय उनका अनुमान था कि लेटते ही नींद आ जायेगी। लेकिन शरीर के जरा से आराम में आ जाने के बाद विचारों के जिस गुंजलक में वह घिर गईं, उसमें नींद आने की संभावना दूर-दूर तक नहीं थी।

इस समय उनके विचारों का केन्द्र अपना बीता हुआ समय, वरुण सक्सेना या उनके परिवार के अन्य लोगों में से कोई और नहीं, बल्कि उनके घर के बाहरी कक्ष में सोया हुआ उनका अपरिचित युवा मेहमान सुधीर था। वे न जाने किस मोह-ममता या आकर्षण के वशीभूत उसे अपने साथ अपने घर में ले आईं थीं, शायद वे स्वयं भी नहीं जानती थीं लेकिन अब, उससे कुछ देर एकान्त में बातें कर लेने के बाद, उसकी कहानी जान लेने के बाद और उसकी जिन्दगी के चंद अनदेखे रहस्यों को कूँत लेने के बाद उनके दिल में उस युवक के लिए दिलचस्पी के स्थान पर हमदर्दी ही उभर आई थी। यौवन के बेशकीमती वर्षों के पड़ाव पर खड़ा यह सुदर्शन युवक उन्हें वास्तव में अपना पुरुष-प्रतिरूप दिखाई पड़ने लगा था। कितना विचार साम्य था सुष्मिताजी और सुधीर में। सुष्मिताजी ने भी बिना अपना आगा पीछा सोचे-समझे अपने जीवन में एक ऐसे विवाहित पुरुष से प्यार किया जो पहले ही तीन बच्चियों का पिता था तथा जिसकी पत्नी जीवित ही नहीं, बल्कि पति के साथ बाकायदा रह रही थी। सुधीर ने भी प्यार करने के लिए एक ऐसी औरत चुनी जो तीन बच्चों की माँ थी और अपने पति के साथ उलझे-ठण्डे रिश्ते रखते हुए भी, पति के साथ ही रह रही थी। निश्चय ही यदि सुधीर उस औरत के प्यार के प्रति गंभीर और निष्ठावान् था तो वह ठीक उसी तरह सोच रहा था जिस तरह कभी सुष्मिताजी के सोचने का ढंग रहा होगा, तब, जब वरुण सक्सेना के वजूद के बादल सुष्मिताजी की कल्पना-क्यारी में मँडराने-बरसने को उतरने लगे थे। सुष्मिताजी का पहला प्यार! सुष्मिताजी की जिन्दगी का एकमात्र प्यार!

लेकिन आज?

आज क्या है सुष्मिताजी के पास? एक औरत जब प्यार करती है, किसी पुरुष के प्रति समर्पण करती है तो उसे एक नया संसार मिलता है, एक नई पहचान मिलती है, समाज में एक स्थान मिलता है, और.... और मिलती है खेलती-मुस्कराती सन्तानों की एक महकती फुल बगिया....पर सुष्मिताजी आज जिस मुकाम पर खड़ी हैं, वहाँ से इस सब सुख-संतोष की एक झूठी झलक भी तो नहीं दिखाई देती। क्या हो गया वह जिन्दगी का मजबूत फलसफा जो चढ़ती उम्र के दिनों में सुष्मिताजी का जीवन की व्यूह-रचना का आधार था?

तो क्या यह युवक सुधीर भी जीवन के किसी मोड़ पर जाकर सुष्मिताजी की भाँति चुका, थका और खाली-खाली-सा रह जायेगा? क्या सब कुछ जानते-समझते हुए भी उसे जीवन की इस बंद गली में जाकर खुलने वाली डगर पर आगे बढ़ने से टोका नहीं जा सकता? क्या सुष्मिताजी सुधीर को अपने बारे में, अपनी जिन्दगी के बारे में सब कुछ बताकर, समझाकर इस रास्ते पर चलने से रोकने की एक कोशिश करके देखें? जिस रास्ते पर सुधीर ने कदम बढ़ा दिये हैं, वह किस बियाबान में जाकर छोड़ता है, यह सुधीर को समझाएँ वे?

