श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 13 Ashish Kumar Trivedi द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 13


अध्याय 13

क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग


पिछले अध्याय में भक्ति के विषय में बताया गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था कि जो अपना चित्त मुझमें केंद्रित कर अपने कर्म तथा उसके फल मुझे समर्पित कर देता है वह मेरे निकट है। वह भक्त मुझे प्रिय है जो सबके कल्याण की कामना करते हुए हर स्थिति में समभाव रखता है। जो भक्त माया मोह से परे रहकर मुझमें ध्यान लगाता है वह मेरे निकट रहता है।
भक्ति के बारे में जान लेने के बाद अर्जुन के मन में नए प्रश्न खड़े हुए। उसने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि हे केशव मैं यह जानने का इच्छुक हूँ कि प्रकृति क्या है और पुरुष क्या है तथा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या है? मैं यह भी जानना चाहता हूँ कि सच्चा ज्ञान क्या है और इस ज्ञान का लक्ष्य क्या है?
अर्जुन के सवालों का जवाब देते हुए भगवान ने कहा हे अर्जुन इस शरीर को क्षेत्र (कर्म क्षेत्र) के रूप में परिभाषित किया गया है और जो इस शरीर को जानता है उसे क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता) कहा जाता है।
हे भरतवंशी मैं समस्त शरीरों के कर्म क्षेत्रों का भी ज्ञाता हूँ। कर्म क्षेत्र के रूप में शरीर, आत्मा तथा भगवान को इस शरीर के ज्ञाता के रूप में जान लेना मेरे मतानुसार सच्चा ज्ञान है।
भगवान ने कहा अब मैं तुम्हें समझाऊँगा कि कर्म क्षेत्र और इसकी प्रकृति क्या है? इसमें कैसे परिवर्तन होते है और यह कहाँ से उत्पन्न हुआ है? कर्म क्षेत्र का ज्ञाता कौन है और उसकी शक्तियाँ क्या हैं?
महान ऋषियों ने अनेक रूप से क्षेत्र का और क्षेत्र के ज्ञाता के सत्य का वर्णन किया है। इसका उल्लेख विभिन्न वैदिक स्रोतों और विशेष रूप से ब्रह्मसूत्र में ठोस तर्क और निर्णयात्मक साक्ष्यों के साथ प्रकट किया गया है।
कर्म क्षेत्र (शरीर) पाँच महातत्त्वों अहंकार, बुद्धि और अव्यक्त मूल तत्त्व, ग्यारह इन्द्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियों और मन) और इन्द्रियों के पाँच विषयों से निर्मित है।
इच्छा और घृणा, सुख और दुख, शरीर, चेतना और इच्छा शक्ति ये सब कार्य क्षेत्र के लक्षण हैं। ये लक्षण इसके विकार हैं।
ज्ञान के बारे में बताते हुए श्रीकृष्ण ने कहा कि नम्रता, आडंबरों से मुक्ति, अहिंसा, क्षमा, सादगी, गुरु की सेवा, मन और शरीर की शुद्धता, दृढ़ता और आत्मसंयम सात्विक गुण हैं। इन्द्रिय विषयों के प्रति उदासीन रहना, अहंकार रहित होना, जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु की बुराईयों पर ध्यान देना, अनासक्ति, स्त्री, पुरुष, बच्चों और घर संपत्ति आदि वस्तुओं के प्रति ममता रहित होना विवेकशील मनुष्य की विशेषता है। जीवन में वांछित और अवांछित घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति अनन्य और अविरल भक्ति, एकान्त स्थानों पर रहने की इच्छा, लौकिक समुदाय के प्रति विमुखता, आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिरता और परम सत्य की तात्त्विक खोज ये सब मनुष्य को सद्गति प्रदान करते हैं। जितने भी सात्विक गुण मैंने बताए हैं उन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ। जो भी इसके प्रतिकूल हैं उसे मैं अज्ञान कहूँगा।
