वंश - भाग 10 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

वंश - भाग 10

दस

सुष्मिताजी अपने आवास के बाहरी कक्ष में पन्द्रह-बीस लोगों के साथ बैठी दूरदर्शन देख रही थीं। 'खोये हुए व्यक्तियों’ की सूचना चल रही थी। टी.वी. के पर्दे पर सामने जब एक गुमशुदा चेहरा आया तो सुष्मिताजी को एकदम बिजली का-सा झटका लगा। एक चौदह वर्षीया लड़की का फोटो था। सन्न रह गईं सुष्मिताजी। चित्र देखते ही एकाएक उसे पहचान नहीं पाईं। फिर भी वह चेहरा उन्हें अच्छी तरह से देखा हुआ लग रहा था। बहुत जोर डाला उन्होंने दिमाग पर, सोच-सोच कर परेशान-सी होने लगीं। यह मासूम और भोला-सा चेहरा कहाँ और कब देखा था उन्होंने। सुष्मिताजी आत्मकेन्द्रिता, घर-परिवार में खोई रहने वाली साधारण घरेलू नारी नहीं थीं, कि एक बार के देखे चेहरे को भूल जाएँ। वे इतना तो तुरंत ही पहचान गई थीं कि यह शक्ल उनकी भली-भाँति देखी हुई है। परन्तु कौन है, कहाँ देखी है, यह एकाएक याद नहीं कर पाईं।

उनकी यह उलझन क्षणिक ही रही। चित्र को जरा स्थिर करके जब बच्ची का नाम-पता बोला गया तो सुष्मिताजी के सिर पर हथौड़ा-सा पड़ा। वे लड़की के नाम और पते से पूरी तरह वाकिफ नहीं थीं, फिर भी 'भाग्यश्री जैन’ और 'पिंपरी’ सुनकर उन्हें सब याद आ गया। पिंपरी का नाम सुनते ही वे जान गईं, यही चेहरा तो उन्होंने एक बार रेलयात्रा के दौरान स्टेशन पर किरण को छोड़ने आये हुए उसके पति के साथ देखा था।

वे स्मृतियों में कूद गईं। गाड़ी आने में जब काफी वक्त था तो सुष्मिताजी ने भली-भाँति देखा था कि उनके साथ ही साथ जा रही सहयात्रिणी किरण के तीनों बच्चे उसके साथ ही भीतर कंपार्टमेंट में आकर बैठ गये थे और किरण के पति तथा उन बच्चों के पिता डिब्बे की खिड़की पर काफी देर तक खड़े रहे थे। भाग्यश्री किरण की बड़ी बेटी थी, जो किरण और उसके बेटे के दिल्ली के लिए रवाना होने के बाद अपने पापा तथा छोटी बहन के साथ घर लौट गई थी। सुष्मिताजी ने सरकती गाड़ी के झरोखे से देखा था उस मासूम बच्ची को अपनी माँ को हाथ हिलाते हुए। बच्ची समझदार थी, इसलिए अपनी छोटी बहन की भाँति रोई नहीं थी, पर उसकी आँखों को देखकर कोई भी भांप सकता था कि उदासी व्यक्त हो या अव्यक्त, कोई विशेष अंतर तो नहीं होता दोनों में। उस समय वह बच्ची यह भी नहीं जानती थी कि उसके माँ बाप का स्वयं उनके साथ और बच्चों के साथ कितना बड़ा छल चल रहा है। ऐसे माँ-बाप जो पारस्परिक रिश्ते निभा न पाने के कारण बच्चों के लिए नरक गढ़ देते हैं, आखिर छल-धोखा ही तो करते हैं उनके साथ।

......और उसके बाद सुधीर नाम के उस युवक की हत्या हुई। स्वयं सुष्मिताजी के ही घर में, उनकी मेहमाननवाजी को बट्टा लगाते हुए। और फिर इस कत्ल की जांच-तफ्तीश के दौरान दिल दहलाने वाला वह राज सुष्मिताजी पर जाहिर हुआ था कि सुधीर का संबंध एक घोर अपराधी गिरोह से था। उसी पिशाच-दल ने किरण की बेटी इसी भाग्यश्री को उड़ाकर उन्हें सौंपने की जिम्मेदारी सुधीर को दी थी जिसे पूरा करने से पूर्व ही वह दिशा-भटका युवक मारा गया था, उन्हीं के हाथों, सुष्मिताजी के घर में। बाद में इंसपेक्टर जयकुमार की बहादुरी और कर्त्तव्य-निष्ठा से इस मामले में जगह-जगह पर कई लोग पकड़े गये थे और दिल्ली, बंबई जैसे नगरों में सक्रिय एक गिरोह का पर्दाफाश होने का अनुमान पुलिस द्वारा लगाया गया था, सरकार द्वारा प्रचारा गया था।

