प्रेम गली अति साँकरी - 154 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 154

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वही तो मुश्किल था कि उत्पल नहीं था, उसके बिना उसके चैंबर में जाना यानि खुद को ही खोजने लगना | दिव्य के साथ जाना जरूरी था| मैं उसके साथ गई और उसे वहाँ काम करने वाले लड़कों से मिलवा दिया| उत्पल के साथ जो काम करता था, वह पहले से ही उससे परिचित था, दूसरे से भी मुलाकात हो गई| पूरी टीम तो तभी होती थी जब उत्पल को अधिक काम होता और वह सबको बुला लेता| 

“कैसा सूना-सूना लगता है न दीदी उत्पल दादा के बिना---” चैंबर में घुसते ही उसने कहा| 

मैं तुझे क्या बताती बच्चे कि मेरे दिल में कैसी आँधियाँ चलती थीं इस ‘उत्पल’ नाम से जिसे मैंने खुद ही खो दिया था| अपना किया खुद ही तो भरना पड़ता है| वही कर रही थी और मेरे हाथ में था भी क्या?

“आप बैठेंगी न दीदी, मैं स्टूडियो से वीडियोज़ लेकर आता हूँ---”

अम्मा कितनी सतर्क और सावधान रहती थीं छोटी-छोटी बातों में| उन्होंने इतने वीडियोज़ बनवाकर फ़ाइनल करवाकर रखवाए हुए थे कि कभी कोई वीडियो रिपीट न हो| स्टूडियो के डार्क-रूम वाला कमरा कैसा बड़ा था और उसमें व्यवस्थित अलमारियों में वीडियोज़ लगे रहते| सबके ऊपर नामों की व्यवस्थित चिटें चिपकाई जातीं फिर प्लास्टिक कवर जिसमें से वीडियो का नाम दिखाई दे जाता| काम आसान भी हो जाता, व्यवस्थित तो था ही| 

मैं उत्पल की रिवॉलविंग चेयर पर बैठकर उसके चैंबर का जायज़ा ही ले सकती थी, वो भी क्या भला, उसके साथ पीछे घूमकर मीलों लंबी यात्रा पर निकल पड़ी थी| उत्पल को महसूसते मैंने न जाने कितना लंबा समय गुज़ारा था| वह मेरे साथ होता या न होता, उसका आभास तो पल-छिन बना ही रहता न| ऐसे जैसे आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मन में मयूर नाचने लगते हैं फिर चाहे कुछ देर बाद ही वह आवाज़ बंद हो जाए और अचानक फिर से भीषण गर्मी का अहसास हो लेकिन वह क्षण भर की गड़गड़ाहट एक बारिश की सौंधी खुशबू पूरे तन-मन को भिगोने का अहसास दे जाती है| 

उत्पल की कुर्सी पर बैठकर पल भर को लगा उसकी बाहें मुझे पीछे से घेरकर कुछ कह रही हैं और कुर्सी के पिछले भाग से टिकी मेरी गर्दन अचानक मुड़ ही तो गईं, आँखें जो बंद हो गईं थीं अचानक खुल गई | तब बड़ी शिद्दत से यह भी अहसास हुआ कि मेरी आँखें बंद थीं और शायद उस कुर्सी पर बैठकर मैं दिवा-स्वप्न देखने लगी थी| क्या तो मुझे रात में भी स्वप्न नहीं आते थे क्या उसकी यादों ने मुझे दिवा-स्वप्न भी देखने सिखा दिए थे| 

क्या और कैसे मैं भूलूँ उस उत्पल को जो नहीं है फिर भी मेरे सामने ही बना रहता है| पापा, भैया तो अब भी उसे ढूँढने की बात करते| दरसल, वह वहाँ मेरा ही नहीं सबको प्यारा था और मैं यह भी अच्छी तरह जानती और समझती थी कि पापा, भाई यदि चाहते तो कैसे न कैसे ही उस तक पहुँच जाते लेकिन उनकी इच्छा थी कि मैं स्वयं उसको पुकारूँ, उसको मैंने इतने कठोर प्रहार दिए हैं, उनके लिए खुद समझूँ और एक गंभीर संबंध की ओर स्वयं बढ़ूँ लेकिन वही ढाक के तीन पात !सब कुछ सोचती, एक कल्पना करती, एक उजाला सा आँखों में भरती लेकिन फिर अटक जाती| 

मेरा प्रेम शरीर तक नहीं था, मैं यदि उसे पाना चाहती थी तो अंतरात्मा तक, वह बात अलग थी कि मैं नहीं जानती थी, नहीं समझ पाई थी कि जीवन-सागर की कितनी लंबाई, गहराई है?

तेरे न होने से जीवन मृग-मरीचिका सा लगा है, न जाने कितनी बार सोच है कि इस जीवन को जीने का औचित्य क्या है लेकिन यह भी तो उतना ही सत्य है कि हमें अपने कर्मों की सुनिश्चित पंक्ति में बंधकर ही चलना होता है| सब कुछ तो सुनिश्चित है हमारे लिए फिर?बारम्बार वही प्रश्न जिनके उत्तर हमारे पास नहीं होते| 

लगता था दिव्य को अभी देर है, मैंने सोचा| आज ‘मोह भंग’के लिए तैयार किए गए खंबों पर लगाने वाले ‘मोह-भंग’का लोगो लेकर मि.कामले आने वाले थे| मैं तो भूल ही गई थी कि उनका फ़ोन बज उठा और मुझे वहाँ से खिसकने का मौका मिल गया| अपने ऊपर इतने कंट्रोल के बावज़ूद भी मैं उत्पल की अनुपस्थिति ओर विश्वास नहीं कर पा रही थी| 

“दिव्य---”मैंने आवाज़ लगाई| 

“जी, दीदी---” वह हाथ का काम छोड़कर जल्दी से आया| 

“मि.कामले आने वाले हैं, कुछ डिस्कस करने, तुम्हें तो अभी देर लगेगी न?”

“आप चलिए, कुछ फ़ाइनल करके मैं आपको बताता हूँ। टाइम मिले तो प्लीज़ देख लीजिएगा| ”वह फिर से अंदर चला गया| 

मैंने महसूस किया, मैं उत्पल की चीज़ों को ऐसे सहला रही थी जैसे किसी बालक के कोमल गाल!अचानक चौंककर मैं कुर्सी से उठ खड़ी हुई और और तेज़ कदमों से अपने चैंबर की ओर चल दी जहाँ मि.कामले अपने बेटे के साथ थे| 

“सॉरी मि.कामले!”मैंने कहा| 

“कोई बात नहीं, अभी पाँच मिनट ही हुए हैं मैम---”उन्होंने कहा और मुझसे उस स्थान पर चलने का आग्रह किया जहाँ उनकी टीम सारा आवश्यक सामान लेकर खड़ी थी|