गाँव के तिलिस्म भाग -2 डॉ स्वतन्त्र कुमार सक्सैना द्वारा नाटक में हिंदी पीडीएफ

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गाँव के तिलिस्म भाग -2

कृष्‍ण कुमार ने जा कर कम्‍पनी ज्‍वाइन कर ली, अभी उसके संभाग के शहर ही में उसका नया जॅाब लग गया था। दो महीने बाद उसने अपने सर कम्‍पनी के इंजीनियर साहब से गांव चलने को कहा व एक बरसाती नदी के सर्वे की बात की तो वे सहज ही तैयार हो गए। किराए की कार की कहा तो बोले –’मेरे पास व्‍हीकल है, हम सब लोग चलेंगे, तुम पेट्रोल डलवा देना।’

कृष्‍ण प्रसन्‍न हो गया उसने अपने गांव सूचना करवा दी। इंजीनियर साहब ने शर्त रखी कि गांव का ही ट्रेडीशनल भेाजन हो। फिर भी कृष्‍ण शहर से भी कुक ले गया, सब्‍जी, पनीर, आदि‍ ले गया सब को भोजन बने। वहीं नरिया किनारे पिकनिक हुई, सब लोगों ने बरसाती नदी का निरीक्षण किया। पुराने कृष्‍ण के सर्वे में इस बार विस्‍तार से नाप जोख की गई। मिटटी के नमूने लिए गए, मजदूरों से खुदवाया गया। वे कई यंत्र भी लाए थे, उनसे जांच की, कृष्‍ण की साईट को ही सही समझा गया। वहां इंजीनियर की पूरी टीम थी, वे भेाजन से संतुष्‍ट हुए, फिर सरपंच जी ने गांव से इकटठा कर लाए दूध से बनी बहुत स्‍वादिष्‍ट खीर खिलाई, जिसकी सब तारीफ करते नहीं थक रहे थे। वे जब कृष्‍ण को धन्‍यवाद  देने लगे, तो कृष्‍ण ने सरपंच द्रौपदी बाई उनके पति व अपने माता पिता से भी परिचय कराया। गांव के अन्‍य गण्‍यमान लोग भी आए। उस गांव में नेता और जमींदार रिश्‍तेदार और बड़े लोग तो कई आए थे, पर एक साथ इतने इंजीनियर, मैनेजर पहली बार आए थे। साथ में एक कृषि विशेषज्ञ भी थे। गांव के लोगो से फसल के बारे में बात करते रहे, उनकी जिज्ञासा शांत की, गांव में कृष्‍ण का प्रभाव बढ़ा।

बहुत दिनों बाद उन्‍होंने (सरपंच द्रौपदी बाई ने) जब विजय कुमार से अपना कार्ड मांगा तो वह बहाने करने लगा। बता नहीं रहा था, तब भंवर सिंह को शक हुआ। तो उसने कार्ड तो लौटा दिया, पर भंवर सिहं जब तहसील में पंचायत विभाग गए तब पता चला कि उसने कुछ राशि निकाली है, व काम कराये जाने की रिपोर्ट भी जमा की है। तब उनके कान खड़े हुए। ऑफिस में ही उनके एक शुभ चिंतक ने उन्‍हें बताया, राशि बताई, तब वे घबड़ा गए। उनकी झिकझिक उस बाबू से हो ही रही थी, कि वहीं पर उन्‍हें एक पत्रकार अशोक मिल गए। पूछा –’सरपंच जी! क्‍या बात है?’

