मैं श्रद्धानंद कैसे बना?
गुरुकुल का दृश्य : (संध्या का समय) दो विद्यार्थी कृपाल व विभु दाईं ओर से किसी विषय पर चर्चा करते हुए आ रहे है। और उनमें से कृपालके हाथ में एक पुस्तक है।
कृपाल : देखो मित्र! ( आश्चर्य व गर्व के मिले-जुले भाव के साथ) कैसा महान व्यक्तित्व रहा होगा इनका। कैसे इन्होंने पतन की निचली गहराइयों से उठकर उत्थान की गगनचुंबी ऊंचाइयों को छुआ होगा। ( विभु पुस्तक के पाठ को देखने लगता है) ऐसे व्यक्ति का जीवन चरित्र कितना लोमहर्षक और प्रेरणादायी हो सकता है, नहीं–नहीं यह कल्पना का विषय नहीं है, बल्कि निखुट सत्य है। हां, निखुट सत्य।
( तभी पर्दे के पीछे से घण्टी की ध्वनि आती है। दोनों एक क्षण पीछे मुड़कर देखते हैं।)
विभु : तुम सही कहते हो कृपाल। परन्तु यह घण्टी......
कृपाल : (बीच में ही) घण्टी, यह घण्टी भी न...... विभु इस पुस्तक में लिखित लेख से मेरे मन की जिज्ञासाएं शान्त नहीं हुई है। मुझे इनके बारे में और जानना है, कितना रोमांच भरा जीवन रहा होगा इनका!
विभु : (पुंछते हुए) परन्तु मित्र जानें कैसे? इसमें तो इतना ही लेख है। (कुछ विचारकर) हां हम कल सुबह गुरुजी से जानेंगे। (नींद में अंगड़ाई लेते हुए) अभी तो सो जाते है मुझे बहुत नींद आ रही है और फिर देर से सोने पर सुबह आंख भी तो नहीं खुलती।
कृपाल : हां, सो जाते है। कल सुबह गुरुजी से ही पूछेंगे।
दोनों धरती पर ही अपना–अपना बिस्तर लगाकर सो जाते हैं। परंतु कृपाल को नींद नहीं आती, वह अभी भी इसी विषय में सोच रहा है और अपने मन में उठने वाले विचारों को बड़–बड़ा रहा है। इसी तरह सोचते–सोचते वह सो जाता है। कुछ समय बाद एक वृद्ध संन्यासी हाथ में एक दण्ड लिए प्रवेश करते है और आकर कृपाल को दण्ड से उठाते है। कृपाल हड़बड़ा कर उठता है तथा उनके चरण स्पर्श करके प्रणाम करता है।
कृपाल : हे श्रेष्ठवर आप कौन?
वृद्ध संन्यासी : जिसे तुम ढूंढ रहे हो, मैं वही हूं। मैं ही तो हूं, जो तुम्हारी सारी जिज्ञासाएं शान्त कर सकता है।
कृपाल : (प्रसन्नता से) अच्छा! तो आप......
वृद्ध संन्यासी : हां मैं! (मुस्कुराते हुए) तो तुम जानना चाहते हो कैसे मैं पशु समान प्राणी से मनुष्य बन पाया।
कृपाल : जी (विनम्रता से हाथ जोड़कर)
वृद्ध संन्यासी : (चलते हुए) तो आओ चलो ले चलूं मैं तुम्हें अपनी दुनिया में, जीवन का अपने, सारा सार आओ दिखाऊं तुम्हें अपनी दुनिया में।
( कृपाल भी पीछे-पीछे चल देता है। तभी बीच में विभु की स्मृति आती है तो रुककर.......)
कृपाल : गुरुदेव! यदि आप कहो तो मैं विभु को भी साथ ले चलूं। वह भी आपके विषय में जानने को बहुत उत्साहित है।
( गुरुदेव मुस्कुराते हैं, और कृपाल उनकी हां को समझ कर विभु को उठाता है।)
कृपाल : विभु, ओ विभु उठ। देख तो कौन आया है। ( विभु आँख मलते हुए उठता है।)
विभु : कौन है? इतनी देर रात कौन आ गया तुम्हारे पास सो जाओ चुपचाप। (तभी अचानक दृष्टि गुरुदेव पर पड़ती है, चौंककर प्रणाम करता है और चरण स्पर्श करता है परन्तु चुपचाप, कृपाल के पास आकर उसके कान में फुसफुसाता है।)
विभु : कौन है यह वृद्ध संन्यासी मित्र?
कृपाल : (प्रसन्नता से) अरे वही तो है जिनके बारे में हम जानना चाहते थे। आओ चलो तुम भी हमारे साथ( हाथ पकड़कर खींचते हुए।)
विभु : अरे रुको तो , यह तो बताओ जा कहां रहे हो?
