मैं तो ओढ चुनरिया - 59 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 59

 

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

59

 

 

 

एक तो नया शहर , ऊपर से नया घर , नया माहौल , नये लोग और इस तरह का अकेलापन । मन बुरी तरह से घबरा रहा था । कोई तो आए जिसकी आवाज कानों में सुनाई पङे । बैठ कर इंतजार करते करते मैं ऊंघने लगी थी और ये  दीदी आने का नाम ही नहीं ले रही थी । सिर झटके खाने ही वाला था कि अचानक ये लपकते हुए आए और दरवाजे का कुंडा बंद । मैंने डरते डरते कहा – यहाँ दीदी अपना बिस्तर बिछा कर गई है । अपनी गुडिया को लेने । लेकर आती ही होंगी । वो यहाँ सोने का कह कर गई हैं ।

 वो अपने आप कहीं भीतर सो जाएंगी ।

वे निश्चिंत होकर अपने बिस्तर पर लेट गए । मेरा तो डर के मारे बुरा हाल ।

ये आदमी कर क्या रहा है ?

पहले तो बिना परछन के घर के अंदर ले आया । उसके लिए न जाने कितना अभी सुनना बाकी है । सासु का गुस्सा उनके नाक पर धरा है । पता नहीं कब फट पङे । दोनों ननदें ऊपर से मुँह फुलाए हैं और रही सही कसर अब पूरी हो गई । अभी दीदी को यहाँ सोने आना था और ये आदमी भीतर कमरे में घुस आया । मामी ने कई सारे नोट पर्स में डालते हुए कहा था  - वहाँ ससुराल में जाते ही बढे बढेरों की पूजा करवाएंगे । गठजोङ खोला जाएगा । जहाँ जरुरत हो , जो वे कहे उसके हिसाब से माथा टेक देना । अगले दिन कंगन खेला जाएगा और भी कई छोटे छोटे रीत रिवाज करेंगे पर यहाँ कोई पितरों की कुलदेवता की पूजा नहीं हुई । बङे बढेरों को माथा नहीं झुकाया । गठजोङ नहीं खोला । अब सुबह होते ही क्लेश शुरु होगा । मुझे गालियां सुननी पङेंगी । मेरी कोई गलती नहीं । गलती सारी इसकी पर भुगतना तो मुझे होगा न । मेरी आँखों के सामने सासु माँ का गुस्से से तमतमाया चेहरा घूम गया । अब तो गालियां पक्का हैं । मैं क्या करूं । उठ कर जाऊँ । दीदी को बुला लूं । मैं उठने के लिए हिली कि इन्होंने मुझे पकङ लिया – क्या हुआ ?

कहाँ जाना है ?

वो दीदी .. ! उन्हें बुलाना है ।

दीदी सो गई होगी । चल आ तू भी सो जा । और ये मेरे पलंग पर आ गए ।

लो रजाई लो । ओढ लो और सो जाओ ।

मैं लेट गई पर डर के मारे कंपकपी शुरु हो गई । रजाई के भीतर भी मैं बुरी तरह से कांप रही थी ।

तुझे सर्दी लग रही है क्या ? इतनी कांप रही हैं । इनकी आधी रजाई  मेरे ऊपर आ गई और साथ ही ये भी ।

गठजोङे वाला दुपट्टा अभी बंधा हुआ है । पहले वह खोलना है ।

ला दे । इन्होंने खींच कर खोलने की कोशिश की । मैं चिल्लाने लगी थी – मेरा दुपट्टा फट जाएगा । पर मैंने खुद को रोक लिया । ये फट जाएगा – मैं फुसफुसाई । इन्होंने उसे गोल गेंद सा बनाकर अलमारी में डाल दिया ।

चल सुबह देखेंगे । सुबह खुल जाएगा । अभी तो नींद आ रही है । सोना है ।

ये मेरे साथ आ लगे । पूरा बदन गरम तंदूर सा तप रहा था । थोङी देर में मेरे बदन में भी आँच तपने लगी । मन पर डर हावी था और तन पर तपन । थोङी देर में ही मैं नींद की गोद में चली गई । सुबह के साढे चार बजे होंगे कि कमरे के बाहर आवाजें आने लगी । कहीं बाल्टी बजने की , कहीं लोगों के चलने फिरने की । नींद में ही मैं कुनमुनाई ।

