अमावस्या में खिला चाँद - 3 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अमावस्या में खिला चाँद - 3

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       रात को अपने रूटीन के अनुसार जब मानसी कमरे पर पहुँची तो शीतल बेड पर अधलेटी किताब पढ़ने में मग्न थी। मानसी ने कपड़े चेंज किए और बहादुर से खाना मँगवाया। खाना खाने के बाद उसने पूछा - ‘शीतल, लंच के समय बहादुर बता रहा था कि तुमने दो लोगों के लिए लंच के लिए उसे कहा था। किसी ने आना था क्या?’

         मानसी शीतल से दस-बारह वर्ष छोटी होने के बावजूद शीतल का नाम लेकर ही बुलाती थी। इन्हें इकट्ठा रहते हुए साल से ऊपर हो गया था। शुरू में मानसी उसे दीदी कहकर बुलाती थी, किन्तु शीतल के आग्रह पर ही उसने नाम लेना शुरू किया था। इसलिए उनके बीच औपचारिकता नहीं रही थी। शीतल ने बिना किसी हिचकिचाहट के उत्तर दिया - ‘मेरा एक मित्र आया था।’

        ‘हम लगभग एक साल से इकट्ठी रह रही हैं। पहले तो तुम्हें कभी कोई मिलने नहीं आया। कोई नया दोस्त बनाया है क्या?’

       ‘नहीं मानसी, नया नहीं, पुराना मित्र ही मिलने आया था। प्रवीर, मेरा मित्र और मैं यूनिवर्सिटी में इकट्ठे पढ़ते थे। पिछले शनिवार प्रवीर अपनी फ़ैमिली के साथ होटल में खाना खाने आया था, वहीं यूनिवर्सिटी के बाद पहली बार उससे मुलाक़ात हुई थी। मैंने ही उसे घर पर बुलाया था।’

      हँसी-ठिठोली करने के अन्दाज़ में मानसी ने कहा - ‘फिर तो पुरानी यादों की, रसीली मुलाक़ातों की बहुत-सी बातें हुई होंगी?’

        शीतल मन-ही-मन सोचने लगी, इसको कैसे बताऊँ कि पुरानी यादों की नहीं, सदा चुभते रहने वाले ज़ख़्मों की बातें करके मन हल्का किया है। लेकिन, उसने यहाँ औपचारिक रवैया अपनाते हुए इस विषय को गोलमोल ढंग से समाप्त करना चाहा, किन्तु मानसी ने चुहलबाजी जारी रखते हुए कहा - ‘कहीं ऐसा तो नहीं शीतल कि प्रवीर ने सोचा हो कि तुम अकेली हो, इसलिए स्वयं विवाहित होते हुए भी उसे पुरानी मित्रता याद आ गई हो! ये पुरुष ऐसे ही होते हैं।’

         शीतल ने थोड़ी नाराज़गी के साथ उसे टोकते हुए कहा - ‘मानसी, पहली बात तो यह है कि,  जैसा मैंने कहा, प्रवीर को मैंने बुलाया था। दूसरे, तुम प्रवीर के बारे में कुछ भी नहीं जानती, ऐसे में उसके चरित्र को लेकर ऐसी बातें करना उचित नहीं। किसी व्यक्ति को जाने बिना उसके चरित्र पर टिप्पणी करना शोभा नहीं देता।’

         ‘शीतल, माफ़ी चाहती हूँ। मैंने तो मज़ाक़ में कहा था।’

         ‘मज़ाक़ भी समय और परिस्थिति के अनुसार ही अच्छा लगता है।’

         ‘सॉरी वन्स अगेन। गुड नाइट,’ कहकर मानसी ने करवट बदल ली।

          शीघ्र ही कमरे में निस्तब्धता छा गई।

        शीतल की आँखों से नींद नदारद थी। होटल में प्रवीर कुमार को पहली बार देखने से लेकर आज दिन में उसके साथ बिताए समय के बारे में वह सोचने लगी। यूनिवर्सिटी के बाद इतने वर्षों बाद होटल में प्रवीर को परिवार के साथ देखकर और फिर उसका अकेले रिसेप्शन काउंटर पर आना बड़ा सुखद लगा था। चाहे कोई विशेष बात नहीं हुई थी, क्योंकि उसे वापस अपने परिवार के पास लौटना था, फिर भी उसका विज़िटिंग कार्ड देना मुझे आश्वस्त कर गया था कि मैं पुराने प्रवीर की मित्रता पर भरोसा कर सकती हूँ। शायद इसी विश्वास के भरोसे मैंने पत्र लिखा था। पत्र ही नहीं लिखा था बल्कि अपनी मनोदशा भी बयान कर दी थी। मेरा विश्वास सही साबित हुआ। पत्र मिलते ही प्रवीर ने फ़ोन किया और अपनी उत्सुकता प्रकट की मेरे बारे में जानने की। आज उसे आने के लिए कहने के पीछे कारण था कि मैं अपनी व्यथा किसी अपने से साझा करना चाहती थी। मम्मी-पापा तो मेरी व्यथा के साक्षी थे ही, किन्तु और कोई ऐसा न था जो मेरी पीड़ा को समझ सकता या जिसे मैं अपने मन के घाव दिखा सकती। …. जब मैं अपनी व्यथा-कथा सुना रही थी तो मैंने स्पष्ट अनुभव किया था कि प्रवीर बहुत द्रवित हो गया था। उसने सहानुभूति ही प्रकट नहीं की, बल्कि हौसला देने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। सफलता से व्यक्ति में आत्मविश्वास तो आता ही है। प्रवीर ने जाते समय जो यह कहा - ‘मेरी दिली इच्छा है कि किसी-न-किसी रूप में तुम्हारे काम आ सकूँ’ को सुनकर मैं आश्वस्त हो गई थी। प्रवीर बहुत अच्छी पोज़ीशन में है; हो सकता है, उसके प्रयास से मुझे इस क्लर्की से छुटकारा मिल जाए और मैं कोई सम्मानजनक नौकरी पा जाऊँ!

         इस प्रकार सुखद भविष्य की कल्पना करते तथा मन में आशा लिए शीतल की आँखों में नींद उतर आई। 

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