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शनिवार का दिन और दिनों जैसा ही चढ़ा था। खिली हुई धूप की वजह से मौसम बहुत सुहावना था। अपनी दिनचर्या के अनुसार प्रवीर कुमार दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर सैर को निकल गया। सैर करते हुए भी मन में शीतल के ख़्याल आ-जा रहे थे। इस अन्यमनस्कता में एक जगह उसका पाँव ऊँची-नीची जगह में ठीक से न पड़ने के कारण वह गिरते-गिरते बचा। तब उसने मन को एकाग्र किया और सैर पूरी करके घर लौट आया। उसे सामान्य पाकर नवनीता उससे कल रात की उसकी अन्यमनस्कता का कारण पूछना भूल गई।
नाश्ता आदि करने के बाद प्रवीर कुमार ने नवनीता को कहा - ‘आज मेरे लिए दोपहर का खाना मत बनाना, मुझे एक दोस्त से मिलने जाना है।’
‘कब तक जाओगे और कब तक वापस आ जाओगे?’
‘मैं बारह-साढ़े बारह बजे जाऊँगा, क्योंकि उसने लंच पर बुलाया है और शाम होने से पहले लौट आऊँगा।’
इसके बाद नवनीता घरेलू कार्यों में व्यस्त हो गई और प्रवीर कुमार ने समय बिताने के लिए आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ द्वारा लिखित ‘खोया हुआ विश्वास’ उपन्यास उठा लिया जो उसने कई दिनों से पढ़ना शुरू कर रखा था। पढ़ तो वह उपन्यास रहा था, परन्तु ध्यान उसका घड़ी की निरन्तर टिक-टिक करती हुई सुइयों पर था। जैसे ही साढ़े बारह बजे, उसने उपन्यास बन्द किया और तैयार होने लगा।
दो बजने में दस मिनट थे कि प्रवीर कुमार शीतल के होटल पहुँच गया। नमस्ते-प्रतिनमस्ते के बाद शीतल ने उसे थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के लिए कहा। वह रिसेप्शन काउंटर के एक ओर रखे सोफ़े पर बैठकर मैगज़ीन उठाकर पढ़ने लगा। शीतल ने वेटर को बुलाकर उसे पानी पिलाने के लिए कहा। जैसे ही शीतल की जगह दूसरी लड़की ने आकर अपनी ड्यूटी सँभाली, उसने अपना पर्स आदि सँभाला और प्रवीर कुमार के पास आकर बोली - ‘आओ, चलें।’
शीतल के बग़ल वाली सीट पर बैठते ही प्रवीर कुमार ने कार स्टार्ट कर दी। मेन रोड पर आते ही उसने प्रश्न करते हुए कहा - ‘शीतल, पत्र के अन्त में तुमने यह क्यों लिखा ‘कभी मित्र रही’? …. तुम मेरी मित्र थी, हो और सदैव रहोगी। मित्र सदैव एक-दूसरे के सुख-दु:ख के साथी होते हैं। मित्र को परिभाषित करते हुए कवयित्री नीरू मित्तल ‘नीर’ ने क्या ख़ूब कहा है -
जीवन गणित का कठिन प्रमेय
न सुलझता, मित्र सुलझा जाता है
सुख सारे जोड़ता, गुणा कर देता
और दु:ख तकसीम कर जाता है
पत्र में तुमने अपने दु:ख का तो ज़िक्र किया, किन्तु खुलासा नहीं किया। फ़ोन पर भी केवल सूचना का आदान-प्रदान हुआ। … तुम्हारे भाई कान्हा का क्या हाल है?’