यदि वे ऐसी कोशिश करें भी, तो दो-तीन बातें और उनके तार्किक विचार-प्रवाह में खलल डालती हैं। पहली यह कि सुधीर पुरुष है। और इस पुरुष-प्रधान समाज में स्थितियों से जूझने-लड़ने की जो सहूलियत औरत होने के नाते सुष्मिताजी नहीं पा सकीं, वह सुधीर निश्चय ही पाएगा और इस तरह इस कहानी में फिर पराकाष्ठा पर पहुँचकर शायद बेचारगी के एहसास सुधीर और किरण के पति को नहीं, बल्कि स्वयं किरण को ही घेरेंगे। सुधीर शायद किसी चक्रव्यूह में उस तरह न फँसे जैसे सुष्मिताजी फँस गई हैं। वे औरत जो हैं, और महिलाओं के प्रति वर्तमान दौर का समूचा सम्मान भी कहीं-कहीं अभी पुरुष-मानसिकता को पराजित नहीं कर पाता, ये सुष्मिताजी बखूबी जानती हैं।

दूसरी बात यह थी कि क्या इस तरह की कोई बात या सुझाव सुधीर मानने को तैयार होगा। क्या सुष्मिताजी कहेंगी कि प्रेम मत करो और सुधीर किरण को भूल जायेगा? क्या ऐसा सोचने वाले, इस राह पर चलने वाले अपने सोच के इतने कच्चे होते हैं जो किसी के भी विपरीत समझाने से मान जाएँ या समझ जाएँ। क्या स्वयं सुष्मिताजी अपने अतीत की उन घड़ियों में किसी के समझाने या मार्गदर्शन करने पर मानकर राह बदल लेने की अवस्था में थीं? यदि उन सुगंधित दिनों के आलम में सुष्मिताजी को किसी ने सलाह दी होती कि वे वरुण सक्सेना और उनकी गृहस्थी में दिलचस्पी न लें तो क्या सुष्मिताजी इस सलाह पर कान देतीं? क्या दुनिया में दूसरों के मरे-जिए से अपने को स्वर्ग-नरक मिले हैं कभी? सब अपनी जिन्दगी के अनुभव अपनी ही जिन्दगी से लेते हैं ना, तीखे-तल्ख हों या मादक-मीठे। यदि आदमी दूसरों की जिन्दगी से सीख-समझ जाए तो फिर अपनी जिन्दगी का क्या करे? उसका उपभोग काहे में करे? है ना!

और भी न जाने क्या-क्या, कितनी देर तक सोचती रहतीं सुष्मिताजी यदि बाहर से कुछ तेज़ी से खड़कने की आवाज न आती। वे चौंकीं। कुछ आहटें सुनीं उन्होंने। कुछ सरकने की-सी आवाज। उन्होंने सोचा शायद सुधीर पेशाब आदि के लिए उठा होगा और अँधेरे में बत्ती का स्विच न ढूँढ पाने के कारण ऐसे ही निकला होगा। शायद इधर-उधर रखी किसी चीज से टकरा गया हो। एक बार उन्हें खयाल आया कि मदद के लिए उठें। लेकिन दूसरे ही क्षण सुष्मिताजी ने सोचा, उसे स्वयं ही ढूँढ-ढाँढ कर काम चला लेने दें। यह भी तो था कि इतनी हल्की-सी आहट पर उठकर यदि वे सुधीर के कमरे में चल देती हैं तो कहीं वह नौजवान यह न सोचने लग जाए कि सुष्मिताजी अब तक जाग क्यों रही हैं। उनकी बेचैनी और अकुलाहट कहीं उसके दिल में फिजूल कोई और संशय न भर दे। यही सोचकर सुष्मिताजी आहटों को अनदेखा करके पड़ी रहीं, ऐसे जैसे गहरी नींद में हों।

