श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 9 Ashish Kumar Trivedi द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 9



अध्याय 9

राजगुह्य योग


अध्याय आठ में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन का परम उद्देश्य बताया था। इस अध्याय के आरंभ में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन तुम ईर्ष्या रहित और निष्कपट हो मैं तुम्हें वह ज्ञान प्रदान करूँगा जो सबसे श्रेष्ठ है। यह ज्ञान सबसे गहन है अतः इस ज्ञान को राज गुह्य विद्या कहा जाता है। यह बहुत प्रभावशाली है। इसको सुनने से चित्त शुद्ध होता है। यह प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने में सहायक है। इसके अभ्यास से धर्म की मर्यादा का आसानी से पालन किया जा सकता है।
हे शत्रु का नाश करने वाले अर्जुन जो इस ज्ञान में आस्था नहीं रखते हैं वह कभी भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकते हैं। वह सदैव जन्म मरण के चक्र में उलझे रहते हैं।
मैं अव्यक्त रूप में भी संसार की सभी वस्तुओं में विद्यमान हूँ। मैं सभी प्राणियों का सहारा हूंँ परंतु मैं किसी के सहारे नहीं हूँ। मैं समस्त प्रकृति एवं सभी प्राणियों का जन्मदाता हूँ। उनका पालन करता हूँ। परंतु सभी वस्तुएं मुझमें विद्यमान नहीं हैं। मैं उनकी प्रकृति से प्रभावित नहीं होता।
जिस प्रकार वायु अंतरिक्ष में व्याप्त है उसी प्रकार सभी प्राणी मुझमें व्याप्त हैं। ब्रह्मा जी के दिन की समाप्ति पर जब सृष्टि विलीन होती है तो सभी प्राणी मुझमें आकर समा जाते हैं। सृष्टि के पुनः व्यक्त होने पर मैं उन्हें दोबारा जन्म देता हूँ।
मैं इस प्रकृति का नियंता हूँ। प्रकृति के गुणों से मोहित प्राणी अपने कर्मफल के अनुसार मेरे द्वारा ही विभिन्न योनियों में जन्म पाते हैं।
हे धनंजय यह सब कार्य करते हुए भी मैं अपने किसी कर्म से नहीं बंधता हूँ। मैं तटस्थ भाव से कर्म करता हूँ। अपने कर्मों से विरक्त हूँ।
कुंती पुत्र मेरी आज्ञा से प्रकृति चर और अचर सभी को उत्पन्न करती है। इसके कारण यह संसार परिवर्तनशील है।
जो मेरे दैवीय रूप को नहीं जानते हैं। यह नहीं समझते हैं कि मैं ही इस प्रकृति का नियंत्रण करने वाला हूँ, वह मनुष्य रूप में मेरे जन्म का उपहास करते हैं। आसुरी और नास्तिक स्वभाव वाले यह व्यक्ति मेरी शक्ति को नहीं पहचानते हैं। ऐसे लोगों के कर्मफल एवं ज्ञान क्षीण हो जाते हैं। उनके कल्याण की कोई संभावना नहीं रहती है।
हे पार्थ पुण्य आत्माएं मेरी दिव्य शक्तियों को समझ कर मुझे ही इस सृष्टि का उद्गम मानती हैं। निरंतर मेरे नाम का स्मरण करते हुए दृढ़ता पूर्वक मेरे प्रति समर्पित रहते हैं। सदैव मेरी भक्ति में लीन रहते हैं।
कुछ ज्ञानी अद्वैत भाव से मेरी आराधना करते हैं जबकि कुछ लोग मुझे अपने से भिन्न मानकर मेरे अलग अलग स्वरूपों की पूजा करते हैं।
मैं ही वैदिक कर्मकाण्ड हूँ। यज्ञ एवं यज्ञ में दी जाने वाली आहुति मैं ही हूँ। पितरों को दिया जाने वाला तर्पण मैं हूँ। मैं औषधीय जड़ी बूटियां एवं वेदमंत्र हूँ। मैं इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, पितामह और आश्रय हूँ। शुद्धि प्रदान करने वाला एवं ज्ञान का लक्ष्य मैं ही हूँ। पवित्र ॐ मैं हूँ। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद भी मैं हूँ।
मैं समस्त प्राणियों का पालक, स्वामी, परम धाम, आश्रय और मित्र हूँ। इस सृष्टि का आदि, अंत, मध्य एवं अविनाशी बीज हूँ।
ऊष्मा मेरे ही कारण है। मैं वर्षा को लाता एवं रोकता हूँ। मैं अमरता हूँ और मृत्यु भी मैं हूँ। मैं ही सत्य और मैं ही माया हूँ।
कर्मफल प्राप्त करने के उद्देश्य से जो वैदिक कर्मकाण्ड करते हैं वह अपरोक्ष रूप से मेरी ही आराधना करते हैं। वह अपनी आराधना के फलस्वरूप स्वर्ग के सुखों का उपभोग करते हैं। ऐसे लोग अपने कर्मफलों का उपभोग करने के बाद पुनः इस संसार में वापस आते हैं।
देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं। पितरों की पूजा करने वाले पित्रलोक को प्राप्त करते हैं। किंतु जो सदा मेरे बारे में सोचते हैं और मेरी भक्ति करते हैं मैं उन्हें बार बार के आवागमन से मुक्त कर देता हूँ। मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता हूँ। इस सत्य को जानने वाला पुनर्जन्म नहीं लेता।
मैं अपने भक्तों द्वारा भक्ति भाव एवं शुद्ध मानसिक चेतना के साथ अर्पित पत्र, पुष्प, फल एवं जल से प्रसन्न हो जाता हूँ। अतः हे कुंती पुत्र तुम भी अपने समस्त कर्मों को मुझे अर्पित कर शुभ अशुभ के बंधन से मुक्त हो जाओ।
मैं सभी प्राणियों के साथ समान व्यवहार करता हूँ। न मुझे किसी से द्वेष है और न ही मैं किसी के साथ पक्षपात करता हूँ। फिर भी जो सच्चे मन से मेरी भक्ति करते हैं वह मेरे हृदय के निकट होते हैं। मेरी सच्ची भक्ति करने वाला भले ही पापी क्यों न हो उसे मुक्ति अवश्य मिलती है। व्यक्ति चाहे किसी भी कुल, जाति व लिंग का हो मेरी भक्ति करने पर मेरी शरण अवश्य प्राप्त करता है।
हे अर्जुन तुम सच्चे मन से मेरी भक्ति करो। समस्त कर्मों को मुझे अर्पित कर दो। तुम मुझे अवश्य प्राप्त करोगे।


