मैं, मेरा सपना और फिर वो
(शॉर्ट स्टोरी - घर का छोटा बेटा उपन्यास से।)
लेखक - एन आर ओमप्रकाश अथक।
एक बार एक लड़का होता है। बहुत सीधा सादा, सरल सहभाव, और सुलझा हुआ। अपने सपनो के प्रति ईमानदार, दृढ़ संकल्पित, अनुशासित और समर्पित। घर से दूर एक अनजान शहर में अपने सपनों को पूरा करने आता है। जहां उसका कोई अपना नहीं था। और अपनों की याद मिटाने के पुर्णजोर कोशिश करके कुछ महीनों में शहर में समायोजित हो जाता है। एक 10×10 के काले रंग की चार दिवारी में कैद होकर अपने आप को भविष्य की गर्भ में विकसित करने के प्रयास करता हैं जिससे वो एक नए जन्म से समाज में पहचान बना सके। उस अनजान शहर में उसकी तन्हाई, अकेलापन और कुछ किताबों के अलावा कोई संगी साथी नहीं था। अपने सारे दुख सुख अपने साथ बांटना है। चलता जा रहा था। उसको खबर तक नहीं की आखरी बार वो कब सही से सोया है, कब खुश से हंसा होगा। वो इतना अपने आप में खो गया की बाहर की दुनिया की कोई खबर नहीं रही। फिर एक समय आता है और पूरी दुनिया में एक हाहाकार मचता है और विभिन्न देशों की सरकारें अपने सभी नागरिकों को अपने ही घरों में कैद करने की जद्दोजहद करती है मगर लोगो को अपने घरों में कैद होकर रहना बहुत मुश्किल काम लगता है। देश विदेश में ऐसा लोक डाउन लगता है की अपने घरों में परिवार जनों के साथ भी रहते हुऐ तनावग्रस्त हो गए थे। तब उसे बाहर की दुनिया का भी आभास होता है। जो दुनियां लोक डाउन में रहना सीख रही थी उसे एक वर्ष हो गया था ऐसे लॉक डाउन में रहते हुए। उसके लिए ऐसा लोक डाउन सामान्य बात थी।
मगर लॉक डाउन के दौरान उसकी बी एड हो जाती है। अंतिम वर्ष में 4 महीने की इंटरशिप मिलती है। उसके लिए अब बाहर की दुनिया देखने का सही समय आया था जब उसे नहीं चाहते हुए भी घर से बाहर जाना पड़ा।
इंटरशीप के दौरान उसकी बहुत से नए लोगो से मुलाकात होती है। लेकिन एक मुलाकात ऐसे शक्स से होती है जिसकी मुलाकात का अंत कैसा होगा उससे वो बेखबर था।
एक सुबह ऐसी आती है जब उसकी मुलाकात स्कूल में उससे 1 साल बड़ी लड़की से होती है जो उसी स्कूल में इंटरशिप करने आती है जिसे एक नजर देखकर वो आगे बढ़ जाता है। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। एक दो दिन गुजर जाने के बाद वो लड़की कोई मदद मांगने के उद्देश्य से उसके पास चलाकर आती है। और अपने सहभाव से मजबूर वो उसकी मदद करने को तैयार हो जाता है। और इस प्रकार कुछ ही दिनों में उन दोनो के मध्य एक अच्छी मित्रता हो जाती है। मगर यह मित्रता कहा तक चलेगी दोनो को पता नहीं था।
लड़का उस जिंदादिल लड़की के साथ रहते हुए जिंदगी जीने लगा था। गांव से आने के बाद शहर की हवा अब उसे। लगने लगी थी। शहर की लजीज और विभिन्न तरह के खानपीन का स्वाद वो उस लड़की की बदौलत पहली बार चखता है।
जिसे ढंग से कपड़े पहनने का ज्ञान नहीं था जो सिर्फ दो ड्रेस में पूरे 3 साल निकाल लेता है। वो नए कपड़े खरीदता है। बड़ी दुकानों से सॉपिंग करता है।
गांव वाले से शहर वाला लड़का बन जाता है।
खुले शब्दों में बोलूं तो लड़की ने उसे जीना सीखा दिया।
लड़के ने उस लड़की से उम्मीदें लगा ली की ये मेरी सच्ची मित्र है कहीं न कहीं ये मुझे समझती है। कोई साथ दे ना दे ये मेरे हर परेशानी में साथ देगी। लेकिन उम्मीदें सदा टूटी है। एक दिन ऐसा आता है की उस लड़के की सारी उम्मीदें सारे सपने टूट जाते है। वो नहीं खुलकर रो पाता हैं और नहीं खुलकर हंस पाता हैं। सब घर वाले उसकी हालत देखकर परेशान हो जाते हैं लेकिन उसकी परेशानी का पता नही लगा पाते है। और वो दिनों दिन मौत के मूंह में चला जाता है।
कहते है
चिंता ऐसी डाकनी काट कलेजा खाय वैद्य बैचारा क्या करें कब तक दवा लगाय।
घर वाले उसकी परेशानी का पता नहीं लगा पाते है
और वो खुलकर किसी को बता नहीं पाता है।
और वो लड़की उसे समझ नहीं पाती है।
एक हंसते खेलते लड़के की जिंदगी खत्म होती जाती है।
मौत से बदतर होता है जीते जी मरना।
काश लड़कियां समझ पाती की लड़के भी अपने घर के सहजादे होते है। लडको के पास भी दिल होता है। उन्हें भी दर्द होता है।
उनके दिलों के साथ नहीं खेलना चाहिए।
किसी ने क्या खूब कहा है की
जिस दिन एक बेटे की मां बनोगी...
उस दिन लड़के खिलोने नहीं...,
सोना लगेगे...
©️ nromptakash_athak।
नोट: यह कहानी घर का छोटा बेटा उपन्यास का अंश है।