श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 3 Ashish Kumar Trivedi द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 3



अध्याय 3

कर्मयोग

दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को लाभ हानि, राग द्वेष, मान अपमान से ऊपर उठकर एक स्तिथिप्रज्ञ व्यक्ति बनने का उपदेश दिया था। उन्होंने कहा था कि अर्जुन को कर्म के फल की चिंता‌‌ छोड़कर अपने कर्म का पालन करना चाहिए।
श्रीकृष्ण ने जो ज्ञान दिया उसे सुनने के‌ बाद अर्जुन और भी दुविधा में पड़ गया। उसने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि आपने मुझे राग द्वेष, लाभ हानि, मान सम्मान से ऊपर उठने को कहा है। आप चाहते हैं कि मैं मेरे कर्म से प्राप्त होने वाले फल के उपभोग की लालसा त्याग दूँ। ऐसे में मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरे लिए क्या उचित है ? मैं युद्ध करूँ जिसके परिणाम जय या पराजय को मुझे स्वीकार करना पड़ेगा। या फिर ज्ञान के मार्ग पर चलूँ और राज्य प्राप्त करने की लालसा का त्याग कर दूँ। आपने जो ज्ञान दिया है उसके बाद मेरी दुविधा और बढ़ गई है। आप मुझे बताएं कि मैं ज्ञान के मार्ग पर चलूँ या अपना कर्म करूँ।
अर्जुन ने एकबार फिर स्वयं को भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने उससे कहा हे अर्जुन ज्ञान को चुनो। परंतु ज्ञान को जीवन में उतारने के दो मार्ग हैं। कुछ लोग बौद्धिक चिंतन एवं ध्यान साधना से ज्ञान के सही मर्म को समझते हैं। कुछ लोग कर्म पथ पर आगे बढ़ते हुए उनके समस्त फलों को ईश्वर को समर्पित करते हुए ज्ञान को अपने जीवन में समाहित करते हैं। कर्म फल से असंबद्ध होने का अर्थ कर्म से दूर होना नहीं है। सिर्फ सांसारिक रूप से सन्यास ग्रहण करके ज्ञान के सही अर्थ को नहीं समझा जा सकता है। ज्ञान को समझने के लिए मन को वास्तविक रूप से सन्यास के लिए तैयार करना चाहिए।
इस सृष्टि में कोई भी कर्म से दूर नहीं रह सकता है। अपने गुण के अनुसार वह कोई न कोई कर्म करने के लिए बाध्य होता है। भोग विलास की वस्तुओं को त्याग कर भी मन में उनकी लालसा रखने वाला उनसे मुक्त नहीं होता है। वह सिर्फ पाखंड करता है। अतः अर्जुन जो कर्म करते हुए अपने आप को लालसा से मुक्त कर लेता है वही ज्ञान को सही प्रकार से ग्रहण करता है।
व्यक्ति को अपने नियत कर्म करते रहना चाहिए। अपने नियत कर्म को किए बिना वह अपना जीवन यापन नहीं कर सकता है। अतः उसके लिए यही उचित है कि वह कर्म करे और उसके फलों को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दे। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने मानव को कुछ नियत कर्म प्रदान किए हैं। अतः उसके लिए आवश्यक है कि वह उन कर्मों को करते हुए जीवन यापन करे। अकर्मणता किसी भी स्थिति में नहीं होनी चाहिए। कर्म रूपी यज्ञ करने से देवता प्रसन्न होकर सुख प्रदान करते हैं। लेकिन जो कर्म रूपी यज्ञ में आहुति दिए बिना इन सुखों का उपभोग करता है वह चोर के समान है।‌ अतः कर्म करते हुए उसके फलों को ईश्वर को समर्पित करने वाला सुख प्राप्त करता है। लेकिन फल के भोग की लालसा में कर्म करने वाला अपने लिए दुखों को आमंत्रित करता है।
सृष्टि का एक चक्र है। हम कर्म रूपी यज्ञ में आहुति देते हैं तो देवता प्रसन्न होते हैं। देवताओं के प्रसन्न होने से वर्षा होती है। वर्षा से अन्न उपजता है। अन्न से हमारे शरीर का पोषण होता है।
