स्वयंवधू - 9 Sayant द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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स्वयंवधू - 9

मैं इतना भयभीत हो गयी थी कि, "क..क-क...ब...", मेरे शब्द निकल नहीं रहे थे। ऐसा था जैसे किसीने मेरी ज़बान सिल दी थी।
"चिंता मत करो हमने पूरी रात जाँच-पड़ताल की। यह कैमरे और माइक्रोफोन, दोंनो कल ही सेटअप किए गए थे। उसके लगते साथ ही हमें उसका पता चल गया-वर्ना...और जहाँ तक तुम्हारी सुरक्षा का सवाल है-तुम्हारी सुरक्षा के लिए तुम अपने इस भैय्या पर भरोसा कर सकती हो।", (मैं तुम्हें सच नहीं बता सकता।)
उनकी बात सुनकर मुझे एक कड़ी सूरक्षा का अनुभव हुआ।
"...हम्मम!", मेरे मुँह से बस यही निकला,
"कुछ खाओगी?", भैय्या ने पूछा,
मैंने ना में सिर हिलाया।
"चलो आज ये भैय्या तुम्हारे लिए कुछ खास बनाएगा।",
(आज मुझे बिगाड़ा जाना वाला है?)
खाना खाने के बाद मैंने वीडियो गेम देखा।
"भैय्या ये गेम्स किसके है?", मैंने उसे दिखाते हुए पूछा,
"वो बेकार है। बच्चपन से पड़े धूल खा रही है।",
"क्या गेम है?", मैंने उसे उठाकर देखा,
"ओह! ये तो 999 इन 1 है! भैय्या, ये चलता होगा?", (काश मैं खेल सकती।)
भैय्या ने हैरानी से पूछा, "तुम्हें खेलना आता है?"
"बेशक! मुझे आता है, पर मुझे इसे खेले हुए दस साल के ऊपर हो गये है।",
"खेलना चाहती हो?", भैय्या ने चुनौती देते हुए पूछा,
"नेकी और पूछ-पूछ?", मैंने उनकी चुनौती को खुले दिल से स्वीकार किया। मैं बस उस भयावहता से बचना चाहता थी।
भैय्या ने गेम सेटअप किया और हम लड़ाई के लिए तैयार थे।
कमांडो फाइट!
पहली दो बार मैं हारी, "आह!",
"क्यों हार मानती हो?", भैय्या मुझे चिढ़ा रहे थे,
"एक बार और!", मेरा हाथ बैठने गेम में बैठने लगा,
"तैयार?", भैय्या ने पूछा,
"कोई हारने के लिए तैयार है?",
"अभी नहीं।",
तीसरा राउंड शुरू हुआ!
कुछ उठा-पटक के बाद, आखिर मैं जीत गई!
"जीत गई!",
"हार गया।",
"हा, हा, हा...", हम दोंनो ज़ोर से हँस पड़े। इसके बाद हमने बहुत देर तक गेम खेला। कभी भैय्या जीतते, कभी मैं। जो भी हो हमें हार पे नहीं रूकना था। खेलते वक्त दिव्या और साक्षी भी जुड़ गए।
"हाह! मैं थक गई। श्श्श-", वक्त कैसे कब बीत गया पता ही नहीं चला,
"वक्त तो देखो!", भैय्या ने चौंककर कहा।
मैंने भी वक्त देखा, "अ-आठ बज गए?", हम चारों ने एक-दूसरे को हैरान से देखा।
"अच्छा है तुम चार इस दुनिया में वापस आ गए।", हमे हमारे पीछे से वृषा के चिढ़ी हुई आवाज़ आई। इसका मतलब था,
"अब हम गए।", हम चारों के मुँह से एक ही बात निकली,
"सही कहा! मैंने सुबह सबसे कहाँ था कि वो सब अपनी हाज़िरी में अपने कमरे कि जाँच करवाएंगे। सबने करवा लिया सिवाय दिव्या और साक्षी के!", वृषा गुस्से में थे,
"और सरयू! मैंने तुम्हें अनगिनत काॅल किए पर- घर आकर देखने पर चारों महारथी यहाँ वीडियो गेम्स खेलने में व्यस्त है। तुम लोंगो को हालात कि नाज़ुकता का अंदाज़ा है कि नहीं? साक्षी तुम, मुझे लगा इनकी तुलन में तुम ज़्यादा ज़िम्मेदार होगी, पर तुम भी?",
"माफ कीजिएगा।", साक्षी ने माफी माँगी,
"तुम्हें अपनी सुरक्षा का इन सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए!", वे डरावने थे,

