वंश - भाग 9 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वंश - भाग 9

नौ

मुबारकपुर में यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई कि नारी-निकुंज की अधीक्षिका दिल्ली से आ रही हैं। यह खबर वहाँ के रहवासियों के लिए कुछ दिन पूर्व नारी-निकुंज में छापा पड़ने और 'रण्डियों’ के पकड़े जाने से भी बड़ी थी। दिल्ली से सुपरिन्टेण्डेण्ट के आने का मतलब साफ था कि दिल्ली तक उनके शहर की बदनामियों की बातें पहुँच चुकी थीं। लेकिन इस खबर के साथ ही पिछले दिनों से चल रही उन अटकलबाजियों का अंत हो गया कि सरकार इस नारी-निकुंज को बंद करने जा रही है या कि इसे यहाँ से हटाकर अन्यत्र किसी शहर में ले जाया जा रहा है। बल्कि अफवाह तो यहाँ तक थी कि नारी-निकुंज के संरक्षक एवं मुबारकपुर के एम.पी. श्री ज्ञान स्वरूप ने इस्तीफा दे दिया है। आजकल फैलने में देरी तो उन बातों को लगती है जिन्हें सरकार फैलाना चाहे, ये अफवाहें फैलने के लिए कोई सरकार के भरोसे थोड़े ही थीं, सो फैलती गईं गली-दर-गली, मनक-दर-मनक। लेकिन अब इन पर रोक लग गई।

नई अधीक्षिका ने जिस दिन नारी-निकुंज का कार्यभार ग्रहण किया उस दिन शहर भर में इस बात की चर्चा थी। उनके नियुक्ति-पत्र में कार्य-ग्रहण करने की जो तारीख लिखी हुई थी, बिलकुल ठीक उसी दिन उन्हें दिल्ली से ज्ञान स्वरूप जी का टेलिग्राम मिला, जिसमें उनकी ओर से इस नये कार्य के लिए सुष्मिताजी को शुभकामनाएँ दी गई थीं। गिरधर एक बार ऐसा कार्यक्रम बना लेने के बावजूद भी इस वक्त तो उनके साथ नहीं आ पाया था पर उसने उन्हें कुछ समय बाद मुबारकपुर का चक्कर लगाने का वादा जरूर किया था। दिल्ली छोड़ते समय गिरधर की ओर से सुष्मिताजी को बहुत मदद रही। सारी भाग-दौड़ उसी ने की। और सुष्मिताजी की मिल्कियत, उस मकान को एक लंबे समय के लिए ताला लग गया। वैसे शायद वह कहतीं तो वरुण सक्सेना भी एक बार उनके साथ नई जगह तक जाने के लिए तैयार हो जाते और उन्हें वहाँ पहुँचाकर व्यवस्थित करवा कर आ जाते, लेकिन स्वयं सुष्मिताजी ने ही सूचना देना आवश्यक नहीं समझा। एक तो पहले गिरधर का साथ जाने का कार्यक्रम बन चुका था, जो एकाएक ऐन वक्त पर ही स्थगित हुआ, दूसरे सुष्मिताजी अभी इस बात को सब में फैलाना नहीं चाहती थीं कि वे एक नई नौकरी के लिए दिल्ली से बाहर जा रही हैं, जब तक कि वे नई नौकरी और जगह से आश्वस्त न हो जायें।

सच पूछो तो सुष्मिताजी चाहती भी नहीं थीं कि गिरधर या वरुण कोई उनके साथ जाएं। क्योंकि पिछले दिनों वे जिस तरह के हादसों से गुजर चुकी थीं, वे छाछ को भी फंूक-फंूककर पीने की स्थिति में ही थीं। क्या पता कैसे लोग हों, कैसा शहर हो? गिरधर उनके साथ जाए भी तो आखिर किस हैसियत से। क्या पता वहाँ भी यहाँ की तरह बात के बतंगड़ बनने शुरू हो जाएँ तो पहले ही दिन से सब गुड़गोबर हो जाये। फिर दूध एक बार फट गया तो फट ही जाता है। फिर तो उसे फेंकना ही पड़ता है, दोबारा काम में नहीं ही आता। और नारी-निकुंज की नवनियुक्त अधीक्षिका अभी अपनी जिन्दगी में आये इस नये-नये बदलाव में ऐसा कोई भी जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। जीवन की राह पर निपट अकेले बढ़ती नारी की स्थितियाँ सुष्मिताजी पर रफ्ता-रफ्ता उजागर होने लगी थीं।

यह एक छोटा-सा शहर था। जनसंख्या ज़्यादा नहीं थी परन्तु फिर भी किसी भी मायने में पिछड़ा हुआ भी नहीं था। जिला मुख्यालय अवश्य था पर राज्य के पिछड़े हुए जिलों में गिनती होती थी इसकी। और एक पिछड़े हुए राज्य का पिछड़ा जिला... बेरौनक, चुप-चुप-सा शहर। आम दिनों में जरूरत की हर चीज आसानी से हासिल थी। सुविधाएँ लगभग सभी, हाँ माहौल अपेक्षाकृत कुछ सुस्त-सा था।

