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रविवार को जब प्रवीर कुमार सुबह की सैर करके वापस आया तो नवनीता को रसोई में व्यस्त पाया। उसने पूछा - ‘नीता, आज सुबह-सुबह रसोई में क्या कर रही हो, चाय-वाय पिलाने का इरादा नहीं है क्या?’
‘आज आपकी मित्र पहली बार हमारे घर आ रही है, उसी के स्वागत की तैयारी कर रही हूँ।... आप ब्रश कर लें, मैं चाय बनाकर लाती हूँ।’
चाय पीते हुए प्रवीर कुमार ने कहा - ‘नीता, शीतल एक साधारण तथा व्यावहारिक लड़की है, उसे औपचारिकता पसन्द नहीं। इसलिए मैं तो यही कहूँगा कि ऐसा-वैसा कुछ बनाने की आवश्यकता नहीं, जो रूटीन में बनता है, वैसा ही कुछ बना लेना। यह न हो कि वह इम्बेरेसमेंट महसूस करे।’
‘आप चिंता न करें। मैं उसे ‘फ़ील एट होम’ करवाऊँगी, इम्बेरेस नहीं होने दूँगी। …. पहले मैं उसे आपसे अकेले में बातचीत करने का समय दूँगी, फिर अपने साथ बिठाकर उसकी दास्तान उसके मुख से सुनूँगी।’
‘वैरी गुड। यह तो बहुत अच्छा रहेगा।’
कभी-कभी प्रकृति में परिवर्तन इतने आकस्मिक होते हैं कि मनुष्य चकित रह जाता है। जब प्रवीर कुमार और नवनीता नाश्ता कर रहे थे तो प्रात:काल से साफ़ मौसम की जगह अचानक काले-काले बादल घिर आए और थोड़ी ही देर में बूँदाबाँदी होने लगी। नाश्ता समाप्त होने से पहले ही बूँदाबाँदी ने झमाझम बारिश का रूप इख़्तियार कर लिया।
मौसम का बिगड़ता मिज़ाज देखकर नवनीता बोली - ‘प्रवीर, आपने बताया था कि शीतल ग्यारह बजे के लगभग बस स्टैंड पहुँचेगी। इस मौसम में ऑटो में आने में उसे तकलीफ़ होगी, क्यूँ ना आप उसे कार में बिठा लाओ?’
‘नीता, मैं देख रहा हूँ कि तुम शीतल के बारे में कुछ ज़्यादा ही सोच रही हो। मैं उसे फ़ोन कर देता हूँ कि यदि बरसात न रुकी तो ऑटो की बजाय कैब करके आ जाएगी।’
‘प्रवीर, कहाँ तो आप उससे मिलने के लिए जाने को भी तैयार थे और अब यहाँ बस स्टैंड तक जाने में भी आना-कानी कर रहे हैं?’
प्रवीर कुमार ने बात को तूल न देते हुए कहा - ‘अच्छा बाबा, आज तो तुम्हारा हुक्म ही मानना पड़ेगा। मैं शीतल को फ़ोन कर देता हूँ कि मैं उसे लेने बस स्टैंड आ रहा हूँ।’
प्रवीर कुमार के पास सरकारी मकान था। पैसेज के दाईं ओर वर्गाकार लॉन में समतल कटी हरी घास बिछी हुई थी। लॉन के मध्य में संगमरमर का छोटा-सा फ़व्वारा बहुत ही सुन्दर लग रहा था। बाहरी दीवार के साथ यूकेलिप्टस के तीन वृक्ष लगे थे तथा कोने में उन वृक्षों से अधिक ऊँचा एक बॉटल पाम का वृक्ष था। एक तरफ़ फूलों की क्यारी थी, जिसमें कई तरह के फूल महक रहे थे। बरसात ने उनकी हरियाली काया को और चमका दिया था।
आकाशीय विराट झरने के नीचे काले-पीले धुँधलके के बीच प्रवीर ने कार पैसेज में खड़ी की तो उसके साथ शीतल ने घर में प्रवेश किया। कार से उतरने और घर में प्रवेश करने के बीच ही वे थोड़ा भीग गए थे। उस समय नवनीता ड्राइंगरूम में बैठी रिंकू को पढ़ा रही थी। उसने उन्हें भीगे हुए देखा तो झट से बेडरूम से दो हैंड टॉवेल उठा लाई। दोनों ने वहीं खड़े-खड़े टॉवेल से बाल और चेहरे पोंछे। इसके बाद हाथ जोड़कर शीतल ने नमस्ते की। नवनीता ने उसकी नमस्ते का उत्तर दिया। तदुपरान्त शीतल ने रिंकू के गाल थपथपाए और पूछा - ‘बेटे, बड़ा भैया कहाँ है?’