कुछ देर बाद एक आहट और हुई। अब की बार ऐसा लगा जैसे दो-तीन आहटें एक साथ हुईं, लेकिन ये आवाजें बाहर से आई थीं। फिर थोड़ी भागम-भाग की सी आवाज सुनाई दी। ऐसा लगा जैसे कोई तेज चाल चलता हुआ रह-रहकर दौड़ रहा हो। किसी के कूदने की आवाज पर सुष्मिताजी ने अँधेरे में ही आँखें खोलीं। वे अब थोड़ी सी चिन्तित भी हुईं, लेकिन तुरन्त ही वे आश्वस्त भी हो गईं। वे शायद गली के लड़कों या उन लोगों की आवाजें थीं जो रात को सिनेमा का आखिरी शो देखकर लौटे होंगे, और अब धींगा-मस्ती करते इधर-उधर अपने-अपने घरों में दाखिल हो रहे थे। किन्तु उनका मन न माना, थोड़ी देर बाद फिर से वह उठीं। उठकर उन्होंने कमरे की लाइट जला दी। इधर-उधर देखा। सब कुछ ठीक-ठाक था। बाहर निकलीं। सुधीर के कमरे का दरवाज़ा उसी तरह उढ़काया हुआ था जैसे उन्होंने रात को छोड़ा था। कहीं कोई हलचल नहीं थी। वे संतुष्ट हो गईं और टॉयलेट में होकर पुन: अपने बिस्तर पर आ लेटीं। उन्होंने बत्ती बुझाने के बाद एक बार अँधेरे में ही उस कमरे के दरवाज़े की ओर फिर से देखा जहाँ सुधीर सोया हुआ था। फिर पुन: लेट कर सोने का प्रयास करने लगीं। जल्दी ही नींद आ गईं उन्हें।

सुष्मिताजी सुबह सोकर उठीं तो काफी तरोताजा थीं। उन्होंने घड़ी में समय देखा। अभी अँधेरा पूरी तरह छँटा नहीं था पर फिर भी रोशनी के पंख फड़फड़ाते यहाँ-वहाँ दिखाई देने लगे थे। बिस्तर व्यवस्थित कर रखने के बाद वे बाहर चौक में निकल आईं। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर वापस कमरे में आईं तो एक प्याला चाय पीने की इच्छा हुई। पहले सोचा, थोड़ी-सी देर और प्रतीक्षा कर लें। सुधीर के सोकर उठने के बाद ही चाय बनाएँ, लेकिन फिर कुछ सोचकर अपने लिए ही चाय बना लेने के खयाल से निकल कर रसोई में आईं। सुधीर दो-तीन दिन की यात्रा और थकावट के बाद चैन की नींद सोया था। न जाने कितनी देर बाद सोकर उठे, इसी विचार से उन्होंने अपने लिए चाय का पानी चढ़ा लिया।

सहसा रसोई की खिड़की से ध्यान बाहर गया तो सुष्मिताजी खिड़की के पास सरक आईं। उन्होंने देखा बाहर कुछ लोग इकट्ठे होकर किसी गंभीर बातचीत में मशगूल हैं। खिड़की के बाहर का दृश्य देखकर वे हैरान-सी होती दरवाज़े तक चली आईं। इससे पहले कि वे स्वयं बाहर का माजरा जानने के लिए दरवाज़ा खोलतीं, दरवाज़ा बाहर से ही खड़काया जाने लगा। शायद एक बार जोर से दरवाज़े में लगी कॉलबेल भी बजी। घबराकर सुष्मिताजी ने दरवाज़ा खोला। सामने तीन-चार युवक खड़े थे। दो-एक अपरिचित-से थे, पर साथ में दो-तीन पड़ौस के लोगों को भी देखकर वे कुछ आश्वस्त हुईं। सामने वाले मेहता साहब के लड़के चन्दर को संबोधित करते हुए बोलीं-

–क्या बात है चन्दर?