नारी-निकुंज में उस समय कुल छप्पन महिलाओं के नाम दर्ज थे किन्तु वास्तव में कुल बावन ही वहाँ थीं। सुष्मिताजी को जानकारी मिली कि पिछले दिनों छापा पड़ने के बाद, तथा बाद की जाँच-तहकीकात के दौरान चार युवतियों को यहाँ से हटा दिया गया था, जिनके बारे में तय नहीं था, कि वे वापस यहाँ लाई जायेंगी अथवा नहीं। इसी से उनके नाम अभिलेख में दर्ज थे। दो नौकरानियाँ वहाँ अलग से रखी गई थीं जिनमें से एक अधीक्षिका के लिए थी। इनके अलावा परिसर का एक चौकीदार भी था जिसके लिए परिसर के पास ही एक छोटा कमरा बना हुआ था। वहाँ रहने वाली महिलाओं में से अधिकांश युवा थीं। कुछ वृद्धाएँ भी थीं, प्रौढ़ाएँ भी तो किशोरियाँ भी। वे वहाँ क्यों थीं यह तो जाहिर ही था, लेकिन फिर भी नई अधीक्षिका का दिल भर आया उनमें से अधिकांश के परिचय पाकर। किसी असभ्यतम समाज और संस्कृतिहीन राष्ट्र में नारी-प्रताड़ना और अत्याचार के जितने भी रूप हो सकते हैं, लगभग सभी की जीवित मिसाल यहाँ मौजूद थी, अपने वजूद में दर्दीले कथानक लिये। ऐसी अशक्त वृद्धाएँ, जो अपनी कौरवजाई औलादों के घरों में नहीं खपाई जा सकीं, ऐसी विधवाएँ जिन्हें घरवालों ने जीने नहीं दिया और सरकार ने मरने नहीं दिया, ऐसी किशोरियाँ जो या तो सड़क छाप आवारगी करती ऐसे-वैसे धंधों में लगी पकड़ी गईं जैसे मारपीट, चाकूबाजी, गिरहकटी या सिनेमाघरों पर ब्लैक आदि। कुछ ऐसी, जो बलात्कारों में नरपिशाचों के हत्थे चढ़ जाने के बाद घर जाकर अपनों को मुँह नहीं दिखा सकीं और आत्महत्याओं से रोक-बचा ली गईं या फिर गलत हाथों से बरामद करके पुलिस द्वारा यहाँ ला छोड़ी गईं।

कुल मिलाकर वह आंगन जैसे महिला-अत्याचार के जंगल में बना एक द्वीप-सरीखा था जिस पर अपना-अपना दु:ख और दरिंदगी झेल चुकने के बाद वे महिलाएँ आ खड़ी हुईं थीं, शेष जिन्दगी के रहने तक। और अब यहाँ आकर उनका नसीब था कि दु:ख झर जाएँ या चिपटे रहें। हाँ, इतना तय था कि यहाँ वे सभी एक-दूसरे का सहारा तो थीं। इस नारी-निकुंज को आरंभ में बहुत अच्छे-अच्छे लोग मिले। संरक्षक मिले, अधीक्षिकाएँ मिलीं जो वास्तव में संरक्षक या अधीक्षिकाएँ ही थीं, जिनकी कोशिशों के चलते इस केन्द्र में न केवल कई औरतों को सुरक्षित पनाह मिली बल्कि और आगे बढ़कर कई महिलाओं के घर भी बसाये गये। उन्हें उनके अपने घर-परिवारों में पहुँचाने और प्रतिष्ठा दिलाने के व्यापक प्रयास हुए। लेकिन दो-तीन बार कुछ एक पदाधिकारियों की हवस या चारित्रिक शिथिलता ने इसके स्वरूप और मान्यता को आघात भी पहुँचाया। पिछले हादसे में तो चलता हुआ पूरा एक वेश्यालय-सा ही पकड़े जाने के बाद इसकी साख पूरी तरह धूल में मिल गई थी। सुष्मिताजी ने यह सब संबंधित रिकार्ड देख-पढ़कर, लोगों से मिलकर जाना।