‘वह तो अपने दोस्तों के साथ खेलने गया है,’ रिंकू ने उत्तर दिया।
अब शीतल ने अपने हैंडबैग से खिलौने तथा चॉकलेट के पैकेट निकालकर उसे देते हुए कहा - ‘बेटा, ये तुम दोनों भाइयों के लिए हैं।’
प्रवीर कुमार - ‘शीतल, इनकी क्या ज़रूरत थी?’
‘बच्चों के लिए हैं, तुम्हारे लिए नहीं।’
नवनीता - ‘रिंकू बेटा, say thanks to aunty (आंटी को धन्यवाद कहो)’
प्रवीर कुमार ने तत्काल कहा - ‘रिंकू बेटा, बुआ जी को धन्यवाद कहो।’
नवनीता को प्रवीर कुमार का टोकना अटपटा तो लगा, किन्तु वह उसके रिश्तों के सम्बन्ध में विचारों से भलीभाँति परिचित थी, इसलिए उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। लेकिन शीतल ने अपनी प्रतिक्रिया अवश्य व्यक्त की - ‘प्रवीर, मुझे रिंकू की बुआ बनाकर रिश्तों के बँधन में मत बाँधो। मैं तुम्हारी मित्र हूँ, वही रहने दो।’
‘शीतल, हमारी सभ्यता में अनजान महिलाओं को भी माता या बहन कहकर पुकारा जाता है, तुम तो इतने सालों से मेरी अभिन्न मित्र हो। बच्चों से मैं अपने किसी ख़ास के लिए अंकल-आंटी कहलवाने के हक़ में नहीं, इसलिए रिंकू को तुम्हें बुआ बुलाने के लिए कहा है। यदि तुम पहले से नीता की सहेली रही होती तो मैं रिंकू को तुम्हें बुआ की बजाय मौसी कहने को कहता।’
प्रवीर कुमार के खिले चेहरे पर स्नेह की झलक शीतल को साफ़ दीख रही थी। उसने अभिभूत होते हुए कहा - ‘प्रवीर, तुम्हारे इस अकाट्य तर्क की मेरे पास कोई काट नहीं।’
नवनीता - ‘प्रवीर, रिंकू को मैं बेडरूम में ले जाती हूँ। यह थोड़ी देर टी.वी. देख लेगा, इतने में मैं चाय बनाकर लाती हूँ।’
नवनीता के जाते ही शीतल ने बिना किसी भूमिका के कहा - ‘प्रवीर, कान्हा का क्या करें?’
‘क्यूँ, अब क्या किया उसने?’
