भाग-2
प्रदीप श्रीवास्तव
वह मोबाइल पर फिर कुछ टाइप करने लगीं। दोनों हाथों से मोबाइल पकड़े अँगूठे से बड़ी तेज़ी से टाइप कर रही थीं। अगला स्टेशन आने तक उनकी टाइपिंग चलती रही। जब-तक गाड़ी प्लेटफ़ॉर्म पर रुकी तब-तक उन्होंने लंबा-चौड़ा मैटर टाइप कर व्हाट्सएप या फिर मेल पर किसी को भेज दिया। इसके बाद मोबाइल को बैग में रख दिया और बच्चों के साथ सिंक में हाथ धोकर आईं। फिर सैनिटाइज़र से सैनिटाइज़ भी किया।
यह सब देख कर मुझे याद आया कि चलते समय मिसेज ने सैनिटाइज़र, दो एन-नाइंटी फ़ाइव, और दो दर्जन ट्रिपल लेयर वाले मॉस्क दिए थे कि, इन्हें ज़रूर यूज़ करते रहना। लापरवाही नहीं करना। कोविड-१९ इंफ़ेक्शन से तुम्हें पूरा बचाव करना है। तुम्हारी इम्युनिटी बहुत कमज़ोर है।
मगर इसे अपनी भुलक्कड़ई, लापरवाही की पराकाष्ठा कहूँ या क्या कहूँ कि जो मॉस्क मिसेज़ के सामने लगाकर लखनऊ से काशी के लिए चला था, उसे कुछ घंटे के बाद मुँह से नीचे कर दिया था। काशी पहुँच कर जब उसे निकाला तो दुबारा उसकी तरफ़ देखा तक नहीं, ना ही दूसरा निकाल कर लगाया।
सैनिटाइज़र छुआ तक नहीं। जब भी बात दिमाग़ में आई तो यह सोचकर भुला दी कि पिचहत्तर से अस्सी परसेंट और लोग भी तो सैनिटाइज़र, मॉस्क से पीछा छुड़ाए हुए हैं। इसी बीच उसने प्लास्टिक के तीन बॉक्स निकाले। उनमें एल्युमिनियम फ़्यालिंग पेपर में टोस्ट, आमलेट और फ़्रूट जूस का एक छोटा पैकेट था। बेटे माँ के साथ नाश्ता करने लगे।
प्लेटफ़ॉर्म पर काफ़ी शोर था। चाय और फल वाले आवाज़ दे रहे थे। मैंने एक को बुलाकर ब्रेड पकौड़ा और चाय ली। दूसरे से चिप्स, नमकीन के पैकेट लिए। मैं हाथ धोने नहीं गया। सैनिटाइज़र यूज़ कर नाश्ता करने लगा।
मैंने सोचा था कि नाश्ते को उन तक पहुँचने का पुल बना लूँगा, लेकिन उनके व्यवहार ने मेरी योजना को ट्रैक पर आने ही नहीं दिया कि वह आगे बढ़ती। नाश्ता करते समय मेरी नज़र कई बार उन पर गई और साफ़ देखा कि उनकी भी नज़र मुझ तक आई थी। मुझे ऐसा भी लगा कि एक बार वह मुझे देखकर हल्के से मुस्कुराई भी थीं।
उनके खाने के तरीक़े से मुझे लगा कि मुझे कुछ याद आ रहा है। एक धुँधली सी छाया, एक चेहरा, जिसकी नाक की दाहिनी तरफ़ हमेशा एक छोटी सी नथुनी (नथ) रहती थी। दुनिया में कोई पहने या ना पहने, उसको इससे कोई लेना-देना नहीं था।
इसके लिए उसे लड़कियाँ चिढ़ाती भी थीं। लेकिन वह फिर भी पहने ही रहती थी। हाँ! याद आया, सातवीं में मेरे साथ पढ़ती थी। मेरे पड़ोस वाले मोहल्ले में रहती थी। घर के सामने से ही निकलती थी। वह और मैं पढ़ने में तेज़ थे लेकिन शैतानियों में पढ़ाई से भी ज़्यादा तेज़ थे। शैतानियाँ करके भी बचे रहें इसके लिए हमेशा बैकबेंचर्स रहते थे।
