आठ
उस दिन की गोष्ठी के बाद आयोजकों और अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के बीच सुष्मिताजी का स्वागत जिस गर्मजोशी से हुआ, उससे वे पुलकित हो गईं। गिरधर, जिसने इस समारोह के लिए सुष्मिताजी पर विशेष रूप से जोर डाला था तथा 'संदर्भ समिति’ के लिए सुष्मिताजी को सदस्या के रूप में प्रस्तावित किया था, वह भी प्रफुल्लित था। सुष्मिताजी जैसे व्यक्तित्व को समिति में शामिल करने के प्रस्ताव का औचित्य सुष्मिताजी के सिद्ध कर दिये जाने के बाद वह यह अनुभव करता घूम रहा था कि उसने पदाधिकारियों पर निश्चय ही अपने चयन की बेहतरीन छाप छोड़ी है। गोष्ठी बेहद सफल रही थी। आरंभ की ढीली-ढाली बातचीत के दौरान चर्चा में वास्तविक रंग एकाएक तभी आया था जब सभा को अपने इच्छित मुद्दे बेबाकी के साथ उठाने वाला प्रखर वक्ता सुष्मिताजी के रूप में मिला था। उससे पहले विषय-प्रवर्तन के साथ ही दबे-ढके एवं अत्यन्त औपचारिक, सीमित-से शब्दों में अपनी-अपनी बात कहकर वक्तागण बैठ रहे थे। समिति का कोई प्रभाव नहीं बन पा रहा था। यहाँ तक कि ऊब का एक दौर ऐसा भी आया कि यह गोष्ठी आखिर क्यों, और किन सवालात को उठाने की खातिर हो रही है। लोग ठोस कुछ भी कह नहीं पा रहे थे। वक्ताओं में हलचल के रूप में उभरने वाली पहली संभवत: सुष्मिताजी ही थीं जिन्होंने अपना पक्ष स्पष्टता और ईमानदारी से इस प्रकार रख दिया कि सभी ने न केवल उनकी प्रतिभा का लोहा माना बल्कि वे मुद्दे पहली बार उठे जो सबके दिल में थे, लेकिन बाहर आ नहीं पा रहे थे। मुसीबत आज यही है कि यदि आप कहीं कोई भी अराजकता देखें या अन्याय देखें, तो आप उसके विरुद्ध आवाज आसानी से उठा नहीं सकते, क्योंकि किसी भी सार्वजनिक मुद्दे पर बोलते हुए आपको जनसमर्थन दरकार होता है जो आज आपको नहीं मिलता, क्योंकि आज समूह के अधिकांश चेहरे अन्याय और 'गलत’ से इस हद तक जुड़े मिलेंगे कि आप सहज ही अकेले पड़ जायेंगे.....
'गलत’ और अनुचित का सार्वजनिकीकरण एक आम बात हो गई है।
बोलते समय औरों की तरह सुष्मिताजी का ध्यान इस बात पर कतई नहीं था कि समाज एवं राजनीति में भाई-भतीजावाद या सामंतशाही प्रवृत्तियों पर धारदार कटाक्ष करती हुई वे स्वयं उन्हीं हस्तियों के बीच में घिरी बैठी हैं जो कमोबेश सब इन्हीं प्रवृत्तियों के वाहक या पोषक हैं।
सोचिये, कितना गुस्सा आता है न तब, जब हम निर्दोष चूहों को बिल्लियों के आतंक से छुटकारा दिलाने के लिए कोई सभा बुलाएँ और सभा में यह पाएँ कि पंच परमेश्वर के आसन पर चूहों के मुखौटे लगाए बिल्लियाँ ही बैठी हैं। यह सिर्फ धोखा या छल भी नहीं है, क्योंकि धोखा तो तब होता है जब हम बिल्लियों को पहचान न पाएँ और धोखा खा जाएँ। हम तो सरेआम उनके आकार और आवाज से उन्हें पहचानते हैं लेकिन फिर भी विवश होते हैं उन्हें होने देने के लिए। क्योंकि यदि उन्हें वहाँ न होने दें तो वे मंच पर बैठकर मुखौटे लगाने की जहमत भी गवारा न करें, सीधे भूखे आक्रान्ताओं-आततायिओं की तरह हमारे हुजूम में कूद पड़ें। शासितों और शासन में ऐसा ही संबंध बनाते जा रहे हैं हम। जन साधारण को चूहा मान लीजिये और सत्ता को बिल्लियाँ, यह खरा सच है। आप मानें या न मानें शिकंजा आप पर कसा जा चुका है। बातें आप इक्कीसवीं शताब्दी की कर लें या बाईसवीं की, कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रश्न यह है कि आज आपके पास सिवाय तारीखों के, नया क्या है?
सुष्मिताजी को उस सभा में शिरकत करने का एक बड़ा लाभ यह हो गया कि वह बड़ी-बड़ी हस्तियों की निगाह में सहज ही चढ़ गईं और बड़े लोगों की नजरों का मतलब है आपके वजूद की सार्थकता। वे थानाप्रभारी भी वहाँ उपस्थित थे जिनसे अपने मौजूदा काण्ड के चलते सुष्मिताजी को दो-चार होना पड़ा था। उनका मामला उन्हीं के हाथों में हिचकोले खा रहा था। चाय पीते समय स्वयं थानेदार साहब ने सुष्मिताजी की उपस्थिति में ही सुपरिंटेण्डेण्ट ऑफ पुलिस विनोद बहादुर जी को उनका सारा किस्सा स्वयं बयान कर सुनाया था। दोनों पुलिस अधिकारी काफी देर तक सुष्मिताजी की चर्चा में ही लीन रहे। सीमित लोगों के जलपान-कक्ष में पहचान-परिचय का दायरा अच्छा हो गया।
यहाँ तक कि शाम को होने वाले शिलान्यास कार्यक्रम के बाद मुख्य अतिथि ऊर्जा राज्य मंत्री का जिन गिने-चुने लोगों के साथ रात्रि भोज था, उनमें भी आग्रह के साथ सुष्मिताजी निमंत्रित कर ली गईं। गिरधर ने उनका काफी लोगों से परिचय करवाया था और अब भी इक्का-दुक्का मेहमानों को लेकर सुष्मिताजी से मिलवाने ले ही आता था। उसके एक अत्यन्त घनिष्ठ मित्र ने तो परिहास में यहाँ तक कह दिया कि गिरधर जी तो आज हिन्दी फिल्मों के निर्माताओं की तरह दिखाई दे रहे हैं, जो अपनी किसी नई हीरोइन को इंट्रोड्यूस करते समय ऐसे ही जमीन-आसमान एक किये रहते हैं। बात हँसी की थी लेकिन सुष्मिताजी हँस नहीं सकीं। इसे वे अपनी सीमा मान बैठीं शायद, कि वे किसी के द्वारा इंट्रोड्यूस की गई हैं। लेकिन बात महज परिहास ही थी, वही रही।
ये सुष्मिताजी की अपनी शख्सियत और गिरधर के प्रयासों का मिला-जुला नतीजा था कि देखते-देखते वे विशिष्ट समूह की विशिष्ट हस्ती बनती चली जा रही थीं। उधर पुलिस महकमे के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ ऐसे हल्के-फुल्के माहौल में बात होने तथा उनके साथ घटे तथाकथित हादसे पर भी थोड़ी खुली चर्चा हो लेने के बाद सुष्मिताजी भीतर ही भीतर अपना कोई ग्लेशियर पिघलकर बह गया अनुभव कर रही थीं।
अन्य सब लोग भी प्लेटें हाथ में लेकर अपनी-अपनी पसंद के व्यंजन लेकर इधर-उधर पड़ी कुर्सियों पर बैठ गये थे। कोने में पड़े एक सोफे पर गिरधर तथा अन्य तीन-चार साथियों से घिरी सुष्मिताजी भी आ बैठी थीं। इस पार्टी में सुष्मिताजी का परिचय तीन-चार महिलाओं से भी हुआ था जो सभी किसी न किसी रूप में समाज-सेवा या सार्वजनिक कार्यों से जुड़ी थीं। लेकिन एक बात सुष्मिताजी देख रही थीं कि अधिकांश महिलाएँ वहाँ सार्वजनिक जीवन और गतिविधियों से जुड़ी हुई होने पर भी उस माहौल में बीच-बीच में अपनी जमात के स्वाभाविक विषयों पर ही उतर आती थीं। थोड़ी ही देर के बाद जब कि सबके अपने-अपने हिसाब का अन्न उदर में पहुँच गया तो फिर से बहसों-मुबाहिसों का दौर चल पड़ा।
–भई गिरधर जी, एक बात बताओ हमें तो, अपनी सोसायटी के भवन के शिलान्यास के लिए ऊर्जा मंत्री को बुलाने की क्या तुक थी। 'एनर्जी’ विभाग का आदमी भला नवजीवन निकेत के लोगों को क्या बतलाएगा? आपको तो कोई....