‘प्रवीर, दिनोंदिन कान्हा की मानसिक हालत पहले से पतली होती जा रही है और शरीर में ताक़त बढ़ती जा रही है। वह अधिक उग्र तथा आक्रामक होता जा रहा है। कई बार उसे क़ाबू करना मुश्किल हो जाता है। उसे खाते समय समझ नहीं रहती कि कितना खाना है। पिछले हफ़्ते ही दोपहर के खाने के समय मम्मी ने उसे तीन चपातियों के बाद कहा, बेटा! अब बस कर, थोड़ी देर में फिर खा लेना तो उसने मम्मी की बाजू मरोड़ दी। …. मम्मी की पीठ पर घुस्से-मुक्के तो अक्सर जड़ देता है। कुछ तो उसकी दशा को देखते हुए और कुछ लाड़-प्यार की वजह से मम्मी उसकी हरकतें सहन कर लेती है। यह सब वह अक्सर तब करता है, जब मम्मी अकेली होती है। पापा से ज़रूर वह डरता है, लेकिन पापा का मनोबल भी मेरे विवाह के हादसे के बाद से कमजोर पड़ गया है। वे भी कई बार कान्हा को सँभालने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।’
‘किसी न्यूरो फ़िज़िशियन से कंसलट करना चाहिए। …. अधिक छूट किसी समय घातक भी हो सकती है।’
‘डॉक्टरों को बहुत बार दिखाया है। कान्हा की बीमारी का कोई परमानेंट इलाज तो है नहीं। डॉक्टर इलैक्ट्रिक शॉक ट्रीटमेंट बताते हैं, जिसके लिए मम्मी बिल्कुल भी तैयार नहीं।’
‘शीतल, स्थिति वाक़ई काफ़ी गम्भीर है।’
इनकी बातचीत के बीच ही नवनीता चाय-नाश्ता रख गई थी। आख़िरी बात कहकर प्रवीर कुमार ने शीतल को चाय का कप उठाकर दिया। बातचीत के बीच इस विराम को प्रवीर कुमार ने सोचने के लिए इस्तेमाल किया।
ख़ाली कप टेबल पर रखते हुए प्रवीर कुमार ने कहा - ‘शीतल, भारत सरकार के स्वास्थ्य मन्त्रालय ने एक योजना आरम्भ की है, जिसके अन्तर्गत मानसिक स्वास्थ्य पुनर्वास हेल्पलाइन ‘किरण’ का तेरह भाषाओं में शुभारम्भ किया गया है। इस हेल्पलाइन का उद्देश्य मानसिक रोग से पीड़ित लोगों को राहत और सहायता प्रदान करना है। देश के किसी भी क्षेत्र से नेटवर्क या मोबाइल द्वारा इससे जुड़कर मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ से अपनी समस्या का समाधान पाने के लिए सम्पर्क किया जा सकता है। मैं समझता हूँ कि हमें कान्हा की समस्या हल करने के लिए इस हेल्पलाइन का लाभ उठाना चाहिए। हो सकता है कि कुछ सकारात्मक परिणाम मिल जाएँ!’
‘प्रवीर, तुमने बहुत अच्छा सुझाव दिया है। कोशिश करना तो हमारा कर्त्तव्य है और अब तक पापा पूरे मनोयोग से हर सम्भव कोशिश करते भी रहे हैं। इस हेल्पलाइन से जुड़कर भी देख लेते हैं ….। मैं अपनी ही बातें ले बैठी, यह भी पूछना भूल गई कि रिंकू का प्लास्टर कितने दिन और रहेगा? बच्चे को काफ़ी दिक़्क़त हो रही होगी?’
‘पहला प्लास्टर तो इक्कीस दिनों के लिए था, जो परसों खोल दिया था। लेकिन डॉक्टर के अनुसार घाव अभी कच्चा था, सो उसने पन्द्रह दिन के लिए दुबारा प्लास्टर लगाया है। उम्मीद है कि इस दौरान रिंकू बिल्कुल ठीक हो जाएगा!’
इतने में बँटी ने आकर कहा - ‘पापा, मम्मी पूछ रही है, खाना लगा दूँ?’
‘क्यों शीतल, खाने के लिए तैयार हो?’