लेकिन आज, अब भाग्यश्री का 'खो जाना’ उन्हें मुँह चिढ़ाकर बता रहा था कि आखिर पुलिस की सच्ची-झूठी मुस्तैदी के बावजूद वे लोग अपने मकसद में सफल हो ही गये थे। अन्तत: सुधीर के कत्ल के बाद भी उन्होंने किरण की बेटी को अपने धंधे का कच्चा माल बनाने के लिए चंगुल में ले ही लिया। शायद सुधीर के खून का कारण भी यही था कि वह किरण के प्यार में सचमुच डूब गया था और अब भाग्यश्री के अपहरण में वह उन्हें दिल से सहयोग नहीं कर पा रहा था। सुधीर की ओर से होने वाली ढील और टालमटोल से वे लोग समझ गये कि सुधीर अब अपनी प्रेमिका की पुत्री को उनके हत्थे चढ़ने देने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं रखता तो उन्होंने सुधीर को ही सदा के लिए सुला दिया ताकि उनका खेल बिना बाधा आसानी से चलता रहे और सुधीर को भी उनके साथ दगा करने का सबक मिले, साथ ही वे सारे राज भी सुधीर के साथ ही दफन हो जायें जो उनके पेशे के संबंध में सुधीर जानता था। एक जिम्मेदार पति और शरीफ शहरी की तरह जीने के लिए सुधीर को छोड़ देना उन्होंने गवारा नहीं किया।

और सुष्मिताजी विचलित हो गईं।

आखिर उनका रिश्ता क्या था भाग्यश्री से, किरण से, सुधीर से?

नहीं, नहीं! ऐसी बातें सुष्मिताजी से नहीं करे कोई। सुष्मिताजी का रिश्ता था उससे। अपनी निगाह की जद में आ पड़ने वाली हर दुखियारन से सुष्मिताजी का रिश्ता है। और पीड़ा दिखेगी तो उसे पीड़ा ही समझेंगी सुष्मिताजी... अपनी पराई के फेर में पड़ने का सब्र नहीं है उनके पास।

उनसे बैठे नहीं रहा गया। वह एकदम उठ खड़ी हुईं और भीतर चली गईं। वहाँ बैठी महिलाओं, बच्चों, चौकीदार मनोहर, किसी को कोई फरक नहीं पड़ा। सब टी.वी. देखने में मग्न रहे। लेकिन जब दस-पन्द्रह मिनट बाद भी भीतर से सुष्मिताजी नहीं लौटीं तो थोड़ी फुसफुसाहट आरंभ हुई। मैडम कहाँ गयीं? अरे दीदी नहीं देख रहीं टी.वी...... आवाजें आने लगीं।

एक-दो लड़कियाँ उठीं, उन्हें भीतर देखने के लिए, बुलाने के लिए। अन्दर जाकर देखा तो एक भीतर के कमरे में सुष्मिताजी लेटी हुई थीं। सिर पर गीले रूमाल की एक पट्टी लपेटी हुई थी। 

–अरे, क्या हुआ दीदी...? तबीयत तो ठीक है?

–दवा लाऊँ....सिर दबा दूँ क्या....

