श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 10 Ashish Kumar Trivedi द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 10



अध्याय 10

विभूति योग


पिछले अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि इस सृष्टि में यदि कुछ जानने योग्य है तो केवल ईश्वर है। ईश्वर ही सृष्टि का आधार है और सभी चर अचर प्राणियों में विद्यमान है। जो इस बात को समझ लेता है उसके लिए अन्य कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता है।
इस इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण उसी बात को आगे बढ़ाते हुए अपनी महिमा एवं ऐश्वर्य का वर्णन कर रहे हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम मेरे ऐश्वर्य को पुनः सुनो। तुम मुझे प्रिय हो अतः मैं तुम्हारा शुभचिंतक हूँ। तुम्हारे कल्याण के लिए मैं तुम्हें अपनी महिमा बता रहा हूँ। चाहे देवता हों या ऋषिगण सब मुझसे उत्पन्न हैं। पर मेरे वैभव को सही प्रकार से नहीं जानते हैं।
जो मनुष्य मुझे अजन्मा और अविनाशी मानते हैं वही मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। मेरे कारण ही मनुष्य में बुद्धि, ज्ञान, विचारों की स्पष्टता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण आदि गुण उत्पन्न होते हैं। सुख और दुःख, जन्म और मृत्यु, भय और साहस, अहिंसा, समता, संतोष, तपस्या, दान, यश और अपयश इन सबका कारण भी मैं हूँ।
जिन सप्तर्षियों, चार महान संतों एवं चौदह मनुओं से संसार के सभी प्राणी उत्पन्न हुए हैं उनकी उत्पत्ति का कारण मैं ही हूँ।
मुझे इस सृष्टि का मूल मानकर मेरी भक्ति करने वाले ही मुझे प्राप्त करते हैं। ऐसे लोगों का चित्त सदैव मेरे चरणों में अर्पित रहता है। वह दूसरों को मेरी महिमा बताने में परम सुख का अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों के प्रति मैं दयावान रहता हूँ। उनके अज्ञान को दूर करके उनके चित्त को शुद्ध करता हूँ। ऐसे शुद्ध चित्त मनुष्यों को ही दिव्य ज्ञान मिलता है जिससे वह मुझ तक पहुँच सकें।
श्रीकृष्ण के द्वारा अपने पर कृपा किए जाने से भाव विह्वल होकर अर्जुन कहता है कि हे प्रभु आप परम दिव्य पुरुष हैं। मनुष्य का परम धाम हैं। आप परम शुद्धिदाता, सनातन ईश्वर, आदि पुरुष, अजन्मा और महानतम हैं। नारद, असित, देवल और व्यास जैसे महान ऋषियों ने इसकी घोषणा की है। अब आप मुझ पर दया करके स्वयं इसे मेरे लिए घोषित कर रहे हैं। आपने मुझे परम ज्ञान दिया है जिसके माध्यम से मैं आपके व्यक्तित्व को समझ सकता हूँ।
आप अचिंत्य हैं। आप ही स्वयं को अच्छी तरह से समझ सकते हैं। अतः आप मुझे अपने ऐश्वर्य के बारे में बताएं जिससे आप समस्त लोकों में व्याप्त हैं। हे योगेश्वर मुझे बताने की कृपा करें कि मैं आपका ध्यान किस प्रकार एवं किस रूप में कर सकता हूँ। हे जनार्दन आप मुझे अपनी महिमा और दिव्य स्वरूपों के बारे में बताइए।
श्रीकृष्ण ने कहा हे अर्जुन मैं सभी जीवों के ह्रदय में विराजमान हूँ। मैं सभी प्रणियों का आदि, मध्य एवं अंत हूँ। अदिति के बारह पुत्रों में मैं विष्णु हूँ। प्रकाशमान वस्तुओं में मैं सूर्य हूँ। मुझे उनचास मरुतों में मरीचि और रात्रि के आकाश के तारों में चन्द्रमा जानो।
