मैं तो ओढ चुनरिया - 58 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 58

 

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

58

 


जेठानियाँ जैसा उन्होंने मुझे बताया था कि वे रिश्ते में मेरी जिठानी लगती हैं , मुझे लड्डू खिलाकर थाली वहीं मेरे सामने रख कर एक बार गायब हुई तो दोबारा नजर नहीं आई ।। लड्डू और बालूशाही खाकर पेट को थोङी शांति मिली तो इतनी देर से रोकी हुई नींद सिर पर सवार हो गई । पता नहीं इस नये घर में मुझे सोना कहाँ है , किससे पूछूं , कोई दिखाई ही नहीं दे रहा । ये औरतें तो उस नये पैदा हुए बच्चे को घेरे होंगी । आखिर जब बैठ पाना मुश्किल हो गया तो मैं दीवार के सहारे अधलेटी हो गई । जब कोई आएगा तब देखी जाएगी , तब तक तो लेट लूं ।
अभी उस तरह लेटे हुए पाँच मिनट ही बीते होंगे कि मेरे फूफा जी लपकते हुए कमरे में आए । उनके आने की आहट से मैं सजग होकर बैठ गई क्योंकि हमारे यहाँ कहा जाता है कि अपने से बङे लोगों के सामने लेटे रहना अशिष्टता होती है । फूफा जी मुझे बैठते देख कर वहीं चौखट पर ठिठक गये । लगा वे कुछ कहना चाहते हैं पर बोलने के लिए हिम्मत जुटानी पङ रही है या कोई संकोच आङे आ रहा है ।
जी फूफा जी , आइए । - मैने उन्हें बिठाने के लिए इधर उधर नजर घुमाई ।
नहीं मैंने बैठना नहीं है । मैं तो देखने आया था कि तू ठीक है न ।
जी । ठीक हूँ ।
कोई परेशानी तो नहीं ।
नहीं फूफा जी ।
वे जाने को हुए , फिर लौटे – सुन , भाभी ने इन लोगों के लिए कुछ दिया है क्या ? कोई कपङा ? कोई पैसे ? या और कुछ ? तुझे कुछ पता है इस बारे में ?
मैं हैरान सी फूफा जी का मुँह देखती रही । वे क्या कह रहे हैं । कौन सा सामान ? किसे देना था ? माँ ने तो चलते हुए कुछ अलग से नहीं दिया ।
चल छोङ तू , सो जा आराम से – वे फिर जाने के लिए मुङे कि मुझे याद आया । चलते हुए तो नहीं तीन दिन पहले हमने चार पाँच लोगों ने संदूक और अटैचियों में जोङे सजाए थे । एक एक सदस्य का सारा सामान , लिफाफे सब एक पालिथिन में डाल कर नाम की पर्चियां लगाकर पैक किए थे । – फूफा जी । वो जो लोहे का संदूक है न और एक छोटी अटैची । उसमें सारे घर के लोगों के कपङे और पैसे हैं ।
मैं उठी , अलमारी में से पर्स निकाल कर वो चाबियां निकाली जो सुबह मेरे ससुर और ननदोई ने मुझे पकङाई थी ।
फूफा जी , ये माँ ने सारे ट्रंक और अटैची उनको दिए थे । उन्होंने चाबियां सुबह गाङी में मुझे रखने को दी थी । मैंने पर्स में संभाल ली थी ।
वही तो मैं कहूँ ,ऐसा कैसे हो सकता है । – फूफा जी चाबियाँ लेकर घर के भीतर चले गये । दो मिनट बाद ही घर से सबके कहकहों की ,ठहाकों की , खुश होने की आवाजें आने लगी । बाकी सारे रिश्तेदार जो इधर उधर जाकर लेट गए थे , वे भी आंगन में इकट्ठे होने लगे थे ।
