द्वारावती - 38 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 38



38



“केशव, कृष्ण का एक नाम केशव भी है ना?” गुल ने पूछा। केशव ने गुल को देखा। वह दूर स्थित मंदिर की धजा को देख रही थी।
“गुल, आज ऐसा प्रश्न क्यूँ?”
“प्रथम मेरे प्रश्न का उत्तर दो पश्चात तुम्हें जो प्रश्न करना हो , करना।”
“कृष्ण, श्याम, मुरली मनोहर, वासुदेव, रणछोड़, पुरुषोत्तम, योगेश्वर, देवकी नन्दन, यदुनंदन, गोपाल, रासबिहारी, गोवर्धनधारी, व्रजेश, ब्रिजबिहारी, गोविंद, ... ।”
केशव बोले जा रहा था, गुल उसे विस्मय से देख रही थी।
“रुको, रुको। रुक जाओ केशव।” केशव रुक गया।
“क्या हुआ गुल?”
“यह क्या कहे जा रहे हो? मेरी समज में कुछ नहीं आ रहा।” मुख पर प्रश्नार्थ लेकर गुल केशव को देखने लगी।
“यह सभी कृष्ण के नाम है। हाँ, केशव भी कृष्ण का ही नाम है।”
“इतने सारे नाम?”
“यह तो कुछ ही नाम बताए जो प्रचलित है। वास्तव में कृष्ण के हजार नाम है।”
“मुझे विश्वास नहीं हो रहा। एक व्यक्ति के एक हजार नाम? यह कैसे संभव हो सकता है?”
“यह विषय संभावना का नहीं है, यह सत्य है। इसमें संभावना की कोई संभावना ही नहीं।”
“किन्तु,… ।”
“यदि तुम्हें इस पर कोई संदेह हो तो मैं प्रमाण दे सकता हूँ।”
“तो दो प्रमाण।”
“मैं तुम्हें कल एक पुस्तक दूंगा। उसमें कृष्ण के सभी नाम दिये हैं। प्रत्येक नाम का अर्थ तथा वह नाम कैसे पड़ा उसकी कथा भी है। तुम उसे पढना। तुम्हें उस पुस्तक पढ़ने में रुचि है क्या?”
“कल वह पुस्तक अवश्य लाना।”
“अवश्य।”
“अब यह बताओ कि तुम्हारे कितने नाम है?”
“मैं कृष्ण नहीं, केशव हूँ। मेरा तो एक ही नाम है।”
“तुम बांसुरी बज़ाना जानते हो?”
“नहीं। क्यों पूछ रही हो?”
“वहाँ दूर खड़े मंदिर को देख रहे हो? कल मैं उसे देख रही थी तब मुझे प्रतीत हुआ कि भगवान द्वारकाधीश स्वयं कृष्ण के रूप में बांसुरी बजा रहे हो। मैं उस बांसुरी की धून से खींची जा रही थी। मैं उस दिशा में चलती रही। चलते चलते मैं कहाँ जा पहुंची, ज्ञात है तुम्हें?”
“नहीं।”
“केशव, जब बांसुरी की धुन बंद हो गई तब मैं उस मंदिर के प्रवेश द्वार पर खड़ी थी।”
“पश्चात क्या हुआ, गुल?”
“कुछ क्षण मैं मंदिर को देखती रही, धजा को देखती रही। मैं स्वत: मंदिर के भीतर प्रवेश कर गई।”
“तुम मंदिर जाकर आई? क्या देखा वहाँ? भगवान के दर्शन किए? क्या क्या अनुभव हुआ वहाँ? कहो, गुल, सब कुछ कहो।”
“नहीं केशव, मैं कुछ नहीं कहूँगी।”
“क्यों? मैं उत्सुक हूँ ।”
“मंदिर के विषय में यदि इतने उत्सुक हो तो तुम स्वयं ही मंदिर क्यों नहीं जाते?”
केशव मौन हो गया। गुल ने कुछ क्षण प्रतिक्षा की किन्तु मौन नहीं टूटा।
“क्या बात है केशव? तुम तो मौन ही हो गए।”
“गुल, मैं भी एक बार मंदिर में गया था।”
“ तो तुमने वह सब कुछ देखा होगा जो मैंने देखा है। तुमने मुझे अभी मंदिर के विषय में जो जो प्रश्न कीये उन सभी का उत्तर स्वयं तुमने देखा है। तो मुझ से यह प्रश्न क़्यों?”
“मेरे मंदिर जाने की घटना अब तो प्राचीन हो गई। जब मैं इस नगरी में आया था तब मंदिर गया था। तत् पश्चात कभी नहीं गया।”
“क्यों? क्या कारण है? तुमने भगवान द्वारकधिसजी के दर्शन तो किए थे ना?”
“दर्शन नहीं कर पाया”
“मंदिर गए और दर्शन नहीं कर पाए? ऐसा कैसे हो सकता है?”
“ मैं यहां संस्कृत पढ़ने आया हूँ, ज्ञान प्राप्त करना मेरा उद्देश्य है। उस समय मैं कुछ भी ज्ञान नहीं रखता था। संस्कृत से कोई परिचय नहीं था। तब मैंने देखा था कि मंदिर में अनेक ब्राह्मण संस्कृत के श्लोकों को - मंत्रों को बड़े आत्मविश्वास भरे स्वर में बोल रहे थे। मैं उन्हें देखता रह गया और भगवान के द्वार बंद हो गए। भगवान शयन करने लगे और मैं दर्शन कर नहीं सका। किंतु ब्राह्मणों के प्रचंड स्वर से जो ध्वनि उत्पन्न हो रही थी वह मुझे प्रेरणा दे रही थी तो साथ साथ मुझे क्षोभ भी हो रहा था।”
“प्रेरणा तथा क्षोभ? दोनों एक साथ?”