वह मुझसे ठीक आगे वाली सीट पर बैठती थी। मेरे साथ मेरे जैसे कई और ख़ुराफ़ाती साथी भी बैठते थे। उसको चिढ़ाने, परेशान करने का कोई भी अवसर हम खोते नहीं थे। असल में जब हम शांत रहते थे तो उसे भी अच्छा नहीं लगता था। वह भी हमें चिढ़ाने, परेशान करने का कोई अवसर छोड़ती नहीं थी। जब हम आठवीं में पहुँचे तो भी साथ में थे।
अब मैं उसे तब काफ़ी प्रचलित शोभा गुर्टू के गाए एक फ़िल्मी गाने, 'नथुनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीना।' का मुखड़ा गा-गा कर चिढ़ाता था। मुखड़ा पूरा होने से पहले ही वह टीचर से शिकायत करने की धमकी देती या फिर ज़ुबान निकाल कर मुँह चिढ़ाते हुए आगे को मुँह फेर लेती।
मैं अक़्सर उसकी लंबी चोटी खींच लेता था। इस पर वह दाँत पीसती हुई पलटवार करती। मुझ पर झपटती। एक-दो घूँसे भी मारती। जिसे मैं हथेलियों पर रोक कर और ज़्यादा चिढ़ाता। इन सबके बावजूद, बार-बार धमकी देकर भी उसने कभी टीचर से या फिर मेरे घर में शिकायत नहीं की। निश्चित ही अपने घर पर अपने पैरेंट्स को भी कुछ नहीं बताती थी। नहीं तो वो झगड़ा करने ज़रूर आते।
लेकिन नौवीं में एक बार इस गाने के लिए टीचर से मार पड़ी। मगर शिकायत उसने नहीं, उसी साल क्लास में आई एक नई लड़की ने की थी। टीचर ने जब उससे पूछा तो उसने भी हाँ बोल दिया। और फिर उन टीचर ने, जिनका नाम गीता मुखर्जी मैं आज भी भूला नहीं हूँ, वह बिल्कुल आग-बबूला हो गईं। मुझे ख़ूब पीटा।
उन्हें यह बिलकुल बर्दाश्त नहीं था कि मैं या कोई भी लड़का किसी लड़की को छुए या फिर गाने गाकर चिढ़ाए। मार खा कर मैं शाम तक बिल्कुल चुप था। अगले दिन सीट भी उससे बहुत दूर अलग कर ली।
मुझे टीचर से मार खाने का कोई दुःख नहीं था। मुझे एकमात्र यह बात बुरी लगी थी कि उसे शिकायत करनी ही थी तो स्वयं करती। दूसरे से क्यों करवाई। मैंने जितना हो सका, उतनी दूरी उससे बना ली। कुछ समय बाद मेरा ध्यान इस तरफ़ गया कि वह भी तभी से बिल्कुल शांत रहती है। शिकायत करने वाली लड़की से भी उसने उतनी ही दूरी बना ली थी, जितनी मैंने उससे बनाई थी।
उससे अलग होने के बाद मैं क्लास में हँसना-बोलना, शैतानियाँ करना एकदम भूल गया। एकदम अलग-थलग चुपचाप रहता। वह भी इसी तरह रहती। जल्दी ही मंथली टेस्ट के नंबर आये तो मैंने टॉप किया और वह सेकेण्ड नंबर पर थी।
याद और साफ़ हुई कि उसके खाने-पीने के तरीक़े और नथुनी की ही तरह इस श्वेत सुंदरी की नथुनी और खाने की शैली भी बिल्कुल उसी की तरह है।
मैं यादों के पिटारे में 'कहाँ?' का उत्तर खोजने में लगा रहा और श्वेत-सुंदरी नाश्ता ख़त्म करके हाथ धोने चली गईं। बच्चे नाश्ता करने में जुटे हुए थे। मैं भी अपना नाश्ता ख़त्म कर हाथ धोने के लिए उसी वॉश-रूम की तरफ़ बढ़ गया कि शायद उनसे बात करने का कोई अवसर मिल जाए। लेकिन परिणाम फिर से ज़ीरो रहा। वह बीच रास्ते में जल्दी-जल्दी आती हुई मिलीं।