–आण्टी! आपको कुछ पता है रात को यहाँ कुछ गड़बड़ हुई है।

–गड़बड़ हुई है! बुरी तरह घबरा गईं सुष्मिताजी। कैसी गड़बड़? क्या हो गया?

–ऐसा लगता है रात को यहाँ कुछ लोग आये थे, एक बजे के करीब। राधामोहन जी ने दो-तीन लोगों को खिड़की से भागते हुए देखा भी था। तो ये उठे। बाहर आये। इन्होंने आवाज दी, तो मैं भी जागकर बाहर आ गया। पर उस समय तो कुछ दिखाई नहीं दिया। हम लोग इधर-उधर देखकर सो गये जाकर। पर अभी थोड़ी देर पहले इनका दूध वाला आया तो उसने आपके गेट के बाहर ही एक चाकू और कोई कपड़ा पड़ा देखा, बुरी तरह खून से सना हुआ। कहते-कहते चन्दर उत्तेजित होकर लगभग हाँफने-सा लग गया था। साथ के लोग भी हैरानी और आश्चर्य से उसकी बात का समर्थन आँखों से ही कर रहे थे।

–क्या! चीख-सी पड़ीं सुष्मिताजी!

–हाँ-हाँ, हमने वो चीजें किसी को छूने नहीं दीं, देखिये वहीं पड़ी हैं। ऐसा लगता है यहीं-कहीं आस-पास रात को कोई झगड़ा या मारपीट हुई है और भागते-भागते वे लोग खून से लथपथ चाकू और कपड़े यहाँ डाल गये।

सुष्मिताजी का माथा ठनका। वे उन लोगों को वहाँ वैसे ही खड़ा छोड़कर बिजली की गति से पास वाले कमरे की ओर दौड़ीं। न जाने किस अनिष्ट की आशंका ने उन्हें एकाएक आ घेरा। उन्हें जाते देख उनके पीछे-पीछे चन्दर तथा दो-तीन और लोग भी भीतर दाखिल हो गये। जब सुष्मिताजी ने कमरे का उढ़काया हुआ दरवाज़ा खोलकर एक झटके से पर्दा हटाया तो एक साथ दो-तीन चीखें निकल गईं।

सामने ही पलंग पर लगभग आधा नीचे की ओर लटका हुआ खून से लथपथ सुधीर का शव पड़ा था। शरीर पर जगह-जगह चाकू से किए गए हमलों के घावों के निशान थे। चादर पूरी तरह खून से सनी हुई थी और अब तक सूख चुके रक्त की एक गहरी-काली-सी धारा बहकर दरवाज़े के बिलकुल समीप तक आ गई थी। कमरे की बाकी हरेक वस्तु ठीक उसी तरह व्यवस्थित थी जैसे रात को छोड़ी गई थी सिवाय एक मिट्टी के गुलदान के जो खिड़की से नीचे गिर पड़ा था। उसी के टुकड़े और कुछ मिट्टी छितराई हुई इधर-उधर पड़ी थी। कमरे के दूसरी ओर खुलने वाला बाहर का दरवाज़ा जो रात को भीतर से बंद था अब बाहर की ओर से बंद कर दिया गया था। बाहर की ओर खुलने वाली कमरे में सिर्फ एक खिड़की थी पर उस पर व्यवस्थित तरीके से पर्दा पड़ा हुआ था। चन्दर ने आगे बढ़कर पर्दा सरका कर देखा तो उसके पीछे के शीशे वाले और लोहे वाले दोनों दरवाज़े यथावत् बंद थे।

