श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 12 Ashish Kumar Trivedi द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 12



अध्याय 12

भक्तियोग


विराट रूप का दर्शन कराने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भक्ति के बारे में बताया था। उन्होंने कहा था कि मैं ही समस्त सृष्टि का आधार हूँ। अतः स्वयं को मुझे समर्पित कर दो। अर्जुन भगवान की विराटता को समझ चुका था। उसके मन में भगवान के लिए श्रद्धा थी। उसने हाथ जोड़कर पूछा हे प्रभु कुछ लोग आपको साकार रूप में पूजते हैं और कुछ लोग निराकार रूप की पूजा करते हैं। आप किसकी भक्ति से प्रसन्न होते हैं?
आनंदमयी भगवान ने कहा हे अर्जुन जो लोग पूरी दृढ़तापूर्वक पूर्ण श्रद्धा के साथ अपना मन मुझमें स्थिर रखते हैं मेरे लिए ऐसे लोग परम योगी हैं। लेकिन अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण में रखकर जो समभाव से मेरे परम सत्य, निराकार, अविनाशी, निर्वचनीय, अव्यक्त, सर्वव्यापक, अकल्पनीय, अपरिवर्तनीय, शाश्वत और अचल रूप की पूजा करते हैं, वह सभी जीवों के प्रति कल्याण का भाव रखते हैं। ऐसे लोग मुझे प्राप्त करते हैं।
देहधारी मनुष्य के लिए मेरे निराकार रूप का चिंतन कठिन होता है। अतः उनके लिए पूर्ण समर्पण कठिन होता है।
हे अर्जुन जो मनुष्य सम्पूर्ण कर्मों को मेरे चरणों में समर्पित कर, मुझे ही एकमात्र आश्रय मानकर, अनन्य भक्ति से मेरा भजन करते हैं। मैं उनका उद्धार करता हूँ और उन्हें शीघ्र ही जन्म मरण के चक्र से मुक्त कर देता हूँ।
अपने मन को स्थिर कर अपनी बुद्धि मुझमें समर्पित कर तुम सदैव मुझ में स्थित रहोगे। इसमें कोई संदेह नहीं हैं।
हे अर्जुन यदि तुम दृढ़ता से मुझ पर अपना मन स्थिर करने में असमर्थ हो तो सांसारिक कार्यकलापों से मन को विरक्त कर पूरे भक्ति भाव से निरंतर मेरा स्मरण करने का अभ्यास करो।
यदि तुम अभ्यास करने में भी समर्थ न हो तो मेरे लिए कर्म करो। मेरे लिए कर्म करने से भी तुम सिद्धि को प्राप्त हो जाओगे।
यदि तुम भक्तियुक्त होकर मेरी सेवा के लिए कार्य करने में असमर्थ हो तब अपने सभी कर्मों के फलों का त्याग करो और आत्म स्थित हो जाओ।
सिर्फ शारीरिक अभ्यास अर्थात बिना समझे मन को स्थिर करने के अभ्यास से ज्ञान के मार्ग का अनुशीलन करना श्रेष्ठ है। ज्ञान से श्रेष्ठ समझा जाता है ध्यान और ध्यान से सभी कर्मों के फलों का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि ऎसे त्याग से शीघ्र ही परम शांति प्राप्त होती है।
जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं करते, सबके मित्र हैं, दयालु हैं, ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं। जो स्वामित्व की भावना से रहित और मिथ्या अहंकार से मुक्त होते हैं। जो दुख और सुख में समभाव रखते हैं और सदैव क्षमावान होते हैं। वे सदा तृप्त रहते हैं। ऐसे लोग मेरी भक्ति में ढूंढ़ता से एकीकृत हो जाते हैं। आत्म संयमित लोग दूंढ़ संकल्प के साथ अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करते हैं।
जो इस जगत में किसी को उद्विग्न नहीं करते हैं। जिन्हें कोई व्यथित नहीं कर सकता है। जो सुख दुख में समान भाव से रहते हैं। भय और चिन्ता से मुक्त रहने वाले मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं।
सांसारिक प्रलोभनों के प्रति उदासीन रहने वाले, वाह्य और आंतरिक रूप से शुद्ध, निपुण, चिन्ता रहित, कष्ट रहित और सभी कार्यकलापों में स्वार्थ रहित रहने वाले मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं।
जो न सुखों से हर्षित होते हैं और न ही सांसारिक दुखों से निराश होते हैं। किसी हानि के लिए शोक नहीं करते हैं। लाभ की तरफ आकर्षित नहीं होते हैं। शुभ और अशुभ की चिंता नहीं करते हैं। ऐसे भक्त जो भक्ति भावना से परिपूर्ण होते हैं, मुझे अति प्रिय हैं।
मित्रों और शत्रुओं के लिए समान भाव रखने वाले, मान और अपमान, शीत और ग्रीष्म में एक समान रहने वाले मुझे बहुत प्रिय हैं। जो अपनी प्रशंसा और निंदा को एक जैसा समझते हैं। जो सदैव मौन चिन्तन में लीन रहते हैं। जो मिल जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं, घर-गृहस्थी में आसक्ति नहीं रखते, जिनकी बुद्धि दृढ़तापूर्वक मुझमें स्थिर रहती है और जो मेरे प्रति भक्तिभाव से परिपूर्ण रहते हैं, ऐसे लोग मुझे अत्यंत प्रिय है।
जो यहाँ प्रकट किए गए इस अमृत रूपी ज्ञान का आदर करते हैं और मुझमें विश्वास करते हैं। निष्ठापूर्वक मुझे अपना परम लक्ष्य मानकर मेरे चरणों में समर्पित होते हैं, ऐसे लोग मुझे अति प्रिय हैं।


