द्वारावती - 13 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 13


13

गुल द्वारिकाधीश के मंदिर को देखकर मन ही मन ईश्वर से क्षमा माँगने लगी। अनेक मंत्रों का उच्चार करने लगी। समय व्यतीत होता गया। सूर्योदय होने लगा।
“गुल, तुम कब से इस प्रकार खड़ी हो। क्या तुम्हें आपने नित्यक्रम को नहीं करना है? कुछ ही समय में प्रवासी आने लगेंगे। तुम्हें उसे भी तो...।” उत्सव के शब्दों ने गुल का ध्यान भंग कर दिया। वह उत्सव की तरफ़ मूडी।
“गुल, यह सब क्या है? तुम किसी दुविधा में हो?”
“उत्सव, आज प्रवासियों को तुम ….।”
“मैं? मैं क्या बताऊँगा प्रवासियों को? मैं तो स्वयं ही एक प्रवासी ही हूँ।”
“ठीक है, तुम रहने दो।” गुल कक्ष के भीतर चली गई। उत्सव गुल की दुविधा को समझने की विफल चेष्टा करता रहा।
गुल ने नित्यकर्म किए, प्रवासियों का मर्गदर्शन किया, भोजन बनाया, महादेवजी की आरती की तथा प्रसाद लगाया। घर लौट आयी। इन समग्र क्रियायें होती गई किंतु गुल ऊनमे से किसी भी में नहीं थी। यंत्रवत होती रही यह सब क्रियायें।
उत्सव पुन: समुद्र के तट पर चला गया। समुद्र को देखता रहा। भोजन आया तो भोजन कर लिया।
“समुद्र में ऐसा क्या है कि तुम रात्रि भर उसे निहारते रहे।”
“समुद्र में क्या नहीं है?”
“मुझे ज्ञात है कि समुद्र अपने भीतर समग्र संसार को समाकर रखता है। किंतु तुम्हें किस बात ने आकर्षित किया है, उत्सव?”
“रात्रि की बात तथा अभी की बात दोनों भिन्न है।”
“वह कैसे? समुद्र एक ही है, तट भी एक ही है। तो तुम्हें क्या भिन्नता दिखाई दी?”
“भिन्नता कभी किसी वस्तु में नहीं होती।”
“तो क्या भिन्नता समय के भिन्न भिन्न टुकड़ों के करण होती है?”
“समय भी तो निरपेक्ष होता है।”
“तो भिन्नता कहाँ है? कैसे है?”
“भिन्नता हमारे भीतर होती है। प्रत्येक वस्तु तथा समय का प्रत्येक क्षण अपने स्थान पर स्थिर रहता है। निर्लेप रहता है, निरपेक्ष रहता है। पूर्ण रूप से तटस्थ रहता है। वह मनुष्यों के मन की भाँति किसी विचार अथवा विकार से ग्रस्त नहीं होते।”
“तो क्या मनुष्यों के विचार एवं वर्तन उसे प्रभावित करते हैं?”
“यह सत्य भी है, मिथ्या भी है।”
“यह कैसे सम्भव होगा? कोई एक बात सत्य हो सकती है अथवा मिथ्या हो सकती है? दोनों कैसे हो सकती है?”
“प्रकृति तथा उनके तत्वों के विषय में यही तो रोचक तथ्य है।”
“यह तुम मुझे विस्तार से समझाओ।”
“आज नहीं, फिर कभी। आज तो मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दे दूँ।”
“तो बताओ कि रात्रि भर समुद्र को …।” गुल अधीर थी।
उत्सव उठा, घर के समीप अनंतकाल से स्थिर खड़ी शिला पर बैठ गया। गुल भी उसके पीछे शिला के समीप आकर खड़ी हो गई।
उत्सव समुद्र को निहारने लगा, गुल भी। दोनों मौन थे। पवन जो मंद मंद बह रहा था वह भी स्थिर हो गया। केवल समुद्र की तरंगें अस्थिर थी, ध्वनि का सर्जन कर रही थी। दोनों उसे देखते रहे , सुनते रहे।
क्षणों की एक नदी बह गई। मौन से व्याकुल गुल ने कहा, “उत्सव, इस प्रकार कब तक बैठना होगा? कब मेरे प्रश्नों का उत्तर दोगे?”