–यार, एनर्जी का आदमी तो 'ऑलपरपज’ होता है, समझे ना! अरे भाई, आज के वक्त में पावर और एनर्जी जिसमें है वही तो सर्वशक्तिमान है। वही सर्वव्याप्त होगा। एक जोरदार ठहाका-सा लगा उन सज्जन की बात पर।
–चलिये यदि आपके हिसाब से ऊर्जा मंत्री हमारे लिए उपयोगी नहीं हो सकते तो भी आप यह क्यों भूलते हैं कि ये जन्मजात ऊर्जा मंत्री नहीं हैं। ऊर्जा से तो इनका संबंध सच कहें तो दो माह उन्नीस दिन पुराना है। उससे पहले तो यह कपड़ा मंत्री थे और आगे किसी भी दिन, किसी भी पल कुछ भी हो सकते हैं। कहीं के मुख्यमंत्री, कहीं के राज्यपाल या किसी आयोग के अध्यक्ष वगैरह। यह तो निर्भर करता है कि... अत: इस बात पर मत जाइये कि ये क्या हैं और हमें क्या चाहिये। इजन्ट इट एक्साइटिंग, कि हमें कोई चाहिये और ये कुछ हैं। फिर से हल्के ठहाके लगने लगे और इधर-उधर की कुर्सियों पर छितरे हुए लोग करीब-समीप आकर बातचीत का मजा लेने लगे।
-लो सुनो भाई साहब, इनकी बातें। ये हाल तो खुद आप लोगों का हैं जो इस पार्टी में हो। आप लोग ही अपने दल की कारस्तानियों पर नुक्ताचीनी करते घूमते हो तो सोचो जनसाधारण इन कारगुजारियों से क्या उम्मीद पाले। लोग इन सब उठा-पटकियों का क्या औचित्य समझेंगे। तभी तो तेजी से जनता का ध्यान हटता जा रहा है ऐसी शासन-व्यवस्था से। लोग विकल्प की बात करने लगे हैं। आपसे अब ऊब पैदा होने लगी है उन्हें। और आप खुद भी तो आश्वस्त नहीं हैं अपनी करनी से।
-आज लोग बेहद समझदार होते हैं। उनकी पीठ पर चाहे जैसे सवारी नहीं गाँठी जा सकती। आप राजनीति में चाहे जितने दाँव-पेंच ले आओ, उठा-पटक कर डालो। जहाँ एक दाँव उलटा पड़ा कि पब्लिक झट से उखाड़ फेंकेगी आपको। छठी का दूध याद दिला देगी। वे बोले।
–चाय आ गई। ये तो गरम लगती है। पहले वाली तो ठण्डी हो गई थी एकदम। बातचीत का रुख पलट गया।
–हाँ-हाँ, आओ चाय तो हम भी ले लें एक-एक कप।
गिरधर ने उठकर एक प्याला चाय का उठाया और स्वयं लेने के बदले सुष्मिताजी की ओर बढ़ाने लगा। परन्तु सुष्मिताजी स्वयं उठ पड़ी थीं अपने हाथ की खाली प्लेट को रखने के लिए। वहीं से चाय भी लेती आईं।
चाय का दौर खत्म होने तक सुष्मिताजी के पर्स में लगभग चौदह-पन्द्रह विजिटिंग कार्ड्स आ गये थे।
–कभी आइये... हमें भी समय दीजिये... तशरीफ लायेंगे। दर्शन करेंगे आपके... फोन कर लीजियेगा कभी, जैसे बीसियों जुमले हर एक कार्ड के साथ नत्थी होकर सुष्मिताजी के व्यक्तित्व में इजाफा करते रहे। शाम को होने वाले कार्यक्रम की गहमा-गहमी बढ़ती रही। सार्वजनिक हलचलों का वेग बढ़ता रहा। भाग-दौड़, चीख-पुकार, व्यवस्था-अव्यवस्था में हर आदमी अपने-अपने ढंग से व्यस्त था। हर आदमी इधर-उधर दौड़ता या आता-जाता दिखाई दे रहा था किन्तु यदि किसी कोने में बैठकर किसी भी एक आदमी को ढंग से देखते रहा जाये तो यह तथ्य उजागर हो जाता था कि वह अन्तत: कुछ भी नहीं कर रहा। और यह किसी एक के लिए नहीं, सबके लिए था। ऐसे व्यस्त थे अधिकांश लोग फिर भी भीड़ का जुट पाना, समूह का हो जाना भी तो एक हिलोर-हलचल की ही बात होती है।
कार्यक्रम काफी सफल रहा था। दूरदर्शन तथा समाचार पत्रों ने काफी अच्छा कवरेज दिया था। एक अखबार में तो अगले दिन गोष्ठी के बारे में विस्तृत सूचना थी जहाँ सुष्मिताजी का उल्लेख भी था। अच्छा लगा उन्हें यह सब, इसलिए नहीं कि वे कोई प्रचार या मान्यता की ख्वाहिशमंद थीं, बल्कि इसलिए कि पिछले कई दिनों से उनके भीतर के मंथन की व्यक्त रचनात्मकता जैसे कुंद हो गई थी। फिजूल की निराशाभरी परिस्थितियों के आगमन से वे परेशान हुई थीं और बैठे-ठाले बदनामी के चक्रवात में घिर गई थीं।
शायद यही शिद्दत थी जो उन्हें सार्वजनिक तौर पर व्यक्त होने में उकसाने वाले उत्प्रेरक का कार्य कर रही थी। अब जैसे ही उन्हें फिर से अपनी विचार-भूमि उपजाऊ होती-सी प्रतीत हो रही थी। जैसे मौसम बदलता है... खेत में फसल बदलने से मिट्टी की फितरत बदलती है, पानी की तासीर बदलती है, जैसे बादल रंग बदलते हैं... जैसे पंछी नीड़ बदलते हैं...