उन्‍होंने पूरी राम कहानी उसे सुनाई। तब उनकी सलाह पर एक प्रार्थना पत्र एस. डी्एम. महोदय के नाम प्रेषित कर उस पर द्रोपदी के हस्‍ताक्षर से प्रेषित किया गया। पर एक जादू हो गया, सारा दफतर ही सेक्रेटरी साहब के समर्थन में आ गया। पहले तो भंवर सिहं पर दबाव डाला गया, उन्‍हें मनाया गया, फिर उन तक धमकियां आने लगी, कि अर्जी वापिस लेलें, जब बात न बानीं तो उन्‍हें लालच दिया गया, एक बार पत्रकार अशेाक की तो पिटाई भी हो गई। इस घटना की भी रिपोर्ट पुलिस में की गई। फिर एक बार पंचायत विभाग पर प्रदर्शन भी आयोजित किया गया, जब कोई कार्यवाही नहुई तो धरना दिया गया। तब  विभाग की आंख खुली और पंचायत सेक्रेटरी निल‍ंबित किये गए। दूसरे सेक्रेटरी को चार्ज देने का आदेश हुआ, तब भी  बड़ी बहाने बाजी व टाल -मटोल की गई। बड़ी मुश्किल से रिकार्ड सील हो पाया। तब जाकर जांच हुई इसी में दो साल गुजर गए। पंचायत का सारा काम ठप्‍प  रहा। कलेक्‍टर साहब तक को आवेदन दिया गया आखिर लम्‍बी दौड़-धूप के बाद साहब की तरफ से निर्णय आया सेक्रेटरी से गबन की राशि का आधा हिस्‍सा वसूल किया जाए व शेष राशि सरपंच जमा करे। साथ ही पंचायत सेक्रेटरी का जिले से बाहर ट्रांसफर किया गया। सरपंच को अगले छ: साल तक चुनाव लड़ने से वंचित किया गया।

इसी बीच उनके नरिया पर बांध बनाने का प्रस्‍ताव भी विचार के लिए जिला परिषद से पास कर दिया गया। पंचायत से एक बार प्रदर्शन के लिए बहुत सारे लोग भोपाल बुलाए गये तब द्रोपदी बाई अपने साथ अपने प्रस्‍ताव की प्रति ले गईं व सब के साथ मिल कर उन्‍हें मुख्‍य मंत्री महोदय को दिया। समय निकलता गया इसी समय प्रदेश में विधान सभा के चुनाव आ गए सभी जगह चुनाव सभाएं होने लगीं द्रौपदी बाई ने इसका फायदा उठा कर अपना मुदृा जम कर उठाया। स्‍थानीय मंत्री ने चुनाव का समय देख कर आश्‍वासन देना जरूरी समझा। नई सरकार बनी, मंत्री महोदय ने पुन: मंत्री पद की शपथ ली, जब उनको बधाई की सभा आयोजित की गई तो बात फिर उठने पर उन्‍होंने पुन: आश्‍वासन दिया।

 

अब पंचायत चुनाव का समय आ गया तो द्रौपदी बाई तो चुनाव नहीं लड़ सकतीं थीं प्रतिबंधित थीं, ऐसे में उन्‍हें अपनी सहेली याद आई जो इसी पंचायत के दूसरे गांव में रहती थी। सुक्‍खोबाई! वह एक मात्र महिला थी जो दस तक पढ़ी थी, वह किसी दूर क्षेत्र की थी। उसके पति पंडित श्री परसाद की पहली पत्‍नी जब मर गई, तो उसने दलाल के मारफत  दूसरी शादी की थी, वैसे गांव में अफवाह यह भी थी कि श्री परसाद ने झगड़ा होने पर शराब के नशे में खुद पहली पत्‍नी का गला दबा दिया था। वह खरीद कर लाई गई थी।

यह चर्चा आम थी कि वह प्रेम में पड़ गई थी। जब दसवां पास कर चुकी तो वह नौकरी की तलाश में शहर के चक्‍कर काट रही थी। दुर्भाग्‍य से तभी उसके बीमार पिता की मृत्‍यु हो गई भाई भी छोटा था। पिता मजदूर थे। थोड़ा बहुत जो था वह उनके इलाज में लग गया। पांच बीघा जमीन थी, वह चाचा ने तिकड़म से अपने नाम लिखवा ली। मां भी मजदूरी करती थी। तब एक दूर के रिश्‍तेदार ने उसकी मदद की, उसी का भतीजा उससे मीठी- मीठी बातें करने लगा। उसकी नौकरी लगवा देगा सब समस्‍याएं हल करवा देगा, उसकी अफसरों से जान पहिचान है। वह बातों में आ गई और एक दिन उसके साथ भाग आई। वह एक ठेकेदार के यहां कार का ड्राईवर बन गया। सब ठीक चल रहा था, वह कभी दारू पी कर आता, कभी उसके साथ उसके साथी होते, जो वहीं पीते- पिलाते रात को रूकते, न जाने क्‍या बातें करते रहते। फिर एक दिन बोला –’चलो हम एक गांव चलते हैं।’