वेदों में मैं सामवेद हूँ। देवताओं में देवराज इन्द्र हूँ। इंद्रियों में मन हूँ और जीवों में चेतना हूँ।
रुद्रों में मैं शंकर हूँ। अर्द्धदेवों और दैत्यों में कुबेर हूँ। वसुओं में अग्नि हूँ और पर्वतों में मेरु हूँ।
हे अर्जुन पुरोहितों में मैं बृहस्पति हूँ। योद्धाओं में मैं कार्तिकेय हूँ। जलाशयों में मैं सागर हूँ।
मैं महान ऋषियों में भृगु। मंत्रों में एकाक्षर ॐ हूँ। यज्ञों में विजय का यज्ञ हूँ। अचल वस्तुओं में हिमालय हूँ।
वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ। देव ऋषियों में मैं नारद हूँ। गन्धर्वों में मैं चित्रथ हूँ एवं सिद्ध व्यक्तियों में मैं कपिल मुनि हूँ।
घोड़ों में समुद्र मंथन से निकला उच्चैःश्रवा हूँ। हाथियों में ऐरावत और मनुष्यों में राजा हूँ।
शस्त्रों में वज्र हूँ और गायों में कामधेनु हूँ। मैं प्रेम का देवता कामदेव हूँ। सभी प्रजनन कारणों में वासुकि हूँ।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं सर्पों में अनंत हूँ। जलचरों में मैं वरुण और पितरों में अर्यमा हूँ। विधि-विधान करने वालों में मैं मृत्यु का देवता यमराज हूँ।
मैं दैत्यों में प्रह्लाद हूँ। सभी नियंत्रण करने वाली शक्तियों में मैं काल हूँ। पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ।
पवित्र करने वाली वस्तुओं में पवन, शस्त्र धारकों में राम हूँ। मैं जलचरों में मगरमच्छ और नदियों में गंगा हूँ।
मैं ही समस्त सृष्टि का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ। विद्याओं में मैं अध्यात्मशास्त्र हूँ तथा शास्त्रार्थ में मैं तार्किक निष्कर्ष हूँ।
अक्षरों में मैं प्रथम अक्षर हूँ। समास समूह में द्वन्द्व नामक समास हूँ। मैं ही अविनाशी काल अर्थात् अनंत काल हूँ। सृष्टिकर्ताओं में मैं ब्रह्मा हूँ।
मैं सर्वहारा मृत्यु हूँ। जो कुछ अभी अघटित है उसका मूल भी मैं ही हूँ। स्त्रियोचित गुणों में मैं यश, समृद्धि, उत्तम वाणी, स्मृति, बुद्धि, साहस और क्षमा हूँ।
सामवेद के सभी श्लोकों में मुझे बृहत्साम जानो। काव्यात्मक छंदों में मैं गायत्री हूँ। वर्ष के बारह महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूँ, तथा ऋतुओं में मैं वसंत हूँ जो फूलों को जन्म देता है।
छल करने वालों में मैं द्यूत हूँ। वैभवशाली लोगों का वैभव हूँ। मैं विजयी लोगों की विजय हूँ एवं दृढ़ निश्चयी लोगों का संकल्प हूँ। पुण्यात्माओं का पुण्य हूँ।
वृष्णिवंशियों में मैं कृष्ण हूँ और पाण्डवों में मैं अर्जुन हूँ। मुझे ऋषियों में वेदव्यास और महान विचारकों में शुक्राचार्य जानो।
अधर्म को रोकने के लिए मैं न्यायोचित दण्ड हूँ। विजय चाहने वालों में उचित आचरण हूँ। रहस्यों में मैं मौन हूँ तथा बुद्धिमानों में मैं उनकी बुद्धि हूँ।
हे अर्जुन! मैं सभी जीवित प्राणियों का मूल बीज हूँ। कोई भी जीवित या अजीव प्राणी मेरे बिना नहीं रह सकता।
हे शत्रुओं पर विजय पाने वाले मेरे दिव्य स्वरूपों का कोई अंत नहीं है। मैंने जो कुछ तुम्हें बताया है वह मेरी अनंत महिमा का एक उदाहरण मात्र है।
इस सृष्टि में जो कुछ भी सुंदर, महिमामय या शक्तिशाली है वह मेरे तेज का एक अंश है।
हे अर्जुन तुम बस इतना जान लो कि मैं अपने एक अंश मात्र से इस संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हूँ तथा इसका पालन करता हूँ।