पुलिस के कुछ उच्चतर अधिकारियों से वहाँ प्रत्यक्ष भेंट हो जाने का सीधा प्रभाव कहें, या प्रक्रिया के अनुसार उनके कार्य की पूर्ति, लेकिन सुष्मिताजी को दो दिन बाद ही थाने और पुलिस के उस झंझट से मुक्ति मिल गई जिसके चलते वे बंधन में बँधी कहीं आ-जा नहीं पा रही थीं। उन्हें पुलिस विभाग की ओर से पूरी तरह आश्वस्त कर दिया गया कि तहकीकात अभी अपने स्तर पर जारी है, केस की संभावनाएँ या आशंकाएँ जो भी हैं, सो हैं पर अब सुष्मिताजी उस फाइल से अलगा दी गई हैं। अब वे कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र हैं। वास्तव में कोई अपराधिनी नहीं थीं वे, लेकिन फिर भी पिछली घड़ी के कलापों से ऐसा महसूस कर रही थीं जैसे वास्तव में कहीं बाइज़्जत बरी कर दिये जाने का-सा सुख-चैन पाकर चैन की सांस ली हो उन्होंने।
अब वे अपने वादे के मुताबिक रत्ना और वरुण के पास जा सकती थीं, लेकिन वे जा न सकीं। वे जाना नहीं चाहती हों, ऐसा नहीं था, परन्तु फिर भी जा पाना संभव नहीं हुआ। गिरधर ने उनकी व्यस्तता के और न जाने कितने द्वार खोल दिये। और हर आग्रह के साथ ऐसी अनुरोध भरी आशा, कि नकार न सकें सुष्मिताजी।
अगले ही दिन एक यूथ क्लब के समारोह में सुष्मिताजी को जाना पड़ा। इतना ही नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में उन्हें जिम्मेदारी भी लेनी पड़ी। सुष्मिताजी कहीं पहुँचती तो बाद में पहुँचतीं, पहले पहुँचता उनका नाम, उनकी ख्याति। लगातार पाँच दिन तक चलने वाले एक रक्तदान शिविर के लिए वह प्रेरणा प्रभारी बनाई गईं। उनका कार्य था इस शिविर में आकर रक्तदान करने के लिए घूम-घूम कर स्वस्थ युवाओं को प्रोत्साहित करना। शहर के कुछ कॉलेजों और संस्थानों में सुष्मिताजी के लिए समय लिया गया था, जब उन्हें स्वयं जाकर लोगों को प्रोत्साहित करना था। सुष्मिताजी का मानना था कि यह कार्य बहुत आसान है। उनका कहना था कि एक तो युवा लोग जीवन में गन्दगी, बदनीयती, स्वार्थ आदि घटकों से दूर होते हैं इसलिए वे रक्तदान जैसे पवित्र कार्य के लिए सहज ही तैयार हो जाते हैं, दूसरे रक्त की आवश्यकता एक ऐसी सांघातिक करुणा है जो स्वयं में पारस पत्थर होती है, छूने वाले को सोना बना देती है। किसी भी शहर के किसी भी अस्पताल में कोई भी रोगी कम से कम इसलिए नहीं समाप्त होने दिया जाना चाहिये कि हम लंबे-चौड़े, फैले बिखरे समाज में उसके लिए जीवनदायिनी तरलता नहीं जुटा सकें। लोग उनके तर्कों एवं अभिव्यक्ति से प्रभावित होते थे।
सुष्मिताजी के लिए इस कार्य को हाथ में लेने का मुख्य कारण प्रारंभ में गिरधर का विशेष आग्रह ही था किन्तु धीरे-धीरे उनकी कार्य-उष्णता में निजता भी घुलने लगी।
नतीजा यह हुआ कि तीसरे दिन एक प्रतिष्ठित अखबार में सुष्मिताजी का सिर्फ जिक्र ही नहीं था बल्कि कुछ युवक-युवतियों से घिरे समूह-चित्र में दिखाई भी गई थीं, बाकायदा 'कैप्शन’ के साथ।
इन्हीं दिनों उनके कॉलेज के कुछ लोगों की पहल पर प्रबंध समिति की ओर से प्रयास भी हुए कि सुष्मिताजी अपना त्यागपत्र वापस ले लें।
इधर मन बदलने के बाद, आशाओं का संचार होने के बाद सुष्मिताजी को भी महसूस होने लगा कि बेवजह वह क्यों अपनी दिनचर्या के एक बड़े आधार को छोड़ दें। बदनामी का हो-हल्ला तो चार दिन का नक्कारखाना था। सब काफूर हो गया। बल्कि इस तरह पीठ दिखाकर तो वह अफवाहों को और बल ही दे सकती थीं। इसलिए अब उनके नवसोच ने यही कहा कि इस फैसले पर दोबारा विचार आवश्यक है। पर फिर भी वह एकाएक कोई निर्णय ले पाने की स्थिति में नहीं थीं। वह इसके लिए थोड़ा समय चाहती थीं, आखिर उनका अहम उस भीड़ से नाराज भी तो था जिसने उथली-सस्ती बातों को प्रोफेसर सुष्मिता सिंह से ज़्यादा अहम माना था, चाहे थोड़े ही दिनों के लिए सही। अत: तमाम उत्साह लौट आने के बाद भी सुष्मिताजी इस्तीफा वापस लेने के लिए सहज ही तैयार नहीं हुईं।
उधर पाँच-सात दिन बाद रत्ना का एक पत्र आ गया कि नमिता दो दिन उनकी प्रतीक्षा बेसब्री से करने के बाद वापस चली गई। उसके पति को किसी आवश्यक कार्य से लौटना जरूरी था इसलिए अधिक रुकना संभव नहीं था। वे लोग यहाँ इसलिए नहीं आये कि कहीं सुष्मिताजी उधर के लिए निकल न पड़ी हों। सुष्मिताजी की राह देखते-देखते दो दिन निकाले उन लोगों ने, फिर चले गये। रत्ना ने पत्र में उलाहना दिया था उन्हें न आने के कारण। उसने खुले मन से माफी भी मांगी थी अपनी पहले की गई उपेक्षाओं की बाबत। लेकिन सुष्मिताजी जैसे अब उन दिनों से उबर आई थीं। वही समय होता तो वे भावना से भीग-भीग जातीं और दौड़कर जा पहुँचतीं वरुण सक्सेना के आँगन में। लेकिन अब कोई भावनात्मक हलचल नहीं हुई। वे पूर्ववत् रहीं और यहाँ तक कि मन से उन्हें कोई मलाल भी नहीं हुआ जा न पाने का। हाँ, नमिता के लिए एक खिंचाव-सा हमेशा की भाँति अब भी उनके दिल में था, उसके चलते मन में थोड़ी-सी खिन्नता आई, कि काश नमिता से मिलन हो जाता। दो-एक दिन के लिए उससे मिल लेतीं तो और बेहतर महसूस करतीं।
