प्रेम गली अति साँकरी - 151 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 151

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संस्थान में शनिवार/रविवार की दो दिनों की छुट्टियाँ थीं इसलिए काफ़ी शांत वातावरण था | अभी तक मैं और शीला दीदी ही केवल मंगला के बारे में जानते थे, हम रतनी से भी सब कुछ साझा किए बिना नहीं रहते थे लेकिन उसके पास आजकल फुर्सत ही नहीं थी अपने नए कॉस्टयूम से, अपने कारीगरों से, अपने नए डिज़ाइनों से| घर की व्यवस्था करके आती और समय होता तब कुछ देर कभी दो/पाँच मिनट दिखाई देती फिर चल पड़ती अपनी कार्यशाला में! इस बार रतनी को अम्मा के बिना पहली बार अपनी कला दिखाने का सुनहरा अवसर मिला था इसलिए उसे बहुत उत्साह था | वह एक-एक काम को बारीकी से कारीगरों को समझाती| जहाँ तक हो उनके साथ ही बैठती| 

मंगला के लिए कमरा तैयार करवा दिया गया था, उसके लिए रोज़ाना की आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्थता हो चुकी थी लेकिन अभी मैं उससे खुलकर कुछ नहीं कह पाई थी यानि समय ही नहीं मिल रहा था| मेरी और शीला दीदी की सलाह से यह तय हुआ था कि हम आराम से बैठकर एक दिन चर्चा करेंगे कि उसकी कैसे सहायता की जा सकती है? अभी रतनी को यह तो पता चल ही गया था कि अब मंगला यहीं रहने वाली है और वह बहुत खुश थी| मंगला जो कुछ भी हो, कितनी भी पीड़ा से भरी हुई क्यों न हो, वह अपने चेहरे पर हमेशा मुस्कान सजाए रखती। किसी की भी सहायता के लिए खड़ी हो जाती| 

“दीदी ! मैं यहाँ क्या कर सकूँगी ?मुझे भी तो कुछ काम दीजिएगा| ” उसने आने के दूसरे दिन ही कहा था और मैंने उससे कहा था कि इतना बड़ा संस्थान है, यहाँ काम भी मिल जाएगा| मैं चाहती थी कि वह मानसिक रूप से थोड़ी सी सहज हो सके तो कुछ भी काम कर लेगी| इसमें कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन क्योंकि कल ही उसकी वह दर्दनाक कहानी सुनी थी इसलिए मेरा मन अभी तक उद्वेलित था और बहुत सी बातों के अलावा मन में यह भी चल रहा था कि क्या कभी उसकी बेटी उसे मिल सकेगी?जबकि इस दर्दनाक घटना को भी काफ़ी समय बीत गया था| 

‘काश!काश !काश! उसकी बेटी किसी गलत हाथ में न पड़े, वह सुरक्षित हो---‘मेरा मन इसी में घूमता रहता और मैं अक्सर शीला दीदी के साथ अपने मन की बात साझा करती| 

“हम सब जानते हैं कि अब मंगला संस्थान में आ गई है तो यह कोशिश तो की ही जाएगी लेकिन आप इतनी परेशान मत हो जाया करिए| आप अपने आपको दूसरों की पीड़ाओं से इतना परेशान कर लेती हैं| सर भी कहते हैं न कि जो अपने हाथ में हो या जो हम कर सकें वह करें, परेशान होने से तो कोई समस्या हल नहीं हो सकती न ?” शीला दीदी कितनी अम्मा-पापा की भाषा बोलने लगी थीं| अच्छा लगता था उनके मुँह से सुनना। कोई अपना खैरख्वाह ही कहेगा, और किसी को भला क्या ज़रूरत?

मज़े की बात यह थी कि हम सब उस घटना को भूलकर अब अपने-अपने काम में आ लगे थे| उधर से पापा और भाई का सपोर्ट था, पापा बिलकुल चुस्त दुरुस्त दिखाई देते और भाई का एक ही कहना रहता कि मैं उत्पल को क्यों नहीं कॉन्टेक्ट कर पा रही थी?अब क्या बताती कि ‘दुनिया में और भी ग़म बहुत हैं मुहब्बत के सिवा’ लेकिन मेरे दिल की धड़कन और आवाज़, अहसास क्या इससे सचमुच बाबस्ता थे?

कैसे तलाशूँ उस बेमुरव्वत को जो सब कुछ बिलकुल ही भुला बैठा था? मैं जानती थी कि इसका कारण तो मैं ही थी लेकिन अब क्या करती जब चीजें हाथ से निकल गईं हों| घर में भाई, पापा के मन की बात जान-समझकर भी मैं अपने आपको अकेला पा रही थी| 

“दीदी ! क्या मैं किचन में जाकर कुछ कर सकती हूँ?”मंगला ने मुझसे पूछा था और मैंने कहा था कि क्यों नहीं लेकिन वह पहले अपने आपको थोड़ा स्वस्थ कर ले| वह अभी भी बहुत डरी हुई लग रही थी जैसे यहाँ से उसे कोई ज़बरदस्ती ले जाएगा| 

“मुझे बहुत डर है दीदी, कहीं वो लोग आपका कोई बड़ा नुकसान न कर दें| ”जब से वह संस्थान में आई थी उसने मुझे बाऊदी की जगह दीदी कहना शुरू कर दिया था| 