अध्याय की विवेचना

वर्तमान युग जिसे कलियुग कहा जाता है उसमें भव सागर को पार करने का सबसे सुगम मार्ग है भक्ति। भक्ति का अर्थ है स्वयं को पूरी तरह ईश्वर को समर्पित करना। पूर्ण समर्पण ही भक्ति है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है
कलियुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा।।
इसका मतलब है कि निरंतर ईश्वर का नाम जप करने वाले कलियुग में भी जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं। भक्ति का मार्ग सबसे सुगम मार्ग है।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि अपने आप को पूरी तरह मेरे प्रति समर्पित कर दो।
भक्ति के लिए पूर्ण समर्पण का होना बहुत आवश्यक है। ईश्वर के लिए पूर्ण समर्पण तभी आता है जब हम उसे पहचान पाते हैं। इस सत्य को समझ पाते हैं कि इस सृष्टि में हमारा सबसे बड़ा शुभचिंतक ईश्वर है। जब तक हम इस सत्य को पूरी तरह से अपनाते नहीं हैं तब तक हमारे लिए ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण संभव नहीं है।
अधिकांश लोगों के लिए ईश्वर की अवधारणा उस शक्ति से है जो परम शक्तिशाली है। उसे खुश करके मनचाही वस्तु मांगी जा सकती है। इस अवधारणा के अनुसार ईश्वर से हमारा संबंध आवश्कताओं की पूर्ति मात्र से है। यहाँ भक्ति नहीं लेन देन है। हम ईश्वर की पूजा करते हैं जिसके बदले में ईश्वर हमारी इच्छाओं की पूर्ति करता है। यदि हमारी इच्छा पूरी हो जाती है तो हम एक नई इच्छा के साथ ईश्वर की आराधना करते हैं। यदि हमारा मनचाहा नहीं होता है तो हम ईश्वर से रुष्ट हो जाते हैं।
जब ईश्वर से हमारा रिश्ता हमारी इच्छाओं और उनकी पूर्ति पर निर्भर करता है तो पूर्ण समर्पण की भावना नहीं होती है। ऐसी अवस्था में पूजा आडंबर होती है। उसमें भक्ति नहीं होती है।
भक्ति के लिए आवश्यक है कि हमारा ईश्वर से रिश्ता स्वार्थ के लिए न हो। हम ईश्वर को सबकुछ मानकर चलें। यह मानकर चलें कि इस दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है वह ईश्वर के ही कारण है। ईश्वर ही सृष्टि का नियंता है। उससे ऊपर कुछ नहीं है। हम अपना सबकुछ ईश्वर को समर्पित कर दें। जब हम यह मानकर चलें कि जो भी होगा वह ईश्वर की इच्छा से होगा। हमारे भले के लिए होगा तो ही हम पूर्ण समर्पण भाव जाग्रत कर सकते हैं।
अर्जुन ने भगवान से पूछा कि उन्हें किस प्रकार के भक्त प्रिय हैं? भक्त जो उनकी साकार रूप में आरधना करते हैं या जो निराकार ब्रह्म के रूप में उनका ध्यान करते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा जो भी अपने मन को स्थिर रखकर अपने समस्त कर्म फल मुझे समर्पित करता है वह मुझे प्रिय है। पर साधारण मनुष्य के लिए निराकार पर ध्यान केंद्रित कर पाना कठिन होता है।
भक्ति के लिए सबसे बड़ी शर्त पूर्ण समर्पण है। जो मन, वचन और कर्म सब ईश्वर को अर्पण कर देता है वही भक्त है। किसी के लिए एक बिंदु पर ध्यान केंद्रित करना आसान होता है जब वह बिंदु आकार लिए होती है। पर बिना किसी आकार के शून्य में ध्यान केंद्रित करना आसान नहीं होता है। इसके लिए कठिन अभ्यास की आवश्यकता होती है।
व्यक्ति चाहे ईश्वर को निराकार माने या साकार आवश्यकता है ईश्वर पर पूर्ण ध्यान केंद्रित करने की। जब आपकी हर सांस में ईश्वर का स्मरण हो तब कहा जा सकता है कि व्यक्ति का मन ईश्वर में लीन है।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मनुष्य को चाहिए कि अभ्यास से मुझ पर ध्यान केंद्रित करे। यदि ऐसा संभव न हो तो अपने सभी कर्म उनके लिए करे। अपने कर्म करते हुए फल की इच्छा का त्याग कर दे।
अक्सर हम पूजा और मंत्र जप करके अपना मन ईश्वर में लगाने का प्रयास करते हैं। पर अपने सांसारिक कर्मों में उलझे रहते हैं। तब हम सिर्फ पूजा और जप अभ्यास के आधार पर कर रहे होते हैं। हमारा ध्यान तो दूसरी सांसारिक बातों पर रहता है। ऐसे में हमारी पूजा और जप व्यर्थ होते हैं। अतः इस तरह की पूजा और जप से अच्छा है कि मनुष्य अपने कर्म ईश्वर को समर्पित होकर करे। उनके परिणामों की चिंता न करे। इस प्रकार धीरे धीरे वह पूरी तरह ईश्वर को समर्पित हो सकता है।
हमें चाहिए कि हम सांसारिक प्रलोभनों से दूर रहकर शुद्ध अंतःकरण से ईश्वर की भक्ति करें। सुख दुख, मान सम्मान सब ईश्वर की इच्छा पर छोड़कर हर स्थिति में समभाव रखें। सभी के कल्याण की कामना करें। किसी से बैर भाव न रखें।


हरि ॐ तत् सत्