ब्रेड पकौड़े के तेल से सने हाथ सिंक में धोकर मैं भी अपनी सीट पर बैठ गया। सब एक बार फिर अपनी-अपनी जगह बैठे हुए थे। ट्रेन चल चुकी थी। लोग और स्टेशन सब पीछे छूटते जा रहे थे, मगर मैं नथुनी वाली अपनी सहपाठिनी का नाम याद नहीं कर पाया। जिसकी याद सामने बैठी उस श्वेत-सुंदरी के कारण आ गई थी। मुझे याद आया कि टीचर की मार के बाद से मेरा स्वभाव ही एकदम बदल गया था। हमेशा चुपचाप रहने लगा था। ऐसे ही क़रीब-क़रीब दो महीने बीत गए।
एक दिन लंच के समय मैं स्कूल के बरामदे के, एक कोने में चुपचाप बैठा था। सामने प्ले-ग्राउंड में खेल रहे छात्र-छात्राओं को देख रहा था। अचानक ही वह भी चुपचाप आकर बग़ल में बैठ गई। उसके बैठते ही मैं उठ कर जाने लगा तो उसने बिना संकोच हाथ पकड़ कर बैठा लिया। मैं कुछ बोल ही नहीं पाया। मुँह से आवाज़ ही नहीं निकली। मैं ऐसे सकपका गया जैसे उसने नहीं टीचर ने बैठा लिया है।
उसका नाम याद नहीं कर पा रहा था, लेकिन उस समय कही गईं उसकी बातें आज भी नहीं भूली हैं। उसने कहा, 'मेरी कोई ग़लती नहीं है। उसने बिना बताए ही जाकर शिकायत कर दी थी। मैंने सोचा टीचर से झूठ बोल दूँ। लेकिन डर के मारे सच बोल गई। मुझे माफ़ कर दो। तुम इतने दिनों से चुप हो। मेरी तरफ़ देखते तक नहीं। बाक़ी सब से भी बोलना बंद कर दिया है। मुझे सच में बहुत दुख हो रहा है। ख़ुद पर बड़ा ग़ुस्सा आ रहा है कि मैंने सच क्यों बोला।'
मैंउसकी बात चुपचाप सुनता रहा। कोई जवाब नहीं दिया तो वह फिर बोली, 'मैंने कहा न माफ़ कर दो। देखो अब ग़ुस्सा ख़त्म कर दो। जो हुआ उससे मैं बहुत दुखी हूँ। घर पर भी मैं परेशान रहती हूँ। तुम जितना भी मुझे चिढ़ाते थे, चोटी खींचते थे उससे मुझे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगता।
’मैं भी तो तुम्हें चिढ़ाती थी, बाल खींच लेती थी। तुम अब यह सब नहीं कर रहे हो तो मुझे बहुत दुख हो रहा है। इन सारी बातों की बहुत याद आती है। इतनी कि अब सपने आने लगे हैं। आज रात ही सपने में देखा कि तुम मेरी चोटी खींच कर भाग रहे थे। तुम्हें मारने के लिए दौड़ाया लेकिन ठोकर खाकर गिर गई। तुम तुरंत लौट कर आए और मुझे उठा कर किनारे बैठाया। मेरी बात मान जाओ ना। ख़तम करो ग़ुस्सा।’
उसकी इतनी बात सुनने के बाद भी मैं चुपचाप बैठा ही रहा। मेरे मन में उसके लिए कोई ग़ुस्सा नहीं था। उस समय मेरी अजीब सी हालत हो गई थी। उससे क्या मेरा मन किसी से भी बोलने, बतियाने का नहीं होता था। मैं चुप रहा तो उसने मेरा हाथ हिलाते हुए कहा, 'तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? अगर तुम्हारा ग़ुस्सा सबके सामने मेरे माफ़ी माँगने से ख़त्म हो जाएगा तो मैं अभी सब को बुला कर उनके सामने माफ़ी माँग लेती हूँ।