उत्सव किसी समाधि से जगा, “यही तो उत्तर था।”
“उत्सव, तुम्हारे मौन की भाषा मेरी समज से परे है। ऐसे उत्तर का क्या करूँ?”
“जिस समय हम किसी के मौन की भाषा समझने लगेंगे उस समय हमें शब्दों की आवश्यकता नहीं रहेगी, तब ना कोई प्रश्न होगा ना कोई उत्तर।”
“वह अवस्था जब प्राप्त कर लेंगे तब की बात तब। अभी मुझे शब्दों से ही उत्तर दो।”
“ठीक है।” उत्सव शिला से उठा, “तुम इस शिला पर बैठ जाओ।”
गुल बैठ गई। उत्सव के प्रति प्रश्नार्थ भाव से देखने लगी।
“यहाँ समुद्र है, तट है, रेत है, दूर शिव का मंदिर है, समुद्र के भीतर दूर सुदूर नौकाएँ है, अन्य वस्तुयें भी है। तुम किसे देखना चाहोगी?”
गुल ने समग्र तट पर दृष्टि डाली।
‘किसे देखूँ? प्रत्येक वस्तु मुझे आकर्षित कर रही है। समुद्र, तरंगे, तट, मंदिर….. सब कुछ।’
“मुझे तो सब कुछ देखना है।” गुल के मुख पर स्मित था, वही परिचित स्मित।
“यदि प्रश्न एक को ही चुनने का हो तो किसे पसंद करोगी?”
गुल कुछ समय विचार में रही, निश्चय कर बोली, “मैं मंदिर की धजा को देखना चाहूँगी।”
गुल धजा को देखने लगी। ।
“गुल, उस धजा को देख रही हो?”
“हां।”
“वह धजा कैसी है?”
“भगवान शिव के मंदिर की धजा श्वेत है, छोटी है। समुद्र से लगभग अस्सी फ़ीट ऊपर। मंद मंद पवन से तरंगित है। उन तरंगों में एक लय है।”
“धजा के उपरांत क्या दिख रहा है?”
“धजा का दंड, धजा के आसपास उड़ते पंखी। पीछे खुला, स्वच्छ गगन। दो तीन पंखी धजा के दंड पर बैठे हुए हैं। धजा के श्वेत रंग के भीतर लाल रंग से अंकित सूर्य का प्रतीक है।” गुल रुक गई, उत्सव को देखने लगी। गुल की दृष्टि में गर्व था, प्रश्न भी। उत्सव उससे प्रभावित नहीं हुआ।
“मैंने उचित दृष्टि से सब कुछ देखा ना, उत्सव?”
उत्सव हंस पड़ा, “नहीं।”
इस नहीं को सुनकर गुल का गर्व टूट गया, “नहीं?”
“हां नहीं। तुमने जो देखना था वह नहीं देखा।”
“सब कुछ तो देखा, अब क्या छूट गया?”
“कुछ भी तो नहीं छूट गया।”
“तो? स्पष्ट कहो जो कहना हो।”
“चलो, पुन: धजा को देखो। उन सभी को भी को भी देखो जो धजा के साथ दृष्टि गोचर हो रहा है।”
गुल ने धजा के साथ अन्य वस्तुओं को भी देखा।
“तुम जो जो देखो उसका नाम बोलते जाओ, एक एक कर।”
“ठीक है। सर्व प्रथम धजा के पीछे मुक्त गगन। कुछ क्षण पहले वह निरभ्र था।”
“अभी वह कैसा है?”
“थोड़े से बादल है जो श्वेत है।”
“उस बादल को देखना छोड दो। केवल गगन को देखो।”
“ठीक है।”
“अब गगन को छोड़ दो।” उत्सव कहता रहा, गुल उसकी सूचना को मानती रही।
“अब उन पंखियों को देखो जो उड़ रहे हैं। उसे दृष्टि से दूर करो। अब दंड पर बैठे पंखियों को भूल जाओ। अब धजा में उठते तरंगों को भूल जाओ। पवन को भूल जाओ, सूर्य को भूल जाओ।अब जो दिख रहा है वह क्या है?”
