लंकादहन Sohu Pramod द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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लंकादहन

हनुमानजी माता सीता से लंका में अशोकवाटीका में छोटा रूप धारण कर मिले तथा सीता माता की आज्ञा से अपनी भूख मिटाने के लिए वाटिका से फल तोडकर खाने लगे । तब वहां पर पहरा दे रहे राक्षसों ने हनुमानजी को देखा और उन्‍हें साधारण वानर समझकर उन्‍हें मारने के लिए दौड पडे; परंतु हनुमानजी ने अपनी शक्‍ति का प्रयोग कर राक्षसों पर आक्रमण किया । कुछ राक्षस अपने प्राण बचाकर रावण के समक्ष पहुंचे तथा उन्‍होंने रावण को समाचार दिया कि एक वानर ने अशोकवाटिका को उजाड दिया है तथा बहुत से राक्षसों को भी मार दिया है । रावण यह समाचार सुनकर बहुत क्रोधित हुआ, तब रावण के पुत्र इंद्रजीत ने हनुमानजी को पकडकर लाने के लिए रावण से आज्ञा ली तथा हनुमानजी पर ब्रह्मास्‍त्र से वार कर उन्‍हें बंदी बना लिया तथा सभा में ले गए । हनुमानजी रावण के सामने खडे विचार कर रहे थे । समस्‍त लोकों को डरानेवाला महाबाहु रावण हनुमानजी को सामने इस प्रकार निर्भय खडा देखकर क्रोधीत हो गया । वह अपने महामन्‍त्री से बोला, ‘‘अमात्‍य ! इससे पूछो कि यह कहां से आया है ? इसे किसने भेजा है ? सीता से यह क्‍यों बाते कर रहा था ? अशोकवाटिका को इसने क्‍यों नष्‍ट किया ? इसने किस उद्देश्‍य से राक्षसों को मारा ? मेरी इस लंकापुरी में आनेका प्रयोजन क्‍या है ? ’’

रावण की आज्ञा पाकर मंत्री ने हनुमानजी से लंका में आने का कारण पूछा । तब हनुमानजी ने उत्तर दिया कि ‘‘मैं श्री रामचन्‍द्र जी का दूत हूं और उनके ही कार्य से यहां आया हूं ।’’

हनुमानजी ने कुछ क्षण शान्‍तभाव से सभी की ओर देखा और आगे कहा, ‘‘मैं किष्‍किन्‍धा के परम पराक्रमी राजा सुग्रीव का दूत हूं । उन्‍हीं की आज्ञा से तुम्‍हारे पास आया हूं । हमारे महाराज ने तुम्‍हारा कुशल समाचार पूछा है और कहा है कि तुमने नीतिवान, धर्म, चारों वेदों के ज्ञाता, महापण्‍डीत, तपस्‍वी और महान ऐश्‍वर्यवान होते हुए भी एक परस्‍त्री को अपने यहां बंदी बनाया है, यह तुम्‍हारे लिए उचित बात नहीं है । तुमने यह दुष्‍कर्म करके अपनी मृत्‍यु का आव्‍हान किया है । तुम सीता माता को प्रभु श्रीरामचंद्रजी को लौटा दो । वे निश्‍चित ही तुम्‍हें क्षमा कर देंगे । यदि तुम ऐसा नही करोगे, तो तुम्‍हारा अन्‍त भी वही होगा जो खर, दूषण और बालि का हुआ था ।

हनुमानजी की यह बात सुनकर रावण क्रोधित हो उठा । उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी, ‘इस वानर का वध कर डालो ।’ रावण की आज्ञा सुनकर वहां उपस्‍थित विभीषण ने कहा, ‘‘राक्षसराज ! आप धर्म के ज्ञाता और राजधर्म के विशेषज्ञ हैं । दूत के वध से आपके पाण्‍डित्‍य पर कलंक लग जाएगा । इसलिए उचित-अनुचित का विचार करें और दूत के योग्‍य किसी अन्‍य दण्‍ड की आज्ञा दें ।’’ रावण ने कहा, ‘‘शत्रुसूदन ! पापियों का वध करने में पाप नहीं है । इस वानर ने वाटिका का विध्‍वंस तथा राक्षसों का वध करके पाप किया है । इसलिए मैं इसका वध करूंगा ।’’

रावण की यह बात सुनकर उसके भाई विभीषण ने नम्रता के स्‍वर में कहा, ‘‘हे लंकापति ! जब यह वानर स्‍वयं को दूत बताता है, तो नीति तथा धर्म के अनुसार इसका वध करना अनुचित होगा । क्‍योंकि दूत दूसरों का दिया हुआ सन्‍देश सुनाता है । वह जो कुछ कहता है, वह उसकी अपनी बात नहीं होती, इसलिए उसका वध नही किया जा सकता ।’’

विभीषण की बात पर विचार करने के बाद रावण ने कहां, ‘‘तुम्‍हारा यह कथन सत्‍य है कि दूत का वध नहीं किया जा सकता । परन्‍तु इसने अशोकवाटिका का विध्‍वंस किया है । इसका दण्‍ड तो इसे मिलना चाहिए । वानरों को अपनी पूंछ प्रिय होती है । इसलिए मैं आज्ञा देता हूं कि, इसकी पूंछ रुई और तेल लगाकर जला दी जाए । ताकि इसे बिना पूंछ का देखकर लोग इसकी हंसी उडाए और यह जीवन भर अपने कर्मों पर पछताएं ।’’

रावण की आज्ञा से राक्षसों ने हनुमान की पूंछ को रुई और पुराने कपडो से लपेटकर उस पर बहुत सा तेल डालकर आग लगा दी । जैसे जैसे राक्षस हनुमानजी की पूंछ पर कपडे लपेट रहे थे, वैसे वैसे हनुमानजी भी अपनी पूंछ बढाते जा रहे थे । अंत में उनकी पूंछ को आग लगा दी गई । पूंछ के जलते ही हनुमानजी ने अपने सारे बंधन तोडकर ऊंची छलांग लगाई और रावण की सोने की लंका जला दी ।

सम्‍पूर्ण लंकापुरी में केवल एक भवन ऐसा था जो अग्‍नि के प्रकोप से सुरक्षित था और वह था नीतिवान विभीषण का प्रासाद ।

लंका को भस्‍म कर हनुमानजी ने लंका के समुद्र में अपनी पूंछ की आग बुझाई और पुनः अशोकवाटिका में सीता के पास पहुंचे ।

उन्‍हें सादर प्रणाम करके बोले, ‘‘हे माता ! अब मैं यहाँ से श्री रामचन्‍द्र जी के पास लौट रहा हूं । रावण को और लंकावासिययों को मैंने प्रभु राघव शक्‍ति का थोडा सा आभास करा दिया है । अब आप निर्भय होकर रहें । अब शीघ्र ही प्रभु श्री रामचन्‍द्र जी वानर सेना के साथ लंका पर आक्रमण करेंगे और रावण को मार कर आपको अपने साथ ले जाएंगे । विशाल सागर को पार करते हुए हनुमान वापस सागर के उस तट पर पहुंचे जहां प्रभु श्रीरामजी थे । हनुमान ने वहां पहुंच कर सबका अभिवादन किया और लंका का समाचार सुनाया । सभी वानर प्रभु श्रीरामजी तथा पवनसुत की जयजयकार करने लगे ।