श्रीकृष्ण ने कहा अब मैं तुम्हें वह बताऊँगा जो जानने योग्य है। जिसे जान लेने के पश्चात मनुष्य अमरत्व प्राप्त कर लेता है। यह अनादि ब्रह्म है जो हर वस्तु का सार है। वह अस्तित्त्व और अस्तित्त्वहीन से परे है।
उस अनादि ब्रह्म के हाथ, पाँव, नेत्र, सिर, तथा मुख सर्वत्र हैं। उनके कान भी सभी ओर हैं क्योंकि वह ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु में व्याप्त है। वह सर्वव्यापी है।
यद्यपि वह समस्त इंद्रिय विषयों को जानने वाला है फिर भी इंद्रिय रहित है। वह सभी के प्रति अनासक्त होकर भी सभी जीवों का पालनकर्ता है। यद्यपि वह निर्गुण है फिर भी प्रकृति के तीनों गुणों का भोक्ता है।
अनादि ब्रह्म सभी के भीतर एवं बाहर स्थित है। चाहे वह चर हो या अचर। वह सूक्ष्म है और इसलिए वह हमारी समझ से परे है। अत्यंत दूर रहकर भी वह सबके निकट है।
सभी जीवों के बीच विभाजित होकर उनके भीतर निवास करता है पर वह अविभाजित है। अनादि ब्रह्म सबका पालनकर्ता, संहारक और सभी जीवों का जनक है।
वह समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाश का स्रोत है। वह सभी प्रकार की अज्ञानता के अंधकार से परे है। वह ज्ञान है और वही ज्ञान का विषय है। ज्ञान का लक्ष्य भी वही है। वह सभी जीवों के हृदय में निवास करता है।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि मैंने तुम्हें कर्म क्षेत्र की प्रकृति, ज्ञान का अर्थ और ज्ञान के लक्ष्य के विषय में बताया है। इसे वास्तव में केवल मेरे भक्त ही पूर्णतः समझ सकते हैं और इसे जानकर वह मेरी दिव्य प्रकृति को प्राप्त होते हैं।
प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) दोनों अनादि हैं। शरीर में होने वाले सभी परिवर्तन और प्रकृति के तीनों गुणों की उत्पत्ति प्राकृत शक्ति से होती है।
प्राकृत शक्ति ही सृष्टि के कारण और विषय के लिए उत्तरदायी है। सुख-दुख की अनुभूति हेतु जीवात्मा को उत्तरदायी बताया जाता है।
पुरुष अर्थात जीव प्रकृति के आधीन होता है। वह प्रकृति के तीनों गुणों के प्रभाव में इंद्रिय सुखों के भोग की इच्छा करता है। इस आसक्ति के कारण बार बार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है।
शरीर का पालन पोषण करने वाला परमेश्वर ही भौतिक प्रकृति का भोक्ता है। वह बस साक्षी भाव में स्थित होकर जीव को कर्म की अनुमति देता है। वह इस शरीर में आत्मा के रूप में स्थित होकर परमात्मा कहलाता है।
जो मनुष्य परमात्मा को समझ लेता है। जो जीवात्मा को प्रकृति के गुणों के साथ ही जानता है। वह वर्तमान में किसी भी परिस्थिति में स्थित होने पर भी सभी प्रकार से मुक्त रहता है और वह फिर से जन्म को प्राप्त नही होता है। वह वर्तमान में भले ही किसी भी स्थिति में हो वह जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
कुछ मनुष्य ध्यान योग में स्थित होकर अपने ह्रदय के भीतर परमात्मा का दर्शन करते हैं। कुछ ज्ञान द्वारा भी ईश्वर को जानने का प्रयास करते हैं। इसके अतिरिक्त निष्काम कर्म भी भीतर बैठे परमात्मा को जानने का एक मार्ग है।
