मैं तो ओढ चुनरिया - 57 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • नज़रिया

    “माँ किधर जा रही हो” 38 साल के युवा ने अपनी 60 वर्षीय वृद्ध...

  • मनस्वी - भाग 1

    पुरोवाक्'मनस्वी' एक शोकगाथा है एक करुण उपन्यासिका (E...

  • गोमती, तुम बहती रहना - 6

                     ज़िंदगी क्या है ? पानी का बुलबुला ?लेखक द्वा...

  • खुशी का सिर्फ अहसास

    1. लालची कुत्ताएक गाँव में एक कुत्ता था । वह बहुत लालची था ।...

  • सनातन - 1

    (1)हम लोग एक व्हाट्सएप समूह के मार्फत आभासी मित्र थे। वह लगभ...

श्रेणी
शेयर करे

मैं तो ओढ चुनरिया - 57

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

57

 

खैर सासु जी बिना कुछ कहे भीतर चली गई और उनके पीछे वह जेठानी भी तो मैंने सुख की सांस ली । शुक्र है , गहरा कर आए बादल बिना बरसे लौट गये वरना काम तो हमने गरजदार बौछारों और बिजली गिरने का किया था जिसमें डूबना तय था । जब से होश संभाली थी तब से मौहल्ले और रिश्तेदारी की कई दुल्हिनों का गृहप्रवेश देखा था , हर जगह दूल्हा दुल्हन आकर द्वार पर प्रतीक्षा करते तब सास जेठानियां थाल कलश लिए आते । सौ तरह के रीति रिवाज निभाए जाते । दुल्हन की आरती की जाती । अनाज के भरे कलश को ठोकर मार कर वधु गिराती । आलते की परात में पांव डुबो कर पूरे घर में अपने पैरों की छाप बनाती हुई दुल्हन ननदों जेठानियों से घिरी हुई घर में प्रवेश करती । हर तरफ हँसी ठहाके , गीतों का माहौल होता । यहाँ तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । न किसी ने गीत गाए ,न परछन हुआ , न पैरों की छाप । डरी हुई तो पहले ही थी । यह सब याद आया तो झट आँखों में आँसू आ गए । पता नहीं , कितनी देर मैं घुटनों में सिर दिए रोती रही , वक्त था कि बीत ही नहीं रहा था ।
थोङी देर में मेरे रिश्ते की दो जेठानियां हाथ में तश्तरी लिए हुए भीतर आई । उस थाली में सूखी मिठाइयां लड्डू , बालूशाही , सिंगरी , शक्करपारे आदि थे । मुझे इस तरह बैठे देखा तो एक बोली – भई मायके की याद आ रही है । होता है । शुरु शुरु में सबके साथ होता है । ससुराल में सब अजीब सा लगता है फिर धीरे धीरे मायका पीछे छूट जाता है । वही ससुराल का घर अपना हो जाता है ।
रोए न तो और क्या करे बेचारी । अकेली बैठी थी । उदास ही होगी । - ये दूसरी थी
वो कहाँ गया जो तेरा हाथ पकङ कर अंदर ले आया था , तुझे यहाँ अकेले बिठा कर कहाँ गायब हो गया ।
चल छोङ परे , क्यों बेचारी को तंग कर रही हो , ले भाई आ तुझे अपने गोत में तो मिला लें । बङी जिठानी ने कहा ।
बारी बारी से उन्होंने मेरे मुँह में लड्डू डालें । यकीन मानो , लड्डू इतने स्वादिष्ट मुझे न कभी पहले लगे थे , न बाद में । मैं फटाफट पूरे दो लड्डू खा गई । शायद भूख ही मीठी होती है । भाभी हँसी – अब अपने हाथ से हमें भी लड्डू खिला दे फिर चाहे सारी थाली खा लेना । तेरे लिए ही लाए हैं ।
मैं झेंप कर अपने आप में और सिमट गई ।
हां भई खिला हमें । तभी न हमारे गोत में आएगी । दूसरी जेठानी ने एक लड्डू उठा कर मेरी ओर बढाया । मैंने डरते डरते लड्डू ले लिया और उनके मुँह में डाल दिया । मिठाई खाकर वे उठ गई – चल छोटी को दूध में पत्ती डाल कर दूध छुहारा दे आऊँ । तू खा ले जितना खाना है ।