“आपको बुरा तो नहीं लगेगा मैं आपको दीदी कहने लगी हूँ ?”बड़ी सरलता से एक बच्ची की भाँति उसने मुझसे पूछा| 

“क्यों बुरा लगेगा?मैं यहाँ सबकी दीदी हूँ तो तुम्हारी भी---”मैंने कहा, वह खुश हो गई| ये ‘बाऊदी’तो एक जंजीर थी जो न जाने कैसे गले में लटक गई थी, गला घोंटने के लिए| 

“दीदी ! मैं आपके लिए सुबह कॉफ़ी और आपका न्यूजपेपर ला सकती हूँ?”एक और भोला सा प्रश्न उसकी आँखों में पसर गया| 

“यह तुम्हारे और महाराज के बीच की बात है| ”मैंने उससे कहा और हम दोनों कुछ खुलकर मुस्कुरा दिए| महाराज मंगला से इस बात से अधिक नाराज़ थे कि वह प्रमेश की दीदी के पास से आई थी जिनके कृत्यों से महाराज बहुत चिढ़े हुए थे| आखिर महाराज परिवार थे और वो दीदी नामक प्राणी सबको इतना बेवकूफ़ बनाने में लगा हुआ था इससे वकिफ़ और बेहद नाराज़ थे| महाराज उन्हें और प्रमेश को देखते ही चिढ़ जाते जबकि बेचारे फिर उनके लिए सब कुछ करते ही थे | 

अगले दिन मुझे पता चला कि मंगला ने महाराज को मेरा काम करने के लिए पटा लिया था और कई बार न-नुकुर करने के बाद महाराज ने उसे बताया था कि कितने बजे और कैसे मेरी कॉफ़ी कमरे में आती थी| 

”दीदी को डिस्टर्ब मत करना, अगर वो दो ‘नॉक’ में न उठें तो वापिस आ जाना| जब उन्हें ज़रूरत होगी वे अपने आप मँगवा लेंगी| ” महाराज अपने इंस्ट्रक्शनस कैसे न देते भला?उनकी किचन में एक नई घुसपैठ हो रही थी , वो भी किसी महिला की | 

“जी, महाराज भैया---”मंगला के प्यारे बोल सुनकर महाराज को उस पर लाड़ आ गया| बोले ;

“आज से मंगला मेरी छोटी बहन, पर बताया न कोई गलती मत करना—”उन्होंने उसे बड़े लाड़ से अपनी किचन में आने की इजाज़त दे दी थी| 

“जी, भैया---”मंगला छोटे बच्चे की तरह खुश हो गई थी | 

इस तरह महाराज और मंगला में दोस्ती बन गई और वह अब छोटे-मोटे कामों में भी महाराज का हाथ बटाने लगी और बहुत सी बातें उनसे सीखने लगी | महाराज भी उससे बहुत खुश थे और वे अपने हैल्पर के साथ उसे भी छोटे-मोटे काम बताने लगे थे जिन्हे वह खुशी-खुशी करती| 

यह सोमवार था और दो दिनों के बाद आज फिर से संस्थान का काम शुरू होने वाला था| अचानक मेरे कमरे पर नॉक हुई और मुझे ख्याल आ गया कि यह नॉक महाराज की नहीं थी क्योंकि उनके नॉक करने के तरीके से तो मैं बरसों से वकिफ़ थी | 

“अरे ! तुम ?तुमने महाराज को आखिर मना ही लिया---?”कमरे में मंगला को देखते ही मैंने आश्चर्य से पूछा| मेरी कॉफ़ी हमेशा महाराज और अगर उनका बेटा रमेश यहाँ हुआ तब वह लाया करता था और मुझसे खूब बातें करता था| यहाँ तक कि जब महाराज का परिवार यहाँ आता तब भी मेरा यह काम तो महाराज खुद ही करते थे| जब तक मेरी कॉफ़ी और अखबार न पहुंचा देते, उन्हें चैन ही न पड़ता| 

“बहुत अच्छे हैं यहाँ सब लोग दीदी, महाराज कितने प्यार से मुझे सिखाते हैं—” मंगला के चेहरे पर से अब घबराहट थोड़ी सी कम होने लगी थी और वह सहज होने की कोशिश कर रही थी | 

“तुम भी तो अच्छी हो मंगला, आओ बैठो---“ मैंने कुर्सी की तरफ़ इशारा करके कहा और वॉशरूम की तरफ़ बढ़ गई| ”

जब मैं वापिस आई तब मंगला की आँखों से आँसु बह रहे थे| 

“अब क्या हुआ मंगला?” मुझे लगा कि मैंने ऐसी तो कोई बात की नहीं थी कि इसको चुभती| 

“दीदी! शायद आज पहली बार किसी ने मुझे छोटी बहन कहा है “। महाराज से हुए अपने संवाद उसने मुझे बताए और फिर बोली;

“मैं अच्छी होती तो क्या मेरी यह हालत होती और लोग मेरी इतनी बेइज्जती कर सकते थे?”

“सब लोग एकसे नहीं होते मंगला और जो तुम हो उसके लिए तुम जिम्मेदार तो हो नहीं | ”मैंने उसे प्यार से समझाया|