सुष्मिताजी के होश फाख्ता हो गये। वो दहशत से नहा गईं। यह नि:सन्देह उसी पल का वाकया था जब रात को सुष्मिताजी ने आहटें सुनी थीं। न जाने कौन लोग थे, क्या बात थी.... काश, उसी समय उठकर सुष्मिताजी देखने आई होतीं, बत्ती जला दी होती उन्होंने, तो मुमकिन है यह हादसा टल जाता। या और कोई सुराग हाथ आता। वे किंकर्त्तव्यविमूढ़-सी हो गईं। पास-पड़ौस के लोग एक साथ दुगने विस्मय में पड़ गए। सुष्मिताजी के इस 'रिश्तेदार’ को आज तक कभी किसी ने देखा या जाना नहीं था। वे तो यह भी नहीं जानते थे कि लंबी छुट्टियों में बाहर चली गईं सुष्मिताजी लौट कब आई थीं और यह कौन व्यक्ति उनके साथ आया था। भीड़ में एक-एक दो-दो करके पल-प्रतिपल इजाफा ही होता जा रहा था। और लोगों की तादाद जितनी अधिक होती जा रही थी, घबराई हुई सुष्मिताजी उतनी ही अकेली होती जा रही थीं।

कुछ परिचित लोग थोड़ी बहुत पूछताछ भी कर रहे थे, पर सुष्मिताजी को तो मानो काटो तो खून नहीं। यह क्या हो गया। अब क्या होगा। मुसीबतों के किस चक्रवात से घिर गईं सुष्मिताजी। बढ़ता हुजूम संयत होने के बाद उन पर सवालों की झड़ी लगा देगा। पुलिस आ जायेगी। तफ्तीश होगी। किस-किस को और क्या-क्या बताएँगी वे? क्या परिचय देंगी सुधीर का। क्या कैफियत देंगी रात भर के लिए उसके यहाँ, उनके घर में होने की। कौन उनकी इस बात का विश्वास करेगा कि एक अनजान-से अजनबी युवक को 'यूँ ही’ रात में अपने घर में ठहरा लिया था उन्होंने। यदि यह सिद्ध भी कर दिया गया कि वे उस युवक को जानती नहीं, खून के बारे में जानती नहीं, तो इससे और क्या-क्या 'सिद्ध’ कर देंगी वे। अविवाहिता सुष्मिताजी अनजान युवक को रात में अपने घर में सुलाने का क्या सबब बताएँगी जमाने को। यह सब क्या हो गया। सुष्मिताजी के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया।

एकत्र हुए लोगों की नजरें तरह-तरह के सवाल और शंकाएँ लिए हुए थीं फिर भी सहानुभूति में, सहायता के लिए, जिज्ञासा में, आदतन भी, लोगों की आवाजाही और मुस्तैदी शुरू हो चुकी थी। परन्तु सीधे सुष्मिताजी से कुछ भी पूछने का साहस अब तक किसी को भी नहीं हुआ था। कुछ लोगों को सुष्मिताजी सुधीर का परिचय अपने एक रिश्तेदार के रूप में गोलमोल रूप से दे भी चुकी थीं। लेकिन वे लोग भी, जो इस राज को जान गये थे, कम हैरत में नहीं थे। यदि किसी को रिश्तेदार भी बता दिया जाए तो सुष्मिताजी का दुनियादारी के हिसाब से थोड़ा रोना-कलपना तो चाहिये था। सिर्फ हैरान-परेशान होने से तो दुनिया-समाज की तसल्ली नहीं होती ना?

पुलिस आ जाने की सुगबुगाहट सुनाई पड़ी तो सुष्मिताजी की प्रत्युत्पन्नमति ने सहसा उनकी विघ्न-बाधा को थोड़ी देर के लिए कम कर देने के लिए बहाना खोजने का बीड़ा उठा लिया। परिस्थिति की नाटकीयता को टालने की गरज से वे इंस्पेक्टर को इशारे से पहले जरा अलग एकान्त में ले गईं और पहले ही सारी स्थिति स्पष्ट बताकर उसे विश्वास में लेने का प्रयास किया। उन्होंने सोचा, यहाँ सबके सामने कोई अपमानजनक नाटकीय स्थिति पैदा होने से बेहतर यह होगा कि वह एक जिम्मेदार से मुलाजिम को वस्तु स्थिति समझा दें और फिर हो सकता है कि वही उन पर विश्वास करके उन्हें इस मुसीबत से उबारने का कोई रास्ता बता दे। यदि उसने उनकी बात मानने में कोई हील-हुज्जत या ना-नुकर की भी तो कम से कम भीड़ के सम्मुख प्रताड़ित या अपमानित होने से तो बच जायेंगी। इस अवसर के लिए यह भी बहुत जरूरी बन गया था कि माहौल की रहस्यमयता पर पड़ा पर्दा यथा संभव बना रहने दिया जाय। सार्वजनिक रूप से अपने को बेकसूर सिद्ध करने की बचकानी कोशिश इस समय बेमानी थी।