–नहीं-नहीं, कोई विशेष बात नहीं है। जरा सिर में दर्द है। तुम लोग जाओ। प्रोग्राम देखो। मैं अभी आ जाऊँगी थोड़ी देर में। परेशान होने की बात नहीं है।

लड़कियाँ वापस लौट आईं।

उनके बाहर के कक्ष में लौटते ही सबकी निगाहें उनकी ओर उठ गईं, मानो सब जानना चाहते हों, कि वे कहाँ हैं, क्यों नहीं आ रहीं, क्या हो गया। लेकिन एक लड़की ममता ने धीरे-से पास बैठी दो युवतियों को बताया कि उनके सिर में दर्द है तो सभी आश्वस्त होकर फिर से दूरदर्शन के तमाशे को निहारने में व्यस्त हो गये।

रात को सुष्मिताजी ने खाना भी नहीं खाया, और वे जल्दी ही सो गईं। मन की थकान तन की थकान से कहीं ज़्यादा मारक होती है। बेदम कर देती है। नारी-निकुंज के अहाते में ही बने सुष्मिताजी के आवास में उस रात रोशनी जल्दी ही बुझ गई। टी.वी. कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद बाहर के कक्ष से भी सभी लोग निकलकर चले गये थे। चौकीदार मनोहर ताला लगाकर लौट चुका था। बस्ती धीरे-धीरे सन्नाटे का बिस्तर खोलकर अँधेरे की चादर और खामोशी की दरी बिछाने लगी थी, सोने के लिए। पंछी-परिंदे तक नीरवता–निस्तब्धता से खौफ खाकर अपने-अपने नीड़ में दुबक गये थे जैसे। शहर के एक किनारे की बसाहट होने की वजह से वैसे भी इस इलाके की हलचलें जल्दी ही उठने लगती थीं।

रात का लगभग तीसरा पहर शुरू हुआ होगा कि एक कार तेजी से चलती हुई और धूल उड़ाती हुई एक झटके से नारी-निकुंज के मुख्य द्वार पर रुकी। मनोहर एक खाट पर दरवाज़े के समीप ही सोया पड़ा था। आवाज सुनते ही जाग गया। और उठकर पास ही दीवार में बने एक खोह में दरवाज़े के ताले की चाबी टटोलने लगा।

दरवाज़ा खुलते ही कार सर्र से भीतर आई, और अधीक्षिका आवास के सामने जोर से उसके ब्रेक लगे। झटके से चारों दरवाज़े एक-साथ खुल गये। लेकिन तीन दरवाज़ों से कोई बाहर आया नहीं। केवल एक दरवाज़े से ड्राइवर की सीट के दूसरी ओर बैठा एक व्यक्ति बाहर निकला। शेष सभी भीतर ही बैठे रहे। लगभग सात-आठ आदमी ठुंसे हुए थे उस कार में। चलाने वाला छोटी-सी दाढ़ी वाला एक युवक था। वह स्टियरिंग पर उसी तरह बैठा रहा।

बाहर निकले व्यक्ति ने आगे बढ़कर अधीक्षिका आवास का दरवाज़ा धीरे-से खड़काया। दरवाज़े पर कॉलबेल भी थी पर उस व्यक्ति ने घण्टी को अनदेखा करते हुए दोबारा भी धीरे से दरवाज़ा ही खड़काया। थोड़ी-सी प्रतीक्षा के बाद दरवाज़ा खुला और बाहर निकलीं सुष्मिताजी, जो इतनी रात गये एक कार को अपने घर के दरवाज़े के इतना समीप आकर रुके देख सकते में आ गई थीं। उनके सामने खड़ा व्यक्ति लगभग छह फुट कद का एक बलिष्ठ-सा व्यक्ति था। उम्र होगी यही कोई अट्ठाईस-तीस साल। मजबूत कद-काठी और चुस्त कपड़ों वाला कोई सभ्य-सा पढ़ा-लिखा दिखाई दे रहा था वह। दरवाज़ा खुलते ही उसने धीरे-से नमस्ते की सुष्मिताजी से। फिर तुरंत ही बोला-

–सॉरी मैडम! इतनी देर रात को आकर आपको डिस्टर्ब किया। मेरा नाम श्रीकांत है। ज्ञान स्वरूप जी के साथ शायद आपने कभी देखा भी होगा मुझे। ज्ञान स्वरूप जी का नाम इस अन्दाज में लिया गया था कि जान लो, यदि नहीं पहचाना हो तो अब पहचान लो, किसका आदमी हूँ। परन्तु सुष्मिताजी पर इस अन्दाज का कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा। उसी सहजता से, थोड़े परेशान-से स्वर में बोलीं–हाँ कहिये, क्या काम है? कैसे आना हुआ?

