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मि.कामले और उनका बेटा नाश्ता करने के बाद मुझे दिलासा देते हुए बाहर निकल गए थे कि मैं चिंता न करूँ, यदि कुछ बदलाव करना हो तो बिना संकोच के बता दूँ |
आज कुछ फ़ाइलें चैक करनी थी, सब अपने-अपने प्रोजेक्ट्स में व्यस्त थे | अम्मा-पापा की अनुपस्थिति में सब अपना ‘बैस्ट’देना चाहते थे | अभी ड्राअर से फ़ाइलें निकालकर मेज़ पर रखी ही थीं कि फिर नॉक हुई |
”कौन?”
“मैं हूँ दीदी---”दिव्य की आवाज़ थी |
“आ जाओ न आंदर---”
वह खाली हाथ था, मुझे लग रहा था वह वीडियोज़ लेकर आया होगा |
“चलिए दीदी!”उसने उत्साह से कहा |
“मुझे तो लगा तुम यहीन ले आओगे, हो गईं फ़ाइनल---?”
“चलिए न, चलकर देखिए---”उसे मुझसे ज़िद करने का अधिकार था |
उसके साथ मैं ऐसे उठकर चल पड़ी जैसे किसी बच्चे की ज़िद के साथ माँ |
“आइए दीदी, सरप्राइस फ़ॉर यू---”
अंदर उत्पल की मेज़ पर कुछ वीडियोज़ रखे थे |
“अब ये सब मुझे दिखाओगे? तुम लोग ही फाइनल कर लेते न!” इस समय मेरा मन बिलकुल नहीं था कि मैं उन्हें देखती |
“नहीं दीदी, फ़ाइनल हो गए, आपका सरप्राइज़ कहाँ गया?”व्यू उत्साह में अंदर स्टूडियो और डार्करूम तक हो आया |
चैंबर की खिड़की से ‘मोहभंग’ का खूबसूरत लोगो दिखाई दे रहा था | दिव्य भी मेरे पास आकर खड़ा हो गया |
“कैसा लगा दिव्य?”मैं अपनी ही रौ में पूछे जा रही थी |
“वो चले गए? ऐसे कैसे?”दिव्य निराश था |
मेरी दृष्टि कार-पार्किंग पर गई जहाँ कोई फूलों की डाल को ज़ोर से हिलाकर कार में जा बैठा था | मैं अचानक अचकचा गई;
“उत्पल दादा का सरप्राइज़ देने ही तो मैं लेकर आया था आपको---” दिव्य बाहर की ओर भागा लेकिन गाड़ी चल दी थी और मैं उसे जाते हुए देख रही थी |
क्या मोहभंग के आगे से गुजरते हुए वो तुम ही थे? मुझे विश्वास नहीं हो रहा था | हाँ, यह विश्वास अवश्य हो गया था कि तुम्हारा मोहभंग हो चुका है लेकिन मैं अभी भी उस मकड़जाल में फँसी हुई हूँ | मेरी आँखों से लगातार जो झरना बह रहा था, उसे न मैं रोकने में समर्थ थी, न ही अपनी भावनाओं को ! कैसे कर सके तुम यह उत्पल? एक बार मुझसे मिल तो लेते ! मैं लगभग भागती हुई अपने कमरे में आ गई और दरवाज़ा बंद करके पलंग पर बेहोशी की अवस्था में गिर गई |
रात भर अर्धनिद्रा के सपनों में मुझसे किसी ने जो लिखवाया, वह यह था |
जीवन की सतह पर चलने के लिए उसे केवल पढ़ा जाना ही नहीं होता, उसके साथ करनी होती है एक यात्रा, कभी मन की सतह पर तो कभी तन की सतह पर जहाँ मिलती है एक निर्दोष सरसराहट जो मन के जंगलों में न जाने कैसी लुका-छिपी खेलती रहती है | कभी जामुनी फूल बनकर अजनबी प्रतीक्षा करती रहती है तो कभी साम्राज्ञी बन जाती है, कभी एक उत्तुंग लहर जो एक स्थान पर स्थिर कहाँ रह सकती है !