“धजा, केवल धजा।”
“उसे निहारते रहो। अनिमेष निहारो।”
गुल ने वही किया। कुछ क्षण तो वह उसे निहारती रही, केवल निहारती रही। अन्य कोई उपक्रम नहीं किया। किंतु धीरे धीरे मन विकेंद्रित होने लगा। मन में अनेक विचार आने लगे। दृष्टि तो धजा पर थी किंतु मन कहीं अन्यत्र था।
“गुल, तुम अपने केंद्र से विचलित हो गई हो।”
“मुझे भी यही प्रतीत होता है।”
“किंतु तुम्हें अपना ध्यान धजा से हटाना नहीं है। सम्भव हो तो विचारों को छोड़ो।” उत्सव ने कहा।
गुल प्रयास करती रही, विफल होती रही।
“अनेक प्रयासों के उपरांत भी मैं अपने विचारों को रोक नहीं सकती, छोड़ नहीं सकती। मेरी दृष्टि तो धजा पर होती है किंतु ध्यान नहीं।” गुल ने धजा से हटाकर उत्सव पर दृष्टि डाली।
उत्सव उसी धजा को देख रहा था। उसके मुख पर कोई भाव नहीं थे। वह स्थिर था।
ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गया। गुल देखती रही धजा, गगन, पवन, मंदिर, पंखी, समुद्र, कन्दरा तथा उत्सव को। वह अभी भी स्थिर था। जैसे वह किसी समाधि में हो।
गुल धैर्य खो बैठी, चंचल हो गई। इधर उधर चलने लगी। वह कुछ करना चाहती थी किंतु उसे ज्ञात नहीं था कि वह क्या चाहती है? वह घूमती रही। अनिर्णायकता में उसने एक पथ्थर उठाया और पूर्ण शक्ति से समुद्र के स्थिर शांत जल में फेंक दिया। जल में कुछ वलय उत्पन्न हुए, व्याप्त हुए और शांत हो गए।
गुल की इन सभी क्रियाओं का उत्सव पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। वह अभी भी समाधिस्थ था।
अंतत: गुल ने उत्सव की समाधि को भंग किया।
“उत्सव तुम कहाँ हो? ऐसे देखते देखते कहीं किसी अन्य विश्व में तो नहीं चले गए? यह सब क्या है?”
उत्सव ने स्मित दिया, “गुल, किसी भी वस्तु अथवा व्यक्ति को देखने की भी एक कला होती है। किसी को भी तुम जब देखो तब केवल देखो। कुछ ना सोचो। किसी भी विषय पर विचार मत करो। उस व्यक्ति अथवा वस्तु का भी विचार ना करो जिसे तुम देख रही हो। केवल देखना है।”
“किंतु यह कैसे सम्भव होता है? मुझसे तो नहीं बन सका।” गुल के मुख पर प्रश्न तथा विस्मय के मिश्रित भाव थे।
“आप के कारण ही तो यह सम्भव हो सका, गुरु हैं आप मेरे।” उत्सव ने गुल को हाथ जोड़ वंदन किया।
“मैं? तुम मेरा उपहास तो नहीं कर रहे? तुम्हारे इन शब्दों में मुझे व्यंग का अनुभव हो रहा है।”
“नहीं गुरु जी, इसमें कोई व्यंग नहीं है। यह नितांत सत्य है।”
“हे शिष्य, क्या आप एक अनुग्रह करेंगे? मेरे ही दिए हुए ज्ञान से मेरा परिचय करवाएँगे?”
