अध्याय 2 (भाग 2)
सांख्यदर्शन
श्रीकृष्ण ने पहले तो अर्जुन को समझाया कि वह अपने स्वभाव के विपरित आचरण कर रहा है। वह एक वीर योद्धा है। युद्ध से विमुख होकर सन्यास की बातें करना उसका वास्तविक स्वभाव नहीं है। मोह में पड़कर वह भूल गया है कि अन्याय के विरुद्ध लड़ना ही क्षत्रिय का स्वभाव होता है। अपने क्षत्रिय धर्म को त्याग कर वह उस अपकीर्ति के मार्ग पर चल रहा है जो उसके साथ उसके कुल के लिए भी घातक है।
अर्जुन को जब यह बात समझ आ गई तब उन्होंने उसके उस मोह को तोड़ने का काम किया जिसके कारण वह युद्ध नहीं करना चाहता था। अर्जुन को संकोच हो रहा था कि युद्धभूमि में वह अपने गुरुओं, बंधुओं, मित्रों एवं अन्य परिजनों पर शस्त्र कैसे चलाएगा। वह उनकी मृत्यु का कारण नहीं बनना चाहता था। उसके इस मोह को तोड़ने के लिए श्रीकृष्ण ने उसे आत्मा और उसकी अमरता का ज्ञान प्रदान किया।
उन्होंने अर्जुन से कहा कि जीवन और मृत्यु सृष्टि का एक चक्र है। यह चक्र निरंतर चलता रहता है। व्यक्ति का जन्म होता है। वह बाल्यावस्था से युवावस्था में प्रवेश करता है। उसके बाद वृद्ध हो जाता है। अंत में उसकी मृत्यु हो जाती है। उसके बाद यह क्रम पुनः चलता है। श्रीकृष्ण ने कहा कि इस युद्धभूमि में उपस्थित लोग भूतकाल में भी थे। वर्तमान में हैं एवं भविष्य में भी रहेंगे। ऐसा कोई समय नहीं रहा जब यह लोग नहीं थे। भविष्य में भी ऐसा कोई समय नहीं होगा जब यह न हों।
जन्म और मृत्यु शरीर की होती है। पर उसमें वास करने वाली आत्मा न जन्म लेती है और न ही उसकी मृत्यु होती है। आत्मा अमर है। कोई भी उसका नाश नहीं कर सकता है। कोई शस्त्र उसे काट नहीं सकता। अग्नि जला नहीं सकती। वायु सुखा नहीं सकती। आत्मा अविनाशी है। अतः जिन्हें वह युद्ध में मारेगा वह सिर्फ शरीर होंगे। आत्मा एक शरीर से निकल कर कर्मानुसार दूसरा शरीर धारण कर लेगी। इसलिए वह किसी प्रकार का संकोच किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करे।
आत्मा और उसकी अमरता का ज्ञान देकर श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे थे कि हमारी वास्तविक पहचान हमारा स्थूल शरीर नहीं है। हमारा शरीर बदलता रहता है। क्षय होता रहता है। एक दिन पूर्णतया नष्ट हो जाता है। अतः जो वस्तु बदलती रहती है वह हमारी पहचान कैसे हो सकती है। हमारा वास्तविक रूप है हमारी आत्मा। आत्मा शाश्वत है। वह न जन्म लेती है और न उसकी मृत्यु होती है। वह जीर्ण हो चुके शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है। उसी प्रकार जैसे हम पुराने कपड़ों का त्याग कर नए कपड़े पहनते हैं।
जब तक हम शरीर का बोध रखते हैं। उसे ही वास्तविकता मानकर चलते हैं तब तक हम अपने वास्तविक स्वरूप को समझ नहीं पाते हैं। अपने वास्तविक स्वरूप को जाने बिना हम अपने कर्तव्य का सही प्रकार से पालन नहीं कर पाते हैं।
श्रीकृष्ण ने जो ज्ञान दिया उसके अनुसार मृत्यु केवल शरीर की होती है। उसके अंदर वास करने वाला जीव अर्थात आत्मा अविनाशी है। इसलिए अर्जुन अपने परिजनों का वध करने में संकोच न करे। कुछ लोगों को ऐसा लग सकता है कि इस स्थिति में तो किसी भी प्रकार की हत्या को उचित ठहराया जा सकता है। क्योंकि हत्या तो केवल शरीर की होगी। आत्मा तो अमर है।