पहले जैसा कुछ भी तो नहीं रहता, न दोपहर, न शाम, न ही रात, सोने–जागने को पर्यायवाची महसूसता मन आईने में अपना अक्स देखकर खुद के भीतर मुहब्बत की सिंचाई भी तो करता है | कहीं फूलों के स्वप्नलोक में संगीत की अनुगूँज है तो कभी तितली बनूँ, उड़ती फिरूँ मस्त गगन में की चाह का दीप दपदपाए, प्रकृति बेइंतिहा मुहब्बत है !देह की पहचान देह से, मन की मन से, बोध से बुद्धि लेकिन आत्मा---उसको ही तो खोजना है |
युगल राग है तो आसावरी भी है, जोगिया भी है, जोड़ जोड़ जकड़ता छूटता वर्तमान है तो साथ ही देह में पिघलता है, बूढ़ी देह में बसता है एक शिशु ! झाँकती है कविता बार-बार, भीतर और बाहर और हर बार निकल आते हैं कुछ नए कोंपल !पीले पन्नों में तकदीर लिखी हुई, सिमट जाती है । कागज़ी बादाम के बागीचों में उगने लगते हैं तड़प के वृक्ष ! ललचाती रबरी के दौने, जलेबियों का हँसना, मन की यात्राएं कहाँ जीवित रहते पूरी होती हैं ?चलती रहती हैं हर पल, हर क्षण निरंतर, जीवन की हर साँस के साथ-साथ---
जीवन के अंतिम क्षणों तक नहीं पूरी हो सकेगी यह जिज्ञासा कि मन के भीतर यह जो प्रेम की परतें हैं ये क्या परिभाषित कर सकती हैं उन मानवीय संवेदनाओं को जो हर झौंके के साथ इधर से उधर डोलता है?पूरी उम्र इस पशोपेश में झूमते, झूलते मैं प्रेम के निष्कर्ष तक नहीं पहुँच सकी थी |
मुझे अपने बहुत से सहपाठियों की स्मृति कभी भी हो आती है जो मेरे आगे-पीछे घूमते हुए यह दावा कई बार कर बैठते थे कि मुझसे प्रेम करते हैं | ऐसी कोई हूर की परी न होने के बावज़ूद मुझमें कुछ तो आकर्षण था कि मेरी ओर लोग आकर्षित होते। कुछ चुंबक तो था लेकिन यौवन अपने में स्वयं ही एक चुंबक होता है | एक ऐसा खिला फूल जो यदि अधिक सुंदर न भी हो तब भी एक सुगंध से तरबतर रहता है | प्रश्न मन में यह भी टहलता कि कुम्हलाते, खिलते, डाल से टूटते भी फूल की इच्छा का भी कोई महत्व है अथवा फूल को अपनी सारी नैसर्गिक सुगंध उन्हें ही सौंपनी पड़ती है जिनकी इच्छा उन्हें सौंपने की कतई नहीं होती |
पहेली से आगे बढ़कर भी यदि कोई शब्द हो तो उसके लिए मैं यहाँ पर प्रयुक्त करना चाहती थी लेकिन मस्तिष्क में भरे भूसे में जैसे बुद्धि नामक सूई कुछ ऐसी दुबक गई थी जिसका मिलना संभव ही नहीं हुआ था |
नहीं जानती
शायद नहीं समझती
रिश्तों का गणित
ताउम्र जूझते हुए
समझ पाया है
कोई पीर, फकीर, पैगंबर?
दावा करता है, नहीं
कर पाई विश्वास कभी
ज़िंदगी के झरोखों से
झाँक चुपचाप छूते
करते भीतर की यात्रा
भर देते हैं एक असीम
अहसास से, जैसे घने
वृक्ष के पत्तों से छनती
शीतल पवन--
प्यास बुझाती,
अम्बर से टिप टिप झरती
उन बूँदों का प्यार
प्रकृति का समागम
चातक की चोंच में भरी केवल एक बूँद
जो रखता है खोले
अपनी चोंच - -
आस से भरी
उसकी पलक
झपक नहीं पाती
पल भर भी - -
कहीं उसी पल टपके बूँद
रहेगा वह प्यासा
उम्र भर - - -
बूँद पा वह हो जाता है
तृप्त !!
नहीं की उसने
कभी कामना
महासागर की
उसका प्रेम, आस
केवल और केवल===
इति
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लेखिका
डॉ. प्रणव भारती
pranavabharti@gmail.com