कुछ अन्य लोग जो आध्यात्मिक ज्ञान को नहीं जानते हैं परंतु वह अन्य महापुरुषों से परमात्मा के विषय सुनकर उसकी उपासना करने लगते हैं। परमात्मा के विषय में श्रवण करने के कारण ऐसे मनुष्य भी भव सागर को निश्चित रूप से पार कर जाते हैं।
हे भरतवंशी अर्जुन इस संसार में जो कुछ भी उत्पन्न होता है और जो भी चर-अचर प्राणी अस्तित्व में हैं सभी क्षेत्र (जड़ प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (चेतन प्रकृति) के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं।
जो परमात्मा को सर्वत्र और सभी जीवों में आत्मा के रूप में स्थित देखता है। जो इस नश्वर शरीर में दोनों को अविनाशी समझता है। जो मनुष्य सभी प्राणीयों के अलग अलग भावों में स्थित एक परमात्मा के दर्शन करता है और इस बात को समझता है कि उस एक परमात्मा से ही समस्त प्राणीयों का विस्तार हुआ है। केवल वही वास्तव में ज्ञानी है। वह अपने परम गंतव्य को प्राप्त करता है।
जो मनुष्य यह समझ लेता है कि परमात्मा अविनाशी है और इसका कोई आदि अंत नहीं है। प्रकृति के गुणों से रहित है। शरीर के समस्त कार्य प्राकृत शक्ति द्वारा संपन्न होते हैं। शरीर में रहने वाली आत्मा वास्तव में कुछ नहीं करती। वही मनुष्य सच्चाई जानते हैं।
जिस प्रकार सूक्ष्म अंतरिक्ष सभी में व्याप्त होने के बाद भी किसी में लिप्त नहीं होता है इसी प्रकार से आत्मा चेतना के रूप में पूरे शरीर में व्याप्त रहती है फिर भी आत्मा शरीर के धर्म से प्रभावित नहीं होती है। जैसे सूर्य समस्त ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार शरीर में स्थित आत्मा पूरे शरीर को अपनी चेतना से प्रकाशित करती है।
जो मनुष्य शरीर और शरीर के स्वामी के अंतर को अपने ज्ञान से समझता है वह प्रकृति से मुक्त होने की विधि को जानकर मेरे परम-धाम को प्राप्त होता है।


अध्याय की विवेचना

इस अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, प्रकृति और पुरुष, ज्ञान और उसके लक्ष्य का वर्णन किया गया है।
अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं क्षेत्र का अर्थ है शरीर। शरीर जो सभी प्रकार के कर्म करने में सहायक होता है। शरीर के आभाव में मनुष्य किसी भी प्रकार का कर्म नहीं कर सकता है।
हमारा यह शरीर चौबीस तत्वों से मिलकर बना है। इनमें पाँच स्थूल तत्व आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु हैं। पाँच सूक्ष्म तत्व इंद्रिय विषय रस, स्पर्श, गंध, रूप और शब्द हैं। पाँच ज्ञानेंद्रियां आँख, कान, नाक, जीभ, और त्वचा हैं। पाँच कर्मेंद्रियां: हाथ, पैर, मुंह, गुदा, और लिंग हैं।
इनके अलावा बौद्धिक प्रणालियाँ जिन्हें सामूहिक रूप से अंतःकरण कहा जाता है। ये हैं मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त।
मनुष्य की चेतन वृत्ति को मन कहते हैं जिससे मनुष्य सोचता विचारता है। प्राण और शरीर के बीच जो तादात्म्य बनता है वह मन है। आत्मा हमारी संपूर्ण चेतना है और इसका वह भाग जो सुन रहा है, प्रश्न पूछ रहा है, या समझ रहा है, उसे मन कहते हैं। मन, आत्मा का ही एक प्रक्षेपण है।
बुद्धि वह चेतन शक्ति है जिसके सहारे मनुष्य तर्क करता है। निर्णय लेता है। मन अपनी शक्ति का प्रयोग बुद्धि के सहारे करता है। जिससे उसे तर्कपूर्ण और विवेकपूर्ण होने में मदद मिलती है।
अहंकार से आशय अपने होने का भान है। मैं एक व्यक्ति हूँ, मैं कर्म करता हूँ ये भाव अहंकार हैं। ये मनुष्य की पहचान से संबंधित है।