दो दिन के बाद नमिता के साथ-साथ रूपा की चिट्ठी भी मिलना वास्तव में एक सुखद आश्यर्च-सा था। गणित की प्रोफेसर सुष्मिताजी एक बार फिर उलझनों में पड़ गईं। जिन्दगी को भी भरपूर पढ़ चुकी थीं, और गणित को भी। सवाल दोनों में ही होते थे दोनों में ही हल भी... समीकरण भी बनाकर ही चलना पड़ता था दोनों में ही... इंसानी रिश्ते खून के हों या दिल के, गणितीय समीकरणों की भाँति इनके भी समीकरण होते हैं। आप अपनी समूची मोह-ममता लेकर किसी के पीछे भागिये, वो आपसे और 'रिपल्सिव’ होता चला जायेगा। आपकी ओर पीठ करके न जाने कहाँ अनन्त दिशा में भागता चला जायेगा। आप जरा मुँह फेर कर बैठ जाइये तो पीठ के पीछे आते दिखेंगे लोग मुँह उठाये। शर्त यही है कि आप मुड़-मुड़ कर पीछे देखें नहीं, वर्ना तो काइयाँ होते ही हैं लोग। आपकी चाल भाँप गए तो फिर आप न इधर के रहेंगे न उधर के... हाँ, विरले ही कभी ऐसा होता है कि जिधर आप देखें उधर से ही आपसे आशनाई करने वाला चला आ रहा है...पर ऐसा तो बहुत कम होता है। जब भी होता है, तो न गणित याद रहती है न जिन्दगी। पर लगाकर उड़ जाते हैं दिन। ऐसे में सब बातें अलग होती हैं।
कुछ दिन बाद सुष्मिताजी को अपने त्याग-पत्र की एक पावती मिल गई। इसी से वाबस्ता एक अर्द्धशासकीयनुमा पत्र और था, जिसमें कॉलेज के प्रबंध मण्डल की ओर से उनसे अपने फैसले पर पुनर्विचार करने की विनती की गई थी किन्तु किसी भी हालत में उनसे जवाब सात दिन के भीतर देने के लिए कहा गया था। अहम हो गये सुष्मिताजी के लिए वो सात दिन!
एक दिन बाजार से ढेर सारी खरीदारी करके, हारी-थकी सुष्मिताजी घर लौटीं तो घर का दरवाज़ा खोलते ही सामने जमीन पर एक चमचमाता हुआ सफेद लंबा लिफाफा पड़ा मिला। हाथ के पैकेट को एक ओर रखकर उन्होंने उसे उठा लिया, और पंखा ऑन करते हुए सोफे में धँस गईं। झटपट लिफाफा फाड़कर कागज बाहर निकाला। देखकर उत्सुकता थोड़ी-सी बढ़ी। अमूमन जिन लोगों से हमारा पत्र-व्यवहार नियमित-सा होता रहता है उनके खतों की हम इबारतें भी पहचानते हैं और ढंग भी। नई-सी चिट्ठी देखते ही जिज्ञासा होती ही है।
टाइप किया हुआ पत्र था। प्रेषक का नाम देखा तो आश्चर्य-मिश्रित जिज्ञासा में और इजाफा हुआ। पत्र एक सांसद की ओर से आया था। लोक-सभा के सदस्य, जो दिल्ली में ही रहते थे। वे किसी प्रांत से लोकसभा के सदस्य थे परन्तु पत्र पर उनके राजधानी के निवास स्थान का ही पता दिया हुआ था। संक्षिप्त-सा पत्र था, सुष्मिताजी को संबोधित। पत्र में सुष्मिताजी से अनुरोध किया गया था कि जब भी उन्हें समय मिले, कभी वक्त निकालकर उनके निवास स्थान पर आकर उनसे मिलें। यह भी लिखा था कि जब भी आएँ, पहले जरा सचिव से टेलीफोन करके समय निश्चित कर लें, ताकि सांसद महोदय की किसी पूर्वव्यस्तता की वजह से सुष्मिताजी को असुविधा न हो जाये। बाकी, पत्र में विशेष कुछ भी नहीं था, न कोई प्रयोजन, न कोई संदर्भ।
दूसरे दिन सुष्मिताजी ने पत्र में दिये गये नंबर पर फोन किया तो उनकी बात सांसद महाशय के आवास पर ही बने उनके दफ्तर में कार्य करने वाले किसी व्यक्ति से हुई। पत्र का संदर्भ देते ही वह उन्हें फौरन पहचान गया। बोला–हाँ-हाँ बताइये आप कब आ रही हैं मैडम। साहब आपसे मिलना चाहते हैं। पत्र तो आपको चार दिन पहले डाला गया था किन्तु आज हम स्वयं आपसे आपके निवास पर संपर्क करने वाले थे, क्योंकि साहब जल्दी ही मिलना चाहते हैं। वे अभी दो-तीन दिन ही दिल्ली में हैं। उसके बाद उन्हें लंबे टूर पर पहले गोहाटी जाना है। वहाँ से लौटकर वह दो सप्ताह बिहार में रहने वाले हैं। बाद में शायद इस महीने के अंत तक ही दिल्ली वापस लौटेंगे। इसलिए आपसे आज कल में ही भेंट करना चाहते हैं।
एक सांस में सारी बात बोलकर व्यक्ति ने उन्हें यह भी बताया कि वे अपनी सुविधा से समय बता दें तो उनके आवास पर गाड़ी भेज दी जायेगी। बात तय हो गई। प्रयोजन या कार्य के विषय में कुछ भी पूछना सुष्मिताजी ने उचित नहीं समझा, क्योंकि वे नहीं जानती थीं कि जिस आदमी से उनका संपर्क फोन पर हुआ है वह कौन है, किस स्तर का है।
समय कम था, लेकिन फिर भी सांसद महोदय से मिलने जाने से पूर्व गिरधर से भी इस विषय में बात करना चाहती थीं सुष्मिताजी। उन्होंने फोन से गिरधर से संपर्क किया। संयोग से वह पार्टी दफ्तर में ही उपलब्ध हो गया जो संभवत: दिन की शुरूआत करने के बाद उसका पहला पड़ाव हुआ करता था। वहाँ से फिर वह लोगों से घिरा कहीं न कहीं, किसी न किसी सरकारी विभाग में पराये कामों के सिलसिले में घूमता पाया जाता था। अत: इतना सहज नहीं था फोन पर उसका एकाएक मिल जाना। लेकिन जब गिरधर ही फोन पर मिल गया तो सुष्मिताजी ने आराम से बातचीत करने की गरज से उसे दोपहर के खाने पर अपने यहाँ ही बुला लिया। गिरधर को भला क्या ऐतराज होता।