–मैडम हम लोग जयनगर से आ रहे थे। रास्ते में गाड़ी खराब हो गई। इसी से इतनी देर हो गई पहुँचने में। आपको शायद फोन पर संदेश भी मिला होगा हमारा... फिर कुछ पल ठहरकर युवक ने सुष्मिताजी की प्रतिक्रिया देखी, पर शीघ्र ही वह समझ गया कि उन्हें कोई संदेश नहीं मिला। तब उसने आगे बोलना शुरू किया–जरा वह सभाग्रह के साथ वाले कमरे की चाबी चाहिये थी... वो स्टोर है ना पीछे वाला... उसकी!

–लेकिन सभाग्रह तो अर्से से ऐसे ही बंद पड़ा है। वहाँ टूटा-फूटा सामान और न जाने क्या-क्या काठ-कबाड़ पड़ा हुआ है। सुष्मिताजी ने अब बिना हैरान हुए कहा।

–कोई बात नहीं मैडम... कोई बात नहीं... हम... हमें.... हमें सुबह वापस निकलना ही है। सामान रखवाना था थोड़ा.. हम जल्दी ही निकल जायेंगे सुबह।

–क्या सामान है, लाइये यहाँ रखवा दीजिये। युवक के अटकने-हिचकने के कारण सुष्मिताजी के स्वर में जरा संदिग्धता की सख्ती आ गई।

–यहाँ?... यहाँ नहीं.. आप प्लीज, चाबी ही दे दीजिये ना...

–चाबी! देखिये, आप बुरा मत मानियेगा, मैंने आपको पहचाना नहीं है और न ही मुझे आपका या किसी और का कोई संदेश मिला है। मैं चाबी ऐसे नहीं दे सकती..... आपको सामान जो भी रखवाना है यहाँ रखवा दीजिये बेशक... बाहर चौकीदार है वह आपकी मदद करेगा। अब सुष्मिताजी ने दो टूक स्वर में कहा।

युवक एक पल ठिठका फिर कुछ सोचकर वापस कार की ओर पलटा। सुष्मिताजी उसी तरह खड़ी रहीं खुले दरवाज़े पर।

युवक कार की खिड़की के पास जाकर भीतर झांककर कुछ फुसफुसाया। उसने न जाने क्या कहा, भीतर वाले साथियों से। तभी दरवाज़ा खुला और दो व्यक्ति और उतर आये कार में से। एक वहीं खड़ा हो गया कार के पास और दूसरा सुष्मिताजी के पास, सामने आ गया।

–आप चाबी दे दीजिये ना मैडम.... युवक ने झुंझलाए-से स्वर में कहा।

–आपकी तारीफ। सुष्मिताजी ने सख्ती कायम रखी।

–तारीफ तो पता चल ही जायेगी सवेरे तक। वैसे मेरा नाम शराफत है।

सुष्मिताजी ने देखा, मुश्किल से अट्ठारह-उन्नीस साल का छोकरा-सा दिखने वाला यह लड़का पहले वाले की तुलना में स्वर की बदतमीजी के कहीं ज़्यादा निकट था। हावभाव भी स्वर का ही साथ दे रहे थे।

सुष्मिताजी ने दरवाज़े से जरा बाहर निकलकर चौकीदार को आवाज लगाई और फिर पलट कर उन युवकों से मुखातिब हुईं।

तीन-चार युवक और कार में से बाहर निकल आये और आपस में कुछ कानाफूसी-सी करने लगे। कार के भीतर की भीड़ जरा कम होते ही सुष्मिताजी ने अँधेरे में भी देखा, कार के भीतर कोई महिला भी है। वे तुरंत कार के पास तक आईं और खिड़की से भीतर की ओर झांककर बोलीं–आइये आप लोग बाहर, कहाँ से आ रहे हैं...

लेकिन तभी अँधेरे में भी यह देखकर वह दंग रह गईं कि कार के भीतर बैठी महिला, बल्कि किशोरवय की युवती के गले में पास ही बैठे एक पुरुष की बलिष्ठ कोहनी ने अण्टी दे रखी थी और इतना ही नहीं, बल्कि लड़की के मुँह पर एक कपड़ा भी बँधा हुआ था। भीतर की लाइटें जलाई गईं न होने पर भी सुष्मिताजी साफ देख पाईं कि युवती अकेली थी और आदमी दो-तीन और भी थे भीतर, जिन पर सुष्मिताजी के बोलने-बात करने का कोई असर नहीं पड़ा था।