दिव्या से, "तुम्हें तो सब पता था ना। फिर भी? तुम कल आर्य से मिलने नहीं जा सकती जब तक तुम अपने कमरे कि जाँच नहीं करवा लेती!",
"क्या?!", दिव्या किसी पुतले कि तरह जमकर टूटने लगी,

मेरी तरफ गुस्से में देखकर, "तुम! यह सब तुम्हारे साथ हुआ ना? तुम कैसे इतनी लापरवाह हो सकती हो!",
"...",
"तुम कुछ कह क्यों नहीं रही?", वृषा मुझ पर गुस्सा कर रहे थे,
(क्या मुझे कुछ कहना था? पर क्या?) मेरे हाथ में गेम कंट्रोलर था।
"और इन कचरे को तो देखो! चिप्स के पैकेट, जूस के कैन, और गिरे हुए खाने को तो देखो! ये घर है या कूड़ेदान? कूड़ेदान इससे ज़्यादा साफ होगा! तुम चारों सब साफ करो और खाना खाकर अपने काम निपटाओ! वैसे लगता नहीं तुम्हें खाने कि ज़रूरत है।", वृषा सोफे पर जाकर बैठ गए,
हमें खाना चाहिए! हमने बिना कुछ कहे सब साफ कर खाने के लिए गए, हमने चुप-चाप खाना खाया अपने-अपने काम निपटाए और रात को धीरे-धीरे बाल्कनी में इकट्ठे हुए।

"आज तो बहुत बुरा हुआ ना?", दिव्या ने कहा,
"सही कहा। मैंने पहली बार उन्हें ऐसे नाराज़ होते हुए देखा।", साक्षी ने कहा,
"सही कहा।" (उसे ऐसे नाराज़ होते हुए कितने सालों बाद देखा।), भैय्या ने भी यही कहा,
पर मैं, जो उनसे लगभग रोज़ इसी तरह से डांट खाती रही, "क्या सच में?",
"हम्म...वैसे किसीके कमरे से कुछ निकला?", दिव्या ने पूछा,
भैय्या ने कहा, "हम्म-बहुत कुछ!",
"क्या?!", दिव्या और साक्षी ने तुरंत पूछा। दोंनो काफी उत्सुक लगे, खासकर दिव्या।
"हम जानते हैं कि इसके पीछे कौन है लेकिन गुप्त है।", भैय्या ने सब अपने पेट में दबा लिया,
"बू..! बोरिंग सरयू...", दिव्या कि उत्सुक्ता पंचर हो गई।
"ठीक है, ठीक है! अब जाकर आराम करो।", भैय्या सबको भगा रहे थे।
सब चले गए।
"मैं यहाँ थोड़ी देर और रुक सकती हूँ?",
"ठीक है। तुम आज भी वृषा के कमरे में रहोगी?", भैय्या ने पूछा,
"क्या यह ठीक है?" (मुझे नहीं लगता!) "भैय्या यहाँ कोई और कमरा नहीं?",
"ऐसा नहीं है। स्वयंवधू के लिए कल सहायक आऐंगे, और समीर बिजलानी चाहता है सब मुख्य घर में रहे।",
"सबके लिए सहायक मतलब...यहाँ छह प्रतियोगी थे मुझे मिला ले तो सात। सात के लिए सात सहायक!" (सिर्फ इस बेतुके प्रतियोगिता के लिए?),
"सही कहा, और तुम वृषा के साथ ही सुरक्षित हो।",
"मैं जानती हूँ।", (वृषा के पास उस दिन भी मौका था पर उन्होंने मेरी तरफ एक नज़र नहीं देखा। उल्टा उन्होंने मेरी मदद की। वे एक सज्जन व्यक्ति हैं।)
"शुभ रात्रि।",
"शुभ रात्रि भैय्या।",
मैं फिर से वृषा के कमरे में सोने गई, पर मैं बिल्कुल सहज महसूस नहीं कर पा रही। कमरे में फाइले बिखरी पड़ी थी।
"नींद नहीं आ रही।", मैंने सारी फाइले समेटी,
"इन्होंने सब बिखेर रखा है। ...हम्मम?",
मैंने वही डिब्बी देखी। वह गिरकर खुल गया था तो मैं उसे उठाने गयी। वह बिल्कुल वृषा के लॉकेट जैसा था, रत्न पंख के आकार का। अभी सोचूँ तो उनके लाॅकेट का रंग अब नारंगी हो गया था...और मेरी पंख वाली अंगूठी नारंगी से गुलाबी। इससे मुझे कुछ अलग महसूस नहीं हुआ। मैंने उस लाॅकेट को उस रत्न से उठाया। उसे उठाते ही उसकी चैंन मेरी कलाई से चिपक गई!