अध्याय की विवेचना

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि वह अपने ऐश्वर्य का वर्णन करें। उसे उनके वैभव के बारे में बताएं जिससे वह समझ सके कि भगवान कितने विराट और सर्वव्यापी हैं।
अर्जुन श्रीकृष्ण को प्रिय था। अतः उन्होंने उसका अनुरोध स्वीकार कर लिया। उन्होंने विभिन्न उपमाओं के द्वारा अपनी विराटता का वर्णन किया।
श्रीकृष्ण को अपने ऐश्वर्य का बखान करने के लिए इतनी सारी उपमाएं क्यों देनी पड़ीं? जवाब है कि मनुष्य की बुद्धि उस विराटता को समझ ही नहीं सकती है। हम अपने संसार को अपनी इंद्रियों के द्वारा ही समझ पाते हैं। इंद्रियों की अपनी सीमा होती है। जबकि ईश्वर का वैभव उनकी विशालता उससे कहीं अधिक है।
उदाहरण के लिए जब एक बच्चा किसी बड़े पेड़ के बारे में बताना चाहता है तो वह अपने दोनों हाथों को जितना फैला सकता है उतना फैला कर कहता है 'इतना बड़ा'। पर क्या वह बच्चा सचमुच पेड़ के बड़े आकर का सही वर्णन कर पाता है। नहीं... वह ऐसा नहीं कर पाता है। वह तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही पेड़ के आकार के बारे में बताता है। ऐसे ही श्रीकृष्ण ने हमारी इंद्रियों की क्षमता के अनुसार ही हमें अपने विराट ऐश्वर्य के बारे में बताया है।
श्रीकृष्ण ने हमारी जानकारी में आने वाली वस्तुओं एवं महापुरुषों में जो सर्वश्रेष्ठ हैं उन्हें अपने समतुल्य बताया है। श्रीकृष्ण का कहना है कि इस सृष्टि में जो भी श्रेष्ठ है वह उनका रूप है। इस प्रकार उन्होंने यह समझाने का प्रयास किया है कि वह सर्वश्रेष्ठ हैं।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह प्रकाशमान वस्तुओं में सूर्य हैं। जब हम उन वस्तुओं के बारे में विचार करते हैं जो अपने प्रकाश से आसपास प्रकाश फैलाती हैं तो उनमें सूर्य को सर्वश्रेष्ठ पाते हैं। धरती से इतनी दूर होने के बावजूद भी सूर्य इसके हर हिस्से को प्रकाशित करता है। सूर्य हर प्रकाशवान वस्तु में श्रेष्ठ है। ईश्वर का तेज उससे भी कई गुना है। उनके तेज से ही इस सृष्टि में सूर्य भी प्रकाशित है। पर हम उस तेज का अनुमान नहीं कर सकते हैं। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को प्रकाशमान वस्तुओं में सूर्य कहा है जिससे हम उसका अनुमान कर सकें।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं सर्वहारा मृत्यु हूँ। जो घटित है या होने वाला है उसका मूल हैं। मृत्यु अर्थात अंत एक बड़ा सच है। इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है। आज जो है कल नहीं होगा और जो नहीं है वह कल हो सकता है। सृष्टि के प्रकट होने एवं विलुप्त होने का कारण ईश्वर ही हैं। अर्थात ईश्वर से ऊपर कोई भी नहीं। उनसे ही सृष्टि प्रकट होती है और एक समय के बाद उनमें ही समा जाती है।
पिछले अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा था कि संसार में जो भी चर व अचर है वह उनसे ही उत्पन्न है। वही इस सृष्टि का मूल हैं। इस अध्याय में भी उन्होंने कहा है कि वह इस सृष्टि का आदि, मध्य और अंत हैं। अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनके दिव्य स्वरूपों का कोई अंत नहीं है। क्योंकि सब कुछ उनसे ही जन्मा है। जो कुछ सुंदर, महिमामय और विशाल है वह उनके तेज से उत्पन्न है।
फिर भी उनकी विराटता का अनुमान नहीं कर सकते हैं क्योंकि जो भी इस सृष्टि में है वह उनके तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ है।

हरि ॐ तत् सत्