द्वारावती - 24 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 24

24

एक नूतन प्रभात क्षितिज के गर्भ में जन्म ले रहा था। केशव के मन में भी कुछ जन्म ले रहा था। क्षितिज में जो जन्म ले रहा था वह शाश्वत था, केशव के मन में वह आज प्रथम बार जन्म ले रहा था। सम्भव है कि वह अंतिम बार भी हो, सम्भव है कि वह भी शाश्वत हो जाय।
वह कन्दरा की शिला के समीप गया, रुक गया। उसने सभी दिशाओं में देखा। एक विहंगावलोकन किया। संतुष्ट नहीं हुआ। प्रत्येक दिशा को ध्यान से देखने लगा। कुछ समय पश्चात वह दूसरी कन्दरा के समीप जाकर खड़ा हो गया। स्थिर सा, अकर्मण्य सा।
“केशव, वहाँ क्या कर रहे हो?” गुल के शब्दों ने गुल के भाव विश्व को आंदोलित किया। उस विश्व को त्याग कर वह वास्तविक विश्व में प्रवेश कर गया, जहां गुल उसके सामने खाड़ी थी। उसके शब्दों में कोई प्रश्न था, वही प्रश्न उसके मुख पर भी था।
“केशव, वहाँ क्या कर रहे हो? कहाँ हो तुम? तुमने आज तुम्हारा स्थान बदल लिया, आसन भी बदल लिया। मैं जो हूँ तुम्हें तुम्हारे वही आसान पर होने की प्रतीक्षा करती रही। किंतु तुम तो यहां आसन लगाए हो।”
केशव हंस दिया।
“ऐसे हँसो नहीं।”
“क्यूँ? क्या हो गया भला?”
“तुम ऐसे हंसते हो तो मुझे लगता है कि तुम मेरा उपहास कर रहे हो। मुझे तुम्हारी चिंता हो रही है और तुम हो कि मेरी चिंता की, मेरी ही उपेक्षा कर रहे हो?”
“शांतम पापम, शांतम पापम। गुल, शांत हो जाओ। इतनी उग्रता कहाँ से आ गई?” केशव गुल के समीप गया। उसकी आँखों में देखकर बोला, “मैं कभी तुम्हारा उपहास नहीं कर सकता। ना ही तुम्हारी उपेक्षा।”
“किंतु तुम्हें तुम्हारे स्थान पर न देखा तो मुझे चिंता होने लगी। तुम भी ...।”
“चिंता अब तो छोड़ो। अब तो मैं तुम्हारे सम्मुख हूँ।”
केशव ने एक स्मित दिया, गुल उस स्मित में बह गई।
“ठीक है। किंतु आज तुम यहाँ अपने स्थान पर क्यूँ नहीं थे? तुमने गीत गाए? तुमने सूर्य की बंदना की? अर्घ्य दिया? अथवा किसी प्रतिमा की भाँति बस खड़े ही रहे?”
“अरे बाप रे। तुम तो किसी निष्ठुर आचार्य की भाँति प्रश्न कर रही हो, डाँट रही हो। यदि तुम मेरी आचार्य होती तो ...?”
“तुम प्रश्नों के उत्तर नहीं देते हो। मेरे प्रश्नों की उपेक्षा कर देते हो। ऐसा क्यूँ?” केशव के मुख पर स्मित आ गया। मोहक स्मित!
“तुम तो कहते थे ना कल कि हमारे यहाँ प्रश्न किए जाते हैं, उनके उत्तर दिए जाते हैं। प्रश्न करना सम्मान की बात है। यही हमारी शिक्षा पद्धति है। यही कहा था ना तुमने? बोलो?”