‘प्रवीर, आपकी शिकायत जायज़ है। पता नहीं किस भ्रम में लिख गई! लेकिन मुझे आपकी मित्रता पर रत्तीभर संशय नहीं है। ….. कान्हा की वजह से ही मम्मी-पापा को मैं अपने साथ नहीं रख पा रही। जैसे-जैसे वह बड़ा हो रहा है, उसको सँभालना मुश्किल होता जा रहा है। वहाँ तो अपना घर है, मम्मी-पापा पार पा रहे हैं, किराए के मकान में तो कान्हा के साथ रहना बड़ा मुश्किल है।’
‘कान्हा की स्थिति के लिए उसे या किसी को भी दोष नहीं दे सकते। परमात्मा की रज़ा में ही राज़ी रहना पड़ता है। …. रही बात मित्रता में संशय की तो शीतल, यह तो स्पष्ट दिखाई देता है। तुमने पत्र में तो ‘आप’ जैसे औपचारिक शब्द का इस्तेमाल किया ही था, अब भी वही कर रही हो जबकि रिसेप्शन काउंटर पर तुमने न तो ‘प्रवीर जी’ कहा था और न ही ‘आप’ का इस्तेमाल किया था। पुराने दिनों की तरह ‘तुम’ और ‘तुम्हारे’ शब्दों का इस्तेमाल करते हुए बात करती रही थी।’
शीतल ने सकुचाते हुए कहा - ‘प्रवीर जी, वो तो … उस समय मुझे आपके स्टेट्स का पता नहीं था।’
‘और स्टेट्स का पता लगते ही दोस्ती औपचारिकता में बदल गई! है ना?’
प्रवीर कुमार की इस आत्मीयता से शीतल अभिभूत हो उठी। उसे लगने लगा, वह अकेली नहीं है। कोई है, जिसपर विश्वास किया जा सकता है, जिसका सहारा मिल सकता है। उसने कहा - ‘प्रवीर जी, ओह प्रवीर, अब क्षमा माँग कर तुम्हारी भावनाओं को और आहत नहीं करूँगी। अब तो ख़ुश हो?’
‘हाँ, अब तुम पहले वाली बल्कि होटल के काउंटर पर मिलने वाली शीतल लग रही हो। अब हमारे बीच आए अन्तराल का कोई अर्थ नहीं रहा। अब हम सहज होकर, बिना किसी औपचारिकता के बातचीत कर सकेंगे।’
‘प्रवीर, तुम्हारे परिश्रम के साथ भाग्य ने भी तुम्हारा साथ दिया है। बढ़िया नौकरी है, बड़ी अच्छी पत्नी और सुन्दर सलोने बच्चे हैं।’
‘भाग्य भी भगवान् की कृपा है, उसका प्रसाद है। परिश्रम तो मज़दूर लोग हमसे कहीं अधिक करते हैं। …. हाँ, जैसा तुमने कहा, आज के दिन मैं स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ। …. अब कुछ अपने बारे में बताओ।’
‘कमरे पर चलकर आराम से बातें करेंगे। जब तुम यहाँ तक आए हो तो तुम से सब कुछ साझा करूँगी, कुछ भी नहीं छिपाऊँगी।’
कमरे पर पहुँचकर प्रवीर कुमार को बिठाकर शीतल बाथरूम में चली गई। हाथ-मुँह धोकर फ़्रेश होने के बाद बहादुर को खाने के लिए कहने के लिए रसोई की ओर चली गई।
जब रास्ते में शीतल ने कह दिया था कि आराम से बातें करेंगे तो प्रवीर कुमार ने खाना समाप्ति तक अपनी जिज्ञासा को दबाए रखा।
खाना समाप्ति पर प्रवीर कुमार ने पूछा - ‘शीतल, तुमने पत्र में लिखा था कि तुम यह कमरा किसी अन्य लड़की के साथ शेयर करती हो, उसका आने का क्या टाइम रहता है?’
‘मेरी रूममेट तो रात को नौ बजे के आसपास आती है।’
‘तो अब बताओ अपने बारे में।’
कुछ कहने से पूर्व शीतल कुछ क्षणों के लिए विचारों में खो गई। फिर उसने आहिस्ता-आहिस्ता बताना आरम्भ किया। उसकी आवाज़ में विचित्र-सी प्रतिध्वनि थी, मानो किसी गहन तल से आ रही हो।
‘प्रवीर, अतीत और वह भी दुखद, को स्मृतियों से बाहर लाना आसान नहीं होता, लेकिन जब तुमसे अपना अतीत साझा करने के लिए तुम्हें बुलाया है तो इस कठिन डगर पर तो चलना ही पड़ेगा। …. तु्म्हें तो याद ही होगा कि फ़ाइनल एग्ज़ाम से पहले ही मेरी एंगेजमेंट हो गई थी!’