कृपाल : (मित्रता के अधिकार से हाथ पकड़कर चल देता। है) चुपचाप चलो मेरे साथ......
विभु : अरे परन्तु यह बिस्तर.......
कृपाल : धत्त तेरे की । इन्हें तो भूल ही गए चलो अब शीघ्रता से उठाकर रखते हैं इन्हें। (दोनों अपने-अपने बिस्तर उठाकर एक कोने में रख देते हैं।)
कृपाल : (गुरुजी से) चलो गुरुदेव! अब ले चलो अपने रोमांच भरे संसार में।
(तीनों वहां से दाईं ओर निकल जाते है।) उनके निकल जाने के अगले ही क्षण एक बच्चा बाईं ओर से खेलता–कूदता मंच पर आता है। (ध्वनि) कुछ समय बाद पर्दे के पीछे से गुरुजी के शब्द सुनाई देते हैं। बच्चा अभी भी खेल रहा है।
वृद्ध संन्यासी/गुरुजी : कृपाल यह जो बच्चा खेल रहा है कोई और नहीं मैं ही हूं। मेरा जन्म फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी विक्रम संवत 1913 तदनुसार 22 फरवरी 1856 ई के दिन पंजाब के जालंधर जिले के तलवण(तलवन) कस्बे में हुआ। पंडितों ने जब मेरी कुंडली देखी तो उन्हें न जाने ऐसा उसमें क्या दिखा उन्होंने मेरा नाम बृहस्पति रख दिया। परंतु परिवार में, मैं मुंशीराम के नाम से जाना गया।
ज्ञानचन्द जी : (बाहर से पुकारते हुए आ रहे है।) मुंशी अरे ओ मुंशी कहां गए तुम? ( बाईं ओर से आते है।) बेटा तुम अभी तक यहीं खेल रहे हो देखो यह पुस्तक तथा वह बालक मुंशीराम को कुछ पढ़ाने और समझाने लगते हैं। (परंतु अब यह दृश्य मूक चल रहा है और परदे के पीछे से वृद्ध संन्यासी बोल रहे है।)
वृद्ध संन्यासी : श्री नानकचंद जी, मेरे पिताजी। मैं इनकी अंतिम संतान हूं। मेरे तीन भाई व दो बहनें और है। मेरे पिताजी इतने बड़े रामभक्त है कि मेरे नाम के साथ भी इन्होंने राम जोड़ दिया क्योंकि मैं सबसे छोटा था इसलिए सबमें लाडला था। (तभी एक स्त्री सारे घर को गंगाजल से शुद्ध करती हुई दाईं ओर से मंच पर आती है) और यह है मेरी मां घर की स्वामिनी। ईश्वर की पक्की और सच्ची भक्त परंतु पहले अपने धर्मपति की सच्ची व पक्की भक्त। वैसे तो मुझे सभी ओर से प्रेम व स्नेह मिला परंतु जब भी कभी मेरी गलती पर पिताजी या दादाजी से मुझे डांट पड़ती तो यही तो है जो मुझे हर बार बचा लेती थी और अपने आँचल में बैठाकर सारे विश्व की ममता समेटकर, मुझ पर लुटा देती थी। मैं कुछ देर तक रोता और फिर कब मां की गोद में ही सो जाता पता ही नहीं चलता था। परन्तु उस समय रोने तथा फिर मां की गोद में ही सो जाने से जो आनन्द प्राप्त होता वह बड़े से बड़े शुभ कार्य के सम्पन्न हो जाने पर भी कभी प्राप्त नहीं हो सका। ( माताजी सारे घर को शुद्ध करती हुई तथा मुंशीराम को आशीर्वाद देकर अन्दर की ओर(बाईं ओर) चली जाती है। (पर्दे के पीछे की ध्वनि बन्द हो जाती है।)
नानकचन्द जी : आज के तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर मैं दे चुका अब और एक भी प्रश्न मत करना।
मुंशीराम : जी पिताजी, परन्तु......
नानकचन्द जी : ऊं......हूं! यह तुम्हारा परंतु भी न, कुछ नहीं परंतु चलो तुम्हारी मां ने देखो नाश्ता तैयार कर दिया है कि नहीं अब तुम्हारे परंतु को बाद में देखेंगे।
( बालक मुंशीराम मुस्कुराता हुआ भाग जाता है। पीछे-पीछे नानकचन्द जी भी उस पुस्तक को पास में रखी मेज पर रखकर घर के अंदर चले जाते हैं।)
. भाग–१ समाप्त
यह नाटक दो भागों में आएगा। इसका दूसरा भाग भी जल्द ही आ जायेगा। आशा करता हूं पाठकगण दोनों ही भागों को अवश्य पढ़ेंगे तथा यथायोग्य प्यार व आशीर्वाद भी अवश्य देंगे।
धन्यवाद🙂🙏
Rosha