वेदों में मनुष्य के लिए कर्म निर्धारित किए गए हैं। वेद ईश्वर से उत्पन्न हैं। अतः प्रत्येक कर्म में ईश्वर विद्यमान हैं। जो लोग वेदों की उपेक्षा कर उनमें वर्णित कर्मों का पालन नहीं करते हैं वह व्यर्थ का जीवन व्यतीत करते हैं। नियत कर्म करने से वही मुक्त होते हैं जो प्रबुद्ध हैं। जिन्होंने अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया है और आत्मसंतुष्टि की स्थिति में रहते हैं। ऐसे व्यक्ति कर्म न करते हुए भी कुछ खोते नहीं हैं। बाकी लोगों के लिए यही उचित है कि कर्म के फल की लालसा त्याग कर कर्म करते रहें।
महाराजा जनक एवं अन्य महापुरुषों ने अपने नियत कर्म करते हुए ही सिद्धि की अवस्था प्राप्त की। हे अर्जुन तुम भी बिना किसी लालसा के अपने कर्तव्य का पालन करो। महान व्यक्ति जो करते हैं साधारण जन उससे प्रभावित होते हैं। वह जिस पथ का चुनाव करते हैं बाकी के लोग उसका अनुसरण करते हैं। हे पार्थ मैं संसारिक कर्मों से मुक्त हूँ। मुझे किसी वस्तु की अभिलाषा थी नहीं है। किंतु यदि मैं अपने कर्म से विमुख हो जाऊँ तो मुझे देखकर अज्ञानी लोग भी अपने कर्म से विमुख हो जाएंगे। अतः एक आदर्श स्थापित करने हेतु मैं भी अपने कर्म कर रहा हूँ।
अज्ञानी अपनी कामनओं के वशीभूत होकर कर्म करते हैं। ज्ञानी कर्म करते हैं जिससे लोगों को उदाहरण मिल सके। ज्ञानी जनों को चाहिए कि वह अज्ञानियों को उनका कर्म करने से न रोकें। वह अपने निष्काम कर्म से एक उदाहरण प्रस्तुत करें। जिससे वह उनका अनुसरण कर सकें।
अज्ञानी प्रकृति के गुणों के आधीन होकर स्वयं को कर्ता मानता है। ज्ञानी पुरुष जानते हैं कि कर्म प्रकृति के गुणों के अंतर्गत आते हैं। वह अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा को पहचानते हैं जो गुणों से परे है। अतः वह अपने को कर्ता नहीं समझते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन तुम भी स्वयं को कर्ता न मानकर युद्ध करो। अपने कर्म के फल को मुझे समर्पित करने वाले कर्म के दोषों से मुक्त हो जाते हैं। जो स्वयं को कर्ता मानकर कामनाओं से ग्रसित होकर कर्म करते हैं वह अज्ञानी होते हैं और अपने कर्म के परिणाम को भोगते हैं।
ज्ञानी हो या अज्ञानी सभी मनुष्य अपने गुणों के अनुसार कर्म करते हैं। मनुष्य की इंद्रियां भोग विलास की तरफ आकर्षित होती हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इंद्रियों के वशीभूत होकर काम न करे।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अपने कर्तव्य का त्रुटिपूर्ण पालन भी दूसरे के कर्तव्य के उत्कृष्ट पालन से अच्छा होता है। स्वधर्म का पालन करते हुए मृत्यु को प्राप्त करना दूसरे के कर्म को करने से कहीं अधिक अच्छा है।
कामनाओं के वशीभूत होकर कर्म करना गलत है। इस बात को समझने के बाद अर्जुन के मन में प्रश्न आता है कि ऐसी कौन सी शक्ति है जिसके कारण मनुष्य सब जानते हुए भी पाप कर्म करने को विवश होता है ? अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि रजोगुण से उपजी वासना ही व्यक्ति को पाप कर्म की ओर ढकेलती है। यह वासना क्रोध को जन्म देती है। यह क्रोध बहुत विनाशकारी होता है।
जिस तरह धुआं आग को, धूल दर्पण को और गर्भाशय गर्भ को ढक लेता है उसी प्रकार वासना मनुष्य के ज्ञान को ढक लेती है। इंद्रियां, मन और बुद्धि वासना का निवास स्थान होता है। हे अर्जुन पहले तुम अपनी इंद्रियों को वश में कर वासना का दमन करो। यह पाप का मूल और ज्ञान का विनाशक है।
स्थूल शरीर से श्रेष्ठ हैं इंद्रियां, इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से ऊपर है बुद्धि। परंतु आत्मा बुद्धि से भी परे है। यह सर्वश्रेष्ठ है। अतः हे महाबाहु अर्जुन आत्मा को श्रेष्ठ मानकर इंद्रियों, मन और बुद्धि को नियंत्रित कर वासना का दमन करो।