हमेशा की तरह, गिरधर आया तो उसके साथ में दो लोग और थे जो सुष्मिताजी के लिए अपरिचित थे। वे लोग एक कार से आये थे जो संभवत: उन दोनों में से किसी एक सज्जन की थी। वे महानुभाव स्थानीय स्टेडियम के कोई अधिकारी थे या खेलों से जुड़े किसी क्लब के कोई सक्रिय अभिभावक, यह तो तुरन्त मालूम नहीं हो सका पर वे परिचय हो जाने के बाद शीघ्र ही अपेक्षाकृत काफी वाचाल और सूचनास्पद सिद्ध हुए। सुष्मिताजी को उनके परिचय के नाम पर बताया गया कि ये अमुक जी हैं जिनके बिना यहाँ खेल-जगत् में पत्ता तक नहीं हिल सकता। बस, बाकी सुष्मिताजी पर छोड़ दिया गया, जो चाहें समझ लें। उन्हीं के मुखारविन्द से सुष्मिताजी ने जाना कि शीघ्र ही वे यहाँ किसी क्रिकेट मैच का आयोजन करने जा रहे हैं और तत्संबंधी बातें सहज ही उनकी उत्फुल्ल जिह्वा पर आती चली गईं। मानो अपना और अपने व्यवसाय का विज्ञापन करने का कोई भी मौका वे क्यों छोड़ें? वे पूछा अपूछा सभी विस्तार से बताए दे रहे थे। कैसे आयोजन होगा, कितना रुपया खर्च हो रहा है, कहाँ से मिलेगा, कितना आयेगा.... कौन-कौन खेलने वाले हैं, वे स्वयं न हों तो क्या हो, आदि आदि...।
उनकी अविराम वाचालता से खीझे-से बैठे दूसरे सज्जन कोई उनके ही रिश्तेदार थे जो शायद अपने किसी निजी कार्य के लिए गिरधर जी का वसीला काम में लेने को उनके साथ चस्पाँ थे। ऐसे ही असामी प्राय: गिरधर जी के साथ हुआ करते थे, मानो वे बने ही ऐसे व्यक्तियों के लिए थे जिनकी फाइलें सरकारी दफ्तरों में तेजी से नहीं चल पातीं। फिर गिरधर जी के हाथ की तासीर से जैसे फाइलों के पहियों में ग्रीज लग जाती, फाइलें दौड़ने लगतीं और मंजिल पा जातीं। गिरधर जी का होना सार्थक हो जाता। सामने वाला फिर इतनी कृतज्ञता से झुका हुआ उनसे विदा लेता था मानो कभी उसकी बीवी ने भी कहना नहीं माना तो वह शिकायत के लिए गिरधर जी के पास ही आयेगा।
रसोईघर में दोपहर के खाने की तैयारी करती शोभा जब मेहमानों को पानी पिलाने ड्राइंग रूम में आई तो वहाँ एक के स्थान पर तीन-तीन मेहमानों को पाकर सोच में पड़ गई। लौटकर उसे अपनी की हुई तैयारी अपर्याप्त-सी लगने लगी। वह सब्जियाँ आदि काट चुकी थी पर अभी पकाई नहीं थी। थोड़ी-सी झुंझलाहट में वह वापस रसोई से बाहर निकली और फिर से स्टोर में जाकर सब्जियों की टोकरी को उलट-पलट कर देखने लगी। फिर कुछ सोचकर उसने वापस लौट कर फ्रिज खोला। संभवत: फ्रिज खुलने की आवाज ने सुष्मिताजी को कोई संकेत दिया। वे ड्राइंग रूम से उठकर भीतर आईं।
–अरे, तू क्या कर रही है शोभा?
–बीबी जी सब्जियाँ तो थोड़ी-थोड़ी और ले लूँ ना, दही देख रही थी, रखा है या लाना है।
सुष्मिताजी उसका आशय समझ गईं। तुरन्त बोलीं–वे तीनों खाना नहीं खाने वाले। दो तो वापस जा रहे हैं। सिर्फ एक ही साहब खायेंगे... शोभा को जैसे राहत मिली। वह कुछ बर्तन समेट कर, वाश बेसिन में डाल, सिंक के सामने खड़ी होकर मुँह धोने लगी।
–चाय तो बनाऊँ ना? आँखों पर ठण्डे पानी के छींटे मारते हुए शोभा ने कहा।
–हाँ ले आ, पर देख जरा जल्दी करना, वे लोग जरा जल्दी में ही हैं। मन ही मन सुष्मिताजी मुस्करा उठीं ये सोचकर, कि पता नहीं बोलने की जल्दी में ही हैं या जाने की भी जल्दी है। उन्होंने कोई संकेत तो दिया नहीं था। हाँ, यह कह दिया था कि खाना नहीं खायेंगे। शोभा से बात करके सुष्मिताजी फिर ड्राइंग रूम में जा पहुँचीं। उनके पहुँचते ही दोनों आगंतुक एकदम उठ पड़े और हाथ जोड़कर चलने को हुए।
–अरे, चाय आ रही है। ऐसी भी क्या जल्दी है। बैठिये।
चाय का नाम सुनकर दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हुए फिर से बैठ गये। गिरधर जी उनके बैठने के बाद सुष्मिताजी को दूसरे वाले सज्जन के विषय में बताने लगे कि इन साहब को अभी कुछ दिन पूर्व कोई जगह अलॉट हुई है फैक्ट्री डालने के लिए। बस इनका प्रोजेक्ट करीब-करीब फाइनल स्टेज में ही है। फिर यह काम शुरू करने वाले ही हैं। उसी के लिए जरा दौड़-भाग चल रही है। ये मैकेनिकल इंजीनियर हैं और इनके चचेरे भाई हैं।
–अच्छा! क्या काम शुरू कर रहे हैं आप? सुष्मिताजी ने अब तक खामोश-से बैठे उस गंभीर एवं सोबर-से व्यक्ति में रुचि लेते हुए यूँ ही पूछा। मानो इतनी देर से उसके चुप रहने के कारण अब गिरधर और सुष्मिताजी उन्हें ही बोलने का अवसर देना चाहते थे। यह भी पता नहीं, कि यह उन सज्जन को बोलने का मौका देने की कोशिश थी या कि उनके रिश्तेदार, दूसरे सज्जन को न बोलने देने की कोशिश।