सुष्मिताजी जोर से चिल्लाईं –मनोहर! मनोहर... जल्दी आओ... इधर आओ लेकिन वे यह देखकर हैरान रह गईं कि सामने कुछ ही दूरी पर उनकी आँखों के सामने खड़ा उनका मोटा-तगड़ा कद्दावर चौकीदार उनके बुलाने पर भी पास नहीं आया। वे बदहवास-सी हो गईं, और नारी-निकुंज के मुख्य भवन के द्वार की ओर बढ़ने को मुड़ी ही थीं कि उन्हें अपने सिर पर एक जोरदार वार का एहसास हुआ। फिर वे अचेत हो गईं, और चेतना जाते-जाते भी इतना महसूस कर पाईं कि किसी बलिष्ठ से व्यक्ति ने उन्हें हाथों में उठाकर कमरे के भीतर ले जाकर डाल दिया है और दरवाज़ा भड़ाक की आवाज के साथ बाहर से बंद कर दिया गया है।

उसके बाद सुष्मिताजी को कुछ याद नहीं कि क्या हुआ क्या नहीं हुआ... परन्तु जब उनकी आँख खुली तो उन्होंने अपने को आठ-दस लोगों के बीच घिरा पाया। भगदड़-सी मची हुई थी। सवेरा हो चुका था। उनके निकुंज की कुछ महिलाएँ, उनकी नौकरानी तथा आस-पास के और कुछ लोग आँख खुलने के बाद भी गिर्द की भीड़  की चीमिगोइयों के बीच उनका ध्यान अपने माथे की चोट पर न जा सका, जहाँ अब पट्टी बाँध दी गई थी। पुलिस के दो सिपाही भी उनके दरवाज़े के बाहर खड़े थे और कोई भी उनसे कुछ बोलने का साहस नहीं कर पा रहा था। थोड़ी देर बाद जब वातावरण पर से बर्फ हटी तो... सुनाई पड़ा सुष्मिताजी को।

उनके नारी-निकुंज के पीछे के हिस्से में, जिसमें एक टूटा-फूटा खण्डहरनुमा सभाग्रह था और साथ ही पुराना सामान रखने का एक स्टोर... वहाँ काठ-कबाड़ के बीच ही एक चौदह वर्षीया बालिका के साथ भयानक बलात्कार हुआ था। एक कार के पहियों के निशान भी सुष्मिताजी के आवास से होकर वहाँ कोठरी तक पहुँच कर, मानो रात की सारी गाथा कह रहे थे। बाहर का गेट, जिसका ताला सुबह दूध वाले के आने के बाद मनोहर खोला करता था, आज तड़के ही खुला पड़ा था। चौकीदार मनोहर फरार था, उसका कहीं कोई अता-पता नहीं था। लड़की क्षत-विक्षत परन्तु मृत नहीं, अचेतावस्था में पिछवाड़े पाई गई थी, जिसे सुबह की सैर के लिए निकली निकुंज की ही कुछ महिलाओं ने देखा... और हाय-तौबा मच गई थी। फिर आनन-फानन में भीड़ इकट्ठी हो गई... सुष्मिताजी दरकारी गईं.. आवास का दरवाज़ा बाहर से बंद पाकर दहशतजदा माहौल और भयातुर हो आया। ऐसे में बाहर का ताला तोड़कर दरवाज़ा खोला गया और भीतर पाई गईं सुष्मिताजी... स्वयं बेहोशी की हालत में। इस बात का प्रबल साक्ष्य बनीं कि जो काली छाया निकुंज पर उतरी, पहले जटायु-सी सुष्मिताजी ही उससे दो-चार हुईं, उन्हें बेहोश-बेदम करके ही दरिंदे अपना कुकृत्य अंजाम दे पाये थे... लेकिन कुछ किया न जा सका और असहाय-अकेली सुष्मिताजी, जिन्हें उस रात अपने चौकीदार कहे जाने वाले मुस्टण्डे का भी सहयोग नहीं मिला, एक नई हताशा का सुलगता केन्द्र बनीं।

लड़की जीवित थी और अस्पताल से लाकर वहीं एक कक्ष में पुलिस की देख-रेख में रखी गई थी। एक नर्स वहाँ तैनात थी, दो पुलिस वाले...। लुटी गठरिया की सरकारी हिफाजत और इससे ज़्यादा हो भी क्या सकती है।