गुल ने भी उत्सव को हाथ जोड़ दिए। उत्सव हंस पड़ा, गुल चाहते हुए भी ना हंस सकी।
“गुल, तुमने कल ही तो मुझे एक मार्ग दिखाया था। तुमने ही कहा था ना कि मुझे अब तक सीखी समझी सभी बातों को, सभी ज्ञान को त्यागना होगा। भीतर से मुझे रिक्त होना होगा। तभी मैं मेरे उद्देश्य को प्राप्त कर सकूँगा। मैंने वही किया। सब कुछ त्याग दिया। भीतर से पूर्णत: रिक्त हो गया। जो भीतर से रिक्त होता है उसे कोई भी विचार, केंद्र बिंदु से भटका नहीं सकता। तुम भी यह कर सकती हो। क्या तुम भीतर से रिक्त हो?”
“अर्थात् मेरे भीतर भी बहोत कुछ पड़ा है जिसे मुझे त्यागना होगा? मुझे भी रिक्त होना होगा? कदाचित मैं भी भीतर से रिक्त नहीं हूँ।”
“तो हो जाओ रिक्त। किसकी है प्रतीक्षा तुम्हें?”
“प्रतीक्षा तो तब करती जब मुझे ज्ञात होता कि मैं रिक्त नहीं हूँ। किंतु अब तक मुझे यह ज्ञात ही नहीं था कि मेरे भीतर इतना कुछ भरा है जो व्यर्थ है। मुझे उस बात का संज्ञान अभी अभी तो हुआ है। मैं भी रिक्त हो जाऊँगी, इसी क्षण।”
“यही उचित होगा। आप अपने मार्ग पर चलें, मैं तुमसे पृथक हो जाता हूँ।”
“नहीं उत्सव, तुम यहाँ रहो। मेरे समीप रहो। रिक्त होने में मेरी सहायता करो।” गुल के शब्दों में अनुनय था। किसी शिष्य सी याचना थी। उत्सव ने स्मित दिया, तट की रेत पर बैठ गया। समुद्र को निहारने लगा।
गुल ने स्वयं को संकोरा और भीतर देखने का प्रयास करने लगी।
‘कितना कुछ भरा है मेरे भीतर! यह सब कब और कैसे मेरे सम्मुख आ गया, कब मैंने इसे स्वीकार कर लिया? कब उसने मेरे भीतर स्थान ग्रहण कर लिया? मैंने तो कभी इसे ग्रहण करने का प्रयास नहीं किया था।’
‘ऐसी बातों को ग्रहण करने के लिए प्रयास कोई नहीं करता। मनुष्य का मन उसे ज्ञात अज्ञात मन से पकड़ लेता है, वह भीतर जाकर बैठ जाता है। चुप चाप, कुछ नहीं बोलता, कुछ नहीं कहता। युगों तक मौन धारण किए भीतर ही रहता है। हम अपने ज्ञात मन से उसके अस्तित्व को विस्मृत कर देते है। किंतु वह हमारे भीतर से जाता नहीं।’
‘वह तो जब हम व्यतीत समय की एक एक परत को खोलने का प्रयास करते हैं तब ध्यान आता है कि कितनी सारी अनावश्यक बातों को, विचारों को हमने संग्रहित करके रखा है। मुझे उन सब से मुक्ति पानी होगी।’
गुल निश्चय कर चुकी। भीतर से एक एक कर सभी व्यर्थ बातों को ख़ाली करने लगी। अधिकांश बातें ख़ाली हो गई। उसे वजन हीनता का अनुभव होने लगा। वह प्रसन्न होती हुई उत्सव के समीप गई।
“मैं भीतर से अधिकांश रिक्त हो गई हूँ। मुझे आनंद का अनुभव हो रहा है। मन करता है मैं गाऊँ, मैं नाचूँ।”
गुल तट पर दौड़ गई। दूर जाकर गीत गाने लगी। गाते गाते नाचने लगी। समग्र वातावरण उसके साथ गीत गाने लगा, उसके साथ नृत्य करने लगा।
पवन, समुद्र, रेत, दिशा, समय का क्षण। सब नृत्य कर रहे थे। समुद्र की तरंगे तथा गुल के नृत्य कर रहे पग एक ताल तथा लय में तरंगित थे। समग्र स्थिति संगीतमय थी, नृत्यमय थी। आनंद ही आनंद व्याप्त था सभी दिशाओं में। गुल उसमें डूब गई थी, उत्सव स्थितप्रज्ञ सा था।