वास्तव में भारतीय न्याय और कानून व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यही है कि इसमें कोई वारदात होने पर तत्काल जब सबसे अधिक संवेदनशीलता और धैर्य की आवश्यकता होती है तब पुलिस महकमे की सबसे निष्ठुर और उजड्ड पंक्ति से आपका वास्ता पड़ता है। पुलिस विभाग के वरिष्ठ, परिपक्व और संवेदनशील व्यक्तियों तक आपकी बात जब पहुँचती है तब तक नीचे वालों की बदसलूकी से आप भौंथरा पत्थर बन चुके होते हैं। ऐसे में सब गड्ड-मड्ड हो जाता है। कुछ का कुछ हो जाता है। और कानून को अंधत्व का तथा पुलिस को निष्ठुरता का फतवा मिल जाता है। इसके लिए शायद इस विभाग का पद-सोपान अर्थात् 'हायरार्की’ और आम नागरिकों की अनुभवजन्य मानसिकता के बीच के समीकरण कुसूरवार हैं।

पुलिस ने पहला काम यही किया कि अवांछित भीड़ को वहाँ से हटा दिया। इंस्पेक्टर जयकुमार ने सुष्मिताजी से जब यह सुना कि वे उनसे अकेले में कुछ बात करना चाहती हैं तो उन्होंने एक मिनट ठहरने का अनुरोध करके अपने साथियों को संक्षिप्त हिदायतें दे डालीं। लेकिन वे सुष्मिताजी को अधिक आश्वस्त नहीं कर सके।

दो व्यक्ति लाश का मुआयना करने लगे। फोटो आदि खींच लेने के बाद बारीकी से स्थान का नक्शा बना, अपने तरीके से तहकीकात शुरू हो गई।

अब इंस्पेक्टर जयकुमार ने पलटकर सुष्मिताजी की ओर देखा। उन्हें इशारा किया। सुष्मिताजी और जयकुमार दाहिनी ओर बने ड्राइंग रूम में चले गये। सबसे बड़ा लाभ सुष्मिताजी को यह हुआ कि पुलिस के आते ही, पुलिस के डर से और तहकीकात तथा पूछताछ के संभावित खतरे से घबराकर लगभग सभी लोग वहाँ से खिसक लिये थे। आस–पास के मकानों की इक्का-दुक्का खिड़कियाँ मामला-ए-वारदात के दर्शनाभिलाषियों से अब भी सजी हुई थीं, पर सामने आकर उनके घर में बने रहने की जहमत उठाना अब किसी भी पड़ौसी ने नहीं गवारा किया था।