चित्त मन का भीतरी आयाम है। चित्त में स्वभाव, आदत, और संस्कार समाए होते हैं।
शरीर एक ऐसा यंत्र है जो जो हमें जीवन उपयोगी कर्म करने में सहायक होता है। अहंकार हमें हमारे अस्तित्व के बारे में बताता है। इंद्रियां अपने विषयों के प्रति आकर्षित होती हैं। मन उस विषय का भोग करने की इच्छा करता है। बुद्धि तर्क करके निर्णय लेती है कि ऐसा कैसे किया जा सकता है। चित्त संग्रहित संस्कारों के आधार पर हमारे निश्चय को बलवान बनाता है। इस प्रकार हम शरीर रूपी यंत्र के माध्यम से कर्म करते हैं।
परंतु किसी भी यंत्र को चलाने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। हमारे इस शरीर में चेतना रूपी ऊर्जा का संचार आत्मा करती है। आत्मा जो परम शक्तिशाली ईश्वर का अंश है। ये आत्मा इस क्षेत्र अर्थात शरीर की ज्ञाता है। शरीर को जानने वाली इस चेतना को क्षेत्रज्ञ कहते हैं। आत्मा शरीर में निवास करती है परंतु शरीर से पृथक होती है। वह शरीर के कर्मों को निर्लिप्त भाव से देखती है। पर उन कर्मों से प्रभावित नहीं होती है।
शरीर जड़ है क्योंकि इसकी उत्पत्ति प्रकृति से होती है। प्रकृति में कुछ भी स्थाई नहीं है। इसलिए शरीर रोग का घर बनता है। आयु बढ़ने के साथ साथ दुर्बल होकर वृद्धावस्था की तरफ बढ़ता है। अंत में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण शरीर उसके गुणों से प्रभावित होता है। बुद्धि जब सही तरह से तर्क करती है और मन को नियंत्रण में रखती है तो मनुष्य सतगुण की तरफ आकर्षित होता है। जब मन भोग और महत्वाकांक्षा की तरफ अधिक आकर्षित होता है तो मनुष्य रजोगुण से प्रभावित होता है। जब मन अकर्मण्यता की तरफ आकर्षित होता है। बुद्धि क्षीण हो जाती है तो मनुष्य तमोगुण से प्रभावित होता है।
प्रकृति से उत्पन्न शरीर उसके प्रभाव में रहता है। परंतु हमारे भीतर स्थित आत्मा ईश्वर का अंश है। आत्मा चेतन है। वह प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होती है। वह अजन्मा है और उसकी मृत्यु नहीं हो सकती है। आत्मा रोग से ग्रसित नहीं होती है। वह हमारे कर्मों के प्रति उदासीन भाव रखती है। शरीर में रहकर एक दृष्टा की तरह चुपचाप देखती है। शरीर के भोगों की तरफ आकर्षित होने से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
परमात्मा ही विभिन्न प्राणियों में आत्मा के रूप में रहता है। इतने अंश में विभाजित होने के बाद भी वह पूर्ण है। जीवों का पालन करते हुए भी वह उनसे पृथक है। संसार की हर वस्तु में वह व्यापत है। ईश्वर सर्वव्यापी और अविनाशी है।
सही ज्ञान वही है जो मनुष्य को उसके परम लक्ष्य तक पहुँचाता है। हमारे जीवन का परम लक्ष्य है जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर ईश्वर के चरणों में सद्गति प्राप्त करना। ये तभी संभव है जब हम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की पहचान कर सकें। ये समझ सकें कि शरीर नाशवान है पर इसके भीतर वास करने वाली आत्मा का नाश नहीं हो सकता है।
आत्मा की सद्गति तभी होगी जब जीव पूर्णतया कर्म और उसके फलों से निर्लिप्त हो जाता है। तब वह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक नया जीवन हमें सद्गति का एक नया अवसर प्रदान करता है।


हरि ॐ तत् सत्