‘हाँ, याद है और तुमने ‘ट्रीट’ देने के लिए मुझे फ़िल्म दिखाई थी। मैंने तुम्हारे मंगेतर के बारे में जानने की कोशिश की तो तुमने गोलमोल ढंग से बातों का रुख़ मोड़कर कुछ और ही टॉपिक पर बात करनी शुरू कर दी थी।’
‘बस यह समझ लो कि उस समय का मेरा दब्बूपन ही मेरी ज़िन्दगी का नासूर बन गया,’ शीतल इतना कहकर जैसे ख़्यालों में खो गई।
प्रवीर कुमार ने कुछ देर प्रतीक्षा की, फिर पूछा - ‘क्या सोचने लग गई? तुम्हारा दब्बूपन … ज़िन्दगी का नासूर ….? क्या हुआ, कुछ खुलकर बताओ।’
‘काश कि मैं मम्मी-पापा को कह पाती कि मुझे यह रिश्ता स्वीकार नहीं, कह पाती कि इस लड़के में एक पति बनने के आवश्यक गुण नहीं हैं ….!’
‘ऐसी क्या कमी थी उसमें जो तुम्हें उस समय महसूस हुई?’
‘प्रवीर, जब बैठक में चाय-नाश्ते के बाद पापा ने कहा कि शीतल, तुम दोनों ऊपर चौबारे में चले जाओ और एक-दूसरे से अकेले में जो पूछताछ करना चाहो, कर लो तो मदन, यही उसका नाम था, ने अपनी मम्मी को भी साथ चलने के लिए कहा और वह उठकर साथ हो भी ली। सोचो जरा, जब मदन की मम्मी साथ थी तो जिस एकान्त के लिए हमें ऊपर भेजा गया था, वह मक़सद तो पूरा नहीं हो सकता था। मदन ने तो एक-आध बात ही की, उसकी मम्मी ही पूछताछ करती रही। ऐसे में मेरा मदन से कुछ पूछना कहाँ सम्भव था। …. नीचे आकर मदन की मम्मी ने कहा कि मैं उन्हें पसन्द हूँ। बधाइयों का सिलसिला चला। उसके बाद मेरी मम्मी उठकर रसोई की ओर चली गई। मैं भी उनके पीछे-पीछे रसोई में पहुँच गई। मैंने मम्मी को कहा कि मम्मी, मदन में मुझे कुछ कमी लगती है, वह अपनी मम्मी पर निर्भर लगता है, उसके बिना कुछ भी करने में सक्षम नहीं लगता। मम्मी ने मुझे यह कहकर चुप करा दिया कि कई लड़के ऐसे होते हैं, जिन्हें लड़कियों से मिलने का मौक़ा नहीं मिला होने के कारण वे अकेले में लड़की से बातचीत करने में शरमाते हैं। मदन की पढ़ाई भी लड़कों के कॉलेज में हुई है। शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा।… काश कि मैं उस समय मम्मी की बात पलट पाती! …..’
‘मदन कितना पढ़ा था?’
‘उसने बी.ए. की हुई थी और अपने पापा के साथ दुकान पर बैठता था। ’
‘तुमने अपने से कम पढ़े लड़के के साथ विवाह करने की स्वीकृति ही क्यों दी?’
‘प्रवीर, हमारी आर्थिक स्थिति के बारे में तो तुम्हें पता ही है। मैं अपनी पसन्द पर अड़कर पापा पर अतिरिक्त बोझ नहीं डालना चाहती थी।’
‘फिर ऐसा क्या हुआ कि…’ प्रवीर कुमार ने अपना प्रश्न अधूरा छोड़ दिया।
‘अनिच्छा के साथ मैंने विवाह की रस्में निबाहीं। नया घर, अपना घर बसाने का सपना संजोए मायके से ससुराल आई। कहावत सुनी होगी तुमने, कुँवारी के सौ सपने ब्याही के सौ मसले। कुछ दिन ठीक-ठाक गुजरे, लेकिन शीघ्र ही मेरे सपनों के रंग काले-स्याह होने लगे। मैंने महसूस किया कि मदन को हर काम के लिए पैसे पापा से माँगने पड़ते हैं। उसकी अपनी जेब हमेशा ख़ाली रहती थी। …. इतना ही होता तो भी शायद चल जाता, लेकिन हफ़्ता भी नहीं गुजरा था कि टी.वी. देखने के बहाने मदन के मम्मी-पापा रात को बारह-एक बजे तक हमारे बेडरूम में बैठने लगे। इन परिस्थितियों में मदन के साथ बातचीत तो हो ही नहीं पाती थी। एक बार मैंने मदन को कहा कि मम्मी-पापा को कहे कि हमें भी प्राइवेसी चाहिए तो कहने लगा कि अपने पापा को कह कि एक और टी.वी. दे देगा। …. प्रवीर, यह शुरुआत थी उनके लोभ-लालच की।’
‘तो तुमने पापा को एक और टी.वी. देने के लिए कहा?’