शीतल ने उठते हुए कहा - ‘प्रवीर, मैं भाभी के साथ खाना लगवाती हूँ।’
शीतल द्वारा नवनीता के लिए ‘भाभी’ सम्बोधन का प्रयोग करना प्रवीर कुमार को अच्छा लगा।
खाना खाने के बाद शीतल ने नवनीता द्वारा बनाए खाने की प्रशंसा की तो प्रवीर कुमार ने भी जोड़ दिया - ‘शीतल, नीता तुमसे मिलने को इतनी उत्सुक थी कि आज इसने सुबह से ही तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। ….. मैं बच्चों के साथ थोड़ा खेलता हूँ और तुम दोनों दूसरे कमरे में आराम से एक-दूसरे से बातें करते हुए विश्राम कर लो।’
नवनीता के आग्रह पर शीतल ने अपने जीवन के अँधेरे-उजाले पहलुओं से उसे परिचित करवाया। उसकी जीवन-गाथा सुनकर नवनीता ने कहा - ‘दीदी, जीवन ऐसा ही है। दु:ख-कष्ट हर व्यक्ति के जीवन में आते हैं। उनका रूप और प्रभाव अलग-अलग हो सकता है। मैंने भी बहुत सहा है, लेकिन मेरी क़िस्मत अच्छी थी कि प्रवीर मेरे साथ दीवार की तरह खड़ा रहा,’ कहकर नवनीता चुप हो गई जैसे कि अतीत को याद करने में कष्ट हो रहा हो!
नवनीता की उपरोक्त बात सुनकर शीतल को बहुत हैरानी हुई। उसने आश्चर्यमिश्रित स्वर में प्रश्न किया - ‘भाभी, आप और कष्ट? मैं कुछ समझी नहीं! प्रवीर तो बहुत बढ़िया इंसान है। फिर किस तरह का कष्ट?’
‘दीदी, कई बार बढ़िया इंसान को भी जीवन में विपरीत परिस्थितियों में से गुजरना पड़ता है। … मेरे पेरेंट्स ने प्रवीर के व्यक्तित्व एवं गुणों को देखकर ही रिश्ता किया था वरना इनके परिवार का स्टेट्स हमारे परिवार के समक्ष कुछ भी नहीं था। प्रवीर के पापा और तथाकथित मम्मी का रवैया शुरू से ही मेरे प्रति बहुत ही रूखा तथा मेरे धैर्य की परीक्षा लेने वाला था। कुछ दिनों बाद ही मुझे महसूस होने लगा था जैसे कि मैं उनकी आँख की किरकिरी थी, ….’ कहते-कहते नवनीता रुकी तो शीतल ने प्रश्न किया - ‘भाभी, आपने प्रवीर की मम्मी का ज़िक्र करते हुए ‘तथाकथित’ शब्द का इस्तेमाल क्यों किया?’
‘दीदी, विवाह के बाद दो-तीन महीने तक मैंने देखा कि प्रवीर घर का बड़ा लड़का और कमाऊ पूत होने के बावजूद, इनके प्रति मम्मी-पापा विशेषकर मम्मी का व्यवहार मुझे बड़ा अजीब-सा लगता, जबकि इनके छोटे भाइयों को पूरा लाड़-प्यार दिया जाता। मैंने प्रवीर से अपने मन की बात साझा की, लेकिन इनके पास भी कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं था। इन्होंने बस इतना ही कहा कि घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने की वजह से मेरी इच्छाओं और ज़रूरतों को हमेशा से नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है, लेकिन मैंने कभी विद्रोह नहीं किया, क्योंकि मैं समझता था कि पापा को परिवार के पालन-पोषण के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े हैं। मुझे इतनी ही प्रसन्नता है कि मुझे अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, जिसका परिणाम तुम्हारे सामने है। …. एक दिन मैंने मम्मी को पापा से बातें करते सुना। वह कह रही थी - नवनीता तो बहुत तेज है। प्रवीर तो सीधा-साधा है, यह उसको जल्दी ही अपने वश में कर लेगी। इसका तो कुछ-ना-कुछ करना होगा। जैसे तुम लोगों ने इसकी मम्मी को रास्ते से हटा दिया था, वैसा ही कुछ इसके साथ भी करना होगा। …. सुनकर मेरे कान खड़े हो गए।’
‘तो क्या प्रवीर को जन्म देने वाली मम्मी को आपके ससुराल वालों ने मार दिया था या मरवा दिया था?’