’तुम सबके सामने जितनी बार चाहो मेरी चोटी खींच लो। अपना नथुनिया वाला गाना जितनी तेज़ चाहो, जितनी बार चाहो, गा लो। रोज़ सबके सामने यह सब करो। मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगेगा। अच्छा लगेगा। मुझे ख़ुशी होगी। मैं सपने में भी तुम्हें मारने को नहीं दौड़ाऊँगी, बिलकुल नहीं गिरूँगी, तुम्हें बार-बार उठाना भी नहीं पड़ेगा। मुझसे पहले ही की तरह बात करो। मैं किसी से भी कुछ नहीं कहूँगी। किसी और को कुछ कहने भी नहीं दूँगी। कभी सच नहीं बोलूँगीं।'
मुझे अच्छी तरह याद है कि यह सब कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू आ गए थे। उन्हें देख कर मुझे बड़ा दुख हुआ। लेकिन क्या कहूँ, क्या करूँ मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मेरे फिर चुप रहने पर उसे लगा कि मैं नाराज़गी ख़त्म नहीं कर रहा हूँ, ज़िद पर अड़ा हुआ हूँ, तो वह फिर बोली कि, 'तुम समझते क्यों नहीं हो? यह नथुनी मैं कोई फ़ैशन में नहीं पहनती।
’मैं जब छोटी थी तब एक बार सीरियस बीमार हो गई थी। दवा-दुआ कुछ भी काम नहीं कर रही थी। किसी के कहने पर मनौती मानी गई थी। एक बाबा जी के पास जाने पर उन्होंने मंत्र फूँक कर नथुनी दी। उसको पहनने के दो-चार दिन बाद ही मैं ठीक हो गई।
’दुबारा जाने पर बाबा जी ने कहा कि जब-तक इसको पहने रहोगी तब-तक बीमार नहीं पड़ोगी। तभी से मैं इसे पहनती चली आ रही हूँ। एक बार कुछ दिन के लिए उतारा तो फिर बीमार पड़ गई। बीमार पड़ते ही फिर पहन ली। उसके बाद से कभी नहीं उतारती। टूटने पर दूसरी पूजा-पाठ करके ले आती हूँ। तुम्हें अगर यह ख़राब लगती है, तो लो मैं हमेशा के लिए इसे उतार देती हूँ। भले ही बीमार होकर मर जाऊँ।'
यह कहते हुए वह नथुनी उतारने लगी तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर रोकते हुए कहा, 'पागल हो गई हो क्या? मुझे बुरा नहीं लगता, अच्छा लगता है। हमेशा पहने रहो। मैं तुमसे ग़ुस्सा नहीं हूँ। बोलूँगा तुमसे।'
इसी समय लंच ख़त्म होने की घंटी बज गई तो मैंने उससे कहा, 'आँसू पोंछ कर क्लास में चलो, नहीं तो यहीं पर चोटी खींचना शुरू कर दूँगा।' यह सुनते ही उसे हँसी आ गई। आँसू पोंछते हुए एकदम उछल कर खड़ी हो गई। चहकती हुई ऐसे आगे-आगे चल दी जैसे किसी मासूम बच्चे ने किसी तितली को बड़ी देर से पकड़ रखा हो और फिर वह अचानक ही उस बच्चे की गिरफ्त से छूटते ही फुर्र से उड़ जाती है।
मैं भी पीछे-पीछे चल दिया। दिमाग़ मेरा ऐसा हल्का-फुल्का सा महसूस कर रहा था, जैसे कि परीक्षा कक्ष से आख़िरी पेपर देकर बाहर निकला हूँ, और मेरे सारे के सारे पेपर्स बहुत अच्छे हुए हों। लेकिन श्वेत सुंदरी मुझे ऐसा कोई मौक़ा नहीं दे रही थीं कि एक बार फिर वैसा ही हल्का-फुल्का महसूस करता। वह या तो बच्चों के साथ व्यस्त हो जातीं, या फिर अपने मोबाइल में।