"आह? ये क्या!-म्मम...!", वो चैंन मेरी कलाई को ज़ोर से दबा रही थी, जैसे वो मेरे शरीर को अंदर घुसना चाहती हो- "न-न आह!!",
खर-खर...खर-खर...खर-खरकर वो मेरी त्वचा को कुरेदे जा रही थी। मैं उसे दूसरे हाथ से निकलने कि कोशिश कर रही थी पर वो मेरे पकड़ में नहीं आ रही! वह मेरी त्वचा खरोंच रही थी। हाह!...
"अम्मा...नाह!" (ऐसे ये मेरे अंदर चला जाएगा!),
"नहीं!-", मैंने उसे पैर से दबाकर निकालने की कोशिश की पर खरोंचना! खरोंचना! खरोंचना! "-मम!", यह एक तरफ मेरी कलाई के अंदर घुस गयी! "नहीं!! माँ!", टप...टप खून टपकने की आवाज़।
ऐसा लग रहा था जैसे मेरे शरीर में किसी चीज़ का आदान-प्रदान चल रहा हो। इस वक्त मेरे दिमाग में वृषा ही आ रहे थे। (काश वो यहाँ होते...), मेरे कलाई से खून टप-टप, बूंदों में बहे जा रहे थे... "वृषा...", मेरा दूसरा हाथ भी उस खून से सन हो गया। मैं बहुत देर तक उसे निकालने कि कोशिश करती रही। मैंने उसे ज़ोर से खींचा। "! वा-!!...?", मैंने अपने बाह को हैरानी से देखा। साँसे भारी हो रही थी। चैंन खींचने से ऐसा लग रहा था जैसे मैं खुद को ही फाड़ रही थी। बहुत तेज़ दर्द हो रहा था।
मेरे हाथ थक गए। खून काफी बह चुका था। मेरा शरीर भारी हो गया। अब मुझे कमज़ोरी महसूस होने लगी, मैं अपनी साँसों कि गिनती खो रही थी। उससे भी अजीब मेरा शरीर गर्म होने लगा जैसे वो खुले आँच पर हो। मेरी साँसे भारी हो रही थी, मेरे हाथ, मेरे पैर, मेरा हर एक अंग एक-एक कर अपने ताकत खो रहा था। ऐसा था जैसे उन्हें किसी खास चीज़ कि तलाश हो। मेरे ख्याल में अब सिर्फ वृषा ही घूम रहे थे। (मुझे वो चाहिए...मुझे वो चाहिए!) क्या? क्यों? पता नहीं? "आह!...हाह...डैडा!...", मैंने एक बार फिर कोशिश की, किसी काम का नहीं।
जैसे ही मैं अपनी उम्मीद खो रही थी मैंने दरवाज़े पर 'धम!' की आवाज़ सुनी। मेरी आँखे आँसुओ से भरे थे। मैंने अपनी धुंधली आँखो से देखा कि वृषा दरवाज़ा तोड़ मेरी तरफ भागकर आ रहे थे। उनके आते ही मैं उनके हाथों में ही अपनी बची हुई होश भी खो दी।

"?! वृषाली? वृषाली! उठने होश में रहने की कोशिश करो! वृषाली!", (शुक्र है मेरे इस लाॅकेट का, मैं यहाँ वक्त पर पहुँच सका। मुझे लग ही रहा था उसके साथ कुछ गलत हो रहा है।)
मैंने उस लाॅकेट कि चैंन को वृषाली कि कलाई से निकालने लगा। मैं उसे जितना निकाल रहा था वो उतना ही अंदर धसे जा रही थी।
(इस हिसाब से तो वो इसके शरीर पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेगी और इसे महाशक्ति नियुक्त कर लेगी...) "नहीं! मैं ऐसा नहीं होने दे सकता!",