उसके बाद फिर उन्होंने शुरू कर दिया था वहाँ रहने वाली महिलाओं की अलग-अलग, बारी-बारी से व्यक्तिगत केस-हिस्ट्री तैयार करने का कार्य, ताकि आवश्यकतानुसार प्रत्येक के लिए अलग-अलग वांछित ट्रीटमेण्ट या व्यवस्था का निर्धारण किया जा सके। गणितज्ञ सुष्मिताजी ने सवाल को तरतीबवार, कायदेवार, सिलसिलेवार हल करने के लिए कमर कस डाली। 'दिल्ली की अधीक्षिका’ होने का जो अतिरिक्त मान आते ही उन्हें सुलभ हो गया था उसे मुफ्त में पचाना नहीं चाहती थीं सुष्मिताजी। राजधानी के इस रुतबे को वे बाकायदा चुकाकर उऋण होना चाहती थीं। उन्होंने अब सिर्फ नौकरी या सेवाकार्य तक सीमित मन से यहाँ प्रवेश नहीं किया था, बल्कि अब यह उनकी लड़ाई बन चुकी थी। शेष जीवन जूझने के लिए जैसे एक सबबवार मुहिम मिल गई थी उन्हें। उनके भीतर की 'सिर्फ औरत’ अब सुष्मिताजी बन जाने या बने रह पाने का एक रास्ता पा गई थी।

उनके कार्यग्रहण करने के बाद स्थानीय अखबारों में यह समाचार प्रकाशित हुआ था। इतना ही नहीं, बल्कि उनकी तस्वीर तथा संक्षिप्त जीवन-परिचय भी छापा गया था। शायद यह सब यहाँ के एम.पी. साहब ज्ञान स्वरूप जी के प्रताप से हुआ था, जिनकी बदौलत आरंभ में ही यहाँ सुष्मिताजी को हाथों हाथ लिया गया। ज्ञान स्वरूप जी ने सुष्मिताजी को यहाँ के लिए हर प्रकार का सहयोग प्रदान करने का आश्वासन दिया था जिससे सुष्मिताजी का अपने कर्त्तव्य के प्रति आत्मविश्वास और बढ़ गया था। उन्होंने भी मन ही मन यह व्रत ले डाला था कि यदि यह युवा सांसद वास्तव में जन-कल्याण के लिए इतना ही चिंतित है तो वे भी उसकी आशा और मान्यता पर खरी उतरने के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं उठा छोड़ेंगी। अब उनकी जान, उनका जीवन इसी नारी-निकुंज के लिए समर्पित रहेंगे।

मनुष्य जब विचारों की सात्त्विकता के प्रति गंभीर और ईमानदार हो जाता है तो दिनचर्या एवं कार्यकलापों की सात्त्विकता एवं धार्मिकता भी स्वत: उजागर होने लग जाते हैं उसके दैनिक जीवन में। सुष्मिताजी भी दिनों-दिन अधिक विनम्र, सात्त्विक और गंभीर होती जा रही थीं, इस स्थायित्व की बदौलत जो उन्हें जीवन के प्रति सहज हासिल हो गया था।

इस शहर के जनजीवन की तुलना जब वे महानगरीय जीवन से करतीं तो पातीं जैसे यहाँ की आबोहवा उन्हें स्वत: मानव मूल्यों के प्रति विश्वास से भर देती। बड़े नगरों में तो जैसे आप अस्तित्त्वहीन होकर पल-पल दृश्य या अदृश्य रूप में प्रताड़ित किये जाते हैं, अपमानित किये जाते हैं और एक आक्रोश माहौल के प्रति सुलगता ही रहता है आपके भीतर। यहाँ जो सम्मान उन्हें अतिरिक्त रूप से प्राप्त हो गया था उसने उनकी जिम्मेदारियों को जैसे और बढ़ा दिया।

सुष्मिताजी के वहाँ आने के बाद दो-एक बार मुबारकपुर में ज्ञान स्वरूप जी का आना भी हुआ था। एक बार तो वे किसी अन्य स्थान से लौटते हुए राज्य के मुख्यमंत्री के साथ यहाँ से गुजरे थे, तभी कुछ देर के लिए मुबारकपुर में विश्राम के लिए ठहरे थे। दूसरी बार वे एक समारोह के सिलसिले में खास तौर से यहाँ आये थे। इस शहर में ज्ञान स्वरूप जी का पुश्तैनी घर भी था जो अब लगभग बंद ही रहा करता था। उनके परिवार के अन्य लोग अब प्राय: दिल्ली में उनके साथ ही रहते थे या फिर यहाँ से कुछ दूर एक पहाड़ी कस्बे के निकट उनके फार्म हाउस पर उनका परिवार कभी-कभार रहता था। वे भी मुबारकपुर आने पर वहाँ अवश्य जाते थे, लेकिन कभी-कभी मुबारकपुर वाले मकान पर भी सबका डेरा जमता था।

