द्वारावती - 28 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 28

28

गुल की उस अवस्था में हस्तक्षेप करना केशव को अनुचित लगा। वह बस उसे निहारता रहा। वह समुद्र को निहारती रही। समय की रेत धीरे धीरे सरक रही थी। सूरज अब निकल चुका था। समुद्र से आता समीर अब मंद हो गया था, किंतु अभी भी शीतल था। उस शीतलता से भी गुल अनभिज्ञ थी। वह केवल समुद्र से जुड़ी थी। अन्य किसी बात, किसी वस्तु उसे प्रभावित नहीं कर रही थी।
गुल तथा समुद्र के बीच जो एकरूपता थी, जो तादात्म्य था, सहसा वह खंडित हो गया।
श्वेत पंखियों का एक विशाल वृंद उड़ता हुआ समुद्र की तरफ़ से आ गया। वह सभी कुछ बोल रहे थे अपनी वाणीमें। उस वाणी ने गुल का ध्यान भंग किया। एक को छोड कर वह दूसरे पर ध्स्थिर हो गया। ध्यान का इस परिवर्तन सहज था।
वह इन श्वेत पंखियों को निहारने लगी। वह उड़ रहे थे, कभी समुद्र के भीतर चले जाते थे, डुबकी लगाकर समुद्र से बाहर निकल आते थे, उड़ने लगते थे। कभी समुद्र के तल को स्पर्श करते हुए, कभी उससे थोड़ा सा अंतर रखते हुए, कभी ऊँचे, अत्यंत ऊँचे उड़ रहे थे। पंखियों की यह क्रीड़ा भी आकर्षक थी। उस आकर्षण में वह डूब गई।
“बच्चों, आरती का समय हो गया है। क्या आप आरती में सम्मिलित होना चाहोगे?”
केशव ने पुजारी के शब्दों को सुना, गुल ने नहीं सुना।
“महाराज, हम आरती में अवश्य सम्मिलित होंगे। मैं गुल को लेकर आता हूँ।”
पुजारी मंदिर में चले गए। केशव गुल के समीप गया, “गुल, चलो आरती के दर्शन करते हैं।” गुल ने अर्ध मन से सुना। वह समुद्र को वैसे ही निहारती रही। केशव ने कुछ क्षण प्रतीक्षा की। गुल पर कोइ प्रभाव नहीं पड़ा।
केशव को घंटनाद सुनाई दिया। आरती का प्रारम्भ हो गया ।
‘मुझे गुल को लेकर जाना चाहिए। आरती के साथ कभी दर्शन नहीं किए होंगे। इस अनुपम क्षण का अनुभव गुल को करवाना ही चाहिए। मैं उसे मंदिर के भीतर ले चलता हूँ।’
“गुल, आरती प्रारम्भ हो चुकी है। चलो दर्शन करते हैं।” गुल अभी भी समुद्र की लीला में खोई हुई थी। उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
कुछ क्षण विचार करने के पश्चात केशव ने गुल का हाथ पकड़ लिया और उसे मंदिर की तरफ़ ले गया। गुल ने कोई प्रतिरोध नहीं किया किंतु उसकी दृष्टि अभी भी समुद्र पर थी। जब वह मंदिर के भीतर प्रवेश कर गई तब कहीं उसकी दृष्टि का सेतु समुद्र से टूटा।
गुल ने स्वयं को समेटा। मंदिर के भीतर उसे जो भी दृष्टिगोचर हो रहा था उसे वह देखने लगी। एक ही क्षण में उसका ध्यान आरती के आलोक पर पड़ा।
एक पात्र में अनेक दिए प्रज्ज्वलित थे। उसमें से उठती मंद मंद अग्नि शिखाएँ गुल के ध्यान का केंद्र बन गई। पुजारी उस पात्र को गोल गोल घुमा रहे थे। कभी वह ऊपर तो कभी नीचे ले जाते थे। कभी एक दो क्षण के लिए कहीं स्थिर रखते थे। गुल की दृष्टि उस आलोक का पीछा करने लगी। आलोक के साथ ऊपर, आलोक के साथ नीचे, तो कभी स्थिर होने लगी।