ये माँ के पाँच कपङे और लिफाफा । ये नानी के तीन कपङे , साथ में शाल साथ में सौ का कङकता हुआ नोट । ये तीन पैंट शर्ट और पचास पचास रुपए तीनों जेठों के । ये गरम सूट ननदोई का और पचास रुपए । ये तीन साङियां जिठानियों की । ये मामी का सूट ... । ये मौसी और मासङ के जोङे । आवाजें मेरे जेठों की थी । जो एक एक पैकेट निकालते । उस पर लगी चिट पढते और पैकेट उस आदमी या औरत को दे देते जिसका नाम पर्ची पर लिखा होता । जो लोग सो गये थे , उनके पैकेट मेरी ननद अलग रखती जा रही थी । उन्हें सुबह जागने पर यह सामान दे दिया जाएगा । करीब एक घंटा से कम यह सब तो चला ही होगा फिर सब सोने चले गये । फूफा जी आए - ले अब सब खुश हैं । मैं अब जा रहा हूँ । सुबह आऊंगा । तू भी सो जा ।
मैं कुछ पूछना चाहती थी पर मुझे कहने का मौका फूफा जी ने नहीं दिया और जैसे आए थे तेज तेज , उसी तरह तेज तेज चले गये ।
थोङी देर बाद ननद मेरी अटैची लेकर आई – ले तूने कपङे बदलने हैं तो बदल ले । बाकी तो सारे रिश्तेदार अपने अपने जोङे और पैसे ले गए । ये तेरी अटैची मैं यहीं कोने में रख रही हूँ । सुबह टिका लेंगे ।
दीदी मेरा भाई ?
उसने तो कुछ खाया ही नहीं । दाल रोटी दी थी , बोला इसमें तो बदबू आ रही है । खीर दी तो बोला , इसे तुमने खून में क्यों पकाया है । इसका रंग लाल क्यों है । उसे बहुत समझाया कि यह कढ कढ कर लाल हो गया है । खोया बन गया है । तू खा कर तो देख ।
पर मजाल है , उस लङके ने एक चम्मच भी लेकर चख कर देखा हो । उसे तो उसकी बुआ अपने साथ ले गई । अब उधर ही उनके साथ सो जाएगा ।
मेरा लाडला भाई । इकलौता होने की वजह से ज्यादा ही लाड प्यार से पला था । सौ नखरे करके खाता । नौ साल का होने वाला था पर रोटी अभी भी या मैं खिलाती या पिताजी । एक एक निवाला उसके मुँह में डाला जाता , वह भी उसकी मनपसंद डिश का तब जाकर वह खाता । यहाँ जो दाल बनी थी वह तो मेरे गले से ही नहीं उतरी तो वह कैसे खा सकता था । भूखा ही होगा अब तक । मेरा मन कर रहा था कि जाकर उसे देख आऊं पर यह मेरी ससुराल थी और वह भी यहाँ आए हुए सिर्फ दो घंटे ज्यादा से ज्यादा तीन घंटे हुए होंगे तो ऐसे कैसे जा सकती थी मैं । मन भर आया । कपङे बदल कर मैं फिर से लेटने लगी कि ननद एक चारपाई और बिस्तर ले आई । लाकर बिछा दिया फिर बाहर चली गई । थोङी देर में फिर लौटी । इस बार उनके हाथ में एक लोटा और दो स्टील के गिलास थे ।
ले आज कढा हुआ दूध पीकर देख । इसका स्वाद अलग ही होता है ।
दीदी अभी तो मन नहीं है । आप ले लीजिए ।
मैं तो ले लूंगी पर पहले अपनी बेटी को तो ले आऊँ । पता नहीं किसके पास सो रही होगी ।
दीदी एक बार फिर गायब हो गई थी । अब बैठ कर इंतजार करना जरूरी था । बंद होती आँखों को जबरदस्ती खोल कर मैं दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठी थी कि कब दीदी आएं , आकर लेटे तो मैं भी आराम करूं ।
दीदी की बेटी सात महीने की थी । एकदम गोरी । पतली दुबली । गोल गोल आँखें घुमाती तो खरगोश जैसी लगती । घुंघराले बाल । तीखी नाक । प्यारी सी बच्ची । दीदी के सांवले रंग के साथ उसका मैच ही नहीं था । दीदी जब उसे गोद में उठाती तो कहीं से उठाकर लाई हुई लगती । लगभग आधा घंटा बीत गया पर दीदी नहीं आई ।

बाकी फिर ...