ज्ञान स्वरूप जी का समारोह के लिए आना पहले से ही निश्चित नहीं था। स्थानीय कॉलेज के इस समारोह के प्रमुख अतिथि के रूप में राज्य के शिक्षा मंत्री के आने की बात थी। प्रचार भी तद्नुरूप हो चुका था, किन्तु बाद में अकस्मात् कुछ परिवर्तन हो गया। शिक्षा-मंत्री जी नहीं आ सके और ज्ञान स्वरूप जी ने मुख्य अतिथि के रूप में आने की स्वीकृति दे दी। इस प्रकार वे बिलकुल अनायास ही आये। फिर भी मुबारकपुर के लोगों ने देखा कि जितना समय ज्ञान स्वरूप जी यहाँ रहे, नारी निकुंज की नई अधीक्षिका सुष्मिताजी के साथ उनका उठना-बैठना और सभा-समारोह अधिक रहे। यह इशारा स्थानीय लोगों के लिए एक महत्त्वपूर्ण इशारा था। क्योंकि इससे पूर्व जितनी भी अधीक्षिकाएँ वहाँ रहीं वे स्वयं ज्ञान स्वरूप जी के आगे-पीछे घूमती उनके मातहत कर्मचारियों की भांति ही रहीं। यह पहला मौका था जब वर्तमान अधीक्षिका से ज्ञान स्वरूप बराबरी के स्तर पर मिल रहे थे, जब-जब वे बुलवाई गईं ज्ञान स्वरूप की गाड़ी उन्हें लेने या छोड़ने आई। चाय-खाने के लगभग हर दौर में स्थानीय गणमान्य व्यक्तियों के साथ वे आमंत्रित ही नहीं रहीं, बल्कि ज्ञान स्वरूप जी उनसे बात-बात पर राय-मशविरा भी लेते रहे। लोगों के लिए यह एक अजूबा ही था और इससे धीरे-धीरे स्थानीय लोगों, यहाँ तक कि नारी-निकुंज वाले क्षेत्र के विधायक महोदय तक के मन में यह रहस्यमयता पनपनी शुरू हो गई कि संभवत: सुष्मिताजी की जड़ें गहरी हैं और वे जितनी जमीन के ऊपर दिखाई देती हैं, उतनी ही कहीं भीतर भी हैं। इससे सुष्मिताजी का दर्जा उस शहर के लोगों में और भी बढ़ गया। वैसे अपने स्वयं के दमखम पर भी सुष्मिताजी का प्रभाव, प्रतिष्ठा तथा रुतबा दिनों-दिन बढ़ते ही जा रहे थे। यह नारी-निकुंज के भविष्य के लिए भी एक सुखद संकेत था।

इस तरह सुष्मिताजी के आने के बाद न केवल नारी-निकुंज की सरहदों के बाहर उसकी छवि एवं प्रतिष्ठा में तेजी से श्रीवृद्धि होने लगी बल्कि भीतर भी उसी गति से बदलाव आने लगे। एक उदास, थके-मुरझाए-से महिला-आवास ने मानो वसन्त ऋतु के मौसम की ताजगी अनुभव की। भवन की सफाई और साज-सज्जा से लेकर महिलाओं के मन-आंगन तक में सुष्मिताजी झलकने-महकने लगीं। आवासी औरतों में परस्पर, स्वयं के प्रति तथा जिन्दगी के प्रति अनुराग बढ़ने लगा। गतिविधियाँ बढ़ने लगीं और पहली बार महिलाओं को महसूस होने लगा कि इस बार वास्तव में उनका कोई जन्म-जन्म का हितैषी भेजा है ईश्वर ने, वर्ना अब तक तो या तो उनके पहरेदार आये थे या व्यापारी, जिन्हें उनकी देखभाल करनी थी और पैसा कमाना था। वो पैसा जो महिला-कल्याण या आवास के रख-रखाव के लिए ट्रस्ट से, जनता से और कुछ अनुदान के रूप में सरकार से लिया जाता था उसे भी उनके तथाकथित रखवाले हजम करने से चूकते नहीं थे। साल में दो की जगह एक जोड़ा कपड़ा देना, सो भी घटिया... खाने में भी भींच-भाँच। विकास गतिविधियाँ कागजों पर थीं। बस, तब कुल मिलाकर नारी निकुंज की महत्ता यह थी कि कई दुखियारिनें घेर-हाँक कर एक छत के नीचे कर दिये जाने से एक दूसरी को देखकर सब्र-संतोष पा लेती थीं। फिर अलग-अलग उम्र की होने की वजह से अपना पारिवारिक वातावरण हमेशा के लिए बिसरा आईं उन समाज-त्यक्ताओं को वहाँ रिश्तों की खोयी गंध भी मिल जाती थी। किसी चांदी उतरे बालों वाली वृद्धा में किसी की माँ छिपी होती थी तो किसी मासूम कली में किसी सूनी गोद वाली को अपनी बेटी झलक जाती थी...कोई अपनी खोई बहन पर गई थी तो कोई... किसी का दु:ख बांटने को सहेली-सी आ गई थी। इस तरह चल रहे थे दिन।