“जी, मैंने यही कहा था मित्र गुल।” केशव ने हाथ जोड़ नत मस्तक किया।
“तो मेरे प्रश्नों के उत्तर दो। मुझे उत्तर की ही अपेक्षा है, तुम्हारे स्मित से भरे उपहास की नहीं।” गुल गम्भीर हो गई।
“यदि उत्तर भी हो, स्मित भी हो तो?” केशव ने वही मोहक स्मित दिया। गुल पुन: बह गई उस स्मित में। उसके अधरों पर भी स्मित आ गया।
“सुनो गुल, तुम ठीक कह रही हो। आज मैं वहाँ अपने स्थान पर नहीं था। मैंने आज कोई गीत नहीं गाए। ना ही सूर्य की बंदना की और नहीं अर्घ्य दिए। मैं बस यहीं खड़ा रहा, किंतु किसी निश्चल, निर्जीव प्रतिमा की भाँति नहीं। एक जीवंत व्यक्ति की भाँति मैंने अपने भीतर अनेक स्पंदनों का अनुभव किया। अनेक चेतनाओं से मेरा परिचय हुआ। मैं पूर्ण स्थिर था किंतु मेरे आसपास सब गतिमान था, प्रवाहित था। यह चेतना, यह स्पंदन, यह प्रवाह, यह गति। इन सबका अनुभव किया है मैंने आज।” केशव ने गुल के भावों को देखा। वहाँ नए प्रश्नों ने जन्म ले लीया था। किंतु वह स्थिर सी केशव को सुन रही थी।
“एक प्रभात जब जन्म लेता है तो, तुम्हें ज्ञात है, वह अपने साथ क्या क्या लेकर आता है? हमने कभी इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया।”
“क्या क्या लेकर आता है यह प्रभात?”
“यह में वर्णन नहीं कर सकता।”
“क्यूँ? तुम कहते हो कि तुमने उसका अनुभव किया है। तो कहो ना?”
“हां मैंने उसका अनुभव किया है। देखो यह अनुभव शब्द भी मिथ्या है। वास्तव में वह अनुभव नहीं है, अनुभूति है।”
“अनुभव तथा अनुभूति में कोई अंतर नहीं है। कोई भेद नहीं है इन दोनों शब्दों में। यदि तुम उसे अनुभूति कहते हो तो अनुभूति ही सही, किंतु उस अनुभूति का वर्णन करो। मुझे उत्सुकता है उसे सुनने की।”
“तुम्हारी उत्सुकता का सम्मान करता हूँ मैं। परंतु यह बात सहज नहीं है, जटिल है।”
“तो?”
“मुझे दो बातें कहनी है। एक, प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न होता है, स्वतंत्र होता है। अनुभव तथा अनुभूति भिन्न शब्द हैं, अर्थ भी भिन्न है। दूसरा, अनुभव का वर्णन किया जा सकता है, अनुभूति का नहीं। जब हम किसी विषय का वर्णन करते हैं तब हम हमारे पास उपलब्ध शब्दों का उपयोग करते हैं। हमारे शब्दकोश में शब्दों की संख्या सीमित है। अनुभूति असीम होती है। हम सीमित से असीमित को व्यक्त करने का प्रयास करते हैं। क्या यह उचित है?”
केशव रुका, दूर समुद्र की तरंगों को उठते देखता रहा। मौन गुल केशव के शब्दों की प्रतीक्षा करने लगी।
“एक और बात। हम जब किसी बात को शब्दों के द्वारा व्यक्त करते हैं तब शब्दों के चयन में विशेष ध्यान देना होता है। किंतु होता यह है कि हम जो भी शब्द प्तत्क्षण याद आ जाए उस शब्द का ही प्रयोग कर लेते हैं। अधिकांश वह शब्द प्रयोग उचित नहीं होता है। अनुचित शब्द प्रयोग से हमारी बात का मूल भाव, मूल मर्म ही नष्ट हो जाता है। जैसे अभी अभी मैंने किया था, प्रथम मैंने अनुभव कहा था, किंतु अब मैं उसे अनुभूति कह रहा हूँ। हमें ऐसे उपक्रम से बचना होगा।”
“किंतु तुम यह तो कह सकते हो कि वह अनुभव,नहीं अनुभूति सुंदर थी, अद्भुत थी, अनुपम थी।”
“आनंदप्रद थी, अलभ्य थी, अलौकिक थी, अद्वितीय थी, अवर्णनीय थी। यही ना?”