अध्याय की विवेचना

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने वह गुह्य ज्ञान दिया है जो सर्वश्रेष्ठ है। इसे समझने के बाद कुछ भी समझना शेष नहीं रहता है। इसी कारण से इसे राजगुह्य ज्ञान कहा गया है।
सभी प्राणियों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है। इसका कारण है कि उसके पास विवेक है। अपनी बुद्धि के द्वारा वह बहुत कुछ सोचता है। उसके मन में अनेक प्रकार के प्रश्न उठते हैं। अनादि काल से इसमें सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि ब्रह्मांड की रचना किसने की ? कौन है जो इस प्रकृति का संचालन करता है ? मनुष्य को यही लगता है कि इस ब्रह्मांड में कोई एक शक्ति है जो इसे सुचारू रूप से चला रही है। इस अदृश्य शक्ति के बारे में जानने की उसमें सदैव जिज्ञासा रही है।
मनुष्य की दूसरी जिज्ञासा इस प्रश्न का उत्तर जानने की है कि मानव जीवन का उद्देश्य क्या है ? उसका परम लक्ष्य क्या है ?
मनुष्य की दोनों ही जिज्ञासाओं का उत्तर भगवान श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में दिया है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस सृष्टि का सार मैं ही हूँ। मैं ही चर अचर सबमें व्याप्त हूँ। इस सृष्टि में मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है।
मनुष्य ईश्वर को, पाना चाहता है। उसे संसार में खोजता है। उसने अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर ईश्वर की अलग अलग रूपों में कल्पना की है। अपनी उसी अवधारणा के आधार पर वह ईश्वर की खोज करता है।
अधिकांश लोगों के लिए ईश्वर उस शक्ति का नाम है जो अंतरिक्ष में रहती है और हमारा पालन पोषण करती है। हमारे पाप और पुण्य का हिसाब रखती है। उसे प्रसन्न कर हम अपनी इच्छित वस्तुएं मांग सकते हैं।
यह उस परम शक्ति की बहुत ही संकुचित अवधारणा है। इस अवधारणा को तोड़ते हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने सही रूप का ज्ञान कराया। श्रीकृष्ण ने जो कहा उसके अनुसार इस संसार में चर अचर जो कुछ भी दृष्टिगोचर है सब ईश्वर की ही शक्ति है। संसार में कुछ भी ईश्वर से पृथक नहीं है। वह उसी तरह इस संसार में व्याप्त है जैसे वायु हर तरफ व्याप्त होती है।
ईश्वर इस संसार का रचयिता है। वह सभी प्राणियों का पालन करने वाला। सृष्टि का सृजन और विनाश ईश्वर द्वारा ही होता है।
जो व्यक्ति इस सत्य को समझ जाता है वह भले ही जीवन भर पाप में लिप्त रहा हो ईश्वर को प्राप्त कर लेता है। व्यक्ति चाहे किसी भी जाति अथवा लिंग का हो इस परम सत्य को समझने के बाद उसे ईश्वर का सानिध्य प्राप्त होता है।
इस ब्रह्मांड का आधार ईश्वर है। इस परम सत्य को समझ कर ही जीवन के सही उद्देश्य को समझा जा सकता है। जब तक जीव इस परम सत्य को नहीं जान लेता है तब तक वह बार बार जन्म लेकर आता है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य इस परम सत्य को आत्मसात करना है। केवल मनुष्य जीवन में ही इसे सही प्रकार से समझा जा सकता है।

हरि ॐ तत् सत्