पर अब? एक सिरे से सारी व्यवस्थाएँ तरतीबवार देखी जाने लगीं। सबसे पहले सुष्मिताजी ने सभी आवासी सदस्याओं की एक सम्मिलित बैठक बुलाई थी। बहुत ही औपचारिक, आत्मीय और प्यार-भरे माहौल में उन्होंने कुछ बातें, अपना विस्तृत परिचयात्मक अतीत, और अपनी जाती जिन्दगी के बारे में भी बताया। बस, सुष्मिताजी के बोलने तथा महिलाओं के सुनने के साथ-साथ पल-प्रतिपल परस्पर विश्वास, आस्था और आत्मीयता के धागे अधीक्षिका के बीच बँधने लगे। सुष्मिताजी की ओर से बैठक के बाद सभी को चाय पिलाई गई और फिर त्यौहार के-से माहौल में मिठाई खाई और खिलाई गई।

कुछ दिन बीतते न बीतते सुष्मिताजी यह भी जान गई थीं कि ऐसी स्थिति में कुछ महिलाओं द्वारा आगे बढ़कर, उनके मुँह लगकर उन्हें अपने प्रभाव में लेने की स्वाभाविक कोशिश भी शुरू होने लगी है। एक-दूसरी के बारे में कह-सुनकर एक-दूसरी को नजरों में चढ़ाने-उतारने की कोशिशें भी शुरू होने लगीं। लेकिन अनुभवी सुष्मिताजी ने यहाँ बेहद शालीन तटस्थता का परिचय देकर स्थिति को अपने हाथों में रखा। नया वर्ष आने की खुशी में, इसी अवसर का लाभ उठाते हुए, नव चेतना का संचार करते हुए उन्होंने आदेश निकाला कि वे उनके रहने की, कमरों की व्यवस्था बदलना चाहती हैं। उसे रचनात्मक विकास की दृष्टि से पुनर्गठित करना चाहती हैं। किसी भी समूह में कितनी भी कोशिशें करने के बाद कुछ-न-कुछ नकारात्मक दृष्टि-सम्पन्न तत्त्व होते ही हैं और ऐसी स्थिति में एक सन्तुलन कायम करने के लिए एक कुशल व्यवस्थापक को चौकन्ने रहकर कोशिशें शुरू करनी ही होती हैं। कभी-कभी सुष्मिताजी उन सबके बारे में सोचतीं। अपने प्रयासों के चलते सुष्मिताजी ने पाया था कि एक छत के नीचे एक-सी सुविधाएँ-सहारा पाकर पड़ी ये नारियाँ विविधता तथा अंतरजन्य जज़्बातों का एक अनचीन्हा सैलाब हैं। क्या ऐसा भी होता है? इतनी गंधों, इतने रंगों के फूल कभी एक-साथ स्याह पड़ जाते हैं। हाँ, ऐसा ही तो होता है। सात शोख रंग मिलकर एक सफेद उदास रंग में ही तो समा जाते हैं। रात आती है तो उसकी काली छाया सभी फूलों का रंग निज-सरीखा तो कर छोड़ती है। किसी बगिया में जब रात उतरती है तो क्यारियों के विविध रंगी पुष्प भी सांवले ही तो नजर आते हैं।

नहीं! एक रंग का सात रंगों से ऐसा वीभत्स खिलवाड़ अब सहन नहीं करेंगी सुष्मिताजी। वे प्रकाश के इस प्रत्यावर्तन-परावर्तन को छिन्न-भिन्न कर देंगी, और लौटाएँगी इन रंगों की अपनी-अपनी आभा... अपनी-अपनी अस्मिता।

एक-एक सदस्या का जीवन-वृत्त और भोगा हुआ अतीत लेटी सुष्मिताजी के विचार-तटों पर किसी नौका सरीखा धीरे-धीरे तिरता रहता ... क्या थीं और कैसे, कहाँ होकर क्या हो गईं..।

अंजना!

एक तेज-तर्रार, पढ़ने में होशियार लड़की जो युवती बनते-बनते ही किसी घड़ी नर-पिशाचों के चंगुल में आ गई। वहशियों ने मसलने-रौंदने के बाद जान से मारने की कोशिश की थी परन्तु वही मरी नहीं, बच भागी। घर पर बड़ी बहन की बारात की तैयारियाँ हो रही थीं, अगवानी में शहनाइयाँ बज रही थीं। ऐसे में अंजना ने अपनी काली कथा की सफेद व्यथा लेकर उस पुलकित घर की देहरी पर पहुँचना मुनासिब न समझा। वह सब कुछ छोड़ आई। और इससे पहले कि दुनिया छोड़ने या नरक सहने का कोई फैसला ले पाती, पुलिस द्वारा संदिग्धावस्था में पा, यहाँ ला छोड़ी गई।

–अब कुछ याद नहीं आता?

–याद क्यों नहीं आयेगा दीदी, पगला तो नहीं गई हूँ...सब याद है... काश! पगला ही जाती, सब भूल तो जाती।

–कितने दिन हो गये यहाँ?