जब इंस्पेक्टर जयकुमार ने सुष्मिताजी को यह इशारा किया कि अब वे जो कहना चाहें घटना के बारे में विस्तार से उन्हें बता सकती हैं, तो सुष्मिताजी ने संयम नहीं खोया। पूरे आत्मविश्वास से और बाहोशोहवास उन्होंने अपने रेल के सफर, सुधीर और किरण से अपने परिचय, उन दोनों के बीच का संबंध, इरादा और यहाँ आकर ठहरने की सभी जानकारी नपे-तुले शब्दों में यथासंभव प्रामाणिकता के साथ सुना डाली। इंस्पेक्टर जयकुमार सुष्मिताजी से बात हो जाने के बाद काफी संतुष्ट और प्रभावित नजर आये। वे उनकी सूझबूझ से आश्वस्त हो गये और अपनी ओर से की जाने वाली कार्रवाइयों में तल्लीन हो गये। सुष्मिताजी का जी थोड़ा हल्का हो आया। संशय और डर के बादल कुछ छितराये-से हो आये। उन्हें कम से कम इतना तो विश्वास हो गया कि उनका पाला एक विश्वसनीय, ईमानदार और समझदार पुलिस वाले से पड़ा है और अब वे फिजूल की जहमत और मुफ्त की या सस्ती बदनामी से तो बच जायेंगी। शायद किसी बड़ी चरित्रगत बदनामी का कोई कलंक उनके साथ अब न जुड़ पाए। वैसे अनुभवी सुष्मिताजी यह भी बखूबी जानती थीं कि पुलिस के चंगुल में इस तरह, इस स्तर तक आ जाने के बाद उनकी दिनचर्या पूरी तरह महफूज भी नहीं रह गई थी। कभी भी, किसी भी प्रकार की परेशानी में डाली जा सकती थीं, लेकिन फिलहाल संकट टल गया था। वह तत्काल किसी उलझन में नहीं पड़ी थीं और इससे उन्हें आगे के लिए व्यवस्थित और तैयार होने को काफी मजबूत अवलंब मिल गया था।

सुधीर के वहाँ रखे सामान की तलाशी ली गई। ब्रीफकेस में रखी एक डायरी से उसका पता-ठिकाना आसानी से मिल गया। इसके अलावा दो-तीन कमीजें, एक रूमाल, दो पेण्टें, दो अण्डरवियर और कुछ कागजात उसके सामान में और बरामद हुए। सिगरेट की एक खाली डिब्बी भी उसके सामान के पास ही पड़ी मिली। सुष्मिताजी की मौजूदगी में ही, जो सामान सुधीर के शव पर से प्राप्त हुआ उसे भी एक सूची बनाकर सील कर दिया गया। सामान को कब्जे में कर लेने के बाद शव को भी पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया। उसके शव को हटाये जाते समय पीठ पर ताजा घावों के साथ-साथ कुछ पुरानी चोटों के निशान पुलिस के साथ-साथ सुष्मिताजी ने भी देखे। एक रात के लिए जो अनजाना-अनचीन्हा तूफान सुष्मिताजी के घर में दहकता हुआ दाखिल हुआ था कम से कम प्रथम दृष्ट्या छट चुका था उस घर, उस घर की स्वामिनी और उस घर की दीवारों पर जीवन की ऊँच-नीच के एक और अध्याय की इबारत को शब्द-शब्द लिख कर, क्षण-क्षण रच कर।

सुधीर के घर वालों को खबर पुलिस की ओर से कर दी गई। वहाँ आकर आवश्यक जानकारी देकर सामान तथा शव ले जाने की बाबत भी इत्तला दे दी गई। सुष्मिताजी ने पुलिस विभाग से एक गुजारिश की, कि जब सुधीर के घर से कोई भी व्यक्ति उसकी लाश और सामान आदि लेने के लिए आये और यदि सब जान-सुन कर उनसे मिलना चाहे तो अगर जरूरी न हो तो उसे ऐसी इजाजत न दी जाये। अर्थात् सुष्मिताजी सुधीर के किसी परिजन को अपने रू-ब-रू झेल पाने का साहस नहीं बटोर पा रही थीं और चाहती थीं कि उनसे इस बाबत सुधीर का कोई परिजन न मिले। किन्तु इस बारे में पुलिस उन्हें अधिक आश्वस्त न कर सकी बल्कि उन्हें यह इशारा भी दिया गया कि जिन परिस्थितियों और राजधानी के जिस इलाके में यह वारदात हुई है, उसमें बहुत मुमकिन बल्कि तयशुदा है कि इस मामले की फाइल आसानी से बंद नहीं की जायेगी और बात से जुड़े सभी तथ्यों की गहराई से छानबीन की जायेगी। सुष्मिताजी भी भली प्रकार समझ गईं कि किसी विचारशील महिला की भावनाओं या युवा निरीह युवक की जान की कीमत को कुछ भी न आंका जाय, कम से कम यह तथ्य तो वजनदार था कि मौका-ए-वारदात राजधानी में अवस्थित थी और उन मुल्क के रहनुमाओं से चंद किलोमीटर के फासले पर थी जो देश और समाज के भाग्य विधाता थे। अत: मामले पर आसानी से ओले नहीं गिरेंगे, यह अनुमान था सुष्मिताजी का। वैसे देखा जाये तो उनकी दिलचस्पी किसी बात में नहीं रह गई थी, न इस केस को भुला कर बंद कर दिये जाने में, न इसकी तह तक जाकर सच्चाई जानने के बारे में। सुष्मिताजी ने इसे एक दु:स्वप्न की ही मान्यता दी थी बस।