ट्रेन क़रीब-क़रीब हर स्टेशन पर रुक कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हुई आगे बढ़ रही थी, लेकिन लंच टाइम आ गया और श्वेत सुंदरी के समक्ष मैं अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा सका। ट्रेन क़रीब दो बजे एक बड़े स्टेशन पर रुकी। उसे वहाँ जितनी देर रुकना था, दो एक्सप्रेस ट्रेनों की क्रॉसिंग के कारण उससे दस गुना ज़्यादा समय तक रुकी रही।
श्वेत सुंदरी लंच भी साथ लेकर चली थीं। ऐसे में मैं वहाँ बैठा नहीं रहना चाहता था। नीचे उतरने से पहले मैंने संवाद सूत्र स्थापित करने की ग़रज़ से उनसे सामान को देखते रहने का निवेदन किया। उन्होंने बेरुखी से सिर हिला कर हाँ कह दिया बस।
मैं बुझे दीये सा प्लेटफ़ॉर्म पर उतर गया। भूख मुझे भी लग रही थी लेकिन प्लेटफ़ॉर्म पर मिल रही पूड़ी-सब्ज़ी, या समोसा, खस्ता आदि खाने की हिम्मत नहीं कर पाया। ब्रेड-पकौड़े के बाद यह सब खाना बहुत ज़्यादा ऑइली चीज़ें हो जाएँगी यह सोचकर चार केले खा लिए कि अब घर पहुँचने तक फ़ुर्सत मिल जाएगी। इससे पूरी उर्जा भी मिल जाएगी और भूख भी नहीं लगेगी।
इतनी सारी ऊर्जा लेकर मैं फिर अपनी सीट पर आकर बैठ गया। वह ऊर्जा भी मुझे श्वेत सुंदरी का परिचय, पता जानने में कोई मदद नहीं कर सकी। बात वहीं अटकी रही। मैं इन्हें जानता हूँ, मिला हूँ, बार-बार इस श्वेत सुंदरी से मिला हूँ। यह मेरा भ्रम है, इस बात को मानने क्या, मैं ऐसा सोचने के लिए भी तैयार नहीं था।
तरह-तरह के तर्क-वितर्क के बावजूद मैं अपनी बात पर अडिग रहा, बिलकुल उसी तरह कि पंचों की राय ठीक है, लेकिन खुंटवा वहीं गड़ेगा। मेरे आने से पहले श्वेत-सुंदरी बच्चों संग लंच कर चुकी थीं। बच्चे फिर अपनी-अपनी जगह थे और माँ के हाथ पर मोबाइल फिर से आधिपत्य जमाए हुए था।
मैंने सोचा कि कितनी अजीब बात है कि पहले सहयात्रियों के बीच कितनी बातें होती रहती थीं। कितने ही सहयात्रियों के बीच हमेशा के लिए प्रगाढ़ मित्रता हो जाती थी। लेकिन यह न बोल रही हैं, न ही मुझे कोई अवसर दे रही हैं। कहीं मैं प्रयास ही कमज़ोर या ग़लत तो नहीं कर रहा हूँ।
गाड़ी चल दी लेकिन मेरी समस्या जहाँ की तहाँ बनी रही। मैं फिर नथुनी वाली सहपाठिनी की याद में खो कर 'कहाँ?' का उत्तर जानने का सूत्र तलाशने लगा। उस समय श्वेत सुंदरी दोनों पैर ऊपर करके ठीक वैसे ही बैठी थी, जैसे मेरी वह सहपाठिनी लंच टाइम में प्ले ग्राउंड की घास पर बैठ जाती थी। पालथी मारकर।
मेरी दृष्टि बार-बार श्वेत सुंदरी पर जाकर लौट आती। मुझे याद आया कि मैं ऐसे ही अपनी सहपाठिनी को देखा करता था। जब हम-दोनों इंटर में पहुँच गए थे, तब हमारी फिजिकल ग्रोथ-रेट, पढ़ाई, बाक़ी सारे सहपाठियों से दोगुनी थी। वो आठवीं के बाद ही दो-तीन वर्षों में इतनी तेज़ी से बढ़ी कि बीस-बाईस वर्ष की हृष्ट-पुष्ट युवती लगने लगी थी।