वह एक दूर बीहड़ का गांव था, जहां वह ट्रेक्‍टर चलाया करता। वह एक दिन कह कर गया-’ मैं बाहर जा रहा हूं, दो दिन में आऊंगा।’ जब वह चार पांच दिन नहीं आया तो एक दिन जिस घर में रहती थी, उसका मालिक आया और बोला –’वह तुम्‍हें मेरे पास बीस हजार रूपए में बेच गया है।’

और फिर उसे किवाड़ लगा कर बंद कर दिया, लेट्रिन जाने के लिये बाहर साथ  वह भी जाता। मजबूरन बंद रही उसकी कैद में रही, भागने का प्रयास किया पर पकड़ी गई, पिटाई हुई। आखिर उसको समर्पण के लिये मजबूर होना पड़ा। बाद में मकान वाले ने  मीठी-मीठी बातें कर समझाया, -’अब तुम्‍हें तुम्‍हारे गांव में भी कौन स्‍वीकार करेगा? घरवाले भी पसंद नहीं करेंगे।’

एक दिन शहर से कुछ लोग आए, वे अफसर व रजिस्‍ट्री लेखक, वकील व अन्‍य लोग थे। उन्‍होंने रजिस्‍ट्री के कागजों पर हस्‍ताक्षर कराए, दोनों की माला डाल कर फोटो खिंचवाई और वह बेबस उसकी पत्‍नी बन गई। यहां कोई उसके समर्थन में नहीं था, उसका ही गांव था, और भी उसके जैसी कई महिलाएं वहां थीं। कुछ समय बाद उसके एक लड़की हुई, जो मेरे उसी धोखे बाज प्रेमी की बेटी थी, पर श्रीपरसाद उसे सहज ही स्‍वीकार कर लिया। फिर एक लड़का भी हुआ।

इस बीहड़ गांव में जब- तब आस- पास डकैतों को गिरोह ठहरते, चार पांच महिलाएं मिल कर रोटियां बनाते उसका नया पति उन्‍हें लेकर गिरोह को देने जाता। ऐसा जब -तब होता फिर गिरोह कहीं और चला जाता। वे एक जगह नहीं रूकते, उसके पति को राशि दी जाती जिसे वह अपने नाम से जमा करता व उन्‍हें जब बागी कहते निकाल कर देता कुछ अन्‍य लोग जो उन्‍हें हथियार सप्‍लाई करते उनका भी वही भुगतान करता। वे लूट के माल में से बची राशि उसे देते तो वह धरोहर की तरह जमा रखता, उस पैसे से उसने जमीन भी सुक्‍खो के नाम से खरीद ली। उसकी आर्थिक स्थिति भी सुघर गई। जब फसल आती तो उसमें से भी बड़ा हिस्‍सा डाकू गिरोह का होता । बाद में  वह केवल डाकुओं का ही दलाल नहीं रहा वरन पुलिस का भी मुखबिर बन गया था। गांव वालों को ले जाकर पुलिस से उनकी बात कराता। बीच में कमीशन लेता। साहब की तरफ से बात करता, उसका धंधा चल निकला था। वह तहसील, थाने, जनपद- पंचायत, अस्‍पताल सब जगह यही काम करता।