लेकिन फिर भी इंजीनियर साहब के मुँह खोलने से पहले वह महाशय बीच में कूद पड़े। बोले–अभी कहाँ, अभी तो इन्हें लगेंगे कम से कम छह महीने, अपना काम शुरू करने में। मैंने तो इनसे कहा है, दो महीने और ठहर जाओ, मेरा यह मैच निपट लेने दो फिर जो कहोगे सो करवा दूँगा। यह कहकर उन्होंने न केवल बातचीत का सूत्र फिर से अपने हाथ में ले लिया, बल्कि यह भी जता दिया कि उनका काम करवाना इनके लिए बाएँ हाथ का खेल है। और वैसे तो अभी छह महीने तक होने वाला नहीं है। होगा तो उन्हीं की मदद से होगा।
इंजीनियर साहब बात की लगाम बीच में ही खींच लेने से चुप तो हो गये, पर अपने उन तथाकथित रिश्तेदार की ओर से अपने कार्य को दोयम दर्जे का सिद्ध कर देने वाली उद्घोषणा सुनकर कुछ कुपित-से हो गये। जाहिर तो था, उन सज्जन की निगाह में इनका कार्य बाद में था अपना मैच पहले। पहले उससे निपट कर ही वे इनके लिए कुछ कर सकते थे। बोले—
–अजी आपसे कुछ नहीं होने का। आपका तो यह मैच निपटा तो कोई और आयोजन आ टपकेगा। अब तो मैं ही देखता हूँ। यह कहकर उन्होंने भी जता दिया था कि यह सज्जन उनकी सहायता के लिए अर्से से उन्हें आश्वासनों पर ही टाल रहे हैं।
यों थोड़े-से अर्से में ही दोनों अजनबी सुष्मिताजी पर उजागर हो गये। स्पष्ट था कि वे सज्जन कुछ ऐसा काम करवाना चाहते थे, जो दूसरे करवा सकते थे पर व्यस्तता या आदतवश टाल रहे थे। आज कल एक वर्ग वह होता है जिसका कार्य होना होता है, दूसरा वर्ग वह है जो करता है उस काम को। लेकिन तीसरा वर्ग वह है जो उस कार्य को 'करवा’ सकता है। यही वर्ग संभवत: आधुनिक युग का सबसे जबरदस्त सत्ता-केन्द्र है, शक्तिशाली धुरी है। व्यक्ति हो या राष्ट्र, इस तत्त्व की अहमियत को आज कोई नकार नहीं सकता। दलालों ने जैसे गोद ले लिया है समाज को, देश को। करवाने वाले अंधे कर दिये जाते हैं, पहुँच नहीं सकते उन तक जो कार्य करने वाले हैं। करने वालों को मदांध कर दिया जाता है टुकड़ा डालकर, वे उन्हें पहचानते ही नहीं, जिनका कार्य करने के लिए उन्हें बैठाया गया है। अब बचता है तीसरा आदमी... बीच का आदमी जिस तक दोनों गिड़गिड़ाते हुए पहुँचते हैं, बोटियाँ डालते हैं और काम निकलवा कर खैर मनाते हैं। चिमगादड़-सा दोगला और जोंक-सा रक्तजीवी यह समूह अब कोटरों में नहीं रहता... लंबे गलियारे पार करके, कई संतरियों को लांघते हुए ही पहुँच सकते हैं आप इस तक, जहाँ 'सत्यमेव जयते’ के बोध-चिह्न की लाश-सी लटकी होती है।
चाय पीकर जब वे लोग उठने लगे तो एक बार गिरधर जी भी उनके साथ ही उठ खड़े हुए। पर जाते-जाते उन्होंने सुष्मिताजी को बता दिया कि इन सज्जन के किसी कार्य के लिए उन्हें साथ जाना है, फिर खाना खाने के लिए वे वापस लौट कर यहीं आ रहे हैं। सुष्मिताजी ने स्वीकृति में सिर हिलाया तभी भीतर से 'छन्न’ की आवाज आई। शायद शोभा ने किसी दाल या सब्जी में बेहद जायकेदार मसाले का तड़का दिया था। आवाज के साथ-साथ नथुनों को किसी स्वादिष्ट व्यंजन की याद दिलाने वाली मोहक सुगंध चारों ओर व्याप्त हो गई।
वे तीनों कार में बैठकर चले गए और दरवाज़ा बंद करके सुष्मिताजी भीतर रसोई में शोभा के पास ही आ खड़ी हुईं।
सांसद महोदय की कार तीसरे पहर के बाद सुष्मिताजी को लेने आई। गिरधर खाने के बाद वहीं ठहरा हुआ था, अब उसने भी सुष्मिताजी के साथ उस गाड़ी में लिफ्ट ली। राजधानी के आलीशान और अपेक्षाकृत शांत दक्षिणी क्षेत्र की शानदार सड़कों पर दौड़ती सफेद एंबेसडर कार में बैठे वे दोनों बातों में मशगूल हो गये।
लगभग पैंतीस मिनट के बाद कार एक बंगले के भीतरी अहाते में आकर रुकी। ड्राइवर ने फौरन उतरकर पीछे का दरवाज़ा अदब से खोला तो सुष्मिताजी बाहर आईं। दूसरी ओर से गिरधर भी निकलकर खड़ा हो गया। खड़े होकर गिरधर ने एक जोरदार जंभाई ली। दोपहर के खाने और गर्मी के आलस्य भरे खुमार को झटकने के लिए दोनों हाथ इधर-उधर घुमाए। फिर दोनों हाथों से कुरते को ऊपर उठा पेट पर जरा हाथ फेरा, और थपथपाकर पेट को कुरते से फिर ढक लिया। इस उपक्रम का ड्राइवर पर प्रभाव यह पड़ा, मानो वह समझ गया कि इन साहब के लिए यहाँ आना कोई नया या अनोखा नहीं है। ड्राइवर ने फिर हाथ के इशारे से सुष्मिताजी को दफ्तर का वह भाग दिखाया जो उस लंबी-चौड़ी विशालकाय कोठी के सामने वाले भाग में लॉन के बीचों बीच बना था। लॉन, बरामदे और सड़क के किनारे के फुटपाथ पर यहाँ-वहाँ तीस-चालीस लोग इधर-उधर बैठे थे। प्राय: तीन-चार गंवई-देहातियों के बीच घिरा कोई एक चुस्त-दुरुस्त शहरी.... ऐसे, जैसे जगह-जगह एक टुकड़ा गुड़ का और उस पर भिनभिनातीं तीन-चार मक्खियाँ। ये छोटे-छोटे हुजूम भली प्रकार कह रहे थे सारी दास्तान, राजनीति की प्रक्रियाएँ और हमारे सामान्य जीवन में राजनीति का दखल।
सुष्मिताजी संयत होकर भीतर की ओर बढ़ गईं। दफ्तर के भीतर बैठे एक टाइपिस्ट से गिरधर ने आगे बढ़कर कुछ बातचीत की और उसने उन दोनों को सामने पड़े एक बड़े-से सोफे पर बैठने का इशारा किया। सुष्मिताजी बैठ गईं और पर्स से रूमाल निकालकर मुँह पर छलक आये पसीने को पौंछने लगीं। टाइपिस्ट ने उठकर अपनी मेज के समीप लगा हुआ पेडेस्टल सुष्मिताजी की ओर घुमा दिया।