‘यह तो अभी रहस्य ही बना हुआ है कि उन लोगों ने प्रवीर को जन्म देने वाली मम्मी के साथ क्या किया था, लेकिन ऐसा लगता है कि वह बेचारी अब इस दुनिया में नहीं है ….। सुना है, वह बहुत भली स्त्री थी। इनके परिवार की क्रूरतापूर्ण हरकतों से बहुत तंग थी। प्रवीर के जन्म के थोड़े समय बाद ही उसे रास्ते से हटा दिया गया और प्रवीर को बचपन में इनकी बुआ ने ही पाला-पोसा था, क्योंकि प्रवीर अभी कुछ महीनों का ही था कि इनकी सौतेली मम्मी घर में आ चुकी थी। …. जब मैंने प्रवीर को ‘मम्मी’ की बात बताई तो इन्हें यक़ीन नहीं हुआ और इन्होंने कहा कि मुझसे सुनने में कोई चूक हुई होगी, लेकिन जब मैंने इनके प्रति ‘मम्मी’ के व्यवहार की बात रखी तो आहिस्ता-आहिस्ता इन्होंने अपने जीवन की विगत घटनाओं पर सोचना तथा उनका विश्लेषण करना आरम्भ किया। कुछ ही दिनों में इन्हें यक़ीन हो गया कि मैंने जो सुना था, वह शायद ठीक था। इन्होंने मुझे बताया कि बचपन में मैं माता-पिता के प्यार के लिए सदा तरसता रहा। माता तो सौतेली थी ही, पिता भी उसके प्रभाव में मेरे प्रति उदार न हो सके। और इस कमी को ये स्वयं को किताबों में खोकर पूरा किया करते थे। दीदी, शायद इनके उस वक़्त के किताबों के प्रेम ने ही इनके भविष्य की नींव मज़बूत की। …. फिर भी इन्होंने परिवार में सौहार्द बनाए रखने के पूरे प्रयास किए, लेकिन जब दूसरे पक्ष का व्यवहार जस-का-तस रहा तो इन्होंने अपनी ट्रांसफ़र करवा ली। तब से अब तक इनसे वे केवल तभी बात करते हैं, जब उन्हें रुपया-पैसा चाहिए होता है वरना हमारे दु:ख-दर्द से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं। दीदी, जब बँटी होने वाला था तो डॉक्टर को डर था कि कहीं प्री-मैच्योर डिलीवरी न हो जाए, इसलिए मुझे कम्पलीट बेड-रेस्ट की सलाह दी थी। तब प्रवीर ने मम्मी को सहायता के लिए बुलाया तो उन्होंने यह कहकर साफ़ इंकार कर दिया था कि हमारा तुमसे कुछ लेना-देना नहीं। बँटी के होने के बाद भी उनकी तरफ़ से कोई नहीं आया था। आप ही बताओ, कौन माँ-बाप होगा जो अपने बेटे की पहली सन्तान को देखने न आएगा!’
‘भाभी, इन हालात में से गुजरने के बावजूद प्रवीर ने कभी इन बातों का मेरे समक्ष ज़िक्र नहीं किया। हाँ, उसका सदा गम्भीर बने रहना मुझे कुछ अजीब ज़रूर लगता था। मैं तो सोचती थी कि ऑफिस के कामों की वजह से प्रवीर गम्भीर रहने लगा होगा वरना तो जब हम पढ़ते थे तो प्रवीर बहुत ही हँसमुख तथा ज़िन्दादिल इंसान हुआ करता था। क्लास में इनकी ज़िन्दादिली मशहूर थी ….’
इनकी बातें चल रही थी कि प्रवीर कुमार भी इनके कमरे में आ गया, क्योंकि बच्चे खेलते-खेलते थककर सो गए थे।
प्रवीर कुमार - ‘मेरा ख़याल है कि तुम दोनों ने खूब बातें कर ली हैं। शीतल, तुम कुछ यूनिवर्सिटी टाइम की बात कर रही थी शायद!’