“वह ध्वनि मुझे सूचित कर रही थी कि संस्कृत भाषा सशक्त है, ओजस्वी है, प्रभावी है। उसमें लय है, संगीत है, उत्साह है। यही सब मुझे प्रेरित कर रहा था संस्कृत भाषा सीखने को। उसी क्षण मैंने निश्चय कर लिया था कि मैं भी संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त कर इसी प्रकार भगवान को प्रचंड नाद से मंत्र सुनाऊँगा। मैं भी पंडितों की पंक्तियों में सम्मिलित हो जाऊंगा।”
“यही प्रेरणा से तो तुम इतना ज्ञान प्राप्त कर सके हो। किन्तु क्षोभ क्यों?”
“क्षोभ होने के दो कारण थे। एक, मुझे संस्कृत का, शास्त्रों का कोई ज्ञान नहीं था तथापि ब्राह्मणों की भांति पीताम्बर पहने रखा था। यज्ञोपवीत भी धारण कर रखा था। किन्तु मैं ज्ञानशून्य था। ब्ब्राह्मणों की भांति परिवेश धारण करने से तो ब्राह्मण नहीं बना जा सकता, पंडित नहीं बना जा सकता। उस समय मुझे ब्राह्मण होने पर क्षोभ हुआ था।” केशव ने एक नि:श्वास के साथ कहा।
“तथा दूसरा कारण?”
“दूसरा कारण मुझे मेरी पाठशाला तक ले जाता है। कदाचित सभी पाठशाला तक ले जाता है। मैं जहां पढ़ता था वहाँ अंग्रेज़ी के साथ अन्य कई भाषाएँ सिखाई जाती थी- उर्दू भी, फ्रेंच भी। मैंने उर्दू तथा फ़्रेंच थोड़ी सीख भी ली थी, मैं उसे बोलने भी लगा था। वह भाषा बोलने में मुझे गर्व होता था। मुझे प्रतीत हो रहा था कि मैं विश्व की सशक्त भाषा का ज्ञान रखता हूँ। किन्तु जब संस्कृत भाषा से परिचय हुआ तो यह ज्ञात हुआ कि संस्कृत ही सबसे सशक्त भाषा है, वही अन्य भाषाओं की जननी भी है।”
“इसमें क्षोभ कि क्या बात है?”
“बात यही है कि हमारी पाठशाला में संस्कृत ही नहीं पढ़ाई जाती थी। जैसे संस्कृत का कोई अस्तित्व ही ना हो। वह उपहास का केंद्र, परिहास का विषय बन जाती थी। वह कहते थे कि संस्कृत मृत:प्राय हो गई है। उसमें कोई जीवन ही नहीं है। वह किसी काम की नहीं है। कुछ ही वर्षों में यह भाषा समाप्त हो जाएगी। लुप्त हो जाएगी। उस निष्प्राण भाषा को कोई नहीं सीखता, कोई नहीं सिखाता।”
“इतने समय से संस्कृत सीखने पर अब तुम्हारा क्या अभिप्राय है?”
“संस्कृत से अधिक प्राणवान कोई भाषा नहीं। उस दिवस के क्षोभ के स्थान पर आज मुझे गर्व हो रहा है।”
“तो तुम अब तो मंदिर जा सकते हो। भगवान के समक्ष अपने प्रचंड स्वर से ओम् का नाद कर सकते हो। किसने रोका है तुम्हें, केशव?”
“गुल, कोई किसी को रोक नहीं सकता। हम स्वयं ही अपने आप को रोक लेते हैं। हमारे भीतर कोई है जो हमें कुछ करने को प्रेरित करता है तो कुछ करने से रोकता भी है।”
“क्या है वह? कौन है वह?”
“अनभिज्ञ हूँ मैं उस बात से।”
“तुम्हारे भीतर के उस अज्ञात को मैं प्रार्थना करती हूँ कि वह तुम्हें मंदिर जाने की अनुमति दे, प्रेरणा दे।” गुल ने हाथ जोड़ लिए, “हे भीतरी केशव, इस केशव को मंदिर जाने की आज्ञा दें, अनुमति दें तथा भगवान के सन्मुख ओम् के नाद का अनुरोध करें।”
“ तथास्तु।” दोनों ने किसी अद्रश्य ध्वनि को सुना।
“सुना तुमने केशव? किसीने तथास्तु कहा। उसका अर्थ तो तुम्हें ज्ञात ही है।”
“हाँ, सुना मैंने। उसका अर्थ जानता हूँ मैं तथा तुम्हारे व्यंग का भी।”
“तो कब जा रहे हो मंदिर?”
“शीघ्र ही।”
“मैं भी साथ चलूँगी।”
“तुम अभी तो जा कर आई हो।”
“तो क्या? मैं तो बार बार जाना चहुंगी। तुम ले चलो तो ठीक है नहीं तो ... ।”
“नहीं तो ?”
“मैंने मंदिर जाने का मार्ग देखा है।” गुल हंस पड़ी।
“ठीक है, हम दोनों चलेंगे।”
“तो चलें?”
“अभी?”
“क्यों नहीं?”
दोनों मंदिर की तरफ चलने लगे।
“गुल, मंदिर में क्या क्या देखा कहो। मार्ग में बातें करने से मार्ग कट जाएगा।”
“केशव, मार्ग कोई भी हो कट ही जाता है- प्रतीक्षा करते हुए भी, लक्ष्य की कल्पना करते हुए भी, बातें करते हुए भी, मौन रहते हुए भी।”
दोनों मौन हो गए। मार्ग कटता रहा।