मैंने अपनी शक्ति से उस ऊर्जा को सोखने कि कोशिश करने लगा। मैं उस रत्न को पकड़ उसे सोखना शुरू कर दिया, (ओह, हाह! यह काफी ताकतवर है!) जैसे-जैसे मैं ऊर्जा सोखता रहा वृषाली के चेहरे से दर्द कम होता रहा।
मैंने उसे बिना सोचे समझे अपने सीने से चिपका लिया। "बस थोड़ी देर और।", ये बहुत शक्तिशाली थी। (शायद अब मैं उसे निकाल सकता हूँ।) मैं उसे धीरे से निकाल रहा था, तभी वो लाॅकेट की दूसरी तरफ वाली चैंन मेरे घुसी।
"आह!", मैं उसे पकड़कर निकालने कि कोशिश कर रहा था पर वो हमारे ऊर्जा स्रोत पर अपनी पकड़ मज़बूत कर रही थी। "अरर्गह!" मैंने लगभग अपनी सारी शक्ति लगा दी पर नतीजा कुछ नहीं निकला। वो हमारी जीवशक्ति में 'महाशक्ति' और 'कवच' की जीवशक्ति मिला रही थी।
(यह अब भी बच्ची है। मुझे इसे कैसे भी कर निकालना-) "वृषा! वृषाली!" (-होगा!...आ?) मेरी शक्ति क्षीण होने लगी, तभी मैंने सरयू को अंदर आते सुना।
"वृषाली! मिस्टर बिजलानी! सरयू, आर्य ने कहा हमे बल का प्रयोग नहीं करना है। वो आते ही होंगे। हमे तब तक उसे रोकना होगा।", दिव्या आर्य के निर्देश दे रही थी।
सरयू ने वृषाली के उलझे जूड़े को खोला और हमारे घाव को कपड़े से दबा रखा था।
(इसके बाल क्यों खोले? शक्ति के लिए राह आसान मत बनाओ!) खून काफी बह चुका था।
मैं वृषाली को अब भी अपने सीने से चिपकाया हुआ बैठा था। लाॅकेट हमें एक-दुसरे से जोड़ रखा था। वो अब भी अपनी ऊर्जा, हमारी ऊर्जा के साथ मिला रही थी।
"ज-जल्दी...", मैंने उन्हें आवाज़ लगाया,
"वृषा!", सरयू मेरे पास आया।
"मेरे पास इतनी...हाह...नहीं बची, तुम उसकी कलाई को कसकर पकड़कर...फू! रखना।", मैंने उसका हाथ आगे किया। सरयू ने उसकी कलाई को कसकर पकड़ लिया।
चैंन अपना वर्चस्व स्थापित कर सके उससे पहले मैंने अपनी बची हुई शक्ति से उसे वृषाली के सिर को संभालते हुए, हाथ से उसे ध्यान से निकाल लिया! अब वो मेरे सीने से लटक रही थी। इसकी ऊर्जा अब भी कायम थी, "सरयू क्या तुम मेरे लिए इसे निकाल सकते हो?", मुझमे ज़्यादा शक्ति नहीं बची-
"अच्छा!", सरयू ने उस लाॅकेट को चैंन से पकड़ लिया,
इस यंत्र कि शक्ति कुछ कम हुई, "सरयू अभी!",
सरयू ने उसे सही वक्त पर उसे निकाल दिया।
"आ-", खून पूरे कमरे में छिटक गया। मैंने वृषाली का हाथ पकड़ा और उस लाॅकेट से सोखी ऊर्जा को अंगूठी के ज़रिए वृषाली में वापस डाल दी। शुक्र था भगवान का कि यह इसकी कलाई थी अंगूठी नहीं। वृषाली अपनी और मेरे खून में लिपटी हुई थी...मेरी दृष्टि धुंधली होती जा रही थी...मुझमे ...अब और ऊर्जा नहीं बची...मुझे बस वृषाली सिर से लेकर सीने तक खून से नहाई हुई दिखी...