ऐसे लोगों को पहले स्वधर्म के बारे में समझना आवश्यक है। इसलिए श्रीकृष्ण ने पहले अर्जुन को स्वधर्म के बारे में बताया। जैसा पहले बताया गया है कि स्वधर्म का अर्थ कर्तव्य है जो आपको मिला है। अतः जब एक सैनिक जबरन सीमा में घुसने वाले व्यक्ति पर गोली चलाता है तो यह उसका कर्तव्य है। किसी हिंसक व्यक्ति या पशु द्वारा हमला किए जाने पर आत्मरक्षा के लिए उस पर हमला करना आपके लिए क्षम्य है। क्योंकि आत्मरक्षा भी आपका कर्तव्य है। परंतु अपने क्रोध, लालच या स्वार्थ के कारण किसी की हत्या करना क्षम्य नहीं है। यह हत्या अपराध है क्योंकि यह आपका कर्तव्य नहीं है।
अपने कर्तव्य के पालन के लिए कुछ ऐसा करना जो आपको अप्रिय लगे किए जाने योग्य है। एक पुलिसकर्मी के सामने यदि उसका कोई प्रिय अपराधी बनकर सामने आए तो उसे गिरफ्तार करना भले ही उसे अप्रिय लगे किंतु उसे करना चाहिए। कर्तव्य पालन करते समय प्रिय अप्रिय का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए। डॉक्टर के लिए किसी का अंग काटना एक कड़ा फैसला होता है। परंतु यदि ऐसा करना मरीज़ के जीवन और स्वास्थ के लिए आवश्यक है तो उसे करना पड़ता है।
स्वधर्म बहुत ही स्वाभाविक है। यह अपने आप ही आपके अंतस में उपजता है। अतः स्वधर्म को पहचानना कठिन नहीं होता है। कठिनाई तब उत्पन्न होती है जब हम अपनी इच्छाओं के वशीभूत हो जाते हैं। तब हम स्वधर्म को पहचान कर भी अनदेखा कर देते हैं।
जो व्यक्ति सांसारिक प्रलोभनों के आकर्षण में बंधा होता है वह कभी भी अपने कर्तव्य का सही पालन नहीं कर सकता है। कुछ भी करने से पहले उसके मन में बहुत सारी बातें आती हैं। वह अपने लाभ हानि का हिसाब लगाता है। यह सोचता है कि इस काम को करके उसे लोगों से सम्मान मिलेगा या उसे लोगों से उलाहना प्राप्त होगी। वह वही काम करता है जिसमें लाभ हो मान सम्मान मिले। उस काम को करने से कतराता है जिसमें उसका लाभ न हो। जिसे करने से उसके सम्मान में कमी आए। उसके लिए कर्तव्य पालन का अर्थ केवल निजी लाभ और सम्मान प्राप्त करना होता है। ऐसे लोग कामनाओं से ग्रसित होते हैं। उनकी बुद्धि सीमित होती है।
दूसरी तरफ वह लोग जो कर्तव्य को अपना धर्म समझते हैं वह सांसारिक कामनाओं से ऊपर उठकर सोचते हैं। उनके लिए कर्तव्य ही सर्वोपरि होता है। अपनी हानि निश्चित होने पर भी वह अपने कर्तव्य का पालन करते हैं। कर्तव्य का पालन करते हुए यदि अपयश भी मिले तो उसे स्वीकार कर लेते हैं।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम सिर्फ अपना कर्म करो। कर्म से प्राप्त होने वाले फल की चिंता मत करो। यह मत सोचो कि युद्ध करके तुम्हें राज्य का सुख मिलेगा या परिजनों की हत्या करने का दोष। तुम कर्म फल से अपने आप को असंबद्ध करके सिर्फ कर्म के लिए कर्म करो। यही वास्तविक योग है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
इस श्लोक में बिना फल की चिंता किए कर्म करने का उपदेश दिया गया है। यह भगवद्गीता का एक प्रमुख श्लोक है। इस श्लोक को समझ कर ही हम निष्काम कर्म को समझ सकते हैं।