–दो साल। लेकिन ये दो साल दो युगों की तरह बीते हैं। सच कहूँ तो एक बार यहाँ से भी भागने का मन हुआ था, बल्कि एक बार तो मैंने कोशिश भी की थी। लेकिन तभी यहाँ हिसाब-किताब का घोटाला हुआ था और हमारी मैट्रन छोड़कर चली गईं। तब यहाँ थोड़ी सख्ती हो गई, और मैं भी नसीब के हिचकोलों से डरकर यहीं बनी रही।

याद है सुष्मिताजी को, जब उससे इस बातचीत के बाद सुष्मिताजी ने उसे जाने को कहा था तब तक उसके आँसुओं की नमी सुष्मिताजी की आँखों ने पी ली थी। उसका दर्द जैसे सुष्मिताजी की मुट्ठी ने कसकर पकड़ लिया, उसकी जिन्दगी से नोंच फेंकने के लिए।

सन्तो!

फुटपाथ से ही आई थी सन्तो। एक खानाबदोश परिवार की कन्या, जो बचपन में ही अपने परिवार से बिछड़ गई और फिर एक अन्य ऐसे ही परिवार में पली, जिसकी छत आसमान और बिछौना माँ वसुन्धरा! बिन्दास-अल्हड़-उन्मुक्त। सड़क पर लड़कों के संग खेलने-कूदने वाली। मारपीट, गाली-गलौच करने वाली। बात-बात पर झगड़ने वाली।

लेकिन बेरियाँ पकने के मौसम में जब वन जंगल भी रहस्यमय हो जाते हैं, तो हिरनियाँ-नील गाएँ घनेरे कुंजों से बाहर नहीं आतीं आसानी से। न जाने कहाँ छिप जाती हैं। सन्तो को जब महसूस होने लगा कि बस्ती या फुटपाथ के मर्द और लड़के अब उसके लाख कोशिश करने पर भी उससे लड़ते नहीं हैं, उसे झुण्ड में खेलने नहीं देते, अकेले मिलने पर उसकी हर मुराद मानने को तैयार हो जाते हैं... जैसे बिना कहे भी ठेले से रुपये की कुल्फी ले देते, या सिनेमा का टिकट बिना उससे रोकड़ा लिये ला देते.....तो संतो का मन फुटपाथ से उखड़ने लगा। बस, फिर इससे पहले कि बस्ती गंधाने लगती, इमारतों में रहने वाले समाज की नाक सड़ने लगती.. पुलिस घेरकर उसे यहाँ छोड़ गई। यहाँ आने के बाद भी उसके नारी-तन को व्यर्थ जाने देने के लिए कोई तैयार नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे भली सोहबत-संभाल मिली तो संभल गई। और अब उसे न दु:ख है न सुख। उसे क्यों दु:ख सालने लगा, वह कहाँ की रानी-पटरानी है जो सोग मनाए। घी-भात कभी खाने को मिले नहीं जो यहाँ खराब खाने को कोसे। तन ढांपने को चीर तो है ही। और फिर उसे काहे का गम। वह जितनों के सामने नंगी हुई, उतने उसके सामने नंगे हुए, बात बराबर। बल्कि उसने तो यहाँ ऐसी-ऐसी देखी हैं जो पढ़ी-लिखी हैं, माँ-बाप, ननद-भौजाइयों वाली हैं। उन्हीं को जब किस्मत खोह-गह्वरों में उठाकर फेंक सकती है तो सन्तो किस खेत की मूली है। उस बेचारी की बिसात ही क्या, वह तो वैसे भी नीली छतरी वाले के आसरे, उसी चौपाल में सड़क पर पड़ी थी। संतो के नसीब के सारे तमाशे तो अंबर से झांक-झांक कर उसने भी देखे होंगे। सुष्मिताजी से पहली बार मिली थी यह छोकरी तो इसने ऐसी मर्दमार जुबान में बात की थी, कि एक बार मर्द-लौण्डे भी लजा जाएँ सुनकर।

भानुमती!

पचपन-साला बुढ़िया। लेकिन नारी-निकुंज फल गया था उसे। खुश थी और खाली बैठे रोटियाँ तोड़ने के बदले मेहनत-मशक्कत से व्यस्त रखती अपने को। कितनी ही बेटियाँ थीं यहाँ उसकी, जिनकी चोटी-मांग करने से लेकर कपड़ों की देखभाल साज-सम्भाल तक उसने किसी ममतामयी माँ की तरह अपने ऊपर ले ली थी। यहाँ तक कि तीन बरस पहले जब यहाँ के कुछ जाने-माने लोगों की मदद से नारी-निकुंज की चार लड़कियों के सामूहिक विवाह किये गये तब जाने वालियाँ माँ समझ उसी के कांधे लगकर रोई थीं, अपनी विदा बेला में। और शहर के कई नामी-गिरामी लोगों के सामने अखबार के कैमरा वालों के देखते उसी ने हाथ रखा था उनके सिर पर।

हाँ! यहाँ क्यों आई?