उसके अंग इतने विकसित, सुदृढ़ हो गए थे कि वह टीचर्स के बीच चर्चा का विषय बन गए। उसकी सहेलियाँ उसे छेड़तीं। स्कर्ट-ब्लाउज़ उस पर ऐसे लगते जैसे किसी भरी-पूरी औरत ने पहन लिए हों। मैं अब उसकी चोटी तो कम खींचता, लेकिन नथुनिया . . . चिढ़ाता पहले की ही तरह ख़ूब था। लेकिन वह सारे जवाब पहले ही की तरह देती थी। ज़ुबान निकाल कर चिढ़ाना जारी था।
अब मैं उसे देखने, छूने पर अजीब सी सिहरन महसूस करने लगा था। ऐसा करने पर उसके चेहरे पर भी अजीब सी लालिमा छा जाती थी। एक दिन ख़ाली पीरियड में मैं अकेला बैठा हुआ था। तभी वह अचानक ही आकर मेरे एकदम क़रीब बैठ गई।
इधर-उधर की कुछ बातें करने के बाद उसने सीधे-सीधे कहा, ‘तुम अब मुझसे पहले की तरह बातें क्यों नहीं करते। तुम्हें मुझको चोरी-छिपे देखने की ज़रूरत क्यों पड़ने लगी है। इतने बड़े हो गए हो, अब तो फ़्रैंक बनो। बहादुर बनो। तुम मुझे देखते हो तो सच कहती हूँ कि, मुझे अच्छा लगता है। मन करता है कि तुम देखते ही रहो। और मैं तुम्हारे सामने से हटूँ ही नहीं। मैं तो कहती हूँ कि रोज़ हम-लोग कहीं ऐसी जगह मिलें जहाँ तुम जी भर-कर जैसे चाहो वैसे मुझे देखते रहो, और मैं तुम्हें।'
यह कहते हुए उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मुझे लगा कि उसके हाथ बहुत गर्म हैं। जैसे हल्का फ़ीवर हो। हथेलियाँ पसीने से भीगी हुई लग रही थीं। मैं कुछ बोलता उसके पहले ही वह मुझसे बिल्कुल सट गई। लेकिन तभी और साथियों के आने की आहट मिली तो मैंने कहा, 'अब तुम जाओ।' वह तुरंत मुँह बनाती हुई उठ कर चली गई।
मैं यह सब सोच ही रहा था कि तभी श्वेत-सुंदरी के मोबाइल पर कोई कॉल आ गई। उधर जो भी था उससे उसने बहुत ही उपेक्षा-पूर्ण ढंग से संक्षिप्त बातचीत की और फिर मोबाइल में जुट गई। मैंने देखा कि बात करते समय उसके चेहरे पर खिन्नता के जो भाव उभर आये थे वो बाद में भी बने रहे। कुछ ही देर में उसने मोबाइल ऑफ़ करके रख दिया। मैंने सोचा अब ख़ाली हुई हैं। जल्दी ही शुरुआत करूँ बात करने की। इनका क्या ठिकाना, कहीं फिर न व्यस्त हो जाएँ।
लेकिन क्या, कैसे शुरू करूँ यह कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। मैंने सोचा वही पुराना फ़िल्मी राग अलापता हूँ कि मुझे लगता है कि मैंने पहले कहीं आपको देखा है। कहाँ की रहने वाली हैं आप? मगर यह सोचकर ठहर गया कि कहीं यह श्वेत-सुंदरी नाराज़ ना हो जाएँ। मुझे लफंगा-बदमाश समझकर कोई बखेड़ा न खड़ा कर दें। नथुनी वाली और 'कहाँ?' का उत्तर जानने के चक्कर में लेने के देने न पड़ जाएँ।
बड़ी विचित्र हो रही थी मेरी हालत। वह कुछ ग़लत न समझ लें यह सोच कर जैसे ही ठहरता, वैसे ही मन प्रचंड रूप से व्याकुल हो उठता कि नहीं इनसे जानना ही है कि हम कहाँ मिले या मिलते थे। इस कोशिश में एक बार फिर मुझे लगा कि मैंने सूत्र का सिरा पकड़ लिया है।