‘नहीं, मैं पापा की परेशानी नहीं बढ़ाना चाहती थी। और मदन के मम्मी-पापा का रूटीन वही बना रहा। विवाह के बाद हर लड़की के कुछ सपने होते हैं, जिन्हें वह अपने पति के साथ मिलकर पूरे करना चाहती है। लेकिन, मेरे सपने तो सपने ही रह गए। उन्हें पूरा करना तो दूर की बात थी, उनका ज़िक्र भी कभी मदन से नहीं कर पाई। अगर ज़िक्र करती भी तो मुझे पता लग चुका था कि कोई परिणाम नहीं निकलने वाला था …’
प्रवीर कुमार ने शीतल को टोकते हुए पूछा - ‘क्या कोई और डेवलपमेंट हो गई थी?’
‘मदन के मम्मी-पापा दहेज को लेकर रोज़ मेरे पापा को बुरा-भला कहते रहते थे। उनको तो मेरे जींस पहनने पर भी एतराज़ था। मैं ही ढीठ होकर बर्दाश्त करती रहती थी। सोचती थी कि कभी तो जीवन की जद्दोजहद का अन्त होगा, मेरे जीवन में भी सुहावनी भोर का उदय होगा! लेकिन एक दिन …. एक दिन मेरी सास कुछ लेने के लिए बाज़ार गई हुई थी कि मौक़ा देखकर पड़ोस में रहने वाली आंटी ने मेरे पास आकर बातों-ही-बातों में कुछ ऐसी बातें बताईं कि सुनकर मैं सन्न रह गई। ….,’ बोलती-बोलती शीतल चुप हो गई। शायद सोचने लगी थी कि आगे क्या कहूँ?
जब कुछ देर तक शीतल कुछ नहीं बोली तो प्रवीर कुमार ने फिर टोका।
शीतल ने स्वयं को सँभाला और बताने लगी - ‘आंटी ने मुझसे पूछा - शीतल, रिश्ता करते समय तुम्हारे घरवालों को पता था कि मदन की पहले दो बार सगाई हुई थी और रिश्ते टूट गए थे?’ मैंने कहा - ‘नहीं आंटी, मेरे पापा को तो इस बात की कोई खोज-खबर नहीं थी।’ तो वह बताने लगी कि पहले रिश्ते में तो विवाह के कार्ड भी छप चुके थे और लड़की वालों ने इनकी नाजायज़ माँगों से तंग आकर विवाह न करने में ही भलाई समझी। दूसरी बार सगाई के बाद वर और वधू के कपड़े ख़रीदने के समय मदन के मम्मी-पापा ने उसकी मंगेतर को तो बुला लिया लेकिन कपड़ों के चुनाव में उसकी कोई बात नहीं मानी तो लड़की ने वापस जाकर सगाई तोड़ने की सूचना भिजवा दी….’
‘शीतल, तुम्हारी सगाई के समय ऐसी कोई परिस्थिति उपस्थित नहीं हुई?’