सो जा अभी चार सवा चार बजे हैं । पशुओं को चारा देने और दूध दोहने का समय हो गया है तो बङे भैया और छोटा उठ गये हैं ।

मेरा डर फिर मुखर हो गया – हमने वडेरों की पूजा नहीं की अभी तक , न कंगना खोला ।

लेकिन मैंने तो कंगना बांधा ही नहीं । मन ही नहीं किया । अभी भाई को गये तो नौ महीने भी नहीं हुए । इस लिए कोई रीत रिवाज नहीं किया । वैसे भी मुझे लेनिन और मार्कस की फिलासफी पसंद है तो इन फालतू के रिवाजों में जरा भी यकीन नहीं है ।

मन में आया , कहूं फिर शादी की इतनी जल्दी क्या थी पर चुप रही । जानती थी , शादी का मुहुर्त तो माँ ने निकलवाया था । इन्होंने एक बार भी नहीं कहा कि भाई को नौ महीने ही हुए हैं । भाभियाँ पूरे दिनों पर हैं । शादी महीना बाद कर लेंगे । न सास ने , न ससुर ने और माँ की जिद के चलते हमारी शादी हो गई थी ।

ये उठे । बाहर गए । थोङी देर बाद पीतल के दो गिलासों में चाय ले आए ।

लो चाय पी लो ।

अभी से चाय । अभी तो मैंने न ब्रश किया । न नहाई । ऐसे कैसे चाय ।

बाद में नहा लेना । दाँत साफ करने हैं तो ले दातुन ।

ये कैसी दातुन है । पेङ की टहनी । दातुन तो अखरोट की छाल की होती है न । रंगली ।

वह तो नहीं है । यह नीम की दातुन है । आंगन में नीम का बहुत घना पेङ है । उसी से तोङ कर लाया हूँ ।

मैं उठी । अपना पर्स खोल कर उसमें से ब्रश और कोलगेट की ट्यूब निकाली और बाहर आंगन में लगे नलके पर जाकर पेस्ट करने लगी । थोङी देर में ही मैंने पाया कि मेरी छोटी ननद , इनके मामा का पोता , चाचा की बेटी और मेरे दोनों छोटे देवर अचंभे से मुझे देख रहे हैं । देखने वालों की भीङ बढती ही जा रही थी । कई बच्चे मुझे घूर घूर कर देख रहे थे । मैंने आधे अधूरे ब्रश को धोया । कुल्ला करके मुँह हाथ धोया और झट से कमरे में आ गई । आँखें आँसुओं से भरी थी । तब तक ये दोनों गिलास चाय पी चुके थे ।

चल तुझे घर दिखाऊं । ये चल दिये । मैं भी पीछे पीछे चल दी । जिस कमरे में हम सोये थे , उसे सब बैठक कहते थे । उसके बाहर गली थी । गली के सामने एक दरवाजा । दरवाजा लांघ कर हम खुले आंगन में पहुँचे । वहाँ कई गाय भैंसे बंधी थी । सामने नांद में चारा था जिसे वे खाने में मस्त थी । हमें आया देख वे खाना छोङ कर हमें देखने लगी ।

काली , धौली मंगलू कैसे हो ।

दो गाय ,एक भैंस और एक बछिया , साथ ही दो कटरू वहाँ बंधे थे । मुझे उनसे डर लगा । ये सींग मारे तो ... । नहीं मारती । ये तो बहुत असील है । आओ देखो । लेकिन मेरी हिम्मत नहीं हुई । मैं दूर ही रही । तभी बङी जेठानी वहाँ आई । उठ गये तुम दोनों । चाय पीओगी ।

मुझे पहले नहाना है ।

चल नहा ले । वे नलके के पास ले गई । पानी की बाल्टी भर कर भीतर ऱखी । ये कहने को गुसलखाना था पर गुसलखाने जैसी कोई बात इसमें नहीं थी । सीधा सादा दो बाई पांच का कमरे नुमा आकार । भीतर एक चौकी रखी थी और एक लुटिया । न साबुन न तेल । मैंने अटैची से अपने कपङे निकाले । और अकेले पानी डाल कर बदन गीला कर लिया । जो कपङे पहने थे , वे धोकर वहीं टांग दिये । गीले बदन पर ही कपङे पहन कर बाहर आ गई ।   

 

 

 

बाकी फिर ...