लड़की शायद किसी इंजेक्शन से सुला दी गई थी ताकि इक्कीसवीं सदी में जाती दुनिया से उस नन्ही मासूम जान के नन्हे मस्तिष्क के बारीक तार कोई सवाल न कर बैठें, अपने दिमाग से अपना संबंध न जोड़ पाएँ...... कुछ न सोच पाएँ, कम से कम इतनी मदद तो डॉक्टरों ने उपलब्ध करवा ही दी थी।

सुष्मिताजी प्राथमिक उपचार और एफ.आई.आर. आदि दर्ज होने के कार्य के बाद वापस अपने आवास में आ गई थीं और सिर पर चौड़ी-फैली पट्टी लिये बोझल आँखों से आने-जाने वाले लोगों के हुजूम को ताकती जा रही थीं। शहर के लोग जैसे उमड़ पड़े उस ओर। हर दस-पाँच मिनट के बाद दस-बारह लोगों का एक झुण्ड-दस्ता चला आता। फुसफुसाहट, बार-बार घटना-बयानी, हैरानी, अविश्वास और अन्तत: चुप्पी। सिलसिला अनवरत चलता रहा। सुष्मिताजी की तीमारदारी में खड़ी युवतियों के भीड़ को थाम पाने के प्रयास पर्याप्त नहीं हो रहे थे। बार-बार हटाने, मना करने के बाद भी लोग सुष्मिताजी के इर्द-गिर्द ही रहना चाहते थे, मानो इस सार्वजनिक प्रदर्शन में सुष्मिताजी के करीब से करीब रह पाना ही भीड़ में अपनी अहमियत की वरिष्ठता को सिद्ध कर पाना हो। जब-जब रेले को रोक पाने में लड़कियाँ नाकाम होतीं, पास के कमरे में लुटे खजाने-सी बालिका के औपचारिक पहरे पर बैठे पुलिसियों को बार-बार उठकर आना पड़ता। मिलने आने वाले समूह को नियंत्रित करने के प्रयास के बावजूद वहाँ धीरे-धीरे अव्यवस्था, अराजकता का सा माहौल बनता जा रहा था। सरकारी ओहदों पर बैठे गणमान्य व्यक्ति, सम्पन्न प्रतिष्ठित व्यापारी, अनेकों अन्य लोग और महज तमाशबीन भी, बारी-बारी आते ही चले जा रहे थे। कुछ एक बात पता लगाकर वापस जा रहे थे, कुछ स्थायी रूप से वहीं एकत्र होते जाकर समूह को भीड़ की शक्ल अख्तियार करने पर विवश कर रहे थे। लौटने वालों की अकुलाहट में भी उनकी किसी कार्य में व्यस्तता नहीं थी, बल्कि लौटकर और चार को अपनी आँखों देखी सुनाने की ललक ज़्यादा थी। अत: जो जा रहे थे सो भी भीड़ को और बढ़ाते जाने का इन्तजाम-सा करते ही जा रहे थे। जो लौट लेता सो ही चार और भेजता। जो न लौटता सो तो वहाँ होता ही। शहर की आबादी इलाके में घिरने लगी।

शायद यह अव्यवस्था और अराजकता भी किसी 'व्यवस्था’ के जन्म की प्रसव-पीड़ा-सी ही थी, क्योंकि भीड़  सिर्फ तमाशबीनी पर रुक नहीं गई थी, बल्कि उसका कौतूहल और आक्रोश बढ़ता ही जा रहा था। कुछ समय बाद जीप में भरकर आये आठ-दस संतरी भी अब कम पड़ रहे थे, भीड़ पर काबू पाने में। थानेदार ने निकुंज की महिलाओं को बाहर आने की सख्त मनाही करवा दी थी। वह स्वयं भी दो चक्कर लगा चुका था। सभी महिलाओं की आँखों में खौफ तैर रहा था, जो अपने-आप कमरों की खिड़कियों में से, खड़ी-खड़ी बाहर उमड़ता सैलाब देख रही थीं।