नवनीता - ‘अधिक कुछ तो नहीं, दीदी आपके स्वभाव की तारीफ़ कर रही थी। मैं तो सोच रही थी कि यूनिवर्सिटी टाइम का कोई रसीला क़िस्सा सुनने को मिलेगा, किन्तु दीदी ने कोई किस्सा-विस्सा तो सुनाया नहीं। …. आप ही कुछ सुना दो …।’
‘क़िस्से से याद आया। शीतल, महावीर की तो तुम्हें याद होगी?’
प्रवीर कुमार ने महावीर का नाम लिया तो शीतल को बहुत कुछ याद आ गया। उसने उत्तर दिया - ‘हाँ, बिल्कुल याद है। नाम महावीर था, वैसे था मरियल-सा। लेकिन एक गुण था उसमें, गाता बहुत अच्छा था। उसका पसंदीदा गाना था - ओऽऽ खिलौना जानकर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो …. भाभी, और वह यह गाना एक जगह खड़ा होकर नहीं सुनाता था, बल्कि फ़िल्म में जैसे बन्द कमरे में से संजीव कुमार छत पर टहलती मुमताज़ को सुनाने के लिए कमरे में कभी एक झरोखे से तो कभी दूसरे झरोखे से बाहर की ओर देखते हुए गाता है, वैसे ही महावीर भी क्लास में घूमते हुए गाया करता था। प्रोफ़ेसर राही ने तो महावीर को उसके नाम से बुलाने की बजाय ‘खिलौना’ कहकर ही बुलाना शुरू कर दिया था।’
चाहे शीतल ने अपनी बात कहते हुए नवनीता को सम्बोधित किया था, लेकिन उसने फ़िल्म देखी न थी, इसलिए उसने कोई टिप्पणी नहीं की तो प्रवीर कुमार ने बातचीत का सूत्र सँभालते हुए कहा - ‘शीतल, कहाँ तो महावीर आईएएस बनने के सपने लिया करता था, उसने प्रयास भी किया था, कहाँ वह एक क्लर्क बनकर रह गया। एक बार मुझे चण्डीगढ़ के सेक्टर सत्रह में मिला था, वहीं उसका ऑफिस था। पुरानी बातें होने लगीं तो उसने मुझे बताया कि वह मोहिनी को चाहता था, लेकिन यह एकतरफ़ा प्यार था। एक बार उसने मोहिनी को इंडियन कॉफी हाउस में चलकर कॉफी पीने के लिए कहा तो मोहिनी ने उसे दुत्कारते हुए कहा था - आईने में अपनी शक्ल देखी है! इसके बाद वह आत्मविश्वास खो बैठा और उसके सारे सपने धराशायी हो गए।’
‘जो लोग यथार्थ से आँखें मूँदकर दिवास्वप्नों में जीते हैं, उनके साथ ऐसा ही होता है …. मोहिनी ने ठीक ही उसे उसकी वास्तविकता दिखा दी। उनमें किसी भी स्तर पर कुछ भी समान नहीं था । मोहिनी आज एक सफल उद्योगपति की पत्नी है, उसकी समाज में अपनी पहचान है। एक बार शिमला जाते हुए हमारे होटल में लंच के लिए रुकी थी। जैसे काउंटर पर हमारी मुलाक़ात हुई थी, ठीक वैसे ही उससे भी काउंटर पर ही मिलना हुआ था। तब उसने अपने पति से मेरा परिचय करवाया था….।’
‘सबसे बड़ी बात यह है कि मोहिनी का इसमें कोई दोष नहीं था। महावीर ने ही, मान न मान मैं तेरा मेहमान वाला बर्ताव किया था।’
क़िस्सा शुरू होने पर नवनीता को अच्छा लगा था, लेकिन अब वह उकताने लगी थी। इसलिए उसने उठते हुए कहा - ‘आप लोग बातें करो, मैं चाय बनाकर लाती हूँ।’
चाय के बाद शीतल ने एक बार फिर नवनीता का आतिथ्य के लिए आभार प्रकट किया और जाने की आज्ञा चाही।
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