‘प्रवीर, शायद मदन के मम्मी-पापा दो बार सगाई टूटने से समझ गए थे कि एक बार शान्ति से विवाह हो जाना ज़रूरी है, बाक़ी बातें बाद में कर लेंगे और यही उनकी सोच हमारी बदक़िस्मती बन गई …,’ थोड़ा साँस लेने के बाद शीतल ने बताया - ‘दो-एक महीने में मैं समझ गई कि घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। मैंने एम.ए. कर ही रखा था तो एक सुबह नाश्ता करवाने के बाद मैंने अपने ससुर से कहा कि मैं नौकरी करना चाहती हूँ, इससे पैसे की तंगी भी नहीं रहेगी। मेरा इतना कहना था कि ससुर को तो जैसे मिर्गी के दौरे पड़ने लगे। वह अनाप-शनाप बकने लगा - ‘तूने हमें अपने पापा की तरह भिखमंगे समझ रखा है। हमारे पास इतना कुछ है कि मदन ज़िन्दगी भर भी कुछ ना करे तो भी ऐश से जीवन बसर कर सकता है। हमें नहीं चाहिए तेरी नौकरी की कमाई।’ प्रवीर, जब उसने पापा को भिखमंगे कहा तो मैं भी संयम खो बैठी। मैं अपना अपमान सह सकती थी, किन्तु देवता जैसे मेरे पापा का क़तई नहीं। मेरे मुँह से निकल गया - ‘इतना कुछ यदि आपके पास है तो एक टी.वी. और स्कूटर लाने के लिए रोज़ मुझे क्यों कहते हो, क्यों मुझे चैन से नहीं रहने देते?’ मेरी बातों ने आग में घी का काम किया, मेरे लिए उसके मन में नफ़रत की ज्वाला भड़क उठी। उसने उसी वक़्त मदन को कहा - ‘बेटे मदन, इस नामुराद-कम्बख़्त को अभी घर से निकाल दे। मैं इसकी शक्ल नहीं देखना चाहता….।’ इतना ही नहीं, उसने कुछ ऐसी गालियाँ भी दीं, जो मैं दुहरा नहीं सकती। मदन जिसका अपना कोई वजूद ही नहीं था, ने अपने पापा की शह पर मेरी बाँह पकड़ी और बाहर की ओर ले जाने लगा। मैंने अपनी बाँह छुड़ाते हुए कहा - ‘मेरी बाँह छोड़ दो। मैं ख़ुद नहीं चाहती कि तुम जैसे नीच लोगों के साथ रहूँ। जो बातें तुम लोगों ने हमारे से छिपाई थीं, मुझे पता चल चुकी हैं। मुझे पता है कि तुम लोगों की नीच हरकतों के कारण ही तुम्हारी दो बार सगाई टूटी थी।’ मेरा इतना कहना था कि ससुर ने टेबल से उठकर मेरे पास आकर दो थप्पड़ रसीद कर दिए। जब तीसरे थप्पड़ के लिए उसका हाथ उठा तो मैंने बीच में ही पकड़ लिया। इसपर मदन की मम्मी ने बेलन से मेरी पीठ पर वार कर दिया और मदन ने भी एक-दो लात घूँसे चला दिए। पीठ पर बेलने की चोट से मेरी चीखें निकल गईं। मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया और मैं निढाल होकर फ़र्श पर गिर पड़ी। और जब मुझे होश आया तो मैं अपने घर चारपाई पर पड़ी थी। बेलन की चोट से रीढ़ की हड्डी में हेयर लाइन फ़्रैक्चर आ गया था ….’ इतना कहकर शीतल फिर विगत की वीथियों में खो गई।
जब काफ़ी देर तक शीतल चुप रही तो प्रवीर कुमार ने कहा - ‘बहुत बुरा हुआ तुम्हारे साथ। कहते हैं An educated bride is a lot better than a billion currency (एक शिक्षित दुल्हन करोड़ों रुपये से भी अधिक मूल्यवान होती है), लेकिन आज भी हमारे समाज में ऐसे निर्दयी लोग हैं जिन्हें पढ़ी-लिखी लड़की की कद्र नहीं है। ….. शीतल, तुम लोगों ने मदन और उसके परिवार के विरूद्ध क़ानूनी कार्रवाई नहीं की?’