टाइपिस्ट के अपनी सीट से उठते ही गिरधर जगह से उठकर उसकी मेज के पास चला गया और जरा झुक कर मशीन पर टाइपिंग के लिए चढ़ा कागज और पास में रखी हुई फाइल नजर गढ़ाकर देखने लगा। टाइपिस्ट को किसी भी किस्म की कोई असुविधा नहीं हुई... क्योंकि गिरधर ने साफ धुला हुआ सफेद कुरता और पाजामा जो पहन रखा था, और वह भी शुद्ध खद्दर का। खादी के सफेद कुरते-पाजामे को तो आप आज किसी भी बिल में घुसने से नहीं रोक सकते। महात्मा गांधी की इस उपलब्धि पर रोयें या हँसें... यह आप पर है।
ऑफिस में एक अन्य व्यक्ति कागजों का पुलिंदा लिये सामने के मुख्य द्वार पर पड़ी चिक हटाकर इधर-उधर आ-जा रहा था। पाँच-सात लोग यहाँ भी प्रतीक्षा में बैठे थे। अधिकांश जोड़ियाँ उसी पैटर्न की थीं–दो-एक सहमे हैरान-से देहाती बूढ़े या युवा, उनके साथ एक चिकना-चुपड़ा शहरी। सतर्क, चुस्त चपल। देहाती जेबों के पैसों का धुआँ शहरी होंठों से यहाँ-वहाँ निकल रहा था। सुष्मिताजी सरीखे देखने वालों की आँखों में चिनगारियाँ चुभ रही थीं उन प्रतीक्षारत लोगों के सिगरेटों-बीड़ियों की। जादुई सिगरेटें, जिन्हें फूंकते थे पैंटबाज शहरी और गंधा जाती थीं देहाती बण्डियाँ और पगड़ियाँ। आखिरी कश तक मजा लेते उन पढ़े-लिखे शहरियों के बगलगीर वे गंवार ऐसे ही सिमटे-सकुचाए प्रतीत होते थे मानो किसी भव्य पुरुष और सुन्दरी बाला के आलिंगन से युक्त सिगरेट के विज्ञापन पर कोने में लिखी पंक्ति 'वैधानिक चेतावनी’।
महिला उस समूचे कक्ष में या बाहर लॉन में भी, अकेली सुष्मिताजी ही थीं। सो निगाहों का केन्द्र और समूची शालीन भद्रता का बायस भी वही थीं। ऐसे में आदमी का आत्मविश्वास तो सामान्य से कुछ और ज़्यादा ही हो जाता है पर असहजता भी आ जाती है। आप सीधे-स्वाभाविक नहीं रह पाते। आपको हर पल कुछ न कुछ करते रहना पड़ता है। सुष्मिताजी के हाथ में रूमाल था ना, पसीना हवा हो गया तो क्या, अब खुश्की थी पौंछने को...।
थोड़ी ही देर में चिक हटाकर निकले व्यक्ति ने गिरधर की ओर देखते हुए सुष्मिताजी को इशारा किया भीतर जाने के लिए। सुष्मिताजी उठीं, और चिक के पार समा गईं। गिरधर बाहर ही उस व्यक्ति से बातों में लगा रहा।
कमरा साफ-सुथरा और अत्यन्त सादगी के साथ सज्जित था। एक विशालकाय मेज के पीछे सफेद पारम्परिक परिधान में एक काफी युवा से व्यक्ति को बैठे देखा सुष्मिताजी ने।
–नमस्कार, बैठिये।
–नमस्कार! बैठते-बैठते सुष्मिताजी ने उन सज्जन के अभिवादन का प्रत्युत्तर दिया, पर इतनी शालीनता से कि यदि नमस्कार पहले उस ओर से न किया गया होता तो निश्चय ही वह इस ओर से किया जाना था, यह सामने वाला बखूबी जान गया।
–तो आपको हमारा मैसेज मिल गया था?
–जी हाँ, पत्र कल मिला। मैंने फोन किया तो पता चला आप जल्दी ही कहीं बाहर जाने वाले हैं। इसलिए आज ही...
–हाँ-हाँ मेरे दो-तीन दौरे हैं इन दिनों। कुछ दिन बिहार में भी रहूँगा... वह मेरी पुरानी टेरिटरी है.... अच्छा, आप कुछ 'गैस’ कर सकती हैं, अनुमान लगाइये कि हमने आपको क्यों बुलाया होगा। वे अपनी बात की प्रतिक्रिया जानने के लिए उनकी ओर देखने लगे।
–जी.. ऐसा तो कुछ सोच नहीं पा रही।
–आपने आखिर क्या फैसला किया। आप नौकरी छोड़ रही हैं अपनी या इस्तीफा वापस लेने का इरादा बना लिया है?
अब सुष्मिताजी के चौंकने की बारी थी। इसका मतलब यह हुआ कि यह महाशय उनके बारे में काफी कुछ जानते थे या पता कर चुके थे। वे बोलीं-
–उन लोगों ने विचार के लिए सात दिन का समय दिया था वो तो कल खतम हो रहा है। पर सच कहूँ तो अभी तक भी सोच नहीं सकी हूँ कुछ...
–आखिर वजह क्या है जो आप इस तरह नौकरी... मेरा मतलब है आपकी इच्छा वास्तव में समाप्त हो गई नौकरी करने की...या कोई और...
–और कुछ नहीं.... बल्कि मैं तो कहूँगी कि मेरी इस नौकरी में क्या, इस शहर में ही दिलचस्पी खत्म हो गई है। अब यहाँ रहने को मन नहीं होता।
–क्यों? अरे ये क्या कह रही हैं आप? यह शहर तो हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा तीर्थ बन गया है। यहाँ माथा टेके बगैर भला कौन भवसागर पार कर सकता है... वे अपने ही मजाक पर मुस्करा पड़े।
–वैसे तो मैं भी पैदायशी यहीं की हूँ... फिर भी अब लगता है यहाँ करने को कुछ नहीं है। फिर यहाँ अधिसंख्य लोग दाता हैं, याचक नहीं। शायद सांसद महोदय के मजाक ने सुष्मिताजी का हौसला भी बढ़ा दिया था जो इस तरह रुखाई से बात कही गई। अगले ही पल उनका संवाद सांसद महोदय को पुन: गंभीर कर गया। वातावरण ऐसे बदल गया जैसे, कोई रेशमी लाल कीड़ा, जिसने हथेली पर अपने नन्हे पैर खोलकर चलने की शुरूआत की थी, कि अंगुली की शरारत से फिर सुम्म हो गया।
–थोड़ा खोलकर कहेंगी अपनी बात?