“हां केशव, यही। तुम यह अब तो कह सकते थे।” गुल ने केशव के मुख को अपनी दृष्टि का केंद्र बिंदु बना दिया। केशव के अधरों पर स्मित आ गया।
“नहीं, गुल। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। यह अनुचित है।”
“तुम यह उचित है, यह अनुचित है, आदि अपना निर्णय तो बता देते हो किंतु उसका तर्क नहीं देते। बिना तर्क सुने, समझे मैं तुम्हारी कोई बात स्वीकार नहीं करती।”
“तो तर्क भी सुन लो। ध्यान से सुनना। अब मैं जो तर्क देने जा रहा हूँ वह अत्यंत गहन है, गम्भीर भी। तनिक भी ध्यान भंग होगा तो पूरे मर्म को चुक जाओगी। क्या तुम इसके लिए तैयार हो?”
गुल के अधरों पर स्मित आ गया।
“तो चलो मेरे साथ, समुद्र के भीतर चलो।”
दोनों समुद्र के भीतर गए।
“बस यहीं रुक जाओ। इन तरंगों को देखो। इसे देखकर तुम क्या कहोगी?”
गुल तरंगों को देखने लगी, विचार करने लगी। मन ही मन शब्दों को रचने लगी।
“यह तरंगें अत्यंत चंचल है। हैं ना केशव?”
“अवश्य, यह तरंगें चंचल तो है ही।”
“तो मैंने उसका वर्णन उचित किया ना?” गुल प्रसन्न हो गई। मुख पर विजय के भाव आ गए।
“उचित तो है ही किंतु अपूर्ण भी है। क्या तरंगें मात्र चंचल ही होती है?”
“अपूर्ण? तरंगें चंचल तो होती है। और क्या होता है इन तरंगों में?”
“तरंगों में सातत्य होता है, अविरतता होती है, अल्प जीवी होती है।”
“यह सब भी हम वर्णन कर सकते हैं।”
“क्या क्या वर्णन करोगी? एक ही तरंग के अनेक रूप होते हैं, अनेक गुण होते हैं। उन्हें देखकर
प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो भाव उत्पन्न होते हैं वह भी भिन्न भिन्न होते हैं। तरंगों के भाव, रूप, गुण आदि असीमित है। शब्द सीमित है। पुन: हम सीमित से असीमित को व्यक्त करने की चेष्टा करते हैं। वह अपूर्ण रह जाती है। पूर्ण वर्णन सम्भव ही नहीं है किसी अनुभूति का।”
“हमारी भाषा में इतने सारे अलंकार हैं। क्या वह असीमित को व्यक्त करने में समर्थ है?”
“अलंकार। भाषा के अलंकारों की भी मर्यादा है। जब हम कहते हैं कि यह समुद्र सुंदर है, उसकी ध्वनि कर्णप्रिय है, आदि आदि। तब हम एक अपराध करते हैं।”
“अपराध? हम तो समुद्र के गुणों से उसकी प्रशंसा करते हैं। किसी की प्रशंसा अपराध कैसे हो गई?”
“यह सब बताऊँगा। किंतु इस समय नहीं। उचित समय आने दो।”
“कब आएगा वह समय? आज की इस क्षण उचित नहीं है?”
“प्रतीक्षा करो।”
“मैं करूँगी।”
“तुम्हें मदरसा नहीं जाना है क्या?”
“ओह, मैं तो भूल ही गई। मैं जाती हूँ।”
“किंतु जाते जाते मेरे एक प्रश्न का उत्तर ....।”
केशव के शब्द गुल के कानों तक पहुँचने से पूर्व ही समुद्र की ध्वनि में विलीन हो गए। गुल के पद चिह्न भीगी रेत पर अंकित हो गए। तरंगों ने उसे मिटा दिया।