वह तेज पुंज उसे आकृष्ट कर रहा था। उसमें कुछ बात तो थी जो गुल को अपनी तरफ़ खिंच रही थी। कुछ अनन्य था, कुछ अद्वितीय था उस आलोक में जो गुल ने उससे पूर्व कभी नहीं देखा था, ना ही अनुभव किया था।
‘अग्नि सदैव जलता है। उसके सम्पर्क में आने वाली प्रत्येक वस्तु को भस्म कर देता है। किंतु यह अग्नि ! यह अग्नि नष्ट करने वाला नहीं प्रतीत होता है। कितना तेज़ है तथापि कितना सौम्य है यह अग्नि। इस अग्नि से मुझे भय नहीं हो रहा है। यह मुझे प्रसन्न कर रहा है। यह अग्नि मेरा मित्र होगा। मेरा ही नहीं, इस सारे संसार का भी मित्र होगा।’
“हे मित्र अग्नि, मैं तुम्हें वंदन करती हूँ।” गुल ने सहज ही दो हाथ जोड़ दिये, आँखें बंद कर ली।
उसके कानों ने घंटनाद भी सुना। उस नाद ने भी उसे प्रसन्नता दी। उसने आँखें बंद ही रखी। मन ही मन अग्नि को देखती रही, घंट नाद को सुनती रही।
गुल के लिए यह अनुभव अपूर्व था, अनुपम था, आनन्दमय था। वह उस क्षण के आनंद का रस पान करती रही, उस क्षण में डूब गई।
धीरे धीरे घंटनाद मंद होने लगा। आरती की गति भी मंद होने लगी।अंतत: आरती पूर्ण हुई, घंट नाद सम्पन्न हुआ। पुजारी ने आरती का जल सब पर छिड़का। जल के इस स्पर्श से गुल की समाधि भंग हुई। उसने आँखें खोली। सामने शिवलिंग था। महादेव तथा गुल के बीच कोई नहीं था। ना पुजारी, ना आरती, ना अग्नि शिखा। वह शिवलिंग को देखती रही, उसे वह मनभावन लगी। एक अलौकिक प्रवाह गुल के भीतर प्रवाहित हो गया। उसके अधरों पर स्मित प्रकट हो गया। कुछ क्षण तक शिवलिंग से गुल का तादात्म्य हो गया। जब वह भंग हुआ तब उसने मंदिर को ध्यान से देखा।
एक कोने में आरती पड़ी थी। उसकी अग्नि शिखाएं शांत हो गई थी। मंद गति से जल रही थी। मंदिर में पुजारी नहीं थे। वह केशव को खोजने लगी। केशव भी मंदिर के भीतर नहीं था। वह मंदिर से बाहर आ गई। केशव तथा पुजारी दोनों वहीं थे।
“केशव, तुम अकेले ही मंदिर से बाहर आ गए? मुझे वहीं छोड़ दिया? मुझे भी साथ क्यूँ नहीं ले आए?” गुल के प्रश्नों का उत्तर केशव ने नहीं दिया। वह मौन खड़ा रहा, समुद्र को निहारता रहा। वह प्रतीक्षा करती रही। उसका धैर्य टूट गया। पुन: प्रश्न करने लगी।
पुजारी ने गुल की अधीरता देखी, उत्तर दिया।
“बेटी, जब कोई ईश्वर के ध्यान में मग्न हो जाता है तो उसकी उस अवस्था में विक्षेप नहीं डालते।”
गुल पुजारी के उत्तर को समझने का प्रयास करने लगी। उसके मुख मण्डल पर जन्मी रेखाओं से प्रतीत हो रहा था कि वह विफल हो गई है।
“तुम आँखें बंद कर ऐसी अवस्था में थी जिसे शास्त्र समाधि कहता है।”
“यह समाधि क्या होती है?”
“यह एक दुर्लभ क्षण होती है जो बड़े बड़े ज्ञानी ध्यानी के भाग्य में भी क्वचित् होती है।”
“कैसी होती है यह क्षण?” गुल उत्सुक थी।
“गुल, मंदिर के भीतर जब आँखें बंद कर तुम खड़ी थी तब तुम कहाँ थी?”
“केशव, तुम भी विचित्र सी बातें करने लगे हो।” गुल हंस पड़ी।
“क्या तात्पर्य है तुम्हारा?”
“जब मैं मंदिर के भीतर थी तो मंदिर के भीतर ही थी। कैसा प्रश्न करते हो कि मंदिर के भीतर थी तब मैं कहाँ थी? विचित्र बात ही तो है ना यह?”