यहाँ इसलिये आई, कि अपने बहू-बेटे की सताई हुई थी, जो उसके बुढ़ापे को सह नहीं पा रहे थे। रोज की चख-चख, दिन-रात की चिल्ल-पौं। ऐसी दुतकारती थी बहू बात-बात पे, जैसे भानुमती ने उसका खसम नहीं जना, बल्कि उसकी सौत ने भानुमती जनी है। बहू ने उसे अच्छे-भले हाथ-पैर चलते तन की बुढ़िया को घर की नौकरानी बना छोड़ा था और एक दिन बेटे की गैर मौजूदगी में जब बहू का हाथ उस पर उठ गया तो उसने भी पानी सर से पार जाना। उसने रसोई घर की जलती गैस और चढ़े चौके में अपने बचाव के लिए उसे धक्का दे डाला। बहू संभल नहीं सकी, लड़खड़ा कर गिरी। गैस का चढ़ा बड़ा बर्तन गिरा। गर्म खौलता तेल गिरा, और गिरा गया गाज भानुमती की जिन्दगी पर। वह बरास्ता जेल, आ गिरी नारी-निकुंज में। दो साल की जेल काटने के दौरान जेल में ही उसे पता चल गया कि जली बहू जान से गई... भानुमती भी जहान से गई। उसके बाद बेटे ने उसकी एक न सुनी और जेल काट आने के बाद उसे यहीं ठौर मिली थी। बेटा अपने चार बच्चों के साथ उससे सदा के लिए मुँह फेरकर किसी दूसरे शहर में चला गया। 

–पोते-पोतियों ने भी दादी अम्मा की याद से बाप को उकसाया न होगा..?

–अब मैं क्या जानूँ, पोते-पोती ही क्यों, बेटा मेरा कौन-सा दुश्मन था.... लेकिन मैं थी भी तो उसके बाल-बच्चों की माँ की हत्यारन.... आँखें पोंछती भानुमती ने कहा, और सुष्मिताजी ने अपनी और उसकी आँखों की बेबसी गले लगकर सखी-सी सिसकती देखी।

दु:खों का भी जन्म-स्थल है और शायद विराट् का महानाश, प्रलय ही इंसानी दु:खों का पटाक्षेप होगा। ऐसे में अपना दु:ख तो बहुत छोटा हो जाता है इंसान का। उसमें हिम्मत जगा देता है। दु:ख और परेशानी सह पाने की ताकत जगा देता है दूसरे का दु:ख। वही हुआ यहाँ भी सुष्मिताजी के साथ।

सात दिन बाद ही रजिस्टर में सबके नाम लिखे गये और सबके बदलने के लिए सुष्मिताजी के बनाये चार्ट के मुताबिक उन्हें अलग-अलग ग्रुपों में बाँटा गया। उसी हिसाब-तरतीब से कमरे दिये गये। हर कमरा आठ-दस भिन्न-वया नारियों का एक समूचा घर-संसार-सा। हर समूह में एक वृद्धा संरक्षिका... हर समूह में एक शिक्षिता-सुशीला... हर समूह में दो-एक बालमना किशोरियाँ... हर समूह में एक चंचल खिलन्दड़ा व्यक्तित्व तो एक धीर, गम्भीरमना नारी...।

दिनचर्या भी थोड़ी और सख्त कर दी गई। सुबह छ: बजे सबसे पहले सुष्मिताजी के कमरे में सवेरा होने के साथ सबका दिनारंभ। सुष्मिताजी तड़के ही उठतीं, उनके कमरे की बत्ती जलती और थोड़ी ही देर बाद एक-एक करके हर कमरे में खटर-पटर की हलचल शुरू हो जाती। अन्य पूर्ववर्ती अधीक्षिकाओं की तरह सुष्मिताजी के कमरे में सुबह नौ बजे बेड टी जाने का सिलसिला कतई बंद। नारी-निकुंज की महिलाओं पर जो भी सख्ती उतरी पहले सुष्मिताजी की दिनचर्या पर होकर ही बाकी सब तक पहुँची। सुबह दो-तीन घण्टे में सबके नहा-धोकर तैयार हो जाने के साथ ही बरसों से बंद पड़ा सामूहिक प्रार्थना का भी सिलसिला शुरू हो गया।

माँ सरस्वती के वंदन में हाथ जोड़े खड़ी नारियाँ किसे ईश्वर समझें? माँ सरस्वती को, या सामने हाथ जोड़े खड़ी मुदित-पलका सुष्मिताजी को? हर औरत जानती थी कि माँ शारदा की तस्वीर तो उनके साथ हमेशा से ही रही, फिर भी काली आँधियाँ जब तब चलती ही रहीं उनके इस आवास-निकेतन में। जिस मूर्ति के प्रतिष्ठापन से उनके दर्द थमे वही न भगवान् मानी जाय? और परिभाषा क्या है ईश्वर की? उसे देखा तो किसी ने है नहीं। निराकार है अदृश्य है। अगर है, तो इन्सानों की शक्ल में ही आयेगा इन्सानों के बीच। उसकी अपनी तो कोई मूरत नहीं, कोई जिस्म नहीं। और इस तरह सरस्वती और सुष्मिताजी गड्ड-मड्ड हो जातीं उन जेहनों में।