शीतल ने उसाँस लेते हुए कहा - ‘प्रवीर, यहाँ भी क़िस्मत धोखा दे गई। …. हमारी शिकायत पर मदन और उसके मम्मी-पापा को जेल भेज दिया गया। अभी दो-अढ़ाई महीने ही हुए थे कि मदन के पापा की जेल में ही हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई। मदन के रिश्तेदारों में एक आदमी दूर के रिश्ते से हमारे परिवार से भी जुड़ा हुआ था। उसके दबाव में हमें केस वापस लेना पड़ा। केस वापस लेने की एवज़ में वह हमें अच्छी-खासी रक़म दिलवा रहा था, किन्तु मैंने पापा को उनसे एक पैसा भी नहीं लेने दिया …’
‘तो क्या तुमने उनसे विवाह में दिए ज़ेवर इत्यादि भी नहीं लिए?’
‘सिर्फ़ वही लिए, मुआवज़े के रूप में एक पैसा नहीं लिया। उनकी बदनीयत का फल तो उन्हें परमात्मा ने दे ही दिया था। उनसे लिया पैसा हमें भी कहाँ फलता?’
‘मदन से क़ानूनी सम्बन्ध-विच्छेद …?’
‘हाँ, वह भी समझौते के अनुसार हो गया था। कुछ समय शून्य का पीछा करते हुए गुज़ारा। शारीरिक घाव भरने के बाद दु:ख, तनाव और विषाद से कुछ उभरी और मानसिक सन्तुलन लौटा तो सोचा, ज़िन्दगी की साँसें जब तक हैं, कुछ-न-कुछ तो करना पड़ेगा। हाथ पर हाथ रखे बैठना तो बहुत कष्टदायक था। यही सोचकर मैंने नौकरी के लिए प्रयास शुरू किए। आख़िर यह नौकरी मिली। मैं तो चाहती थी कि किसी स्कूल या कॉलेज में पढ़ाने लग जाऊँ, किन्तु नसीब में रिसेप्शन गर्ल की नौकरी थी, सो टाइम पास कर रही हूँ।’
‘बाबूजी और माँ जी कैसे हैं?’
‘वैसे ठीक हैं, किन्तु मेरे साथ हुए हादसे के बाद से वे भी बस ज़िन्दगी घसीट रहे हैं।’
‘शीतल, बुरा न मनाना, कुछ अधिक व्यक्तिगत सवाल पूछना चाहता हूँ …’
शीतल को आभास तो हो गया था कि प्रवीर कुमार क्या पूछना चाहता है, फिर भी उसने कहा - ‘प्रवीर, तुमने ही तो मित्र के गुण बताए थे और अब खुद ही संशय में पड़े हो! पूछो, जो पूछना चाहते हो।’
‘शीतल, हादसा हुए तो बहुत समय हो गया, क्या कभी दुबारा विवाह का ख़्याल नहीं आया?’
‘प्रवीर, पापा-मम्मी ने बहुत प्रयास किया कि मैं पुनर्विवाह के लिए सहमत हो जाऊँ। उन्होंने एक-दो जगह बात भी चलाने की कोशिश की, किन्तु कहते हैं ना कि दूध का जला छाछ को भी फूँक मार-मारकर पीता है। मुझे उनमें कोई-न-कोई कमी दीख ही जाती। एक असफल विवाह के बाद मम्मी-पापा भी मुझ पर दबाव डालने से कतराने लगे थे। इसके अलावा मैं पापा-मम्मी को अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी। प्रवीर, तुम तो बहुत अच्छी तरह समझते हो कि विवाह केवल शारीरिक स्तर पर ही नहीं, भावनात्मक स्तर पर दो व्यक्तियों का मिलन अधिक होता है। अब मेरी उस तरह की मानसिक अवस्था नहीं है। मैंने रजनीगंधा से जो सपने बुने थे, बिखर चुके हैं; मन की डालियाँ स्वप्न-विहीन हो गई हैं और कामनाओं के पंछियों ने कहीं ओर बसेरा कर लिया है, क्योंकि उनके रहने के घरौंदे ही नहीं रहे तथा भावनाओं के समन्दर का पानी भी सूख गया है। इसलिए विवाह के विचार को ही तिलांजलि दे दी है….।’
शीतल तो इतना कहकर चुप हो गई, लेकिन यह सब सुनने के बाद प्रवीर कुमार विचारमग्न हो गया।