हम जब भी कुछ करते हैं तो उसका कोई न कोई फल तो होता ही है। हम अक्सर कुछ पाने के लिए ही कर्म करते हैं। तो क्या कुछ प्राप्त करने के लिए किया गया कर्म गलत है ? उदाहरण के तौर पर लें कोई यदि सिविल सेवा परीक्षा के लिए तैयारी करता है तो उसका उद्देश्य उस परीक्षा में उत्तीर्ण होना ही होगा। वह अपने कर्म इस प्रकार करेगा कि उस परीक्षा में सफल हो सके। अब प्रश्न उठता है कि क्या सफलता की कामना करते हुए परीक्षा की तैयारी करना अनुचित है।
इसे हम अ और ब नामक दो व्यक्तियों के उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। अ और ब दोनों ही सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। अ परीक्षा की तैयारी करते हुए सदैव परीक्षा के परिणाम के बारे में सोचता है। पढ़ते हुए कभी यह सोचकर प्रसन्न होता है कि एक दिन वह एक बड़ा अधिकारी बनेगा। कभी उसका मन यह सोचकर विचलित होता है कि यदि परिणाम अनुकूल न रहा तो क्या होगा। पढ़ाई करते हुए उसका बहुत सा समय इसी प्रकार की बातें सोचने में व्यर्थ होता है।
दूसरी तरफ ब है। वह सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान देता है। पढ़ते समय वह उससे निकलने वाले परिणाम के बारे में नहीं सोचता है। वह बस पूरे मन से अपनी पढ़ाई करता है। वह न यह सोचकर उत्साहित होता है कि एक दिन अधिकारी बनेगा और न ही इस चिंता में घुलता है कि परिणाम अनुकूल होता है या नहीं।
अ और ब दोनों कर्म कर रहे हैं। कर्म का परिणाम भी आएगा। किंतु हर समय परिणाम की चिंता करने वाला अ सही प्रकार से अपने कर्म पर ध्यान नहीं दे पाता है। पढ़ाई से उसका मन भटकता है। जबकि फल की चिंता किए बिना ब अपने कर्म के प्रति सजग रहता है। पढ़ते समय उसका मन भटकता नहीं है।
अ फल के बारे में सोचते हुए कर्म करता है। अतः कर्म करते हुए उसका मन अशांत होता है। वह अपनी पूरी क्षमता से कर्म नहीं कर पाता है। ब कर्म करता है। उसके फल को लेकर अधिक चिंतित नहीं होता है। वह पूरी एकाग्रता से अपना कर्म करता है।
परीक्षा का परिणाम आने पर ब को सफलता मिलने की उम्मीद अ के सफल होने से अधिक होगी।
इसी प्रकार अ और ब को एक दूसरी स्थिति में रखते हुए विचार करते हैं। मान लेते हैं कि अ और ब दोनों भजन गायक हैं। गायन कला में निपुण होने की बात करें तो दोनों समान हैं। दोनों ही एक मंदिर के कार्यक्रम में भजन गाने के लिए जाते हैं।
अ चाहता है कि अपने भजनों से लोगों को प्रभावित कर दे। जिससे लोगों में उसकी कीर्ति बढ़े और उसे अधिक से अधिक आयोजनों में बुलाया जाए जिससे वह खूब धन कमा सके। वह एक से बढ़कर एक भजन गाता है। गाते हुए उसका ध्यान इस बात पर होता है कि लोग उसे कितना पसंद कर रहे हैं।
ब अपने भजनों से लोगों को प्रभावित करने का प्रयास नहीं करता है। यह भी नहीं सोचता है कि अच्छा गाएगा तो अधिक प्रसिद्धि और धन मिलेगा। वह बस अपने पूरे मन और भक्तिभाव से भजन गाता है।
एक क्षण के लिए कल्पना कीजिए कि आप उस प्रांगण में हैं जहाँ यह भजन का कार्यक्रम हो रहा है। आपको किसके द्वारा गाया हुआ भजन प्रभावित करेगा ? मैं अपनी बात करूँ तो निसंदेह ब के द्वारा गाया भजन किसी के भी अंतस को छूने में सफल रहेगा।