शीघ्र ही हर एक सदस्या को कोई न कोई कार्य दे दिया गया। कपड़ों की सिलाई, मसालों की पिसाई, बुनाई, रंगाई, खिलौने बनाने से लेकर बच्चों को पढ़ाने, सफाई करने, गीत-संगीत और कला तक के भिन्न-भिन्न कार्यक्रम नियमित प्रतिबद्धता और निष्ठा के साथ शुरू हो गए। महिलाओं को आर्थिक-सामाजिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा करके और आगे बढ़ीं सुष्मिताजी। शहर के सम्पन्न व्यवसायियों से मिलकर, प्रतिष्ठित लोगों की मानवता को उकसा-उकेर कर उन्होंने अपनी 'नारियों’ के लिए जीवन में स्थापित हो जाने की आस-जोत जगाई। उन्होंने कई लोगों से सम्पर्क किये, प्रोत्साहन कार्यक्रम शुरू किये। समय-असमय आस-पास के शहरों के दौरे किये और उनके हर्ष का पारावार न रहा जब देखते ही देखते उन्हें व्यापक समर्थन और सफलता मिलने लगी। कई गरीब युवकों, मेहनत-मजदूरी करने वालों, रिक्शा तांगा चलाने वालों, दुकानों पर काम करने वालों को शहर के नामी-गिरामी लोगों की मध्यस्थता की पहल पर नारी-निकुंज की योग्य एवं पात्र युवतियों से विवाह करके घर बसाने के लिए तैयार किया गया। शहर के एक सम्पन्न प्रतिष्ठित व्यवसायी के पढ़े लिखे नौजवान सुपुत्र, जो उभरते हुए कवि भी थे, नारी निकुंज की एक बलात्कृता, अबला को जीवन-संगिनी मानने को स्वयं उद्यत हुए तो 'घटना’ अखबारों का समाचार बनी। विभिन्न लोगों के सहयोग से सुष्मिताजी वर्ष में सोलह विवाह करवाने में कामयाब हुईं।

सुष्मिताजी ने यद्यपि नारी के लिए पुरुष को विवाह-वेदी पर पा लेना ही अंतिम सार्थकता कभी नहीं माना। लेकिन इतना वे अवश्य जानती थीं कि नारी सुशिक्षित तौर पर समाज से अवश्य जुड़नी चाहिये। और ऐसे में जब रक्त-बंधनों के सोते सूख गये हों या उनकी जलधार किसी अँधेरे-तंग खण्डहर में जाकर लुप्त हो गई हो तो यह एक जरिया तो था ही विभिन्न महिलाओं के समाज की इकाई के रूप में प्रतिष्ठापन का। फिर औसत-बुद्धि या स्थिति की हर नारी अकेले समाज में रहने-जूझने को हौसला कहाँ रखती है। और इसमें कतई कोई कमतरी का भाव नहीं है। अकेली नारी ही क्यों? अकेले पुरुष को भी देखिये ना, किन्हीं महाशय को जीवन में बिना विवाह किये, घर बसाये, खुला घूमने दीजिये, फिर देखिये चालीसवाँ आते न आते कैसी बेचारगी आ जाती है उन पर। गली-गली सुख के रिश्ते, घटिया रिश्ते तो घटिया सुकून ही दे सकते हैं। वह भी आखिर कब तक....अंत में तो बात वहीं आ ठहरती है...... जब हम सामाजिक प्राणी हैं तो समाज में व्याप्त रिश्ते-संबंध, काश! हमारे भी होते।

अनुभवी बुद्धिगम्या सुष्मिताजी किसी बात के लिए प्रयत्न-प्रयास कर रही हों तो ठीक ही होगा। हेठी किसी की भी, क्यों तो सोचेंगी वे, और क्यों सहेंगी?

उधर वृद्धाओं और प्रौढ़ाओं को पेट भरने के लिए अपने हाथ-पैरों पर आश्रित करने का उनका अभियान भी जोर-शोर से चलता रहा। अपनी-अपनी हैसियत भर कोई न कोई काज पाने की प्रेरणा सुष्मिताजी से पाती रहीं वे। किशारियों को पढ़ने-लिखने के अवसर मुहैया करवाना सुष्मिताजी के जी का जैसे कलेवा-सा हो गया। होम हो गईं वे...। तन–मन-धन से जीवन की आस्थाएँ उस नारी के व्यक्तित्व से निकलकर फैले, छितरे समाज में मोती-माणिकों-सी जड़ी जाती रहीं।

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