कुछ क्षण ऐसे ही बीते। शीतल ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा - ‘प्रवीर, मैंने तो अपना दुखड़ा सुना करके मन हल्का कर लिया, किन्तु तुम्हें बेवजह दुखी कर दिया है….. बातें करते हुए समय का ध्यान ही नहीं रहा। मैं चाय बनाकर लाती हूँ,’ और वह रसोई की ओर चली गई।
चाय पीते समय प्रवीर कुमार ने कहा - ‘शीतल, मुझे ख़ुशी हुई यह सुनकर कि तुम्हारा मन हल्का हो गया है। जहाँ तक मेरे दुखी होने का सवाल है तो इतना ही कहूँगा कि इस समय तो मैं केवल सहानुभूति ही प्रकट कर सकता हूँ, लेकिन मेरी दिली इच्छा है कि किसी-न-किसी रूप में तुम्हारे काम आ सकूँ। …. मुझे विश्वास है कि तुम जल्दी ही इस मन:स्थिति से उबरकर जीवन का नए सिरे से आनन्द उठा सकोगी। … शीतल, एक बात और पूछना चाहता हूँ, तुम्हारा कविता लिखने का शौक़ क़ायम है या छूट गया, पढ़ने का शौक़ तो बरकरार लगता है?’ बेड के साथ रखे टेबल पर रखी कुछ किताबों और पत्रिकाओं पर दृष्टिपात कर उसने पूछा।
‘प्रवीर, तुम तो साहित्य के विद्यार्थी रहे हो, तुम्हें तो पता ही है कि कविता ज़बरदस्ती नहीं लिखी जाती। यह तो मन में उपजे भावों की अभिव्यक्ति होती है। जिस तरह की मनोदशा होती है, वैसी ही कविता प्रस्फुटित होती है। यूनिवर्सिटी के दिनों के बाद से तो मेरे जीवन में न कोई रंग रहा है और न कोई गंध। जीवन की नाव भँवर में फँसी है, निकलने की कोई आशा दिखाई नहीं देती। पिछले काफ़ी समय से जो भी लिखा है, वह निराशा से निःसृत भाव हैं। बस यह समझ लो कि काग़ज़ पर ऐसे भावों को उतारकर मन हल्का हो जाता है।… जहाँ तक पढ़ने का सवाल है, तो अब किताबें और पत्रिकाएँ ही मेरे जीवन का सहारा हैं। इन्हीं में खोकर जीवन की गाड़ी धकेल रही हूँ, इन्हीं से रस-कण लेकर मेरे प्राण मेरी काया को चलायमान रख रहे हैं।’
‘शीतल, आज तो काफ़ी समय हो गया, अब चलता हूँ। फिर किसी दिन तुम्हारी कविताएँ सुनूँगा और याद रखना कि जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं। स्थितियाँ-परिस्थितियाँ हमें हरा नहीं सकतीं, हम खुद-से-खुद ही हार जाते हैं। अतीत को ढोने से कुछ हासिल नहीं होगा। इसलिए अतीत को भुलाकर भविष्य को संवारने की कोशिश होनी चाहिए। डॉ. घमंडी लाल अग्रवाल की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं -
ये रात आ गई जो लेकर घना अंधेरा
जाएगी मुँह की खाकर सहर बोलती है।’
‘प्रवीर, अतीत से छुटकारा इतना आसान होता तो आदमी के जीवन में सुख-ही-सुख होता।’
‘ठीक कहा तुमने। इसीलिए कहता हूँ कि अतीत को भुलाना होगा। याद रखना, खुद-से-खुद नहीं हारना तुम्हें। जब तक साँस है, तब तक आस है। कितना भी बड़ा हादसा क्यों न हो, कभी भी सब कुछ समाप्त नहीं होता। जो बचा है, उसी के सहारे नए पथ का निर्माण करना है। आड़ा वक़्त भी वक़्त के साथ बीत जाता है। तुम्हें स्त्रियों के लिए दोयम दर्जे की सामाजिक मनोवृत्ति से संघर्ष करना है; ज़िन्दगी की किताब के हाशिए पर ही नहीं रहना, बल्कि मूल पृष्ठों का विषय बनना है,’ कहकर प्रवीर कुमार उठ खड़ा हुआ।
जब प्रवीर कुमार कार में बैठने लगा तो शीतल ने उसका हाथ दबाते हुए धन्यवाद कहा।
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