अध्याय की विवेचना
इस अध्याय के आरंभ में अर्जुन पुनः अपनी नई दुविधा भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख रखता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म फल की चिंता‌‌ छोड़कर निष्काम भाव से कर्म करने को कहा था। उन्होंने कहा था कि ज्ञानी मनुष्य वही है जो अपनी कामनाओं को वश में करके रखता है। सांसारिक प्रलोभनों से स्वयं को दूर रखता है।
अर्जुन उनके द्वारा दिए ज्ञान को समझ तो गया था पर अब उसकी समस्या थी कि श्रीकृष्ण ने उसे निष्काम कर्म और ज्ञान दो विषयों के बारे में बताया था। अब वह चुनाव नहीं कर पा रहा था कि वह कर्म के मार्ग में आगे बढ़े या ज्ञान के मार्ग का अनुसरण करे।
अर्जुन के समक्ष जो दुविधा उत्पन्न हुई थी वह किसी भी सांसारिक व्यक्ति के सामने रहती है। हम समझ नहीं पाते हैं कि कामनाओं से रहित होने का जो ज्ञान शास्त्र हमको देते हैं, उसके अनुकरण का सही तरीका क्या है ? क्या इसका अर्थ यह है कि हम संसार से विरक्त होकर हर प्रकार के कर्म से स्वयं को अलग कर लें। एक आम व्यक्ति जब ज्ञान की इस प्रकार की बातें सुनता है तो उसे लगता है कि सांसारिक प्रलोभनों से बचने का उपाय संसार से मुंह मोड़ लेना है। सब कुछ त्याग कर सन्यासी का जीवन व्यतीत करना है। हमारे लिए सन्यास सिर्फ संसार को त्याग कर सभी कर्मों से दूर हो जाने की अवस्था है। अपने अज्ञान के कारण हम समझते हैं कि कर्म हमें बांधते हैं। अतः उनसे दूर होकर हम बंधनों से मुक्त हो जाएंगे।‌
हमारे लिए यह समझ पाना कठिन होता है कि सांसारिक कार्यों को करते हुए भी बंधन मुक्त रहा जा सकता है। अतः अर्जुन की दुविधा हर सांसारिक मनुष्य की दुविधा है। अर्जुन की इस दुविधा को दूर कर श्रीकृष्ण प्रत्येक मनुष्य को इस दुविधा से निकलने का उपाय बताते हैं। श्रीकृष्ण समझाते हैं कि ज्ञान जब तक कर्म से नहीं जुड़ता है तब तक उसे सही प्रकार से आत्मसात नहीं किया जा सकता है। ज्ञान का अर्थ केवल बौद्धिक चिंतन ही नहीं है। जब चिंतन से प्राप्त ज्ञान को कर्म में परिवर्तित किया जाता है तब ही उसका सही अर्थ सामने आता है।
इसे एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। हम सभी को इस बात का ज्ञान होता है कि इस सृष्टि का आधार ईश्वर है। ईश्वर ही हर जड़ और चेतन में समाया है। यह सत्य है। परंतु जब तक हमारे कर्म ऐसे न हों जिनसे इस सत्य को प्रमाणित किया जाए तब तक यह एक शुष्क ज्ञान है। जिसे ग्रंथों से ग्रहण किया जा सकता है। यदि हम सचमुच इस बात को समझ सकें तो हमारे लिए ईश्वर से स्वयं को जोड़ना आसान होगा। अतः यदि कोई व्यक्ति सभी जीवों में ईश्वर के दर्शन कर उनके साथ प्रेम का व्यवहार करता है तो सही मायनों में उसका ज्ञान सार्थक है।
इसी तरह बिना सही ज्ञान के किया गया कर्म निरर्थक होता है। वह हमें अवनति की ओर ले जाता है। उदाहरण के लिए यह सच है कि हर चर अचर में ईश्वर का वास है। इसके बाद भी हम सबके साथ प्रेम तो रख सकते हैं पर व्यवहार का तरीका एक जैसा नहीं हो सकता है। जैसे कि यदि हमें इस बात का ज्ञान न हो कि बिच्छू ज़हरीला होता है। उसके डसने से मनुष्य की मौत भी हो सकती है। ऐसे में बिना ज्ञान के यदि हम बिच्छू को भी एक चिड़िया की भांति हाथ में लेकर सहलाएंगे तो वह हमें डंक मार सकता है। जिससे हमारे प्राणों को खतरा हो सकता है।