केशव के साथ पुजारी भी हँस पड़े। गुल ने दोनों के मुख को, दोनों के हास्य को देखा। उसमें कोई उपेक्षा नहीं थी, ना ही उपहास था। गुल भी हंस पड़ी।
“बेटी, जब हम शरीर से एक स्थान पर होते हैं तब आवश्यक नहीं कि मन से भी हम उसी स्थान पर हों। हमारा मन बड़ा चंचल होता है। वह वहाँ नहीं रहता जहां हम शारीरिक रूप से होते हैं। वह प्रायः: अन्य स्थान पर दौड़ जाता है। शरीर से मन की कौन जाने क्या शत्रुता है कि वह कभी भी शरीर के साथ नहीं रहता।”
पुजारी की बात को आगे बढ़ाते हुए केशव ने कहा, “मन का यही स्वभाव है। अब कहो कि मंदिर के भीतर जब तुम खड़ी थी तब तुम्हारा मन कहाँ था? क्या वह तब भी तुम्हारे साथ मंदिर के भीतर ही था?”
“कहाँ था वह तो मैं नहीं कह सकती किंतु मेरा मन मंदिर के भीतर नहीं था।” गुल ने कहा।
“उस क्षणों में तुम्हें क्या अनुभव हो रहा था?”
“उस क्षण मुझे लग रहा था कि मैं…. नहीं उस क्षण तो मैं .... नहीं नहीं।” गुल स्वयं को स्पष्ट करने का प्रयास करने लगी, उस क्षण में जाने का प्रयास करती रही। उस क्षण का अनुभव व्यक्त करने का यत्न करने लगी। किंतु कुछ भी स्पष्ट नहीं हो रहा था।
“कहो, बेटी। कहाँ था तुम्हारा मन? क्या कर था वह? क्या कह रहा था वह? उस क्षण को व्यक्त करो, बेटी।”
“मुझे कुछ भी स्मरण नहीं है इस विषय में। कुछ क्षण पूर्व की क्षणों की जैसे विस्मृति हो गई हो। ऐसा क्यूँ होता है?”
“कुछ तो स्मरण होगा। कुछ अनुभव तो हुआ होगा।”
“कुछ अद्वितीय अनुभव था, किंतु मुझे ठीक से कुछ भी स्मरण नहीं है। बस इतना स्मरण है कि मैंने आरती की इस ज्योत को देखा था, आँखें बंद की थी।”
गुल रुकी।
“कहो बेटी, कहो।”
“उसके पश्चात एक विशाल तेज पुंज मेरे सम्मुख था। किसी ऊँचे पर्वत जैसा, किसी विशाल समुद्र जैसा, जैसे यह आरती की ज्योत स्वतः बढ़ती जाती हो। दसों दिशाओं में वह तेज पुंज था। मैं उसके भीतर थी। किंतु मैं भयभीत नहीं थी। उस तेज पुंज के मध्य कोई आकृति थी।”
गुल रुकी। केशव कुछ बोलना चाहता था किंतु पुजारी ने उसे संकेतों से रोका।
“धीरे धीरे वह आकृति मेरे समीप आने लगी, उसने मुझे स्पर्श किया और उस तेज पुंज में वह विलीन हो गई। धीरे धीरे तेज पुंज भी शांत होता गया। जैसे उस अग्नि पुंज पर वर्षा गिरी हो। जब मैंने आँखें खोली तब मैं मंदिर के भीतर ही थी। मेरे शरीर पर जल के कुछ बिंदु थे। क्वचित् उस वर्षा का जल ही मेरे शरीर पर था।” गुल पुन: रुक गई। केशव तथा पुजारी मौन ही रहे।
“मैंने आँखें खोली तब आप दोनों ही मंदिर में नहीं थे।”
“जो नहीं था उसकी चिंता ना करो, जो था तुम्हारे पास उसकी अनुभूति का आनंद लो।”
“क्या था मेरे पास? मुझे तो कुछ भी स्मरण नहीं हो रहा है।”
“बेटी, उस मंदिर को देख रही हो?”
पुजारी जी ने द्वारिकाधीश मंदिर की तरफ़ संकेत किया।
“कृष्ण का वह मंदिर?”
“उस कृष्ण ने भी अर्जुन को अपने विराट स्वरूप का दर्शन कराया था। किंतु उस क्षण के पश्चात अर्जुन को भी उस क्षण का कोई स्मरण नहीं रहा।”
“तो क्या गुल को ईश्वर के उस स्वरूप का दर्शन हुआ है जिसे चतुर्भुज रूप कहते हैं?” केशव की जिज्ञासा जागृत हो गई।
“यह सम्भव है, नहीं भी है। निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।”
“यह चतुर्भुज स्वरूप, यह विराट स्वरूप क्या होता है?” गुल की जिज्ञासा भी जागृत हो गई।
“कृष्ण का, ईश्वर का एक ऐसा स्वरूप जिसका वर्णन शास्त्र भी नहीं कर सकते तो हम मनुष्यों की तो कोई क्षमता ही नहीं है।”