भीड़ जब अनियंत्रित होकर बेतहाशा बढ़ने लग जाती है तो वह शनै:-शनै: एक ताकत बनने लग जाती है। यह सिर्फ समाजशास्त्र या राजनीति विज्ञान का ही नियम नहीं है बल्कि प्राकृतिक विज्ञान भी ऐसा ही तो कहते हैं। पानी के रेले से बिजली... भीड़ के रेले से न्याय व्यवस्था..... दोनों ही संभव हो पाती हैं। धीरे-धीरे कानाफूसियों ने ठसकेदार आवाजों का रूप ले लिया। भीड़ के खेत में आक्रोश के अंकुर फूटने लगे... क्रोध के पत्ते फूटे शाखों पे... देखते-देखते अंगारों का ज्वालामुखी-सा फूटने लगा फूलों-फलों की जगह। अब लोग खुलेआम प्रशासन और पुलिस को कोस रहे थे। नारेबाजी भी यहाँ-वहाँ जोश जगा रही थी। हर व्यक्ति अपनी-अपनी आवाज की बुलंदी और बाजुओं की हैसियत के मुताबिक भीड़ को उकसा रहा था पुलिस स्टेशन को घेर लेने के लिए।... जिलाधीश के पास चलने के लिए। दो-तीन स्थानीय संवाददाताओं के कैमरे भी यहाँ-वहाँ चमकने लगे थे। नारी निकुंज की ओर से आने वाली सड़कों का ट्रेफिक बढ़ती भीड़ द्वारा रोका जाने लगा था। शोर-शराबा हहराता ही चला जा रहा था।

खिड़कियों से झांकती वृद्ध-युवा महिलाओं की आँखें भी देख रही थीं इस पल-पल बढ़ती भीड़ को... भीड़ के आक्रोश को... आक्रोश के जुनून को... इस नारी निकुंज पर भूकंपी झटके पहले भी लगते आये थे, लेकिन इस बार बात ही कुछ और थी। माहौल ही बदला हुआ था। कुरुक्षेत्र में युद्ध को तैयार होती सेना का-सा नजारा बन गया था। यह संगठित तूफान निश्चय ही किसी अवतार का साक्षी था। निश्चय ही किसी सारथी के प्रयास गूंज रहे थे इस बार रणभेरियों में। शायद सुष्मिताजी जर्रे-जर्रे में मिल गई थीं उस मिट्टी के। सुष्मिताजी ने जीवन की जो रसधार उस मिट्टी में रोपी थी वह खड़ी फसल की भाँति लहराकर 'भूख’ और 'हवस’ को लीलने को मानो आतुरप्राय: थी।

कुछ ही पलों में स्वयं सुष्मिताजी भी उठ खड़ी हुईं। हितैषियों और अपनों के रोकते-थामते भी धरती के समानान्तर पड़ी सुष्मिताजी माँ वसुंधरा के लंबवत् हो गईं और निकल आईं कक्ष से बाहर, लोगों के बीच, भीड़ को चीरती।

सबसे पहले उन्होंने वहाँ उपस्थित दो-तीन परिचित लोगों से अधिकारपूर्ण स्वर में तुरन्त दिल्ली फोन मिलाकर ज्ञान स्वरूप जी से उनकी बात करवाने का आदेश दिया और फिर अभी-अभी जीप से उतरकर तीसरी बार वहाँ आये थानेदार की ओर मुखातिब होकर कड़कते स्वर में पूछा—

–यहाँ जो चौकीदार रखा गया था वह रात से ही फरार है। बाकी गुंडों में से भी कोई आपको अब तक नहीं मिला है... तो पहले उस चौकीदार को ही गिरफ्तार किया जाये, कम से कम कुछ तो...

–मैडम आप परेशान मत होइये। आपकी तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं है। इतनी उत्तेजना...

–कुछ नहीं हुआ है मेरी तबीयत को... चीखीं अब सुष्मिताजी थानेदार की बात पर। थानेदार भी सहम-सा गया... भीड़ से घिरी सुष्मिताजी धीरे से बोलीं अब आप लोग मनोहर का पता ठिकाना जानते ही हैं ना... तुरन्त पता लगाइये, उसे पकड़ लाइये, सब पता लगेगा .... वह अच्छी तरह जानता है... वह इन लोगों से मिला हुआ है.... इन लोगों के भरोसे मत रहिये आप... कह कर सुष्मिताजी ने थानेदार की ओर इशारा किया। भीड़ के लोग उत्तेजित होकर उस तरफ देखने लगे। थानेदार फौरन थूक गटककर रह गया। लेकिन तुरन्त फिर थोड़ी मुस्तैदी से हरकत में आया और अपनी जीप की ओर बढ़ा।