"वृषा!", वृषा, वृषाली के ऊपर बेहोश हो गया।
"दिव्या! मिस्टर खुराना को आने में कितना वक्त लगेगा?", मैंने उस चमकीली चैन को बगल फेक दिया,
दिव्या, मिस्टर खुराना के साथ अंदर भागकर आई।
"इन दोंनो का खून बहना रूक ही नहीं रहा है!", मैंने मिस्टर खुराना को सारी बाते संक्षेप में बताई,
"दिव्या कुछ और साफ कपड़े लेकर आओ।", दिव्या साफ कपड़े लेने अंदर गई,
"सरयू तुम पीछे हो जाओ! तुम हमसे थोड़ी दूर हो जाओ।", मैं उन्हें ध्यान से नीचे रख उनसे दूर हो गया।
मैं दूर से उन्हें देख रहा था। वृषा को मैंने कई बार इस तरह लाचार देखा था...पर यह पहली बार था, जब वो डरा हुआ लगा।

आर्य खुराना ने अपनी शक्ति से दोंनो के घाव भरे। फिर उसने वृषाली के अंगूठी के रत्न को वृषा के लाॅकेट के रत्न से मिलाया और थोड़ी देर में वो दोंनो पहले जैसे हो गए, पर अब भी अचेत थे।
"फूफ! ये मामला करीब वाला था! वो-", वह इधर-उधर देखने लगा,
"क्या अब में आ सकता हूँ?", मैंने पूछा,
(ये हमेशा से ऐसे ही है। केवल काम के वक्त गंभीर और बाकि वक्त एक खुशमिज़ाज बिना दिमाग का व्यक्ति, पर उसके भोले शक्ल पर मत जाना। वह भारत कि अधिक सफल होटलो का मालिक है। विदेश में भी इसकी पकड़ काफी ज़्यादा काबिलेतारीफ है।)
"तो यह सब क्या था?", मैं उनके तरफ जाते हुए पूछा,
उसने जवाब दिया,"आसान भाषा में बोलूँ तो आज यह, वृषाली-महाशक्ति और वृषा-कवच बनने से हुई भर की नोंक से बच गए। खासकर ये भाईसाहब।",
"ये कैसे हो सकता है? इसके लिए तो आम शक्ति होना आवश्यक है।", दिव्या ने हैरानी जतायी,
"हम्म! अभी के लिए हमे इनके खून को साफ करना होगा और आज के लिए वृषा को वृषाली के साथ छोड़ना ठीक रहेगा। और लगता है जल्द ही हमे शादी का खाना नहीं होगा।", उसने दोंनो के रत्नों के बदलते हुए रंग को देखकर कहा,
क्यों? क्या?", दिव्या ने पूछा,
"वृषा ने वृषाली को अपनी आधी ऊर्जा दे दी है। इस वक्त वृषा को उसकी नियति कि ज़रुरत है।", मिस्टर खुराना ने कहा,
"मुझे इस पर विस्तृत जानकारी चाहिए।", हमने उनके खून को साफ किया और उन्हें बिस्तर पर लिटा कर हम आगे कि बात के लिए बाहर आ गए। हम नीचे बगीचे में गए जहाँ कोई हमारी बाते ना सुन सके।

"मिस्टर खुराना, वृषा और वृषाली के साथ क्या गलत है? तुम जब से आए हो गंभीर क्यों नहीं लग रहे हो?", अचानक मेरे दोस्त और मेरी बहन के साथ क्या गलत हो गया? दिव्या मेरे पास उस वक्त भागकर नहीं आई होती तो मुझे कल तक कुछ पता नहीं चलता या कभी नहीं!