जब दोनों गायन कला में समान रूप से निपुण हैं तो फिर ब द्वारा गाया गया भजन ही क्यों लोगों के अंतस को छुएगा ? उत्तर वही है जो श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि तुम्हारा अधिकार कर्म पर है। उसके फल पर नहीं। अतः कर्म के लिए कर्म करो। अ अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर गाता है। अतः उसकी गायकी भले ही अच्छी हो पर उसमें भक्तिभाव की कमी होगी जो भजन के लिए आवश्यक है। ब बिना किसी इच्छा के पूरे समर्पण और भक्तिभाव से भजन गाता है। इसलिए उसका भजन अंतस को छुएगा।
दोनों उदाहरणों को देखने के बाद श्लोक का सही अर्थ समझने में आसानी होगी। कर्म करते हुए उससे मिलने वाले फल के विषय में सोचने से हम कर्म पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं। जब हम फल पर अधिक और कर्म करने पर कम ध्यान देते हैं तो कर्म पर इसका प्रभाव पड़ता है। हम पूरे मनोयोग और सही तरीके से काम नहीं कर पाते हैं।
श्रीकृष्ण ने कहा कि कर्म के फल से असंबद्ध होकर कर्म करो। कर्म करने का तुम्हें अधिकार है परंतु उसके फल की प्राप्ति पर नहीं।
मुझे मेरा वांछित परिणाम चाहिए सोचते हुए कर्म न करो। न ही इसलिए कर्म से दूर हो जाओ कि उससे वांछित फल नहीं मिलेगा। कर्म को सर्वोपरि मानते हुए यह सोचकर कर्म करो कि परिणाम तो प्राप्त होगा ही।
सकाम कर्म करने वाले लोग कोई भी कर्म करने से पहले उसे स्वयं को होने वाली लाभ या हानि के तराजू पर तौल कर देखते हैं। सिर्फ वही काम करते हैं जिसमें अधिक लाभ हो। भले ही वह कार्य अनुचित हो। जबकि निष्काम कर्म करने वाले सिर्फ यह सोचकर कर्म करते हैं कि इससे मेरा आध्यात्मिक विकास होगा और समाज की भलाई होगी।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निष्काम भाव से कर्म करने के लिए कहा। जो व्यक्ति राग द्वेष, लाभ हानि, मान अपमान से ऊपर उठ जाता है वह संसार के प्रलोभनों से प्रभावित नहीं होता है। ऐसा स्तिथिप्रज्ञ व्यक्ति उसी प्रकार अटल रहता है जैसे विशाल सागर अपने भीतर नदियों के समाहित होने पर भी विचलित नहीं होता है।
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को शिक्षा दी है कि स्वधर्म से बड़ा कुछ भी नहीं है। उसका पालन करते हुए कभी भी निजी लाभ या हानि के बारे में नहीं सोचना चाहिए। स्वयं से ऊपर उठकर अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिए।
स्वयं से ऊपर उठने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचाने। स्वयं को शरीर से पृथक कर उस आत्मा के रूप में सोचें जो अविनाशी है।
कर्म निष्काम भाव से किया जाना चाहिए। कर्म करना व्यक्ति का अधिकार है। उसके परिणाम के बारे में सोचना नहीं।
जो भी ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने दिया है वास्तविक जीवन में उसका उपयोग करना ही योग है। अर्थात ज्ञान सिर्फ प्राप्त करने के लिए नहीं होता है। उसकी उपयोगिता तभी है जब उसका उपयोग जीवन जीने के लिए किया जाए। उसे कर्म से साकार किया जाए।
यह एक कठिन कार्य है पर इसका अभ्यास किया जा सकता है।
हरि ॐ तत् सत्