एक बार तो डकैतों ने एक सेठ के लड़के का अपहरण किया और उसी के खलिहान के कमरे में रखा। श्रीप्रसाद उन्‍हें खाना लेकर जाता, बिस्‍तर भी ले गया, कमरे में पुआल बिछाया, कभी कभी पूरा गिरोह ठहरता। पहरा रखते, सावधान रहते, और जब गिरोह चला जाता, तो भी एक डाकू जरूर रहता, व एक डकैत वहां रात को भी रूकता। वह लड़के के पैर में रस्‍सी बांध कर दूसरा सिरा अपने पैर में बाध कर सोता। पर एक दिन एक पियक्‍कड़ डाकू जो फुरसत में ज्‍यादा पी गया, रात को लड़के को पेशाब लगी तो नींद खुल गई, जब उसने डकैत को गहरी नींद में खर्राटे भरते सोते देखा तो लड़के ने धीरे से रस्‍सी छुड़ा ली। हालांकि बहुत देर लगी, डर भी रहा था पैर (टखने) में छिल भी  गया, हाथ कांप रहे थे पर अंतत: रस्‍सी पैर से निकल गई। धीरे- से बाहर निकला। कमरे के काम चलाऊकिवाड़ खोले, सांकल टाईट थी, खुलने में जब आवाज हुई, उसकी तो जैसे जान ही निकल रही थी, पर वह डकैत जागा नहीं। कमरे से बाहर निकला, तभी सुक्‍खो बाई उसे दिखी, सर्दी का मौसम था, सुबह के  पांच-साढ़े पांच के बीच का समय होगा। लड़का देख कर घबड़ा गया सांस ऊपर की ऊपर रह गई, पर उसने उसे कन्‍धे पर हाथ रख कर चुप रहने को कहा, सुक्‍खो बाई के पास तब पचास रूपए निकले। वे उसने लड़के को चुपचाप दे दिये। फिर वे दोनों सड़क पर आ गए वहां एक मोटर- साईकिल सवार दिखा, सुक्‍खो का परिचित निकला उससे लिफट मांगी उसने लड़का बिठा लिया व मुख्‍य सड़क पर छोड़ दिया। वहां से वह एक ट्रक से लिफट लेकर शहर पहुंच गया। डकैत सुबह सात–आठ बजे उठा, जब बगल में लड़का न दिखातो घबड़ा गया, आस- पास ढूंढा, तब तक सुक्‍खो का पति भी खलिहान पंहुचा लड़के को न पाकर बड़ी ले- दे मची, खबर लगने पर सारे डकैत आ गए, उस शराबी दारू बाज डकैत पर सारा गिरेाह चढ़ बैठा। उसके नशे पर आरोप मढ़ा। वे सोचते रहे, पर लड़के को रास्‍ता किसने बताया? कहां गया? कैसे गया? बहुत माथा- पच्‍ची की गई, पर किसी का ध्‍यान सुक्‍खो बाई पर नहीं गया। उसका पति भी बहुत परेशान रहा, पर उसके बाद अपहृत फिर वहां नहीं रोके गये। सुक्‍खो भी कई दिन तक डरी-डरी रही कि कहीं भेद खुल न जाए कहीं वह मोटर साईकिल वाला भेद न उगल दे? पर ऐसा नहीं हुआ शायद उस नौजवान को भी यह समझ नहीं आया था कि वह एक अपहृत को ले जा रहा है। वह समझा कि चाची का कोई रिश्‍तेदार है, फिर उससे कोई पूंछ- तांछ भी नहीं की गई, वे सब चिंतित तो रहे पर किसी से पूंछ ने की हालत में न थे।