"दिव्या ने बताया कैमरे कांड के कारण वृषाली, वृषा के कमरे में रह रही है?",
"हाँ।", मैं चौकन्ना हो गया,
"पहले भी इस लाॅकेट ने वृषा पर हमला किया था?", उसने पूछा,
"हाँ। कैसे भूल सकता हूँ, जब वो तेरह साल का था। तब से उसके लिए परिस्थिति और बुरे के लिए ही बदली है।", मेरी मन में उफान आ रहा था,
"इस वक्त मैं कुछ पक्के तौर पर नहीं कह सकता पर वह पाँचवे परिवार की सदस्य हो सकती है और इस पीढ़ी की शक्तीशाली शक्ति भी। दूसरे तरीके से महाशक्ति!",
"नहीं हो सकता!", मैं एकदम से चिल्ला खड़ा हुआ, "महाशक्ति, गर्व की नहीं चिंता की बात है! वह खिलौना नहीं है!", मैं किसीको खिलौने की तरह खिलते नहीं देख सकता वो भी अपने ही बहन को- हो ही नहीं सकता!
"अगर हमने इसे ठीक से नहीं छुपाया तो वो बन जाएगी।",
मैं उसकी बात से सहमत था।

"आ-", मैंने अपना मुँह बंद कर लिया। मेरे भावनाएँ फिलहाल अस्त-व्यस्त थी। मुझे बस मेरे बचपन के दोस्त और अपनी मुँहबोली बहन की रक्षा करनी थी!
कुछ और बातचीत के बाद हम अपने-अपने रास्ते निकल गए। मैं वृषा और वृषाली को देख नीचे सोफे में बैठ गया। मुझमे अपने कमरे तक जाने की भी ताकत नहीं बची। मैं पहेली को वृषाली के टी-शर्ट में लिपटे हुए गहरी नींद में सोते हुए देखा,
"तुम्हें भी वृषाली पसंद है ना? तुम भी उसे लाचार तिल-तिलकर तड़पते हुए नहीं देख सकती ना?...मैं भी नहीं! ना वृषा को, ना वृषाली को...थोड़े ही दिन में वो सच में मेरी बहन बन गई? अब मैं...", मैं बस सब कुछ रिवाइंड करना चाहता था,
"सरयू?", किसीने मुझे आवाज़ लगाया,
"मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ।", मुझे कार्य मोड में रहना होगा,
"नहीं-कुछ नहीं! आपको यहाँ निराश देखा तो बस-", वह साक्षी थी,
"नहीं-मैं...शायद मैं थोड़ा थका हुआ हूँ।", मेरे पास कुछ नकारने की भी ताकत नहीं थी,
"क्या मैं आपके सिर दबा दूँ?", साक्षी आज कुछ ज़्यादा ही चिंतित लग रही थी,
"नहीं, धन्यवाद! मैं ठीक हूँ।",
"बस अपनी सारी चिंताएँ को थोड़े वक्त के लिए भूल जाइए।", उसने मेरा सिर दबाना शुरू कर दिया,
"इसकी ज़रूरत नहीं-!", मैं उसे मना कर रहा था पर वो,
"बाते मत बनाइए और अपना भावनाओं का भी ख्याल रखिए।",
(अपनी भावनाओं का भी ख्याल रखना?)
"बस थोड़ा आराम कर लीजिए।",
(मैंने सारी भाग-दौड़ देखी। मैं इस वक्त सोच भी नहीं सकती कि इन पर क्या बीत रही होगी...पर मैं यह जानकर खुश हूँ कि इन दोंनो के बीच कोई अलग रिश्ता नहीं है। खुद पर शर्म आ रही है पर ...इसमे मैं कुछ नहीं कर सकती। दिल से क्षमा, वृषाली।)
वह थोड़ी देर में ही सो गए।
"लगता है कि वो सच में बहुत थक गए थे। देखो कैसी गहरी नींद में सो रहे है।", मैंने उन्हें अच्छे मोटे चादर से ढक दिया।