–जी इसमें छिपाने को है क्या, खुला ही हुआ है सब। महानगर अब स्वार्थी लोगों के हुजूम के अलावा और कुछ भी नहीं रह गये हैं। यहाँ हर व्यक्ति अपने लिए लड़ता, अपने बारे में सोचता, अपने एक्जिस्टेंस के लिए ही जीवन काट रहा है। जब समस्या एक्जिस्टेंस की नहीं रह जाती तो इन्फ्लुएंस की हो जाती है। पेट भर जाने के बाद, आपको 'प्रभाव’ की चिन्ता करनी है। आप एक बार 'हो’ जाएँ तो फिर हुए रहने की समस्या है। अपने चंगुल में किसी भी तरह आई धूप या छांव तक आदमी किसी और के लिए छोड़ने को तैयार ही नहीं है। उसका पेट भरता ही नहीं, उसे भय निरन्तर साल रहा है कि शहर की बढ़ती हुई समस्याएँ उसके कद को निरन्तर छोटा किए दे रही हैं, इस हड़बड़ी में वह सांस लेने के लिए हवा तक अपरिमित परिमाण में चूतड़ों के नीचे इकट्ठी कर लेने पर आमादा है।
एक पल का व्यवधान आया, जब सुष्मिताजी के मुँह से ऐसा अश्लील कहा जाने वाला शब्द सहज ही निकल जाने से सांसद महोदय हतप्रभ से हो गये। किन्तु उनके सामने बैठी प्रौढ़ा को अपनी जबान की फिसलन पर कोई पश्चात्ताप तो क्या, असुविधा तक नहीं थी। किसी वेद-पुराण में भी नहीं लिखा कि पुरुष जब-तब जमाने के प्रति अपना आक्रोश या घृणा गन्दे शब्दों के माध्यम से व्यक्त कर लेंगे परन्तु महिलाएँ हर घुटन को आँखों से पियेंगी, उनके लिए बोलना वर्जित होगा। कोई पंडित किसी पोथी-पुराण में ऐसा लिखा दिखा दे सुष्मिताजी को, तो वे माफी माँगने को तैयार हैं, वर्ना तो सुनो चुपचाप। सुष्मिताजी ने बोलना जारी रखा—
–और इन आबादियों में जो ऐसा नहीं है, वह या तो होने की प्रक्रिया में है या फिर ऐसा ही अपवाद है, हमारा जैसा, जो रस्सा तुड़ाकर इस शहर की सरहदों से निकल भागना चाहता है। मेरी इच्छा भी अब दिल्ली से निकलकर किसी छोटी जगह रहने की है, क्योंकि यहाँ से निकलकर जब-जब भी कहीं बाहर गई हूँ, मैंने गौर से देखा है कि उम्मीदें अभी जिन्दा हैं। 'जिन्दगी’ होती है अभी। सब कुछ लुट-पिट-सा नहीं गया, यहाँ की तरह बाहर अभी। क्षमा कीजिएगा, ऐसे शहरों पर कोई शत्रु-देश बम भी गिरा दे, तो देश के कलेजे में हूक नहीं उठनी। इसे आप निराशा कहें, चाहे पलायन... सच यही है कि गोश्त-मांस के समंदर ही हैं यहाँ की आबादियाँ... ईंट-पत्थरों के झाड़ में फँसे अटके गोश्त के टुकड़े... बस! जो उम्मीदें या हौसले बाकी बचे दिखते हैं,. 'डिट्रियोरेटिंग’ हैं...मैं तो कहती हूँ, हम जैसे लोगों को चाहे कोई पागल करार दे, पर काश उन्हें बचा ले।
देश के सत्ता-शासन से जुड़ा एक व्यक्ति सामने बैठा क्या पा गईं कि भावुक होकर न जाने क्या-क्या बोल गईं सुष्मिताजी। और जैसे अब अपने ही कहे की 'ईको’ लौट-लौट कर चारों ओर से उन्हें डरा रही हो, ऐसी भीगे पखेरू-सी खामोश बैठ गईं, नजरें झुकाकर। खामोशी छा गई।
–फॅन्टास्टिक! तब तो मेरा काम और भी आसान हो गया। युवा सांसद बोले। सुष्मिताजी ने चौंककर देखा। आशा के सर्वथा विपरीत वे सामने बैठे मंद-मंद मुस्करा रहे थे। वे कुछ रुककर फिर बोले—
–बात आपकी ठीक है। लेकिन इतना अपने कलेजे को वही सताता है, जो नशा नहीं करता। और दिल्ली नशा करती है... दिल्ली की चमड़ी मोटी है... यहाँ कुछ नहीं होगा घबराइये मत। यहाँ के लोग आसानी से हारेंगे नहीं। जब वे देखेंगे कि वे अपने मरते माता-पिता के हलक में गंगाजल नहीं डाल पा रहे हैं तो वे उनकी महामृत्यु के क्षणों में ब्रेक-डांस की धुनें बजाकर उन्हें सुकून देने की कोशिश करेंगे। वे नशा पिला देंगे अपनी पूर्वज पीढ़ियों को, कि लोग महाप्रयाण को भी सुबह की सैर की तरह समझने लगें... जस्ट ए फन... जॉगिंग का-सा आनन्द होगा स्वर्ग-नरक के लिए अलॉटमेण्ट करवाने हेतु दौड़ते हुए मर चुके लोगों में... खैर, ऐनी हाउ....... मुझे खुशी है कि जो प्रस्ताव मैं आपके सामने रख रहा हूँ, उसके फलीभूत होने में आपके ये विचार बड़े काम आयेंगे। थोड़ा-सा रुककर उत्सुकता से अपनी ओर ताकती सुष्मिताजी की ओर देखकर उन्होंने कहना फिर से जारी रखा-
–आपको शायद पता न हो मेरे इलाके के बारे में, जहाँ से मैं एम.पी. हूँ। वहाँ स्त्रियों के लिए काम कर रही एक संस्था है, जिसका पैट्रन मैं हूँ। यह काम खास तौर पर आदिवासी औरतों, पिछड़े इलाके की पिछड़ी और अपंग वृद्धाओं के लिए शुरू किया गया था। परन्तु अब किसी भी आयु, समुदाय या अवस्था की बेसहारा औरतों के पुनर्वास की निशुल्क व्यवस्था है। उन्हें जीवन में कहीं न कहीं.... व्यवस्थित करने की कोशिश की है हमने... वहाँ की सुपरिन्टेण्डेण्ट का पद इस समय खाली है.... एण्ड आइ वांट यू टूबी देयर, इन माइ टेरिटरी... मैं आपको अपने इलाके में चाहता हूँ... एण्ड देट टू, बिफोर फोर्थकमिंग इलेक्शन्स्... आपके बारे में काफी कुछ सुन लेने और जान लेने के बाद आपसे बेहतर केण्डिडेट उस जगह के लिए मेरे जेहन में नहीं है।
–कौन-से शहर में...
–दक्षिणी मध्य-प्रदेश का कस्बानुमा शहर ही है, छोटा-सा। आपने तो नाम नहीं सुना होगा उसका... मैं चाहूँगा कि आप एक बार वहाँ हो आयें। उस जगह को... उस काम को देख आएँ... चाहें तो 'नारी-निकुंज’ में दो-तीन दिन रहकर भी देखकर आइये। फिर आप जैसा कहें व्यवस्था हो जायेगी। किसी बात की फिक्र मत कीजिये, सब जिम्मेदारी मेरी।
यह सुष्मिताजी के लिए फिर एक आश्चर्यभरा खेल था। लेकिन प्रथम दृष्ट्या अस्वीकारने जैसा कुछ नहीं था। बात उनके आधारभूत सोच से बहुत इधर-उधर भी तो नहीं थी।
–आपके लिए सारा बंदोबस्त करवा दिये जाने के बाद मेरा आदमी आपसे मिलकर आपको सूचना देगा। बेफिक्र रहें... विश यू ऑल द बेस्ट... ठीक है, दिल्ली छोड़ ही डालिये ...आश्वस्त होकर मुस्कराने लगे वे।
–मैं तो पन्द्रह-बीस दिनों के लिए बाहर जा रहा हूँ, लौटकर ही आपसे मुलाकात होगी... सोचने के लिए वक्त भी काफी है आपके पास।
उठ खड़ी हुईं, सुष्मिताजी। वे भी सीट से खड़े हो गये और हाथ जोड़ दिये।
चिक के इस पार इन्तजार करती भीड़, गिरधर और स्वयं दफ्तर के कर्मचारियों ने चिक से निकलती जो सुष्मिताजी पाईं वो घुसी सुष्मिताजी से कहीं अधिक आश्वस्त, सन्तोषचित्त दिख रही थीं। वे गिरधर के आगे-आगे चलती मुख्य द्वार से बाहर निकलने को हुईं, तभी ड्राइवर ने झटके के साथ सामने लाकर गाड़ी खड़ी की और द्वार खोल दिया। गिरधर और सुष्मिताजी को उदरस्थ करके गाड़ी दौड़ पड़ी चिकनी, दिल्लिया सड़कों पर...।
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