सुष्मिताजी दो-चार लोगों को साथ लिये वापस कक्ष के मुख्य द्वार की ओर पलटीं और आगे-आगे चलती हुई द्वार में प्रविष्ट हुई ही थीं कि सामने घुटनों के बल बैठकर उनका फोटो लेते एक छायाकार पर बिफर-सी पड़ी -तस्वीरें खींच-खींच कर अपने अखबारों की अल्बमें भरते रहिये आप लोग... नया समाचार क्या है यहाँ... फिर एक औरत की अस्मत लुट गई जो रोज ही आपके अखबार में किसी न किसी पेज का समाचार बनती है। अगर वास्तव में हल ही खोजने निकले हैं तो कैमरों से कुछ नहीं होगा... नारे लगाते हुए जाइये इस भीड़ के साथ और इसे हाँककर प्रशासकों और कानून के रखवालों के दीवाने-खास में घुसा दीजिये... घुसा दीजिये इन दहकते दिलों को वहाँ लूटमार और तोड़-फोड़ करने के लिए... सोने की लंका बन गया है अब आपका-हमारा शासन। अब भीड़ का हर बंदर जब तक जलती पूँछ लेकर सत्ता के गलियारों में नहीं कूदेगा तब तक सुलगते ही रहेंगे हम और हमारा देश.... फोटो-क्रांति से कुछ नहीं होगा, कल काली तस्वीरें खींच कर छापते थे आज रंगीन खींचोगे, यह उपलब्धि नहीं है। यह रास्ता 'प्रेस’ का नहीं है जिस पर चल पड़े हैं आप लोग। हादसों को रंगीन खूबसूरत मत बनाइये... न्यूज के लिए आप लोगों की ललक देखकर तो डर लगता है, जिस दिन हादसा नहीं होगा देश में... आप लोग मातम मनाएँगे। प्लीज ... गेट-आउट।

लेकिन छायाकार तब तक चार-पाँच तस्वीरें लेकर भीड़ में ओझल हो चुका था। वह सुष्मिताजी के इस व्याख्याननुमा क्रोध को व्यावसायिक निर्लिप्तता से पी गया।

कुछ लोगों ने सुष्मिताजी को संभाला जो बेहद बीमार-सी नजर आ रही थीं। क्रोध और उत्तेजना में तो अच्छा-भला आदमी भी चुका-सा दिखता है, वे तो शरीर और मन, दोनों पर चोट खाये हुए थीं। एक सज्जन ने उनसे भीतर चलने का अनुरोध किया। उन्हें समझाया ....आप इतनी उत्तेजना में मत आइये... हम लोग हैं, हम पर भरोसा कीजिये। सुष्मिताजी रुक गईं, तथा कुछ इने-गिने लोगों के साथ भीतर ले जाई गईं। भीड़ का रेला थानेदार का घेराव करने के बुलंद इरादे के साथ चीखता-चिल्लाता, तोड़-फोड़ करता... शहर को रौंदता... इंसानियत को रौंदे जाने के खिलाफ आवाज उठाता कूच कर गया... जुलूस की शक्ल में मानो समूचा मुबारकपुर सुष्मिताजी का दु:ख अपने कंधों पर धरे सत्ताबाजों को दिखाने के लिए लेकर चल पड़ा...।

लगभग तीन घण्टे बाद दिल्ली फोन मिल गया। लेकिन ज्ञान स्वरूप जी घर पर उपलब्ध नहीं हुए। संदेश छोड़ दिया गया कि आते ही मुबारकपुर से उनका संपर्क करवाया जाये। इसके बाद सुष्मिताजी के चारों ओर के लोग एक-दो करके कम होने लगे। वातावरण उबाल के बाद की नीरवता को प्राप्त होने लगा। उफान से निजात पाने लगा। नारी-निकुंज की महिलाओं पर लगा अंकुश हटा लिया गया और वे सुष्मिताजी की मुँह बोली सन्तानें दो-दो चार-चार के झुण्ड में सुष्मिताजी से मिलने आने लगीं।

*****