गांव में आंगन वाड़ी के लिए जब पद निर्मित हुआ तो सुक्‍खो बाई ने भी आवेदन भरा। अपने बेचे जाने के दस वर्ष बाद अपने गांव गई उसका नया पति तो आंशंकित था अत: उसने दोनो संताने अपने पास रख लीं और कहा ये कहां परेशान होंगीं। जब तक वह जाति प्रमाण पत्र, जन्‍म प्रमाण पत्र, मेट्रिक की मार्क शीट और अपने गांव का निवासी होने के प्रमाण, सारे कागज लाई तब निश्‍चिंत हुआ। गांव में  भाई बड़ा हो गया था घर में बहू आ गई थी। वे सब मिल कर देर तक रोते रहे, मां मर गई थी। अब वह उसके पति की दौड़-धूप के कारण आंगन वाड़ी कार्यकर्ता बन गई। सारे गांव में उसका परिचय हो गया प्रभाव में भी बढ़ोतरी हुई। एक दिन जब वह अपने ग्राम सम्‍पर्क में थी। तभी वह सरपंच द्रौपदी बाई के घर पहुंची, तो द्रौपदी को उसमें भावी सरपंच उम्‍मीदवार नजर आया। वह उनकी विश्‍वसनीय मित्र तो थी ही व जन्‍मना आदिवासी भी थी। अगले दिन उन्‍होंने अपने पति से बात की। और उनके पति ने श्री परसाद को बुलवा भेजा। पति- पत्‍नी दोनों ही गए और उनकी प्रतिनिधि के रूप में सुक्‍खो बाई का सरपंच पद के लिये पर्चा भरा गया। भंवर सिंह व श्रीप्रसाद के प्रभाव व आंतक के कारण दूसरे महिला प्रत्‍याशी का परचा भरने से रोका गया। डाकू गिरोह के सरदार का भी संदेशा पहुंच गया ’हमसे मत उलझना’। साफ–साफ कह दिया इस बार नाक का सवाल है फिर चाहे कोई बने। दूसरी प्रत्‍याशी पहुंच गई थी वहीं बहस हुई गर्मी भरी बाते हुईं, एक दूसरे को देख लेने की बात हुई, पर समझाने पर व अपने समर्थक कम देखने पर वो भी मान गई, समझौता हो गया। और सुक्‍खो बाई निर्विरोध सरपंच बन गईं।

गांव में जुलूस निकला मालाएं पहिनाईं गईं, जयकारे लगे, नारे लगाए गए पर उस सब में सुक्‍खो बाई व द्रौपदी बाई कहीं नहीं  थीं। इस सब कार्यक्रम में श्री प्रसाद व भंवर सिंह बधाईयां स्‍वीकार कर रहे थे मालाएं पहन रहे थे दो तीन गांव घूमे समर्थकों, क्षेत्र के गण्‍य -मान लोगों के घर- घर गए। लडडू बांटे गए, गुलाल उड़ाया गया। रात्रि को मित्रों के साथ दारू मुर्गा की दावत दी गई। गिरोह तक भी दावत का सामान भेजा गया। जब आंगन वाड़ी  कार्यकर्ता बन गई तो अस्‍पताल से भी परिचय हो गया वह अपने गांव के रोगियों को कस्‍बे के अस्‍पताल ले जाती गर्भवती महिलाओं को ले जाती, प्रसव के लिये महिलाओं को मदद करती, उनका और बच्‍चों को टीका करण करवाती। ऐसे में उसका परिचय शहर में भी हो गया। उसने एक दो कमरे का किराए का घर ले कर दोनों बच्‍चे वहां रख दिए। पति तो मना कर रहा था, खर्चा ओढ़ने को तैयार नहीं था, खूब चिक -चिक हुई पर मान गया। बेटा- बेटी बड़े हो गए थे उनका स्‍कूल में एडमिशन करवा दिया। बेटी आठवीं में आ गई थी बेटा छठवीं में था वह जाती आती रहती। अब वह नियमित रूप से हर आठवें- दसवें दिन शहर जाती वह सरपंच भी थी जब मीटिगं होती तो एक दो दिन रूक जाती। वह पद के साथ एक काम और करती अपने साथ उन महिलाओं को जिन्‍हें कोई स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍या होती साथ ले जाती उन्‍हें लेडी डॅाक्‍टर को दिखाती, व अन्‍य जिन्‍हें जरूरत होती कुछ अन्‍य दफतरों में भी ले जाती, इस तरह उसका सम्‍पर्क का दायरा बढ़ता जा रहा था वह सरपंच पद के निर्वाह में कुशल होती जा रही थी।

 

क्रमशः