लेकिन फिर भी सुष्मिताजी पत्थर नहीं थीं। वे इस सारे चक्रव्यूह से जिस तरह से जुड़ गई थीं, उनकी आस्थाएँ परिवर्तित होकर इन्सान के ग्रह-नक्षत्रों में लौटने लगी थीं। उनकी मान्यताएँ सवालिया बन-बन कर उन्हें ही कचोटने लगीं। सुधीर का शव तथा अन्य सामान जाने के बाद घर की सफाई-धुलाई सब हो ली। घर में बंद होकर अकेले में बहुत रोईं सुष्मिताजी और उसके बाद तो उस घर से ही एकबारगी उन्हें विरक्ति हो आई। सिरे से उखड़ने लगी उनकी तबियत। इस दौर में वे एकदम अकेली जो पड़ गई थीं, जूझने के लिए। उन्होंने वरुण सक्सेना, नमिता आदि किसी को भी कोई सूचना देने तक का खयाल मन से निकाल फेंका था।

यद्यपि इस वक्त उन्हें किसी आसरे की बहुत आवश्यकता थी, लेकिन दुनिया इन्सान की आवश्यकताओं से तो नहीं चलती। कई बार इन्सान को दुनिया की जरूरतों के मुताबिक चलना पड़ता है। कभी दिल की उमंगों को कुचल-मसल कर दुनिया के लिए रोना पड़ता है तो कभी गम से बेरुखी दिखानी पड़ती है। सच कहें तो दुनिया और इन्सान एक-दूसरे के लिए ही बनाये गये दिखते भी कहाँ हैं। क्या इस दुनिया में भी ऐसे इन्सान कोने-कोने, बस्ती-बस्ती फैले नहीं पड़े जो इसी को दिन-रात कोसते उम्र काट रहे हैं। लेकिन इससे संसार की सेहत पे असर क्या पड़ने वाला है। यह हज़ारों साल पहले भी थी और शायद अगले हजारों साल भी रहेगी। जस की तस। तो क्या आदमी निर्लिप्त, वैरागी सरीखा होकर रहे दुनिया से? दुनिया की गोद में दुनिया को गरियाता ही चढ़ा रहे?

नहीं-नहीं! दुनिया ऐसे नहीं दुतकारी जानी चाहिये। यह एक रंग की नहीं है। कहीं काला स्याह बदरंग जीवन है तो क्या कहीं विविध रंगों की निराली छटा से सजे बाशिन्दे नहीं हैं? एक दिन दु:ख का, एक दिन सुख का। एक पल हँसी, एक छिन आँसू! यह है दस्तूर दुनिया का। आदमी इतना समझ ले, फिजूल रोये क्यों? मीठा भाता है तो क्या, फीका कभी नहीं सुहाता? तन की दुरुस्ती के लिए कड़वा भी खाता है आदमी! विधाता के लेखे कोसे क्यों जाएँ?

क्या पता, शायद भीतर से खोखली होकर ही कहीं और मजबूत होते जाने की प्रक्रिया में थीं ये प्रोफेसर सुष्मिता सिंह!

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