अतः कर्म और ज्ञान का संयोजन ही मुक्ति का मार्ग है।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि उसे कर्म के मार्ग पर चलकर ज्ञान अर्जित करना चाहिए। उसके बाद वह बताते हैं कि इस दुनिया में हर प्राणी अपने गुण के अनुसार कर्म करता है। कोई भी प्राणी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है। यह सृष्टि तीन गुणों के आधीन है। यह तीन गुण हैं सतगुण, रजोगुण और तमोगुण। हर प्राणी में तीनों गुण विद्यमान होते हैं। सतगुण व्यक्ति को सत्कर्म की तरफ प्रेरित करता है। रजोगुण लालसा को जन्म देता है।‌ इस गुण से प्रेरित व्यक्ति अपने लिए भोग विलास की वस्तुओं का संग्रह करता है। सम्मान पाने के लिए अपनी शक्ति का विस्तार करता है। रजोगुण से प्रभावित व्यक्ति अपनी शक्ति पर विश्वास करते हुए अपनी इंद्रियों की संतुष्टि के लिए काम करता है। तमोगुण प्रमाद और आलस्य का परिचायक है। तमोगुण से प्रभावित व्यक्ति के कर्म उसे उन्नति की तरफ नहीं ले जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर तीनों गुण अलग अलग मात्रा में होते हैं। एक व्यक्ति में जिस मात्रा में यह गुण विद्यमान होते हैं उसी के अनुसार वह कर्म करता है।
बिना किसी लोभ के कर्म को करना यज्ञ की भांति होता है। यदि कोई व्यक्ति सिर्फ सांसारिक लालसाओं को पूरा करने के लिए कर्म करता है तो वह उसके परिणामों का स्वयं ज़िम्मेदार होता है। उदाहरण के लिए एक ठेकेदार है जिसे सड़क निर्माण का ठेका मिलता है। वह अपना काम करते हुए यह सोचता है कि मैं ऐसी सड़क बनाऊँगा जो कई सालों तक चलेगी। इसके लिए मैं सबसे अच्छी सामग्री का इस्तेमाल करूँगा। सही समय पर अच्छी सड़क बनाकर लोगों की सेवा करूँगा। वह अपने लाभ की चिंता नहीं करता है। कर्म के परिणाम को ईश्वर पर छोड़ देता है। वह इसी भावना से कार्य पूरा करता है। इस स्थिति में उसका यह काम यज्ञ की तरह है।
पर यदि ठेकेदार इस मंशा से काम करता है कि सड़क निर्माण से अधिक से अधिक लाभ उठा सकूँ। इसके लिए वह घटिया सामग्री का प्रयोग करके जल्दी जल्दी से काम निपटा देता है तो यहाँ वह अपने लालच के आधीन काम कर रहा है। ऐसे में उसका लालच उसे मुश्किल में भी डाल सकता है।
गुणों के आधार पर हर व्यक्ति के कुछ नियत कर्म होते हैं। उन्हें किसी भी कीमत पर उन कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए। इस बात को समझने के लिए पहले यह समझना होगा कि नियत कर्म क्या है ? नियत कर्म का आशय है वह कर्म जो आपके स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार करने योग्य हैं। अपने जीवन के सुगमतापूर्वक यापन और अपने कर्तव्यों के पालन के लिए किए जाने वाले कार्य नियत कर्म हैं।‌
व्यक्ति चाहे ज्ञान के मार्ग पर कितना भी आगे निकल जाए। उसे अपने नियत कर्म करना नहीं छोड़ना चाहिए। अपने कर्म से वह समाज के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत कर सकता है। हम संत कबीर के उदाहरण से इस बात को अच्छी तरह से समझ सकते हैं। कबीर बहुत ज्ञानी थे। लोग उनके ज्ञान की बहुत इज्ज़त करते थे। सबसे सम्मान मिलने के बावजूद भी संत कबीर ने जुलाहे का अपना नियत कर्म नहीं त्यागा।
संत कबीर के समकालीन संत रविदास भी एक ज्ञानी थे। पर चर्मकार के रूप में अपना कर्म उन्होंने कभी नहीं त्यागा। अपने कर्म को महत्व देते हुए ही उन्होंने कहा था जब मन चंगा तो कठौती में गंगा। कहते हैं कि उन्होंने गंगा स्नान के लिए जाने की जगह अपना कर्म करना अधिक श्रेयस्कर समझा। इस बात को सच कर दिखाया कि कर्म ही पूजा है।
मनुष्य के लिए यही अच्छा है कि वह कर्म करने को ही अपना कर्तव्य माने। बिना किसी लोभ के कर्म करे। स्वयं को कर्ता न मानकर उसके परिणाम को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दे।

हरि ॐ तत् सत्