वे थाली मेरे पास छोङ कर कमरे से बाहर चली गई । मैंने इधर उधर देखा और जल्दी से एक बालूशाही उठाकर मुँह में डाल ली ।
थोङी देर में सासु और इनकी मामी दोबारा आई । इस बार उनके हाथ में कांसे का छन्ना था और एक चम्मच । उन्होंने चम्मच में घी बूरा भरा और मेरी ओर बढा दिया । मैंने हल्का सा मुँह खोल कर चखा । वे बाहर चली गई , बिना एक भी लफ्ज बोले ।
इतने में बाहर हलचल शुरु हो गई और जोर जोर से बोलने की आवाजें आनी शुरु हो गई । जो बाराती हमारे पीछे पीछे पैदल आ रहे थे , वे घर पहुँच गये थे । चारपाइयां सीधे करके बिछाने की आवाजें आई । वे सब जोर जोर से चिल्ला रहे थे । बहस कर रहे थे । ठेठ ग्रामीण पंजाबी में कही उनकी बातें तो मुझे समझ नहीं आई पर इतना तय था कि वे सब किसी बात को लेकर बहुत नाराज चल रहे थे । शायद लङाई जैसा कुछ चल रहा था । मैने कान लगा कर ध्यान से कुछ सुनने , कुछ समझने की कोशिश की पर जब कुछ पल्ले नहीं पङा तो ध्यान कहीं ओर बंटाने की कोशिश करने लगी । दस पंद्रह मिनट यूं ही बीते होंगे । अभी उनका गुस्सा करना न जाने कितनी देर और चलता कि अचानक आंगन में कांसे का थाल जोर जोर से बजने लगा । सब तरफ हर्ष की लहर दौङ गई । गुस्से पर रोक लग गई ।
बधाइयां जी बधाइयां । लङका हुआ है ।
वाह जी वाह जोङी बन गई । सब लोग एक दूसरे को बधाइयां दे रहे थे ।
ये भी कहीं से लपकते हुए आए । ले पकङ लड्डू खा । मझले भाई के लङका हुआ है । एक लङका और एक लङकी पहले से है , एक आज हुआ ।
लड्डू मेरे हाथ में दे ये जैसे आए थे वैसे ही चले गये । अब मैं क्या करूं । यहीं बैठूं या बाहर जाकर देखूं ।
इतने में खिङकी का परदा हिला । सबसे छोटे देवर ढेर सारे बच्चों के साथ खिङकी की ओट में छिपे हुए मुझे देखने की कोशिश कर रहे थे । मेरी नजर पङी तो मैंने उन सबको भीतर आने का इशारा किया पर वे सारे गिरते पङते खिलखिलाते हुए वहाँ से भाग गये । इतनी उदासी और घबराहट के बाद मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई । सुबह होते ही इन सबसे दोस्ती तो करनी पङेगी । मन किया कि इन सबको भाग कर पकङ लूं , दो चार बातें करें । मेरे अपने मामा के बच्चे इसी उम्र के थे जिनके साथ खेलते मेरे अब तक के दिन बीतें थे पर संकोच आङे आ गया । मैं वहीं पलंग पर गुङी मुङी हुई बैठी रह गई । वे सारे बच्चे गायब हो गये थे । थोङी देर में घर में शांति हो गई । सब थके हारे लोग थे । सारी रात भांवर की वजह से सो न पाए थे । शायद सो गए ।
मैं भी कई दिनों से ढंग से आराम न कर पाई थी । ढेर सारे मेहमान । उनकी बातें । हर तरफ सिर्फ शोर और शोर । सौ तरह के रस्म रिवाज । गीत नाच गाना । दो मिनट भी चैन न मिलता । और कल तो रात भर सो न पाई थी । ऊपर से दिन भर रेल का ऊब भरा सफर । थकावट के मारे बुरा हाल था तो आखिर जब बैठना मुश्किल हो गया तो हार कर दे दुपट्टे तह किए । शाल कस कर लपेटा । नथ और कांटे उतार कर पर्स में डाले और दीवार के साथ लग कर तिरछी होकर अधलेटी हो गई ।

बाकी फिर ...